श्री हनुमान जी और 'ॐ' कार - एक ही तत्त्व,Shri Hanuman ji and 'Om' car - Ek Hee Tattv

श्री हनुमान जी और 'ॐ' कार - एक ही तत्त्व

देवताओं में परोक्ष-वृत्तिद्वारा ही मानव या कोई साधारण जीव दिव्य एवं सात्त्विक सम्पत्ति प्राप्त कर सकता है।

सिद्धान्त है कि 'परोक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः। 
यत्परोक्षत्रियो देवो भगवान् विश्वभावनः ।'
 

जिस प्रकार निराकार ब्रह्मका वाचक साकाररूपके व्याज से 'ॐ'कार है, उसी प्रकार श्रीहनुमानजी निज नामकी परोक्षवृत्तिद्वारा ब्रह्मा-विष्णु-शिवात्मक 'ॐ'कारके प्रतीक हैं। सम्भवतः श्रीतुलसीदासजीने इस गूढ़भावको ही हृदयमें रखकर 'अंजनिपुत्र पवनसुत नामा' - यह स्तुति-विशेषण कहा हो। पुत्र पिताकी आत्मा है- 'आत्मा वै जायते पुत्रः' तो पवनसुत पवनसे भिन्न नहीं और पवन प्राण-संज्ञावान् वायुसे अभिन्न है तो 'ॐ' प्राणसे भिन्न नहीं; क्योंकि प्राणोपासना समफला है। 'आगाता स वै कामानां भवति य एतदेवं विद्वानक्षरमुद्गीथमुपास्त इत्यध्यात्मम्।' उद्गीथ ॐकार ही है। में - 'न ओंकारस्य कर्माङ्गत्त्वमात्रविज्ञानमेव' से उपक्रम कर 'प्रकृतस्य उद्गीथस्य उद्गीथाख्यस्याक्षरस्याथ व्याख्यानं भवति' तकका पाठ ॐकारकी उद्गीथ संज्ञामें प्रमाण है। तान्त्रिक 'वर्णबीजकोश' के सिद्धान्तके अनुसार भी हनुमानजी और ॐकार में धर्मसाम्यता निम्ननिर्दिष्ट प्रकारेण सुस्पष्ट है


'ह' आकाशबीज है, जो आञ्जनेय (हनुमानजी) का नामाक्षर विष्णुतत्त्वका द्योतक है। कोशशास्त्रमें आकाश द्रव्यको 'विष्णुपदम्' कहा गया है। यथा- 'वियद् विष्णुपदं वा तु पुंस्याकाशविहायसी' इत्यमरः । इस प्रकार नामका प्रथम अक्षर 'ह'कार विष्णुतत्त्व सिद्ध हुआ, जो ओंकार (अ+उ+म्) के प्रथम भाग अकारसे गृहीत है- 'अकारो वासुदेवः स्यात् ।' 'नु' यह हनुमानके नामका दूसरा अक्षर है, इसमें जो 'उ'कार है, वह शिवतत्त्वका द्योतक है। 'मेदिनीकोश' के 'उ सम्बोधनरोषोक्त्योः' इस वचनके अनुसार रुद्ररूप शिव ही सिद्ध होते हैं। श्रीमद्भागवत पारमहंस्यसंहितामें तो स्पष्ट ही 'रुद्रः क्रोधसमुद्भवः' कहकर कार्य-कारणकी अभिन्नताके आधार पर रोष को रुद्र और रुद्रको रोष सिद्ध कर दिया गया है। इस प्रकार नामका द्वितीय अक्षर 'नु' शिवतत्त्व सिद्ध हुआ। 'मान्' नामके तृतीय भागमें जो 'म' एक भाग है, (क्वचिदेकदेशोऽपि गृह्यते) यह बिन्दुनाद-शून्य अनुस्वारका बोधक है।

तन्त्र-ग्रन्थ 'वर्णबीज-प्रकाश-कोश' के अनुसार 'म'कार वर्ण उपस्थका बोधक है। उपस्थ अङ्गके देवता प्रजापति ब्रह्मा हैं। इसलिये 'म'कारको ब्रह्मा-तत्त्व भी कहा जा सकता है। इस प्रकार समष्टिशक्तिरूपसे ॐ ब्रह्मा, विष्णु, महेश- इन तीनों ही आदि कारण-तत्त्वोंका भी प्रतीक है। निष्कर्ष यह हुआ कि 'ह-अ, न्-उ, म-त्-हनुमान 'ओम्' एकतत्त्व सिद्ध हुए। इस प्रकार हनुमानजीकी उपासना साक्षात् ऑतत्त्वोपासना होने से परब्रहाकी ही उपासना हुई। जन्म-मृत्यु तथा सांसारिक वासनाओंकी मूलभूत मायाका विनाश ब्रह्मोपासनाके बिना सम्भव नहीं। उस अचिन्त्य अवाच्य ब्रह्म का ही तो स्वरूप ॐकार है। इसीको दर्शनशास्त्र में प्रणव नाम से कहा गया है

