श्री कृष्ण संबंध विविध मंत्रो तथा मंत्रो का अनुष्ठान विधि | Shree Krshn Sambandh Vividh Mantro Tatha Mantro Ka Anushthaan Vidhi

श्री कृष्ण संबंध विविध मंत्रो तथा मंत्रो का अनुष्ठान विधि

श्रीसनत्कुमारजी कहते हैं- मुनीश्वर! अब मैं श्रीकृष्णसम्बन्धी मन्त्रोंके भेद बतलाता हूँ, जिनकी आराधना करके मनुष्य अपना अभीष्ट सिद्ध कर लेते हैं। दशाक्षर मन्त्रके तीन नूतन भेद हैं-'ह्रीं श्रीं क्लीं'- इन तीन बीजोंके साथ 'गोपीजनवल्लभाय स्वाहा' यह प्रथम भेद है। 'श्रीं ह्रीं क्लीं'- इस क्रमसे बीज जोड़नेपर दूसरा भेद होता है। 'क्लीं ह्रीं श्रीं'- इस क्रमसे बीज मन्त्र जोड़नेपर तीसरा भेद बनता है। इसके नारद ऋषि और गायत्री छन्द हैं तथा मनुष्योंकी सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाले गोविन्द श्रीकृष्ण इसके देवता हैं। इन तीनों मन्त्रोंका अङ्गन्यास पूर्ववत् चक्रोंद्वारा करना चाहिये। तत्पश्चात् किरीटमन्त्रसे व्यापक-न्यास करे, फिर सुदर्शन मन्त्रसे दिग्बन्ध करे। आदि मन्त्रमें बीस अक्षरवाले मन्त्रकी ही भाँति ध्यान-पूजन आदि करे। द्वितीय मन्त्रमें दशाक्षर-मन्त्रके लिये कहे हुए ध्यान- पूजन आदिका आश्रय ले। तृतीय मन्त्रमें विद्वान् पुरुष एकाग्रचित्त होकर श्रीहरिका इस प्रकार ध्यान करे- भगवान् अपनी छः भुजाओंमें क्रमशः शङ्ख, चक्र, धनुष, बाण, पाश तथा अंकुश धारण करते हैं और शेष दो भुजाओंमें वेणु लेकर बजा रहे हैं। उनका वर्ण लाल है। वे श्रीकृष्ण साक्षात् सूर्यरूपसे प्रकाशित होते हैं। इस प्रकार ध्यान करके बुद्धिमान् पुरुष पाँच लाख जप करे और घृतयुक्त खीरसे दशांश आहुति दे। इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जानेपर मन्त्रोपासक पुरुष उसके द्वारा पूर्ववत् सकाम प्रयोग कर सकता है। 'श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय स्वाहा' यह बारह अक्षरोंका मन्त्र है। इसके ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छन्द और श्रीकृष्ण देवता हैं। पृथक् पृथक् तीन बीजों तथा तीन, चार एवं दो मन्त्राक्षरोंसे षडङ्ग- न्यास करे। बीस अक्षरवाले मन्त्रकी भाँति इसके भी ध्यान, होम और पूजन आदि करने चाहिये। यह मन्त्र सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंको देनेवाला है।


दशाक्षर मन्त्र (गोपीजनवल्लभाय स्वाहा)- के आदिमें श्रीं ह्रीं क्लीं तथा अन्तमें क्लीं ह्रीं श्रीं जोड़नेसे षोडशाक्षर-मन्त्र बनता है। इसी प्रकार केवल आदिमें ही श्रीं जोड़नेसे बारह अक्षरोंका मन्त्र होता है। पूर्वोक्त चक्रोंद्वारा इनका अङ्गन्यास करे, फिर भगवान्‌का ध्यान करके दस लाख जप करे और घीसे दशांश होम करे। इससे ये दोनों मन्त्रराज सिद्ध हो जाते हैं। सिद्ध होनेपर ये मनुष्योंके लिये सम्पूर्ण कामनाओं, समस्त सम्पदाओं तथा सौभाग्यको देनेवाले हैं। अष्टादशाक्षर मन्त्रके अन्तमें क्लीं जोड़ दिया जाय तो वह पुत्र तथा धन देनेवाला होता है। इस मन्त्रके नारद ऋषि, गायत्री छन्द और श्रीकृष्ण देवता हैं। क्लीं बीज कहा गया है और स्वाहा शक्ति मानी गयी है। छः दीर्घ स्वरोंसे युक्त बीजमन्त्रद्वारा षडङ्ग-न्यास करे। 'दायें हाथमें खीर और बायें हाथमें मक्खन लिये हुए दिगम्बर गोपीपुत्र श्रीकृष्ण मेरी रक्षा करें।' इस प्रकार ध्यान करके बत्तीस लाख मन्त्र जपे और प्रज्वलित अग्निमें मिश्री मिलायी हुई खीरसे दशांश आहुति दे, तत्पश्चात् पूर्वोक्त वैष्णवपीठपर अष्टादशाक्षर मन्त्रकी भाँति पूजन करे। कमलके आसनपर विराजमान श्रीकृष्णकी पूजा करके उनके मुखारविन्दमें खीर, पके केले, दही और तुरंतका निकाला हुआ माखन देकर तर्पण करे। पुत्रकी इच्छा रखनेवाला पुरुष यदि इस प्रकार तर्पण करे तो वह वर्षभरमें पुत्र प्राप्त कर लेता है। वह जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वह सब उसे तर्पणसे ही प्राप्त हो जाती है। 

