श्री हनुमान सदैव रक्षक और निष्ठावान् सेवक श्री हनुमान,Shree Hanumaan Sadaiv Rakshak Aur Nishthaavaan Sevak Shree Hanumaan

श्री हनुमान सदैव रक्षक और निष्ठावान् सेवक श्री हनुमान

श्री हनुमान सदैव रक्षक 

श्रीराम-भक्त हनुमानजीकी यह सत्योक्ति थी कि यदि स्वर्गमें भी सीता नहीं मिली तो मैं स्वयं त्रैलोक्यविजयी राक्षसराज रावणको ही बाँधकर ले आऊँगा-

यदि वा त्रिदिवे सीतां न द्रक्ष्यामि कृतश्रमः ।
बद्ध्वा राक्षसराजानमानष्यिामि रावणम् ।।

तभी तो स्वयं भगवान् श्रीरामने श्रीहनुमानजीका यशोगान किया है कि युद्धमें हनुमानजी जैसा पराक्रम यम, इन्द्र, विष्णु और कुबेर आदि लोकपालोंमें भी नहीं देखा जाता-

न कालस्य न शक्रस्य न विष्णोर्वित्तपस्व च ।
कर्माणि तानि श्रूयन्ते यानि युद्धे हनूमतः ।।

धर्म की रक्षा ऐसे ही महात्मा कर सकते हैं, जो स्वयं श्रीहनुमानकी तरह पराक्रमी एवं निष्काम हों। जिसमें समर्पण नहीं, त्याग और कर्तव्य-पूर्तिकी निष्ठा नहीं, वह सच्चा सेवक, सच्चा धर्मरक्षक नहीं हो सकता। गीतामें भगवान्‌ने आसक्तिरहित कर्म-साधनाको सिद्धि-सोपान माना है। श्रीहनुमानजी-जैसे पराक्रमी निष्काम सेवक न होते तो अवश्य ही श्रीरामके सत्पक्षको विजयश्री न मिलती। जाम्बवान्ने युद्धकाण्डमें ठीक ही कहा है- 'यदि हनुमान जीवित है तो हम सबके न रहनेपर भी भगवान् श्रीरामकी विजय निश्चित है।' सेवकके लिये उक्त निष्कामभावके अतिरिक्त जिन अन्य गुणों की अपेक्षा है, उनमें ब्रहाचर्य और सत्य मुख्य हैं।


'ब्रह्मचर्यका' अर्थ है- शारीरिक सप्त धातुओंका सार - 'शुक्र' नामक धातुका संरक्षण। 'सत्य' का अर्थ है-मन-वचन- कर्मकी एकता। हनुमानजी इन दोनोंके आदर्श हैं। उनका शरीर अखण्ड ब्रह्मचर्यके लिये प्रसिद्ध है, इसीलिये उन्हें शरीरसे 'बज्ञाङ्ग' कहा जाता है। उनके बलकी सीमा नहीं। सत्यके लिये हनुमानजीका चरित्र अद्वितीय है। वे जिन भगवान् श्रीरामकी वाणीसे बन्दना करते हैं, उन्हें हृदयसे भी उतना ही चाहते हैं। श्रीराम-भक्ति एवं सद्‌गुणोंके कारण श्री हनुमान जी का स्मरण अमोघ फलकारी है। लौकिक कायेंकि उपस्थित होनेपर कामना-पूर्तिके लिये भक्तको चाहिये कि श्रीरामसेवक श्रीहनुमानका स्मरण करे। सेवककी कामना-पूर्तिक लिये वे सदा उपस्थित रहते हैं। श्री हनुमान जी ने स्वयं कहा है- लौकिके समनुप्राप्ते मां स्मरेद् रामसेवकम्।'

निष्ठावान् सेवक श्रीहनुमान

भगवान्‌को सेवक अत्यन्त प्रिय होता है। उन्होंने स्वयं कहा है-

समदरसी मोहि कह सब कोऊ।
सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ।।

भगवान् शंकर इस रहस्यको जानते हैं, इसीलिये उन्होंने स्वयं हनुमानजी के रूप में अवतरित होकर भगवान् श्रीरामजी की सेवा कर दास्य-भक्तिका अत्यन्त भव्य एवं अनुपम आदर्श प्रस्तुत किया।