'तस्व वाचकः प्रणवः ।' 'तज्जपस्तदर्थभावनम्।' शिवपुराण के १७ वें अध्याय में प्रणवका निर्वचन करते हुए बताया गया है कि उक्त शब्द में दो भाग है-एक 'प्र' और दूसरा 'नव'। 'प्र' का अर्थ है- कर्मक्षयपूर्वक, 'नव' का अर्थ है- नूतन ज्ञान देनेवाला। 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' आदि श्रुति-वाक्योंमें ज्ञानको ही तो ब्रह्म कहा है। अथवा 'प्र' का भाव है- प्रकृतिसे पैदा होनेवाला संसाररूपी महासागर और 'नब' का भाव है- भवसागरसे पार लगानेवाली नाव। तीसरा एक और भी भाव-निर्देश किया गया है- 'प्र' प्रकर्षण, 'न' अर्थात् 'वः' युस्मान् मोक्षम् इति प्रणवः अर्थात् प्रणव अपने उपासकों को मोक्ष तक पहुँचा देनेवाला है, तो श्री हनुमान जी ही कहाँ कम (न्यून) है? उक्त प्रणवके दो भेद हैं- सूक्ष्म और स्थूल। सूक्ष्म ओंकार तो एकाक्षरके रूपमें और स्थूल ओंकार 'नमः शिवाय' इस पञ्चाक्षर मन्त्र के रूपमें है। इधर श्री हनुमान जी को शिव-अंश सर्व सम्मत माना गया है।

गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीने भी हनुमान जी के स्वरूप में यह झलक दिखायी है- सूक्ष्म रूप धरि सियहि दिखावा। भीम रूप धरि असुर संहारे। (भीम-स्थूल) अस्तु। इसी को दीर्घ और ह्रस्व प्रणवके रूपसे भी निरुक्त किया गया है। दीर्घ प्रणवमें अकार, उकार, मकार, बिन्दु, नाद, शब्द, काल और कला-ये आठ शाल है, जो योगीजनोंद्वारा ही साध्य हैं। इस प्रणव के अ-शिव, उ-शक्ति, म् दोनों की एकता- ये तीन तत्त्व है। यह प्रवृत्तिमार्ग से युक्त होनेके लिये जीव-साधारणका जाप्य है। इस प्रकार उक्त रहस्यका प्रतिबिम्ब श्रीहनुमानजीमें स्पष्ट झलकता है, अर्थात् माया (संसार) की निवृत्ति ब्रह्मज्ञानसे होती है। यह भाव ईशावास्योपनिषद् में कितने स्पष्ट रूपमें दर्शाया गया है- ' 'ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्या, रताः । दूसरी ओर जैसे उक्त सिद्धान्तसे ब्रह्मका वाचक ॐ मायाका संहार करके संसार-बन्धनसे मुक्त करता है, उसी प्रकार श्रीहनुमानजी महाराज (जो ॐकारकी साक्षात् मूर्ति हैं) लंकाराक्षसीरूपिणी मायापर विजय पाकर परमज्ञानस्वरूपपणी ब्रह्मरूपा चिद्रूपाशक्ति श्री सीता जी को प्राप्त करते हैं और श्री राम को महान् संकट से बचाते हैं। इस विवेचन से यह सिद्ध हो गया कि श्री हनुमान और ओम् एक ही तत्त्व हैं।

राम स्नेही संत-मत में श्री हनुमान और सिंवरण

जन हरिया है मुगति के नीसरणी निज नाम ।
चढ़ि चांपरि सूं सिंवरिये जो चाहे बिसराम ।।

हरिसुत हरिप्रिय शिष्यहरि हरिमद-भंजन हार।
हरि कुल भूषण अंश हर सुर अरि करण संहार ।।