वाक् (ऐं), काम (क्लीं) डे विभक्त्यन्त कृष्ण शब्द (कृष्णाय) तत्पश्चात् माया (ह्रीं), उसके बाद 'गोविन्दाय' फिर रमा (श्रीं) तदनन्तर दशाक्षर मन्त्र (गोपीजनवल्लभाय स्वाहा) उद्धृत करे, फिर ह और स् ये दोनों ओकार और विसर्गसे संयुक्त होकर अन्तमें जुड़ जायें तो (ऐं क्लीं कृष्णाय ह्रीं गोविन्दाय श्रीं गोपीजनवल्लभाय स्वाहा इसों) बाईस अक्षरका मन्त्र होता है, जो वागीशत्व प्रदान करनेवाला है। इसके नारद ऋषि, गायत्री छन्द, विद्यादाता गोपाल देवता, क्लीं बीज और ऐं शक्ति है। विद्याप्राप्तिके लिये इसका विनियोग किया जाता है। इसका ध्यान इस प्रकार है- जो वाम भागके ऊपरवाले हाथोंमें उत्तम विद्यापुस्तक और दाहिने भागके ऊपरवाले हाथमें स्फटिक मणिकी मातृकामयी अक्षमाला धारण करते हैं। इसी प्रकार नीचेके दोनों शब्दब्रह्ममयी मुरली लेकर बजाते हैं, जिनके श्रीअङ्गोंमें गायत्री छन्दमय पीताम्बर सुशोभित है, जो श्याम वर्ण कोमल कान्तिमान् मयूरपिच्छमय मुकुट धारण करनेवाले, सर्वज्ञ तथा मुनिवरोंद्वारा सेवित हैं, उन श्रीकृष्णका चिन्तन करे। इस प्रकार लीला करनेवाले भुवनेश्वर श्रीकृष्णका ध्यान करके चार लाख मन्त्र जप करे और पलाशके फूलोंसे दशांश आहुति देकर मन्त्रोपासक बीस अक्षरवाले मन्त्रके लिये कहे हुए विधानके अनुसार पूजन करे। इस प्रकार जो मन्त्रकी उपासना करता है, वह वागीश्वर हो जाता है। उसके बिना देखे हुए शास्त्र भी गङ्गाकी लहरोंके समान स्वतः प्रस्तुत हो जाते हैं। 'ॐ कृष्ण कृष्ण महाकृष्ण सर्वज्ञ त्वं प्रसीद मे। रमारमण विद्येश विद्यामाशु प्रयच्छ मे ॥' (हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे महाकृष्ण! आप सर्वज्ञ हैं। मुझपर प्रसन्न होइये। हे रमारमण! हे विद्येश्वर ! मुझे शीघ्र विद्या दीजिये।) यह तैंतीस अक्षरोंवाला महाविद्याप्रद मन्त्र है। इसके नारद ऋषि, अनुष्टुप् छन्द और श्रीकृष्ण देवता हैं। मन्त्रके चारों चरणों और सम्पूर्ण मन्त्रसे पञ्चाङ्ग न्यास करके श्रीहरिका ध्यान करे।

ध्यान

दिव्योद्याने विवस्वत्प्रतिममणिमये मण्डपे योगपीठे मध्ये यः सर्ववेदान्तमयसुरतरोः संन्त्रिविष्टो मुकुन्दः ।
बेदैः कल्पहुरूपैः शिखरिशतसमालम्बिकोशैश्चतुर्भि न्यायैस्तकैः पुराणैः स्मृतिभिरभिवृतस्तादृशश्चामराद्यौः ॥
दद्याद्विभ्रत्कराग्रैरपि दरमुरलीपुष्यबाणेक्षुचापा नक्षस्पृक्पूर्णकुम्भी स्मरललितवपुर्दिव्यभूषाङ्गरागः ॥
व्याख्यां वामे वितन्वन् स्फुटरुचिरपदो वेणुना विश्वमात्रे शब्दब्रह्मोद्भवेन श्रियमरुणरुचिर्वल्लवीवल्लभो नः ॥