  • अनन्य निष्ठा

सेवक को अपने प्रभुकी कृपाका ही अवलम्ब रहता है, उस कृपाके आश्रय में ही वह अपने सब कार्योंका सम्पादन करता है और प्रभुकी कृपाकी ओर ही निहारता रहता है। प्रभु-कृपाका आश्रय ही अनन्य निष्ठाका परिचायक है।
हनुमानजीकी अनन्य निष्ठा उत्तरोत्तर बढ़ती है, वे विश्वके, ब्रह्माण्डके कण-कणमें अपने प्रभुको विराजमान देखते हैं। एक बार विधुके निर्मल प्रकाशमें विभीषण, सुग्रीव, अङ्गद, नील, नल, हनुमानजी आदिके साथ भगवान् श्रीराम सुबेलपर्वतके शिखरपर विराजमान थे। उन्होंने सबसे पूछा- 'चन्द्रमामें यह श्यामता कैसी है ?' सभी लोगोंने अपने-अपने विचार प्रकट किये। अन्तमें हनुमानजीने कहा-

कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास । 
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास ।।

प्रभो! सुनिये, चन्द्रमा आपका प्रिय दास है। आपकी सुन्दर श्याम मूर्ति चन्द्रमाके हृदयमें बसती है, वहीं श्यामता की झलक उसमें है।' हनुमानजीका यह उत्तर उनके हृदयको निष्ठाका परिचायक है। हनुमानजीके हृदयमें सदैव उनके प्रभु श्रीरामजी विराजमान है। इसका प्रमाण उन्होंने मणि-विदारणके समय अपना हृदय चौरकर सबको दिखा दिया था। उन्हें भीतर-बाहर सर्वत्र वे ही दीखते हैं।

  • सेवा 

अनन्य निष्ठाकी तरह सेवा-भावका भी हनुमानजीके जीवनमें पूर्ण विकास है। अनन्य वही है, जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि 'मैं सेवक हूँ और चराचर (जड-चेतन) जगत् मेरे स्वामी भगवान्‌का रूप है।' हनुमानजीका यही लक्षण अपने प्रभु श्रीरामजीसे प्रथम भेटमें दिखायी देता है-

सो अनन्य जाके असि मति न टरइ हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ॥

दासको गति अपने स्वामी को छोड़ कर दूसरी ओर होती ही नहीं और उसके चिन्तनका विषय होता है एकमात्र अपने प्रभुकी सेवा। दासके हृदयमें नित्यनिरन्तर अपने स्वामीकी सेवाके लिये व्याकुलता बनी रहती है। अपने प्रभुको पहचानते ही हनुमानजी उनकी सेवामें तत्पर हो गये। प्रभुका वियोग-दुःख उनसे देखा नहीं गया और माता जानकी  की खोज की उन्हें चिन्ता हो गयी। उन्होंने तुरंत निवेदन किया- 'नाथ ! इस पर्वतपर वानरराज सुग्रीव रहते हैं, वे आपके दास हैं। प्रभो। उनसे मित्रता कीजिये और उन्हें दीन जानकर निर्भय कर दीजिये। वे सीताजीकी खोजें करायेंगे और जहाँ-तहाँ करोड़ों वानरोंको भेजेंगे।' इस प्रकार सब बातें समझाकर हनुमानजी अवसरसे चूकनेवाले नहीं थे, वे अपने आराध्यको पैदल कैसे ले चलते ? तुरंत दोनों भाइयोंको कंधोंपर चढ़ा लिया और सुग्रीवके पास ले गये। स्वामीकी प्रसन्नता एवं संतोष ही सेवककी निधि होती है। 
हनुमान जी को तो सेवा करनेमें विलक्षण रस मिलता है, जिसे प्राप्तकर वे प्रतिक्षण आनन्दित होते रहते हैं। वे तो सेवा करते ही हैं अपने सुखके लिये। वे सेवाको ही अपना परम स्वार्थ समझते हैं, उन्हें तो सेवा करनेमें पग-पगपर आनन्द मिलता है। अपने स्वामीको सुख पहुँचानेके लिये अपने ऊपर आनेवाले किसी भी भयानक-से-भयानक कष्टकी उन्हें परवा नहीं थी। अपितु वे प्रभुके कार्यमें आये कष्टको विपत्तिको परम सुख मानकर बरण कर लेते हैं, सिर चढ़ाते हैं, हृदयसे लगाते हैं। एक विलक्षण गुण हनुमानजीमें यह भी है कि वे स्वयं ज्ञानिनामग्रगण्य, विद्या-विशारद, संगीत-नृत्य आदि कलाओंमें निपुण, अतुलित बलशाली एवं सर्वगुणसम्पन्न होकर भी अपने प्रभुकी छोटी-से-छोटी सेवा भी करनेको सदैव तैयार रहते हैं। प्रभुके सभी कार्यों में पूर्ण सफलता प्राप्त करके भी उनके हृदय में सदैव यही भाव रहता है- 

सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कडू मोरि प्रभुताई ॥
निष्ठावान् सेवकोंके लिये तो हनुमानजी परम आदर्श है ही। 

उनका स्मरण सभीके लिये परम मङ्गलमय है।

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