श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें और चौदहवें अध्यायों का महत्त्व,Shreemadbhagavadgeeta Ke Terahaven Aur Chaudahaven Adhyaayon Ka Mahattv
श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें और चौदहवें अध्यायों का महत्त्व
श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्यायों का महत्त्व
श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! अब तेरहवें अध्याय की अगाध महिमा का वर्णन सुनो। उसको सुननेसे तुम बहुत प्रसन्न होओगी। दक्षिण दिशामें तुङ्गभद्रा नामकी एक बहुत बड़ी नदी है। उसके किनारे हरिहरपुर नामक रमणीय नगर बसा हुआ है। वहाँ साक्षात् भगवान् हरिहर विराजमान है, जिनके दर्शनमात्रसे परम कल्याणकी प्राप्ति होती है। हरिहरपुरमें हरिदीक्षित नामक एक श्रोत्रिय ब्राह्मण रहते थे, जो तपस्या और स्वाध्यायमें संलग्न तथा वेदोंके पारगामी विद्वान् थे। उनके एक स्त्री थी, जिसे लोग दुराचारा कहकर पुकारते थे। इस नामके अनुसार ही उसके कर्म भी थे। वह सदा पतिको कुवाच्य कहती थी। उसने कभी भी उनके साथ शयन नहीं किया। पतिसेसम्बन्ध रखनेवाले जितने लोग घरपर आते, उन सबको डाँट बताती और स्वयं कामोन्मत्त होकर निरन्तर व्यभिचारियोंके साथ रमण किया करती थी। एक दिन नगरको इधर-उधर आते-जाते हुए पुरवासियोंसे भरा देख उसने निर्जन एवं दुर्गम वनमें अपने लिये सङ्केतस्थान बना लिया। एक समय रातमें किसी कामीको न पाकर वह घरके किवाड़ खोल नगरसे बाहर सङ्केतस्थानपर चली गयी। उस समय उसका चित्त कामसे मोहित हो रहा था।
वह एक-एक कुंजमें तथा प्रत्येक वृक्षके नीचे जा-जाकर किसी प्रियतमकी खोज करने लगी; किन्तु उन सभी स्थानोंपर उसका परिश्रम व्यर्थ गया। उसे प्रियतमका दर्शन नहीं हुआ। तब वह उस वनमें नाना कहकर विलाप करने लगी। चारों दिशाओंमें घूम घूमकर वियोगजनित विलाप करती हुई उस स्त्रीकी आवाज सुनकर कोई सोया हुआ व्याघ्न जाग उठा और उछलकर उस स्थानपर पहुँचा, जहाँ वह रो रही थी। उधर वह भी उसे आते देख किसी प्रेमीकी आशङ्कासे उसके सामने खड़ी होनेके लिये ओटसे बाहर निकल आयी। उस समय व्याघ्रने आकर उसे नखरूपी बाणोंके प्रहारसे पृथ्वीपर गिरा दिया। इस अवस्थामें भी वह कठोर वाणीमें चिल्लाती हुई पूछ बैठी- 'अरे बाघ ! तू किसलिये मुझे मारनेको यहाँ आया है? पहले इन सारी बातोंको बता दे, फिर मुझे मारना।'उसकी यह बात सुनकर प्रचण्ड पराक्रमी व्याघ्र क्षणभरके लिये उसे अपना आस बनानेसे रुक गया और हँसता हुआ-सा बोला- 'दक्षिण देशमें मलापहा नामक एक नदी है। उसके तटपर मुनिपर्णा नगरी बसी हुई है।