एक दिव्य उद्यान है, उसके भीतर सूर्यके समान प्रकाशमान मणिमय मण्डप है, जहाँ सर्व वेदान्तमय कल्पवृक्षके नीचे योगपीठ नामक दिव्य सिंहासन है, जिसके मध्यभागमें भगवान् मुकुन्द विराजमान हैं। कल्पवृक्षरूपी चार वेद जिसके कोष सौ पर्वतोंको सहारा देनेवाले हैं, उन्हें घेरकर स्थित है। छत्र, चंवर आदिके रूपमें सुशोभित न्याय, तर्क, पुराण तथा स्मृतियोंसे भगवान् आवृत हैं। वे अपने हाथोंके अग्रभागमें शङ्ख, मुरली, पुष्पमय बाण और ईखके धनुष धारण करते हैं। अक्षमाला और भरे हुए दो कलश उन्होंने ले रखे हैं; उनका दिव्य विग्रह कामदेवसे भी अधिक मनोहर है। वे दिव्य आभूषण तथा दिव्य अङ्गराग धारण करते हैं। शब्दब्रह्मसे प्रकट हुई तथा बायें हाथमें ली हुई वेणुद्वारा स्पष्ट एवं रुचिर पदका उच्चारण करते हुए विश्वमात्रमें विशद व्याख्याका विस्तार करते हैं। उनकी अङ्ग- कान्ति अरुण वर्णकी है, ऐसे गोपीवल्लभ श्रीकृष्ण हमें लक्ष्मी प्रदान करें। इस प्रकार ध्यान करके एक लाख जप करे और खीरसे दशांश आहुति दे। मन्त्रज्ञ पुरुष इसका पूजन आदि अष्टादशाक्षर मन्त्रकी भाँति करे।

'ॐ नमो भगवते नन्दपुत्राय आनन्दवपुषे गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।' यह अट्ठाईस अक्षरोंका मन्त्र है। जो सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाला है। 'नन्दपुत्राय श्यामलाङ्गाय बालवपुषे कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।' यह बत्तीस अक्षरोंका मन्त्र है। इन दोनों मन्त्रोंके नारद ऋषि हैं, पहलेका उष्णिक्, दूसरेका अनुष्टुप् छन्द है। देवता नन्दनन्दन श्रीकृष्ण हैं। समस्त कामनाओंकी प्राप्तिके लिये इसका विनियोग किया जाता है। चक्रोंद्वारा पञ्चाङ्ग-न्यास करे तथा हृदयादि अङ्गों, इन्द्रादि दिक्पालों और उनके वज्र आदि आयुधोंसहित भगवान्‌की पूजा करनी चाहिये। फिर ध्यान करके एक लाख मन्त्र जप और खीरसे दशांश हवन करे। इन सिद्ध मन्त्रोंद्वारा मन्त्रोपासक अपने अभीष्टकी सिद्धि कर सकता है। 'लीलादण्ड गोपीजनसंसक्तदोर्दण्ड बालरूप मेघश्याम भगवन् विष्णो स्वाहा' यह उन्तीस अक्षरोंका मन्त्र है। इसके नारद ऋषि, अनुष्टप् छन्द और 'लीलादण्ड हरि' देवता कहे गये हैं। चौदह, चार, चार, तीन तथा चार मन्त्राक्षरोंद्वारा क्रमशः पञ्चाङ्ग-न्यास करे।

ध्यान

सम्मोहर्यश्च निजवामकरस्थलीला-दण्डेन गोपयुवतीः परसुन्दरीश्च।
दिश्यान्निजप्रियसखांसगदक्षहस्तो देवः श्रियं निहतकंस उरुक्रमो नः ॥

