श्री हनुमान कठोर सेवक और धर्म के आदर्श,Shree Hanumaan Kathor Sevak Aur Dharm Ke Aadarsh

श्री हनुमान कठोर सेवक और धर्म के आदर्श 

स्वयं भगवान् शंकर अपने प्रियतम आराध्यदेव भगवान् श्री राम चन्द्रजी की सेवाके लिये अवतार लेना चाहते हैं, स्वाभाविक ही यह प्रश्न उठा कि सेवा-धर्मका निष्ठापूर्वक अनुष्ठान करनेके लिये कौन-सा शरीर उपयोगी रहेगा? श्रीरामचन्द्र नर-रूपसे प्रकट हो रहे हैं। यदि सेवक भी उन्हींक समान नर होकर प्रकट हो तो जाति, आकार, गुण, धर्म, खान-पान, रहन-सहनमें समानता करनी पड़ेगी। यह सेवा-धर्मके विपरीत है। ऐसा विचार करके शंकरने वानरका शरीर ग्रहण किया। वानरको पकी हुई रसोई या हिंसाजन्य भोजनकी आवश्यकता नहीं पड़ती। उसे घरको आवश्यकता नहीं। बिस्तर, शृङ्गार-प्रसाधन आदि अपेक्षित नहीं। कहीं भी कैसे भी काम चल सकता है। हिरण्यगर्भ की समता उनके अनुरागरञ्जित शरीरमें प्रकट है। सदाशिव एवं महाविष्णु का अनुग्रह है। रुद्रकी संहार-शक्ति है। प्राणवायुका बल है। केसरीकी वीतरागता है। अञ्जनाकी बुद्धि है। इस प्रकार सेवा-धर्मकी समग्रता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। सब देवताओंके वाहन होते हैं, परंतु मारुतनन्दन के लिये उसकी अपेक्षा नहीं है। उनकी सर्वत्र अप्रतिहतगति है। सेवा-धर्मकी पूर्णताके लिये यह सब अनिवार्य है।


न केवल श्रीरामभद्रकी सेवाके लिये ही किंतु श्रीरामभक्तोंकी सेवाके लिये भी वे सर्वत्र, सर्वदा एवं सर्वथा तत्पर रहते हैं। सीता, लक्ष्मण, भरत, विभीषण, सुग्रीव, वानर-भालू और वर्तमान कालके अयोग्य भक्तोतककी सेवा उनके द्वारा सम्पन्न होती रहती है। किसी भी स्तरके भक्तकी सेवा करनेमें उन्हें कोई संकोच नहीं है। इतना ही नहीं, निम्न-से-निम्न कोटिके भक्तोंको उनसे सेवा लेनेमें किसी प्रकारका संकोच न हो, मानो इसी कारण वे वानर-शरीरसे प्रकट होते हैं। लोक-व्यवहारमें ऐसा देखा जाता है कि अन्याय मार्गपर चलनेवाले बेईमान, चोर, लुटेरे भी उनकी शरण ग्रहण करके और उन्हें 'जय सियाराम !' सुनाकर लाभ उठाना चाहते हैं और उठाते हैं। हनुमानजीका शरीर प्रापञ्चिक अथवा भौतिक नहीं है। अनाहत ब्रह्मध्वनिरूप 'राम-राम' के स्पन्दनसे उनका एक-एक क्षण, एक-एक कण एवं मनका एक-एक संकल्प अनुप्राणित है। श्रीरामकी ही सेवात्मक अभिव्यक्ति हैं- अञ्जनानन्दन । प्रत्यक्षरूप से की गयी सेवा सबकी पहचान में आती है