वहाँ पञ्चलिङ्ग नामसे प्रसिद्ध साक्षात् भगवान् शङ्कर निवास करते हैं। उसी नगरीमें मैं ब्राह्मणकुमार होकर रहता था। नदीके किनारे अकेला बैठा रहता और जो यज्ञके अधिकारी नहीं हैं, उन लोगोंसे भी यज्ञ कराकर उनका अन्न खाया करता था। इतना ही नहीं, धनके लोभसे मैं सदा अपने वेदपाठके फलको भी बेचा करता था। मेरा लोभ यहाँतक बढ़ गया था कि अन्य भिक्षुओंको गालियाँ देकर हटा देता और स्वयं दूसरोंका नहीं देने योग्य धन भी बिना दिये ही हमेशा ले लिया करता था। ऋण लेनेके बहाने मैं सब लोगोंको छला करता था। तदनन्तर कुछ काल व्यतीत होनेपर मैं बूढ़ा हुआ। मेरे बाल सफेद हो गये। आँखोंसे सूझता न था और मुँहके सारे दाँत गिर गये। इतनेपर भी मेरी दान लेनेकी आदत नहीं छूटी। पर्व आनेपर प्रतिग्रहके लोभसे मैं हाथमें कुश लिये तीर्थके समीप चला जाया करता था। तत्पश्चात् जब मेरे सारे अङ्ग शिथिल हो गये, तब एक बार मैं कुछ धूर्त ब्राह्मणोंके घरपर माँगने-खानेके लिये गया। उसी समय मेरे पैरमें कुत्तेने काट लिया। तब मैं मूर्च्छित होकर क्षणभरमें पृथ्वीपर गिर पड़ा।
मेरे प्राण निकल गये। उसके बाद मैं इसी व्याघ्रयोनिमें उत्पन्न हुआ। तबसे इस दुर्गम वनमें रहता हूँ तथा अपने पूर्व पापोंको याद करके कभी धर्मिष्ठ महात्मा, यति, साधु पुरुष तथा सती स्त्रियोंको मैं नहीं खाता। पापी, दुराचारी तथा कुलटा स्त्रियोंको ही मैं अपना भक्ष्य बनाता हूँ; अतः कुल्टा होनेके कारण तू अवश्य ही मेरा ग्रास बनेगी।' यों कहकर वह अपने कठोर नखोंसे उसके शरीरके टुकड़े-टुकड़े करके खा गया। इसके बाद यमराजके दूत उस पापिनीको संयमनीपुरीमें ले गये। वहाँ यमराजकी आज्ञासे उन्होंने अनेकों बार उसे विष्ठा, मूत्र और रक्तसे भरे हुए भयानक कुण्डोंमें गिराया। करोड़ों कल्पोंतक उसमें रखनेके बाद उसे वहाँसे ले आकर सौ मन्वन्तरों- तक रौरव नरकमें रखा। फिर चारों ओर मुँह करके दीनभावसे रोती हुई उस पापिनीको वहाँसे खींचकर दहनानन नामक नरकमें गिराया। उस समय उसके केश खुले हुए थे और शरीर भयानक दिखायी देता था। इस प्रकार घोर नरक-यातना भोग चुकनेपर वह महापापिनी इस लोकमें आकर चाण्डाल योनिमें उत्पन्न हुई।
चाण्डालके घरमें भी प्रतिदिन बढ़ती हुई वह पूर्वजन्मके अभ्याससे पूर्ववत् पापोंमें प्रवृत्त रही। फिर उसे कोढ़ और राजयक्ष्माका रोग हो गया। नेत्रोंमें पीड़ा होने लगी। फिर कुछ कालके पश्चात् वह पुनः अपने निवासस्थानको गयी, जहाँ भगवान् शिवके अन्तःपुरकी स्वामिनी जम्भकादेवी विराजमान हैं। वहाँ उसने वासुदेव नामक एक पवित्र ब्राह्मणका दर्शन किया, जो निरन्तर गीताके तेरहवें अध्यायका पाठ करता रहता था। उसके मुखसे गीताका पाठ सुनते ही वह चाण्डाल-शरीरसे मुक्त हो गयी और दिव्य देह धारण करके स्वर्गलोकमें चली गयी।
श्रीमद्भगवद्गीता के चौदहवें अध्यायों का महत्त्व
श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! अब मैं भव-बन्धनसे छुटकारा पानेके साधनभूत चौदहवें अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो। सिंहल द्वीपमें विक्रम बेताल नामक एक राजा थे, जो सिंहके समान पराक्रमी और कलाओंके भंडार थे। एक दिन वे शिकार खेलनेके लिये उत्सुक होकर राजकुमारों- सहित दो कुतियोंको साथ लिये वनमें गये।