'जो अपने बायें हाथमें लिये हुए लीलादण्डसे भाँति-भाँतिके खेल दिखाकर परम सुन्दरी गोपाङ्गनाओंका मन मोहे लेते हैं, जिनका दाहिना हाथ अपने प्रिय सखाके कंधेपर है, वे कंसविनाशक महापराक्रमी भगवान् श्रीकृष्ण हमें लक्ष्मी प्रदान करें।' इस प्रकार ध्यान करके एक लाख जप और घी, चीनी तथा मधुमें सने हुए तिल और चावलोंसे दशांश होम करे। तत्पश्चात् पूर्वोक्त पीठपर अङ्ग, दिक्पाल तथा आयुधोंसहित श्रीहरिका पूजन करे। जो प्रतिदिन आदरपूर्वक 'लीलादण्ड हरि 'की आराधना करता है, वह सम्पूर्ण लोकोंद्वारा पूजित होता है और उसके घरमें लक्ष्मीका स्थिर निवास होता है। सद्य (ओ) पर स्थित स्मृति (ग्) अर्थात् 'गो', केशव (अ) युक्त तोय (व्) अर्थात् 'व', धरायुग (ल्ल), 'भाय', अग्निवल्लभा (स्वाहा)- यह (गोवल्लभाय स्वाहा) मन्त्र सात अक्षरोंका है और सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला है। इसके नारद ऋषि, उष्णिक् छन्द तथा गोवल्लभ श्रीकृष्ण देवता हैं। पूर्ववत् चक्र- मन्त्रोंद्वारा पञ्चाङ्ग-न्यास करे। 

ध्यान

ध्येयो हरिः स कपिलागणमध्यसंस्थ-स्ता आह्वयन् दधददक्षिणदोः स्थवेणुम् ।
पाशं सयष्टिमपरत्र पयोदनीलः पीताम्बरोऽहिरिपुपिच्छकृतावतंसः ॥

'जो कपिला गायोंके बीचमें खड़े हो उनको पुकारते हैं, बायें हाथमें मुरली और दायें हाथमें रस्सी और लाठी लिये हुए हैं, जिनकी अङ्गकान्ति मेघके समान श्याम है, जो पीतवस्त्र और मोर- पंखका मुकुट धारण करते हैं, उन श्याम सुन्दर श्रीहरिका ध्यान करना चाहिये।' ध्यानके बाद, सात लाख मन्त्र जप और गोदुग्धसे दशांश हवन करे। पूर्वोक्त वैष्णवपीठपर पूजन करे। अङ्गोंद्वारा प्रथम आवरण होता है। द्वितीय आवरणमें- सुवर्ण-पिङ्गला, गौर-पिङ्गला, रक्त-पिङ्गला, गुड-पिङ्गला, वधु-वर्णा, उत्तमा कपिला, चतुष्क-पिङ्गला तथा शुभ एवं उत्तम पीत-पिङ्गला-इन आठ गायोंके समुदायकी पूजा करके तीसरे और चौथे आवरणोंमें इन्द्रादि लोकेशों तथा वज्र आदि आयुधोंका पूजन करे। इस प्रकार पूजन करके मन्त्र सिद्ध कर लेनेपर मन्त्रज्ञ पुरुष उसके द्वारा कामना पूर्तिके लिये प्रयोग करे। जो प्रतिदिन गोदुग्धसे एक सौ आठ आहुति देता है, वह पंद्रह दिनमें ही गोसमुदायसहित मुक्त हो जाता है। दशाक्षर मन्त्रमें भी यह विधि है। 'ॐ नमो भगवते श्रीगोविन्दाय' यह द्वादशाक्षर मन्त्र कहा गया है। इसके नारद ऋषि माने गये हैं। छन्द गायत्री है और गोविन्द देवता कहे गये हैं। एक, दो, चार और पाँच अक्षरों तथा सम्पूर्ण मन्त्रसे पञ्चाङ्ग-न्यास करे।

ध्यान

ध्यायेतकल्पद्रुमूलाश्रितमणिविलसद्दिव्यसिंहासनस्थं मेघश्यामं पिशङ्गांशुकमतिसुभगं शङ्खवेत्रे कराभ्याम्। 
विभ्राणं गोसहस्त्रैर्वृतममरपतिं प्रौढहस्तैककुम्भ प्रश्च्योतत्सौधधारास्त्रपितमभिनवाम्भोजपत्राभनेत्रम् ।।