परंतु भक्तका सूक्ष्म दृष्टिकोण परोक्ष-रूप से भगवान्‌ की सेवा करता है। इसका रहस्य यह है कि जबतक सेवक अपनेमे अज्ञान और न्यूनताका भाव धारण नहीं करेगा, तबतक वह अपने स्वामीके ज्ञान और पूर्णताको विश्वविश्रुत बनानेकी सेवा नहीं कर सकता। इसके लिये आप वाल्मीकिरामायणके दो प्रसङ्गोंपर ध्यान दीजिये। मारुति मौन सेवक हैं। उनमें 'रुति' शब्दका अभाव ही है। ऐसा भी कह सकते हैं कि उनकी 'रुति' में मा-प्रभा (यथार्थ अनुभव) भरपूर है। उनकी रुति- वाणी भी सीताकी वाणी है। उनकी वाणीमें परा-पश्यन्तीका सौन्दर्य वैखरीमें भी उतरता है। किष्किन्धाकाण्डके प्रारम्भमें भगवान् श्रीरामचन्द्रने स्वयं उनके वाक्यविन्यासको भूरि-भूरि प्रशंसा की है। वे एक आचार्यके समान लंकामें प्रवेश करते हैं। समुद्र उनकी यात्रामें व्यवधान नहीं। उन्हें विश्रामकी आवश्यकता नहीं। माया-छायाका विन प्रभावित नहीं कर सकता, स्वर्णलंका प्रलोभित नहीं कर सकती।

विवेकके समान वे शान्तिमयी सीताको ढूँढ़ निकालते हैं और मानो प्रबल वैराग्यानिके द्वारा स्वर्ण-लंकाको भस्म कर देते हैं। यह सेवा है। सब प्रत्यक्ष एवं भावगर्भित परोक्षरूपसे भगवान्‌कीउन की सेवामयी दृष्टि उस समय पराकाष्ठापर पहुँच जाती है, जब वे सीता मातासे प्रार्थना करते हैं कि 'आप हमारी पीठपर बैठ जाइये, मैं अभी आपको श्रीरामके पास ले चलता हूँ। आपका विरह-दुःख कुछ क्षणोंमें ही मिट जायगा।' इसके उत्तरमें श्रीजनकनन्दिनी सीताके जो प्रखर पातिव्रत्यके उद्‌गार है, वे अत्यन्त मर्मस्पर्शी है। रामायण-निर्माणके सम्पूर्ण प्रयोजनका दर्शन वहीं होता है। श्रीजानकीजी कहती हैं कि 'मैंने अपने जीवनमें जान-बूझकर कभी परपुरुष का स्पर्श नहीं किया है। रावणने बलात् मुझे पकड़कर रथपर बैठाया यह सही है। परंतु उस समय मैं विवश थी। तुम मेरे पुत्र हो तो क्या हुआ, मैं जान-बूझकर तुम्हारा भी स्पर्श नहीं कर सकती। जब मेरे स्वामी समुद्र पार करके आयेंगे, शत्रुओंपर विजय प्राप्त करेंगे और अपने पौरुषसे मुझे ले जायेंगे, तब उनका यश बढ़ेगा। चोरीसे भागकर जानेमें उनकी क्या कीर्ति बढ़ेगी ?'

सारा रामायण श्रीसीताजीका उदार एवं उदात्त महनीय चरित्र है। यदि हनुमानजी ऐसे प्रसङ्गमें अपनी चञ्चलता अथवा अपने उथले विचार प्रकट न करते तो सीताजीके अमर वचन एवं प्रेमोद्‌गार उन्हें कैसे मिल सकते थे। आप सूक्ष्मता से देखें, इस वचनके द्वारा जनताके हृदयमें जननीके प्रति सद्भावकी कैसे निरतिशय प्रतिष्ठा जमी है और भगवान् श्रीरामचन्द्रके प्रेमाकुल हृदयको कैसा निरुत्तर शान्तिदायी आश्वासन प्राप्त हुआ है, जो किसी दूसरे प्रकारसे प्राप्त नहीं हो सकता था। सच है, सीता-राम दोनोंकी ऐसी सेवा हनुमानजीके अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता था।
अब दूसरा प्रसङ्ग देखें। श्रीसीताजीके हृदयमें कितनी करुणामयी उदात्त एवं उदार वृत्ति है, भगवान् श्रीरामके प्रति कितना अगाध एवं अबाध प्रेम-रत्नाकर छलक रहा है, यह श्रीहनुमानजीके कारण ही अभिव्यञ्जना प्राप्त कर सका है। लंकाविजयके पश्चात् श्रीरामचन्द्रके शुभ संदेश लेकर केसरीकिशोर अशोक-वनमें जाते हैं।