वहाँ पहुँचनेपर उन्होंने तीव्र गतिसे भागते हुए खरगोशके पीछे अपनी कुतिया छोड़ दी। उस समय सब प्राणियोंके देखते-देखते खरगोश इस प्रकार भागने लगा मानो कहीं उड़ गया हो। दौड़ते-दौड़ते बहुत थक जानेके कारण वह एक बड़ी खंदकमें गिर पड़ा। गिरनेपर भी वह कुतियाके हाथ नहीं आया और उस स्थानपर जा पहुँचा, जहाँका वातावरण बहुत ही शान्त था। वहाँ हरिन निर्भय होकर सब ओर वृक्षोंकी छायामें बैठे रहते थे। बंदर भी अपने-आप टूटकर गिरे हुए नारियलके फलों और पके हुए आमोंसे पूर्ण तृप्त रहते थे। वहाँ सिंह हाथीके बच्चोंके साथ खेलते और साँप निडर होकर मोरकी पाँखोंमें घुस जाते थे। उस स्थानपर एक आश्रमके भीतर वत्स नामक मुनि रहते थे, जो जितेन्द्रिय एवं शान्तभावसे निरन्तर गीताके चौदहवें अध्यायका पाठ किया करते थे। आश्रमके पास ही वत्स मुनिके किसी शिष्यने अपना पैर धोया था। उसके जलसे वहाँकी मिट्टी गीली हो गयी थी। खरगोशका जीवन कुछ शेष था। वह हाँफता हुआ आकर उसी कीचड़में गिर पड़ा।
उसके स्पर्शमात्रसे ही खरगोश संसार-सागरके पार हो गया और दिव्य विमानपर बैठकर स्वर्गलोकको चला गया। फिर कुतिया भी उसका पीछा करती हुई आयी। वहाँ उसके शरीरमें भी कुछ कीचड़के छींटे लग गये। फिर भूख-प्यासकी पीड़ासे रहित हो कुतियाका रूप त्यागकर उसने दिव्याङ्गनाका रमणीय रूप धारण कर लिया तथा गन्धर्वै से सुशोभित दिव्य विमानपर आरूढ़ हो वह भी स्वर्गलोकको चली गयी। यह देख मुनिके मेधावी शिष्य स्वकन्धर हँसने लगे। उन दोनोंके पूर्वजन्मके वैरका कारण सोचकर उन्हें बड़ा विस्मय हुआ था। उस समय राजाके नेत्र भी आश्चर्यसे चकित हो उठे। उन्होंने बड़ी भक्तिके साथ प्रणाम करके पूछा- 'विप्रवर ! ये नीच योनिमें पड़े हुए दोनों प्राणी- कुतिया और खरगोश ज्ञानहीन होते हुए भी जो स्वर्गमें चले गये- इसका क्या कारण है? इसकी कथा सुनाइये। शिष्यने कहा- भूपाल ! इस वनमें वत्स नामक ब्राह्मण रहते हैं
वे' बड़े जितेन्द्रिय महात्मा है; गीताके चौदहवें अध्याय का सदा जप किया करते हैं। मैं उन्हींका शिष्य हूँ, मैंने भी ब्रह्मविद्यामें विशेषज्ञता प्राप्त की है। गुरुजीकी ही भाँति मैं भी चौदहवें अध्यायका प्रतिदिन जप करता हूँ। मेरे पैर धोनेके जलमें लोटनेके कारण यह खरगोश कुतियाके साथ ही स्वर्गलोकको प्राप्त हुआ है। अब मैं अपने हँसनेका कारण बताता हूँ। महाराष्ट्रमें प्रत्युदक नामक महान् नगर है; वहाँ केशव नामका एक ब्राह्मण रहता था, जो कपटी मनुष्योंमें अग्रगण्य था। उसकी स्त्रीका नाम विलोभना था। वह स्वच्छन्द विहार करनेवाली थी। इससे क्रोधमें आकर जन्मभरके वैरको याद करके ब्राह्मणने अपनी स्त्रीका वध कर डाला और उसी पापसे उसको खरगोशकी योनिमें जन्म मिला। ब्राह्मणी भी अपने पापके कारण कुतिया हुई। श्रीमहादेवजी कहते हैं- यह सारी कथा सुनकर श्रद्धालु राजाने गीताके चौदहवें अध्यायका पाठ आरम्भ कर दिया। इससे उन्हें परमगतिकी प्राप्ति हुई।
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