'दिव्य कल्पवृक्षके नीचे मूलभागके समीप नाना प्रकारकी मणियोंसे सुशोभित दिव्य सिंहासनपर भगवान् श्रीकृष्ण विराज रहे हैं। उनकी अङ्गकान्ति मेघके समान श्याम है, वे पीताम्बर धारण किये अत्यन्त सुन्दर लग रहे हैं। अपने दोनों हाथोंमें शङ्ख और बेंत ले रखे हैं। सहस्रों गायें उन्हें घेरकर खड़ी हैं। वे सम्पूर्ण देवताओंके प्रतिपालक हैं। एक प्रौढ़ व्यक्तिके हाथोंमें एक कलश है, उससे अमृतकी धारा झर रही है और उसीसे भगवान् स्नान कर रहे हैं; उनके नेत्र नूतन विकसित कमल- दलके समान विशाल एवं सुन्दर हैं। ऐसे श्रीहरिका ध्यान करना चाहिये। तत्पश्चात् बारह लाख मन्त्र जपे। फिर गोदुग्धसे दशांश होम करके पूवर्वत् गोशालामें स्थित भगवान्‌का पूजन करे। अथवा प्रतिमा आदिमें भी पूजा कर सकते हैं। पूर्वोक्त वैष्णवपीठपर मूलमन्त्रसे मूर्तिनिर्माण करके उसमें भगवान्‌का आवाहन और प्रतिष्ठा करे। तत्पश्चात् पहले गुरुदेवकी पूजा करके भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा करे। भगवान्‌के पार्श्वभागमें रुक्मिणी और सत्यभामाका, सामने इन्द्रका तथा पृष्ठभागमें सुरभिदेवीका पूजन करके केसरोंमें अङ्गपूजा करे। फिर आठ दलोंमें कालिन्दी आदि आठ पटरानियोंकी पूजा करके पीठके कोणोंमें किङ्किणी और दाम (रस्सी) की अर्चना करे। पृष्ठभागोंमें वेणुकी तथा सम्मुख श्रीवत्स एवं कौस्तुभकी पूजा करे। 

आगेकी ओर वनमाला आदि अलंकारोंका पूजन करे। आठ दिशाओंमें स्थित पाञ्चजन्य, गदा, चक्र, वसुदेव, देवकी, नन्दगोप, यशोदा तथा गौओं और ग्वालोंसहित गोपिका-इन सबकी पूजा करे। उनके बाह्यभागमें इन्द्र आदि दिक्पाल तथा उनके भी बाह्यभागमें वज्र आदि आयुध हैं। फिर पूर्व आदि दिशाओंमें क्रमशः कुमुद, कुमुदाक्ष, पुण्डरीक, वामन, शंकुकर्ण, सर्वनेत्र, सुमुख तथा सुप्रतिष्ठित- इन दिग्गजोंका पूजन करके विष्वक्सेन तथा आत्माका पूजन करना चाहिये। जो मनुष्य एक या तीनों समय श्रीगोविन्दका पूजन करता है, वह चिरायु, निर्भय तथा धन-धान्यका स्वामी होता है। सद्य (ओ) सहित स्मृति (ग्) अर्थात् 'गो', दक्षिण कर्ण (उ) युक्त चक्री (क्) अर्थात् 'कु', धरा (ल)- इन अक्षरोंके पश्चात् 'नाथाय' पद और अन्तमें हृदय (नमः) यह -'गोकुलनाथाय नमः' महामन्त्र आठ अक्षरोंका है। इसके ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छन्द तथा श्रीकृष्ण देवता हैं। इसके दो-दो अक्षरों तथा सम्पूर्ण मन्त्रसे पञ्चाङ्गन्यास करे।

ध्यान

पञ्चवर्षमतिलोलमङ्गने धावमानमतिचञ्चलेक्षणम् ।
किङ्किणीबलयहारनूपुरै रञ्जितं नमत गोपबालकम् ॥ 

'बाल गोपालकी पाँच वर्षकी अवस्था है, वे अत्यन्त चपल गतिसे आँगनमें दौड़ रहे हैं, उनके नेत्र भी बड़े चञ्चल हैं, किङ्किणी, वलय,हार और नूपुर आदि आभूषण विभिन्न अङ्गोंकी शोभा बढ़ा रहे हैं, ऐसे सुन्दर गोपबालकको नमस्कार करो।' इस प्रकार ध्यान करके मन्त्रोपासक आठ लाख जप और पलाशकी समिधाओं अथवा खीरसे दशांश हवन करे। पूर्वोक्त वैष्णवपीठपर मूलमन्त्रसे मूर्तिका संकल्प करके उसमें मन्त्रसाधक स्थिरचित्त हो भगवान् श्रीकृष्णका आवाहन और पूजन करे। चारों दिशा-विदिशाओंमें जो केसर हैं, उनमें अङ्गोंकी पूजा करे। फिर दिशाओंमें वासुदेव, बलभद्र, प्रद्युम्र और अनिरुद्धका तथा कोणोंमें रुक्मिणी, सत्यभामा, लक्ष्मणा और जाम्बवतीका पूजन करे। इनके बाह्यभागोंमें लोकेशों और आयुधोंकी पूजा करनी चाहिये। ऐसा करनेसे मन्त्र सिद्ध हो जाता है।तार (ॐ), श्री (श्रीं), भुवना (हीं), काम (क्लीं), डे विभक्त्यन्त श्रीकृष्ण शब्द अर्थात् 'श्रीकृष्णाय' ऐसा ही गोविन्द पद (गोविन्दाय), फिर 'गोपीजनवल्लभाय' तत्पश्चात् तीन पद्मा (श्रीं श्रीं श्रीं) यह (ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीकृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय श्रीं श्रीं श्रीं) तेईस अक्षरोंका मन्त्र है। इसके ऋषि आदि भी पूर्वोक्त ही हैं। सिद्ध गोपालका स्मरण करना चाहिये।