वहाँ वे एक ऐसी भूमिका या अभिनय प्रकट करते हैं, जो सचमुच उनके स्वरूपके अनुरूप नहीं है। वे कहते हैं- 'माँ! आप आज्ञा दें तो आपको सतानेवाली इन निशाचरियों को इनके कियेका फल चरता दूँ रौद दूँ, घसीट दूँ, नोच दूँ, मार डालूँ। केवल आपके संकेतभरका विलम्ब है।' निश्चय ही हनुमानजी के ये वचन श्रीसीताजीके हृदयको निवारणरूपसे प्रकट होनेका अवसर देनेके लिये ही हैं। श्रीजानकी माताके हृदय का यह तात्कालिक अवतार विश्वमानवके लिये प्रेरणाका शाश्वत स्त्रोत रहेगा, इसमें संदेह नहीं। वे कहती है- "हनुमान । संसारमें ऐसा कौन प्राणी है, जिसने कभी-न-कभी कोई अपराध न किया हो। सभी अपराधी है- 'न कश्चिन्नापराध्यति ।' मैंने भी लक्ष्मणके प्रति अपराध किया है, तुमने भी लंकाके निरपराध बालक-बालिकाओंको पीड़ा पहुँचायी है। आर्य पुरुषका कार्य दण्ड देना नहीं है, करुणा
करना है- 'कार्य कारुण्यमार्येण ।' करुणामें पापी-पुण्यात्माका एवं शुभ-अशुभका विचार नहीं होता। तुम जो कुछ करनेके लिये कह रहे हो, उससे क्या श्रीरामचन्द्रजी या उनके भक्तोंका यश बढ़ेगा ?' श्रीजानकीजीके वचनोंपर आप ध्यान दें। ये करुणा-समुद्रकी छलकती हुई लहरें तो हैं ही, भक्तोंके लिये एक मार्ग-निर्देश भी है।

उन्हें अपने कर्तव्यका निश्चय करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उससे श्रीरामका और उनके भक्तोंका यश बढ़े। यदि उनके कर्तव्य-निश्वय में यह दृष्टि नहीं है तो उनके भक्तिभावकी अपूर्णता ही माननी पड़ेगी। सौन्दर्य की दृष्टिसे जब हम हनुमानजीको देखते हैं तो वे शिवस्वरूप है, हृष्ट-पुष्ट एवं बलिष्ठ है, परंतु आकृतिकी दृष्टि से देखें तो लोमश शरीर, हाथ-पाँव टेढ़े, चिबुक भी टेढ़ा, रूपमें लंका दहनका प्रभाव। उनके प्रत्येक क्रिया-कलापसे श्रीरामका ही महत्त्व प्रकट होता है। वे किसीको अपना भक्त बनाकर श्रीरामका भक्त बनाते हैं। शृङ्गार-रसकी सेवा में दासीको भले ही सौन्दर्य-माधुर्यकी अपेक्षा हो, परंतु दास्य-रसकी सेवामें स्वशरीरके लिये सेवोपयोगी प्रसाधनकी ही अपेक्षा होती है, अधिक नहीं। उनका ब्रहाचर्य भगवान् श्रीरामचन्द्रके लिये कितना सेवोपयिक है- यह थोड़े ही विचारसे ज्ञात हो जायगा। सीताजीके प्रति प्रेमसंदेशका आदान-प्रदान, रावणके अन्तःपुरमें प्रवेश और अवधधामके राजमहलमें अनवरत सेवाका अवसर अखण्ड ब्रह्मचर्यके बिना कैसे प्राप्त हो सकता है। प्रीतिपूर्ण दास्य अथवा प्रेमानुभावरूप सेवामें अपनी जाति का उत्कर्ष बाधक हो जाता है।

