श्री राम-वर-दूत हनुमान
पवन पुत्र श्री हनुमान जी के लिये अनेक भक्तों और कवियोंने अनेक प्रकारके विशेषणों का प्रयोग किया है। उन्हें अतुलित बलधाम, सुमेरुके समान चमचमाते शरीरवाला, राक्षसोंके समूह को अग्निके समान जला डालनेवाला, ज्ञानियों में अग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणोंका निधान, वानरों के अधीश्वर और श्रीरामका श्रेष्ठ दूत कहा गया है। इतना ही नहीं, उन्हें मनके समान अत्यन्त तीव्र गतिवाला, पवन के समान वेगसे चलनेवाला, अत्यन्त जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी, बुद्धि मान् लोगों में सबसे अधिक वरिष्ठ, वायुका पुत्र, वानरोंकी सेनाका नायक और श्री राम का दूत भी कहा गया है।भारती य नीति-ग्रन्थोंमें दूतके लक्षण बताते हुए कहा गया है-
मेधावी वाक्पटुः प्राज्ञः परचित्तोपलक्षकः ।
धीरो यथोक्तवादी च एष दूतो विधीयते ।।
गुणी भक्तो शुचिर्दक्षः प्रगल्भोऽव्यसनी क्षमी।
ब्राह्मणः परमर्मज्ञो दूतः स्यात् प्रतिभानवान् ।।
साकारो निस्स्पृहो वाग्मी नानाशास्त्रविचक्षणः ।
परचित्तावगन्ता च राज्ञो दूतः स इष्यते ।।
'जो व्यक्ति दूतका कार्य करनेके लिये भेजा जाय, वह मेधावी (बुद्धिमान्, प्रतिभावान् और अच्छी स्मरण शक्तिवाला), वाक्पटु (समयके अनुसार उचित बात कहनेमें चतुर), प्राज्ञ (किसी भी बातको झट समझ जानेवाला), दूसरेके मनकी बात झट ताड़ जानेवाला, धीर (धैर्यशाली) और जैसा कहा गया हो, वैसा ही जाकर कहनेवाला होना चाहिये। दूत ऐसा होना चाहिये, जो गुणी (अनेक गुणोंका भण्डार, आवश्यकता पड़नेपर समुचित व्यवहार कर सकनेवाला), अपने स्वामीका भक्त, पवित्र (किसी भी प्रकारके प्रलोभनसे न डिग सकनेवाला), दक्ष (आवश्यकतानुसार व्यवहार करनेमें चतुर), प्रगल्भ (बातचीत करनेमें कुशल), अव्यसनी (जिसमें किसी प्रकारका व्यसन या दुर्गुण न हो), सहिष्णु, ब्राह्मण (पवित्र आचरणवाला), दूसरेके मनकी या भेदकी बात झट जान सकनेवाला और प्रतिभावान् (समयके अनुसार व्यवहार कर सकनेकी बुद्धिवाला) हो। राजाका दूत देखनेमें सुन्दर, निर्लोभ, बातचीतमें कुशल, अनेक शास्त्रोंका पण्डित और दूसरेके मनकी बात झट समझ सकनेवाला होना चाहिये।
पवन पुत्र श्री हनुमान जी में ये सभी गुण भरपूर मात्रा में विद्यमान थे। उनकी बुद्धिमत्ता तो कई स्थानों पर प्रत्यक्ष प्रकट हो जाती है। श्रीरामसे मिलन होनेके साथ ही उन्होंने अपने स्वामी श्रीराम और सुग्रीव दोनोंकी मित्रता कराकर अपनी स्वामिभक्ति और बुद्धिमत्ता- दोनोंका एक साथ परिचय दिया। यदि उन्होंने ऐसा न किया होता तो न सुग्रीवका ही भय दूर हो पाता और न जानकीकी खोजमें ही समुचित सहायता मिल पाती। इसी प्रकार उनकी बुद्धिमत्ता और वाक्पटुता का परिचय वहाँ मिल जाता है, जब वे अशोक-वाटिका में सीता जी से और लंका में रावण से बात चीत करते हैं। अतुलित शक्ति होने पर भी उन्होंने अपने धैर्य का परिचय उस समय दिया, जब रावण आकर श्रीसीताजीको तर्जन करने लगा था। उनकी बुद्धिमत्ताका यह भी कम प्रमाण नहीं है
कि उन्होंने कैसे विभीषणसे मित्रता करके लंकाका सारा भेद प्राप्त कर लिया। श्रीरामने सीताके लिये उन्हें जो संदेश दिया था और सीताने जो संदेश श्रीरामको भिजवाया था, वह उन्होंने दोनोंको ठीक वैसे ही कह सुनाया। उनकी अपूर्व बुद्धिमत्ता वहाँ भी प्रकट होती है। जब लक्ष्मणको शक्ति लग जाती है, तब वे लंकाके प्रसिद्ध वैद्य सुषेणको न जगाते हैं और न उसका द्वार खटखटाते हैं; क्योंकि ऐसा करनेपर राक्षसोंको इसकी भनक मिल सकती थी। इसलिये वे वैद्यजी को उनके घरसहित उठाये लिये चले आते हैं; क्योंकि ऐसे संकटके समय एक क्षण नष्ट करना भी बुद्धि मत्ता की बात नहीं थी। सुषेण वैद्य के कथनानुसार जब वे द्रोणाचलपर दिव्यौषधि लेने गये, उस समय वहाँ उन्हें ओषधिकी पहचान न हो पायी। किंतु ऐसी परिस्थितिमें वे न तो तनिक भी घबराये एवं न विचलित ही हुए। उन्होंने तत्काल पूरा-का-पूरा पहाड़ ही उखाड़ लिया और उसे लेकर वे इतने वेगसे उड़ चले कि उनकी गतिका वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसी दास जी ने अपनी 'कवितावली' में कहा है-