परमधीर समीरसुत स्वामिधर्मपरायण रघुवीर-भक्त महावीर हनुमान जी के पावन चरित्रका स्व-स्वमतानुसार सभी ने वर्णन किया है, जो वस्तुतः सर्वथा अपार है। कपिवंशावर्तस श्री हनुमान जी अञ्जनी देवी की कुक्षिसे अवतीर्ण हुए हैं-

ब्रह्म राम साकार बने जब प्रेम पुरातन चीनौ ।
रुद्र होय हनुमंत रूप तब दास भक्ति चित दीनौ ।।

सेवाका लाभ लेने हेतु हनुमान बने। श्रीहनुमानजी जिस प्रकार नाममें अभिरुचि रखते हैं, उसी प्रकार देवाधिदेव भगवान् शिव भी श्रीरामके अनन्य स्मरणयोगी भक्त है। वैसे देखा जाय तो नाम-साधना दोनोंकी एक ही है। आप दोनों इस संत-मतके आचार्य माने जाते हैं; क्योंकि महामनकी प्राप्ति और उसके स्मरणकी विधि शिवजी और हनुमानजीसे ही इसमें आयी है। जैसा कि गोस्वामीजी लिखते हैं-

राम नाम सिव सुमिरन लागे।
जानेउ सती जगतपति जागे ।।

रामस्नेही-सम्प्रदायके आचार्योंकी इनके प्रति भावना और मान्यता-

'प्रथम गुरु शिव जान, नाम पारबती दीयो।'
'प्रथम नाम सदा शिव लीया।

पारबतीको निज तत दीया ।।'
सो प्रथम भिन भिन कही जनहीके परसाद ।
प्रेम लछन ऊमा जनम परा शंभु दामाद ।।

इस प्रकार शिवजीको प्रथम तारक मन्त्रका उपदेष्टा मानते है और प्रेमाभक्तिके आचार्य भी। संत-मतमें दासको जो अत्यधिक महत्त्व प्राप्त है, उसका भी एक विशेष रहस्य है। इस दासपनेमें कितना प्रभाव है, इसका वर्णन किसी संतने इस प्रकार किया है- 'पवन जिस रावणके यहाँ भयभीत अवस्थामें रहकर झाडू लगाता है, वहाँ ही उसका पुत्र रावणके महलोंको निर्भय-निःशङ्क होकर तोड़ रहा है। यह शक्ति हनुमानजीमें दास-भाव होनेसे ही प्राप्त हुई है।'-

दासातन सबते बड़ो, समझ र आवे ओट ।
पिता बुहारे घर आंगणो, सुत बहावे नवकोट ।।

इसी कारण दीक्षा देते समय 'संत' नामके अन्तमें दास पद लगाकर शिष्य बनाते हैं। अब संत-मतमें कुछ संतोंके भाव मूलरूपमें उद्धृत किये जा रहे हैं, जिससे ज्ञात होगा कि वे अपनी दृष्टिमें श्रीहनुमानजी महाराजको किस-किस रूप में देख रहे हैं। श्री रामानन्दाचार्यजी महाराजने अपनी रचनाओंमें इनको एक शूर-वीर योद्धाके समान हुंकार (गर्जन) से आसुरी सम्पत्तिको नाश करनेवाला और भक्त-रक्षक माना है-

हनुमन्त हुंकार मचती रहै यों सोखिया पकड़ बावन वीरं।

रामस्नेही-सम्प्रदायाचार्य श्रीरामदासजी महाराज अपनी अनुभूत रचना 'भक्तमाल 'में इनको भक्त-सहायक मानते हैं- 

तुलसीदास रामका प्यारा। 
आठों पहर मगन मतवारा ॥
हनुमान हरि चरणां लाया ।।

गोस्वामी जी को हनुमान जी की कृपा से ही श्री राम जी के दर्शनों का लाभ हुआ। रामस्नेही संत-मतमें हनुमान जी के विषय में विशद वर्णन मिलता है-

सेवक धर्म अगम योगिन तें रामदूत बनि राख्यो।
कामिनि कनक दुहुँ दूरी करि लेश न वित्त अभिलाख्यो ।

कञ्चन लंक कलंक समुझि किल दे किलकारि दहायो।
किंकर निज परकीय कामिनी भोगत नहि मन भायो ।

कपि कुञ्जरहि कवच सिध कीनो जरा सहित तन जंगी।
अमर भयो किं पुरुष अग्रणी वीर महा बजरंगी ।।

पवन पिता तें अधिक पराक्रम अविचल द्रोण उठायो । 
एक रजनिमें राम लखन हित उदधि लाँघि तट आयो ।।