भगवान् श्री रामचन्द्र को सेवाकी आवश्यकता हो और सेवक अपने व्यक्तिगत कर्तव्योंके पालनमें संलग्न हो, स्नान, संध्यावंदन, नित्यकर्म आदिमें मग्न हो, उसकी ऊँची जातिका अभिमान छोटी-मोटी सेवा करनेमें विघ्न करता हो तो यह सेवकका दुर्भाग्य ही समझना चाहिये। अपने खान-पानके लिये पृथक् व्यवस्था करनी पड़ती हो, यदृच्छया प्राप्त फल-फूल-मूल आदिसे काम न चल जाता हो तो निश्चय ही प्रेमरसकी सेवाधाराके अकुण्ठ प्रवाहमें प्रतिबन्ध आ जायगा। अतएव सेवा-धर्म केवल अनन्य सेवाके लिये होता है, उसमें स्वसेवा नहीं होती, अन्यसेवा भी नहीं होती। स्वामीकी सेवामें जो सहायक सेवा होती है, वह भले ही अपनी हो या परायी, सेवकको स्वीकार है। इसके अतिरिक्त नहीं। श्रीहनुमानजीने उत्कृष्ट जातिके समाश्रयण का परित्याग करके इस भावको स्पष्ट कर दिया। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि बाल्यावस्था में हनुमान जी का बल अप्रतिभट था। कोई उनके क्रिया-कलाप में बाधा नहीं डाल सकता था। चाञ्चल्य जातिसिद्ध था। सूर्यतकको निगल जानेका प्रयास किया।

ऋषियोंके लिये आवश्यक फल-मूलदायक वनवृक्ष का विध्वंस किया। ऋषियोंने शाप दिया- 'तुम्हें अपने बलका विस्मरण हो जाय।' यह शाप नहीं, ज्ञानदान है। इसके कारण अपनी सगुणता और सब्बलता बाधित हो गयी। उपाधिमूलक बलका तिरस्कार हो गया। वे इतने बलिष्ठ होनेपर भी सामान्य वानर के समान रहने लगे। सेवकका बल स्वामीकी सेवाके लिये प्रकट होनेपर ही सार्थक होता है। जब समुद्र-लङ्घनकी आवश्यकता पड़ी, जाम्बवान्ने बलका स्मरण करा दिया, बस क्या था। बात-की-बातमें काम पूरा हो गया। श्रीहनुमानजीके मनमें जाम्बवान्‌के द्वारा उद्वेलित बलमें भी 'यह मेरा बल है'- ऐसी अभिमति नहीं हुई। उनकी दृष्टिमें सब बल स्वामीका बल है, परमेश्वरका बल है। वे न केवल अपने बल-प्रकाशको प्रत्युत रावणादिके बलप्रकाशको भी भगवान्‌का ही बल समझते हैं। गोस्वामीजीने रावणके सम्मुख 'जाके बल लवलेस ते' और भगवान् श्रीरामके सम्मुख 'तव प्रताप बल नाथ' कहकर इसी भावकी अभिव्यञ्जना की है। उनकी अबाधमयी दृष्टिमें अपना आत्मा निर्बल और निर्गुण ही है। विशेषताएँ तो सब परमेश्वरके बलकी ही है।

भगवान् श्रीरामभद्रने मारुतिको क्या संदेश देकर सीताके पास भेजा था- यह किसीको ज्ञात नहीं था। यदि यह प्रकट कर दिया जाता कि हनुमानके द्वारा ही संदेश भेजा गया है तो दूसरे वानर अपने कार्यमें उदासीन हो जाते एवं अपनी अयोग्यताका मनन करके सैन्यसंग्रहमें भी उत्साहहीन हो जाते, परंतु अपने स्वामीके मन्त्रको, संदेशको गुप्त रखनेकी अद्भुत क्षमता महावीरमें देखी गयी। साथ ही स्मृति ऐसी कि करुणानिधान रघुनन्दनका संदेश उन्हींक शब्दोंमें ज्यों-का-त्यों बोला गया- 'प्रेमका तत्त्व श्रीरामका मन ही जानता है और वह निरन्तर सीताके पास ही रहता है।' निश्चय ही सेवककी स्मरण शक्ति कैसी होनी चाहिये, इसका यह एक उत्तम आदर्श है।