लीन्हो उखारि पारु बिसाल, चल्यौ तेहि काल बिलंबु न लायौ।
मारुतनंदन मारुत कौ, मन कौ, खगराज की बेगु लजायौ ॥
राख तीखी तुरा 'तुलसी' कहतो पै हिएँ उपमा कौ समाउ न आयौ।
मानों प्रतच्छ परब्बत की नभ लीक लसी, कपि यौं धुकि धायौ ॥
हनुमान जी के उस वेगका वर्णन करते हुए तुलसी दास जी कहते हैं कि 'हनुमान जी ने विशाल पहाड़ उखाड़ते ही बिना विलम्ब किये उसी समय वहाँसे प्रस्थान कर दिया और उन्होंने पवन, मन और गरुड- तीनों के वेगको लज्जित कर दिया। वे ऐसे वेगसे चले, मानो आकाश में प्रत्यक्ष पर्वतकी रेखा खिंच गयी हो।' उनके वेग और उनकी अपार शक्ति का परिचय तो उनके समुद्र लाँघने और द्रोणाचल उखाड़कर बात-की-बातमें लंका पहुँचा देनेसे ही स्पष्ट हो जाता है। जिन लक्ष्मणको मेघनाद और रावणतक नहीं उठा सके, उन्हें वे सरलता पूर्वक रणभूमि से अपने हाथों पर उठाये श्री राम के पास लिये चले आये। श्री हनुमान जी को यह शाप था कि उन्हें अपने बलका ज्ञान तभी होगा, जब उन्हें उसका कोई स्मरण दिला देगा। इसीलिये जब समुद्र तटपर पहुँचकर सम्पातिके बता देनेपर भी कोई समुद्र लाँघनेका साहस नहीं कर पा रहा था, उस समय जाम्बवन्तने ही हनुमानसे कहा था-
'का चुप साधि रहेहु बलवाना ।। और यह सुनते ही वे 'भयउ पर्वताकारा ॥' हो उठे। अपनी इस शक्ति अर्थात् महिमा, गरिमा और लघिमा आदि सिद्धियोंका परिचय उन्होंने उस समय दिया था, जब सुरसा उनकी परीक्षा लेने आयी थी। जैसे-जैसे सुरसा अपना मुँह फैलाती जाती थी, हनुमान उससे दुगुने बड़े होते चले जाते थे। तब सुरसाने उन्हें कह दिया था कि 'जाओ, मैंने तुम्हारी बुद्धि और बलकी परीक्षा ले ली है।' दूतका कार्य यह है कि जो काम उसे सौंपा जाय, उसे वह सावधानीसे निरालस होकर करे। जब समुद्र- तटसे उछलकर श्रीहनुमान लंकाकी ओर जा रहे थे, उस समय मैनाकपर्वतने उनसे कहा कि 'तनिक विश्राम कर लीजिये'। किंतु श्रीहनुमानने कहा- नहीं,
"राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥
इतना ही नहीं, लंका जलाकर सीतासे आज्ञा प्राप्त करके वे तत्काल वहाँसे चल पड़े। उन्होंने कुछ भी विलम्ब नहीं किया। उन्होंने किस प्रकार सारी लंका जलाकर राख कर डाली, यह उनकी तेजस्विता, शक्ति और प्रताप का जीता जागता उदाहरण है। लंकासे अयोध्या लौटने पर जब भरत ने सबको बढ़िया आभूषण और वस्त्र पहनाये, उस समय हनुमानजीको भी मोतियों का हार दिया गया। किंतु उन्होंने उसे तोड़कर फेंक दिया। दूत क्या पुरस्कार के लिये काम करता है? वे तो श्री राम के भक्त थे- पवित्र, निर्लोभ भक्त। इसीलि ये उन्होंने झट हृदय फाड़ कर सबको दिखला दिया कि 'यह देखो, मेरा सारा जीवन-धन श्री राम और श्री सीता मेरे हृदयमें विराज मान हैं; मुझे अब क्या चाहिये।' इस प्रकार श्री हनुमान जी अपने स्वामी श्री राम के ऐसे परम सराहनीय दूत सिद्ध हुए कि उनके समान कोई दूसरा दूत आजतक हुआ ही नहीं। यहाँ तक कि श्री राम ने भी उनके लिये यह कह दिया कि 'मैं तुम्हारा ऋणी हूँ और आजीवन तुम से उऋण नहीं हो सकता।
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