राज्य विभीषण पाय राम तें लंकेश्वर पद लीनौ।
हार अमोल्य रत्नमय हरिको तबहि निवेदन कीनौ ।।

सियानाथ वह हार समप्यों मारुतिके बिन माँगे।
देखत सबके निज दौड़न ते भले रत्न जिन भागे ।।

वानर केवल जानि विभीषण असुर करी उपहासी।
फोरि-फोरि मणिगण किम फेंको विगत ज्ञान वनवासी ।।

उत्तर दीनो राम उपासक जातुधान कहा जानो।
राम नाम बिन अङ्कित राखस मणि कंकर सम मानो ।।

प्रति उत्तर पुनि देत पलाशन काया राखत कैसे।
महावीर तब चीर चर्म निज अवलोकहु कहि ऐसे ।।

साढ़ा तीन कोटि तन सबमें रोमावलि अविरेखी ।
राम-राम प्रतिरोम कूपमें दिव्य नाम ध्वनि देखी ।।

अक्षय के क्षय कारक अद्भुत अक्षय राम अराधै। 
तैल सिन्दूर लपेट लंगोटो सकल सम्पदा साथै ।। 

श्रीरामस्नेही-सम्प्रदायाचार्य श्रीहरिरामदास जी महाराज अपने स्मरण-विधानमें सर्व-सिद्धिप्रद पवन रूप को मुख्य मानते हैं; क्योंकि शरीरस्थ वायुके समान रहनेपर ही सभी कार्य सुगमतासे निष्पन्न होते रहते हैं। यदि प्राण, अपान या अन्य वायु कुपित हो जायें तो साधकको साधना-कालमें ही अनेक व्याधियाँ एवं विघ्न्न आ घेरते हैं। अतः संत सर्वशरीर-संचारी पवनको ही हनुमान मानकर चलते हैं। पवन चञ्चल, अस्थिर एवं गमनशील है, इसी प्रकार सर्वत्र संचारी हनुमानजी भी चञ्चलत्व-गुणसे युक्त अपनेको स्वीकार करते हैं-

कहहु कवन मैं परम कुलीना।
कपि चंचल सबही विधि हीना ।।

इसलिये पवनकी चञ्चलता मिटानेके निमित्त श्रीहनुमानजी- की कृपा अत्यावश्यक है। इनकी कृपासे दसों प्रकार के पवनके दोष (सभी वायु-दोष) मिट जाते हैं। चञ्चलता मिट जानेसे चित्तवृत्तियोंका निरोध होता है, जिससे नामस्मरण में मन स्थिर हो जाता है। साधक साधनासे अपनेको अजर-अमर करना चाहता है, वह अमरत्व-शक्ति श्रीहनुमानजीकी कृपासे ही मिल सकती है। यह शक्ति पवनपुत्रको जानकीजीकी कृपाद्वारा प्राप्त है। योगारूढ़ संत भी इसी पवन (प्राण-वायु) को नाम-जपसे सरल करके अपनेको अमर कर लेते हैं। यह नाम-जप जब रसना, कण्ठ, हृदय और नाभिसे किया जाता है, तब यह क्रमशः अध (अधम), मध (मध्यम), उत्तम एवं अति उत्तम संज्ञाओं में बदलता रहता है।

प्रथम राम रसना सुमिर दुतीये कंठ लगाय ।
तृतीये हिरदे ध्यान धरि, चौथे नाभि मिलाय ।।

अध मध उत्तम त्रय घर ठानूँ। चौथे अति उत्तम अस्थानूँ ।।
यह चहुँ भिन देखे आसरमा। रामभक्तिको पावे मरमा ।।

अध सिंवरनजु ऐसे कहिये। रसना राम राम कूं गहिये ।।
मध सिंवरन जो ऐसे भाई। मुख सिंवरन हालत रह जाई ।।

उत्तम सिंवरन हृदय अस्थानूँ। माँहो माँहि भया धर ध्यानूँ ।।
अघ मध उत्तम सिंवर सुजाना। अति उत्तमके माँहि मिलाना ।।

अति उत्तम नाभि अस्थानू। मन संकल्प विकल्प नहि ठानू ।।
अति उत्तम सिंवरन सरबंगा। अक्षर एक भया अण भंगा ।।