ध्यान 

माधवीमण्डपासीनौ गरुडेनाभिपालितौ। 
दिव्यक्रीडासु निरतौ रामकृष्णौ स्मरञ्जपेत् ॥

जो माधवीलतामय मण्डपमें बैठकर दिव्य क्रीडाओंमें तत्पर हैं, श्रीगरुडजी जिनकी रक्षा कर रहे हैं, उन श्रीबलराम तथा श्रीकृष्णका चिन्तन करते हुए मन्त्र जप करना चाहिये। श्रेष्ठ वैष्णवोंको पूर्ववत् पूजन करना चाहिये। चक्री (क) आठवें स्वर (ऋ) से युक्त हो और उसके साथ विसर्ग भी हो तो 'कृः' यह एकाक्षर मन्त्र होता है। 'कृष्ण' यह दो अक्षरोंका मन्त्र है। इसके आदिमें क्लीं जोड़नेपर 'क्लीं कृष्ण' यह तीन अक्षरोंका मन्त्र बनता है। वही के विभक्त्यन्त होनेपर चार अक्षरोंका 'क्लीं कृष्णाय' मन्त्र होता है। 'कृष्णाय नमः' यह पञ्चाक्षर मन्त्र है। 'क्लीं' सम्पुटित कृष्ण पद भी अपर पञ्चाक्षर मन्त्र है; यथा- क्लीं कृष्णाय क्लीं। 'गोपालाय स्वाहा' यह षडक्षर- मन्त्र कहा गया है। 'क्लीं कृष्णाय स्वाहा'यह भी दूसरा षडक्षर मन्त्र है। 'कृष्णाय गोविन्दाय' यह सप्ताक्षर-मन्त्र सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला है। 'श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय क्लीं' यह दूसरा सप्ताक्षर मन्त्र है। 'कृष्णाय गोविन्दाय नमः' यह दूसरा नवाक्षर मन्त्र है। 'क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय क्लीं' यह भी इतर नवाक्षर-मन्त्र है। 'क्लीं ग्लौं क्लीं श्यामलाङ्गाय नमः' यह दशाक्षर सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला है। 'बालवपुषे कृष्णाय स्वाहा' यह दूसरा दशाक्षर मन्त्र है। तदनन्तर गोपीजनमनोहर श्रीकृष्णका इस प्रकार ध्यान करे-

श्रीवृन्दाविपिनप्रतोलिषु नमत्संफुल्लवल्लीतति- ष्वन्तर्जालविघट्टनैः सुरभिणा वातेन संसेविते। 
कालिन्दीपुलिने विहारिणमथो राधैकजीवातुकं वन्दे नन्दकिशोरमिन्दुवदनं स्त्रिग्धाम्बुदाडम्बरम् ॥

श्रीवृन्दावनकी गलियोंमें झुकी और फूली हुई लतावेलोंकी पङ्क्तियाँ फैली हुई हैं। उनके भीतर घुसकर लोट-पोट करनेसे शीतल-मन्द वायु सुगन्धसे भर गयी है। वह सुगन्धित वायु उस यमुना-पुलिनको सब ओरसे सुवासित कर रही है, जहाँ श्रीराधारानीके एकमात्र जीवनधन नागर नन्दकिशोर विचरण कर रहे हैं। उनका मुख चन्द्रमासे भी अधिक मनोहर है और उनकी अङ्गकान्ति स्त्रिग्ध मेघोंकी श्याम मनोहर छविको छीने लेती है। मैं उन्हीं नटवर नन्दकिशोर की वन्दना करता हूँ। मुनीश्वर ! इन मन्त्रोंकी पूजा पूर्वोक्त पद्धतिसे ही होती है, यह जानना चाहिये।

देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥

यह बत्तीस अक्षरोंका मन्त्र है। इसके नारद ऋषि, गायत्री और अनुष्टुप् छन्द तथा पुत्रप्रदाता श्रीकृष्ण देवता हैं। चारों पादों तथा सम्पूर्ण मन्त्रसे इसका अङ्ग-न्यास करे।