सेवकको अपने स्वामीका कार्य सम्पन्न किये बिना स्वयं किसीकी सेवा स्वीकार नहीं करना चाहिये- यह मैनाकके प्रसङ्गमें स्पष्ट है। 'राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम।'- यह एक अमर वाणी है। नागमाताके मुखसे दुगुना अपने आकारको बनाते जाना और उसका मुँह अतिशय बड़ा हो जानेपर छोटे आकारसे उसमें प्रवेश करके निकल आना-यह बुद्धिकौशल है। स्वर्णलेकिनीके प्रलोभनमें निर्लोभ और उसके भय-प्रदर्शनमें निर्भय, यह सेवाका ही धर्मदर्शन है।

शत्रुकी नगरीमें प्रविष्ट होनेके बाद केवल आज्ञापालन करके लौट आना- इतना ही सेवाका कर्तव्य नहीं होता। अभीतक शत्रु असावधान है, उसके यत्त, मन्त्ल, तन्त्र गुन नहीं रखे गये है। हनुमानकी प्रतिभाने उस समय श्रीरामको विजयके लिये जितने मार्ग थे, सब प्रशस्त कर दिये। यन्त ध्वस्त कर दिये, ब्रह्मास्त्र आदिके मन्त्रज्ञान स्पष्ट हो गये, शासनतन्त्र भयभीत हो गया, सैनिकोंके हृदयमें खलबली मच गयी। श्रीरामका एक गुप्तचर इतना प्रभावशाली है तो वे और उनकी सेना कितनी सामर्थ्यशाली होगी? उसकी क्षमताके पारावारको कौन पार कर सकता है। शत्रुओंके हृदयमें इस भयका संचार कर देना बलबुद्धिनिधान पवननन्दनके ही वशकी बात थी। उनमें प्रतिभाके साथ शान्ति है, बुद्धिके साथ आज्ञापालन है, स्मृतिके साथ गोपन है, बलके साथ नियन्त्रण है, शारीरिक पुष्टिके साथ ब्रह्मचर्य है, साथ ही जीवनका एकमात्र उद्देश्य भगवान् श्रीरामचन्द्रकी सेवा है।श्री हनुमान जी में सदाशिवका अनुग्रह, हिरण्यगर्भकी सत्यसंकल्पता, विष्णुकी पालनी शक्ति, ब्रह्माकी समता, रुद्रकी संहारशक्ति एवं अहंकारसे मुक्त ब्रह्मभाव अत्यन्त स्फुट दृश्यमान है। इसीसे उनकी प्रत्येक क्रिया हितभावसे परिपूर्ण है।

स्वं कर्तव्यं किमपि कलयंल्लोक एष प्रयत्ना-न्नो पारार्थ्यं प्रति घटयते कांचन स्वात्मवृत्तिम् ।
यस्तु त्यक्ताखिलभवमलः प्राप्तसम्पूर्णबोधः कृत्यं तस्य स्फुटमिद‌मियल्लोककर्तव्यमात्रम् ॥

जो मनुष्य लोक-व्यवहारमें प्रयत्नपूर्वक अपनी स्वार्थपूर्तिक कर्तव्योंमें ही संलग्न रहता है, वह परोपकारके लिये अपनी शक्ति-वृत्तियोंका ठीक-ठीक उपयोग नहीं कर सकता। परंतु जिस सत्पुरुषने संसारके सम्पूर्ण मलोंका परित्याग कर दिया है और अपनी पूर्णताका बोध प्राप्त कर लिया है, उसके हृदयमें चित्स्वभाववश जो इच्छाका उदय होता है, वह केवल लोकोपकारकी दृष्टिसे जो कर्तव्य है, उन्हींक लिये होता है- यह अत्यन्त स्पष्ट है।

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