सिंवरण मार्ग संतका ताते भरम नसाय ।
हरिरामा हरि बंदगी करिये चित्त लगाय ।।

हरि (हनुमान) की कृपा से हरि (श्रीराम) का स्मरण इस विधान से करने पर समग्र संसृति-भय नष्ट हो जाते हैं। अति उत्तम स्मरणमें तो केवल रं-रंकारकी ध्वनि सारे शरीरकी रोमावलियोंसे ही अजस्त्र होने लग जाती है। जब अपानवायु प्राण-वायुसे मिलकर कुम्भकद्वारा निरुद्ध हो जाता है, तब साधकको समाधि लगने की अवस्था प्राप्त हो जाती है- अरधे मिल उरथा पवन निरुधा ध्यान समाधि लगंदा है।
इस प्रकार मनकी गति स्थिर होनेपर पाँचों ही पवन (प्राण, अपान, उदान, व्यान, समान) वशीभूत हो जाते हैं और साधक ब्रह्मानन्दरूपी अजर प्याला पीने लग जाते हैं- मनवा थिर पवना पाँचूँ दमना प्याला अजर पीवंदा है। हरिजन हरि जाणी वेद बखाणी शेष विष्णु ध्यावंदा है।। ऐसे आनन्दको हरिजन भक्त और हरि (हनुमानजी) ही जानते हैं। वेद-पुराण कहते हैं कि जिसके रहस्यको जाननेके लिये शेष, विष्णु सतत ध्यान करते हैं, ऐसे तत्त्वको प्राप्त करनेके लिये साधकको इन्हीं हरि (हनुमानजी) की कृपासे सम्मज्ञात तथा असम्प्रज्ञात समाधि स्वतः सिद्ध हो जाती है। जीभसे स्मरण करते समय जब मिश्री-जैसा आस्वाद रसनाको प्राप्त होने लग जाता है, तब इसको 'अधः' स्मरण कहते हैं। यह रसनाका स्मरण है। जब भैवरके गुञ्जार एवं मधुर वंशीकी तानके समान ध्वनि सुनायी देने लगे, तब कण्ठका स्मरण सिद्ध होता है, इसे 'मध्यम' स्मरण कहते हैं। जब प्राणगति हृदयकमलमें स्थिर हो जाती है, तब धम-धमकारकी ध्वनिका अनुभव होता है, यह 'हृदय' का स्मरण है। इसे ही 'उत्तम' स्मरणके नामसे पुकारते हैं। नाभिमें जाकर जब प्राणगति स्थिर हो जाती है और प्राण-अपानका वहाँ संयोग होने से विचित्र प्रकार के नृत्य होने लगते हैं, तब नाभि का 'स्मरण' सिद्ध होता है और इसे 'अति उत्तम' स्मरण कहते हैं।
मुख्य बात यह है कि 'अति उत्तम' स्मरणमे प्रत्येक रोम कूप से मावारहित रकारकी ध्वनि अबाधगतिसे निकलती रहती है। प्राण-वायु भी कुण्डलिनीका भेदन करता हुआ सहसार-चक्रमें पहुँच जाता है, यहाँ दसवें द्वारकी समाधि पूर्ण होती है। यहाँपर जीवका जीवत्व छूट जाता है और वह ब्रह्म-भावको प्राप्त हो जाता है। इसीको 'पराभक्ति' कहते हैं और यही ज्ञानकी चरम सीमा है।  यह अन्तिम अवस्था 'ज्ञानिनामत्रगण्य' श्री हनुमान जी की कृपासे ही प्राप्त हो सकती है।

बिन्दु मकार इन्दुधर शेखर प्रतिदिन अमृत जु पीवै ।
जुग अक्षरके जाप जोर तें जगत् प्रलय करि जीवै ।।

सुमिरणके प्रतापसे ही श्रीहनुमानजी सात चिरजीवियोंमेंसे एक हैं। इस प्रकार रामस्नेही-सम्प्रदायमें हनुमान एवं सिंवरण (स्मरण) का अभेद सम्बन्ध माना गया है।

श्रीहनुमानजीकी दृढ़ निष्ठा

फारि निज बच्छस्थल बीर हनुमान कह्यौ,
लीजै लखि मातु ! खोलि हृदय बताऊँ मैं,

लखन-समेत सियाराम सुखधाम सदा
आठौं जाम मेरै उर-धाम धरि ध्याऊँ मैं।

जौपै अजाँ काहू कैं प्रतीति नाहि होइ हियै,
रोम-रोम फारि राम-नाम दिखराऊँ मैं,

बात ना बनाऊँ, बात साँची करि पाऊँ जौ न
बात का बढ़ाऊँ, बातजात ना कहाऊँ मैं ।।

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