विजयेन युतो रथस्थितः प्रसमानीय समुद्रमध्यतः । 
प्रददत्तनयान् द्विजन्मने स्मरणीयो वसुदेवनन्दनः ।।

'जो अर्जुनके साथ रथपर बैठे हैं और क्षीरसागरसे लाकर ब्राह्मणके मरे पुत्रको उन्हें वापस दे रहे हैं, उन वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णका चिन्तन करना चाहिये।' इसका एक लाख जप और घी, चीनी तथा मधु-मेवा आदि मधुर पदार्थोंमें सने हुए तिलोंसे दस हजार होम करे। पूर्वोक्त वैष्णवपीठपर अङ्ग, दिक्पाल तथा आयुधोंसहित श्रीकृष्णकी पूजा करनी चाहिये। इस प्रकार मन्त्र सिद्ध कर लेनेपर वन्ध्या स्त्रीके भी पुत्र उत्पन्न हो सकता है। 'ॐ ह्रीं हंसः सोऽहं स्वाहा' यह दूसरा अष्टाक्षर-मन्त्र है। इस पञ्चब्रह्मात्मक मन्त्रके ब्रह्मा ऋषि, परमा गायत्री छन्द तथा परम ज्योतिः स्वरूप परब्रह्म देवता कहे गये हैं। प्रणव बीज है और स्वाहा शक्ति कही गयी है। 'स्वाहा' हृदयाय नमः। सोऽहं शिरसे स्वाहा। हंसः शिखायै वषट्। हुल्लेखा कवचाय हुम्। ॐ नेत्राभ्यां वौषट्। 'हरिहर' अस्त्राय फट् । 
  • इस प्रकार अङ्ग न्यास करे।

स ब्रह्मा स शिवो विप्र स हरिः सैव देवराट्। 
स सर्वरूपः सर्वांख्यः सोऽक्षरः परमः स्वराट् ॥

'विप्रवर! वे श्रीकृष्ण ही ब्रह्मा हैं, वे ही शिव हैं, वे ही विष्णु और वे ही देवराज इन्द्र हैं। वे ही सब रूपोंमें हैं तथा सब नाम उन्हींके हैं। वे ही स्वयं प्रकाशमान अविनाशी परमात्मा हैं।' इस प्रकार ध्यान करके आठ लाख जप और दशांश होम करे। इनकी पूजा प्रणवात्मक पीठपर अङ्ग और आवरणदेवताओंके साथ करनी चाहिये। नारद! इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जानेपर साधक-शिरोमणि पुरुषको 'तत्त्वमसि' आदि महावाक्योंका विकल्परहित ज्ञान प्राप्त होता है। 'क्लीं हृषीकेशाय नमः' यह अष्टाक्षर मन्त्र है। इसके ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छन्द और हृषीकेश देवता हैं। सम्पूर्ण मनोरथोंकी प्राप्तिके लिये इसका विनियोग किया जाता है। 'क्लीं' बीज है तथा 'आय' शक्ति कही गयी है। बीजमन्त्रसे ही षडङ्ग-न्यास करके ध्यान करे। अथवा पुरुषोत्तम मन्त्रके लिये कही हुई सब बातें इसके लिये भी समझनी चाहिये। इसका एक लाख जप तथा घृतसे दस हजार होम करे। संमोहिनी कुसुमोंसे तर्पण करना सम्पूर्ण कामनाओंकी प्राप्ति करानेवाला कहा गया है। 'श्रीं श्रीधराय त्रैलोक्यमोहनाय नमः' यह चौदह अक्षरोंका मन्त्र है। इसके ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छन्द, श्रीधर देवता, श्रीं बीज और 'आय' शक्ति है। बीजसे ही षडङ्ग न्यास करे। इसमें भी पुरुषोत्तम मन्त्रकी ही भाँति ध्यान-पूजन आदि कहे गये हैं। एक लाख जप और घीसे ही दशांश होमका विधान है। सुगन्धित श्वेत पुष्पोंसे पूजा और होम आदि करे। विप्रेन्द्र! ऐसा करनेपर वह साक्षात् श्रीधरस्वरूप हो जाता है। 'अच्युतानन्तगोविन्दाय नमः' यह एक मन्त्र है और 'अच्युताय नमः', अनन्ताय नमः', गोविन्दाय नमः' ये तीन मन्त्र हैं। प्रथमके शौनक ऋषि और विराट् छन्द है। शेष तीन मन्त्रोंके क्रमशः पराशर, व्यास और नारद ऋषि हैं। छन्द इनका भी विराट् ही है। परब्रह्मस्वरूप श्रीहरि इन सब मन्त्रोंके देवता हैं। साधक इनके बीज और शक्ति भी पूर्वोक्त ही समझे। 
  • ध्यान 

शङ्खचक्रधरं देवं चतुर्बाहुं किरीटिनम् ॥
सर्वैरप्यायुधैर्युक्तं गरुडोपरि संस्थितम्।

सनकादिमुनीन्द्रैस्तु सर्वदेवैरुपासितम् ॥
श्रीभूमिसहितं देवमुदयादित्यसन्निभम् ।

प्रातरुद्यत्सहस्त्रांशुमण्डलोपमकुण्डलम् ॥
सर्वलोकस्य रक्षार्थमनन्तं नित्यमेव हि।

अभयं वरदं देवं प्रयच्छन्तं मुदान्वितम् ॥

'भगवान् अच्युत शङ्ख और चक्र धारण करते हैं। वे द्युतिमान् होनेसे 'देव' कहे गये हैं। उनके चार बाँहें हैं। वे किरीटसे सुशोभित हैं। उनके हाथोंमें सब प्रकारके आयुध हैं। वे गरुड़की पीठपर बैठे हैं। सनक आदि मुनीश्वर तथा सम्पूर्ण देवता उनकी उपासना करते हैं। उनके उभय पार्श्वमें श्रीदेवी तथा भूदेवी हैं। वे उदयकालीन सूर्यके समान तेजस्वी हैं। उनके कानोंके कमनीय कुण्डल प्रातःकाल उगते हुए सूर्यदेवके मण्डलके समान अरुण प्रकाशसे सुशोभित हैं। वे वरदायक देवता हैं, सदा परमानन्दसे परिपूर्ण रहते हैं और सम्पूर्ण विश्वकी रक्षाके लिये सदा ही सबको अभय प्रदान करते हैं। उनका कहीं किसी कालमें भी अन्त नहीं होता।' इस प्रकार ध्यान करके एकाग्रचित्त हो वैष्णवपीठपर भगवान्‌की पूर्ववत् पूजा करें। इनका प्रथम आवरण अङ्गोंद्वारा सम्पन्न होता है। चक्र, शङ्ख, गदा, खड्ग, मुसल, धनुष, पाश तथा अंकुश इनसे द्वितीय आवरण बनता है। सनकादि चार महात्मा तथा पराशर, व्यास, नारद और शौनकसे तृतीय आवरण होता है। लोकपालोंद्वारा चौथा आवरण पूरा होता है। (पाँचवें आवरणमें वज्र आदि आयुधोंकी पूजा होती है।) इस मन्त्रका एक लाख जप और घृतसे दशांश हवन किया जाता है। इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जानेपर मन्त्रोपासक कामनापूर्तिके लिये मन्त्रका प्रयोग भी कर सकता है। बेलके पेड़के नीचे उसकी जड़के समीप बैठकर देवेश्वर भगवान् विष्णुका ध्यान करते हुए रोगीका स्मरण करे और उसका स्पर्श करके दस हजार मन्त्र जपे। ब्रह्मन् ! वह स्पर्श करके, जप करके अथवा साध्यका मन-ही-मन स्मरण करके या मण्डल बनाकर रोगियोंको रोगसे मुक्त कर सकता है।

बाल (व्), पवन (य्) ये दोनों अक्षर दीर्घ आकार और अनुस्वारसे युक्त हों और झिंटीश (एकार) से युक्त जल (ब्) हो, तत्पश्चात् अत्रि अर्थात् दकार हो और उसके बाद 'व्यासाय' पदके अन्तमें हृदय (नमः) का प्रयोग हो तो यह (व्यां वेदव्यासाय नमः) अष्टाक्षर-मन्त्र बनता है। यह मन्त्र सबकी रक्षा करे। इसके ब्रह्मा ऋषि, अनुष्टुप् छन्द, सत्यवती नन्दन व्यास देवता, व्यां बीज और नमः शक्ति है। दीर्घस्वरोंसे युक्त बीजाक्षर (व्यां व्यीं व्यूं व्यै व्याँ व्यः) द्वारा अङ्ग न्यास करना चाहिये।

ध्यान

व्याख्यामुद्रिकया लसत्करतलं सद्योगपीठस्थितं वामे जानुतले दधानमपरं हस्तं सुविद्यानिधिम्।
विप्रव्रातवृतं प्रसन्नमनसं पाथोरुहाङ्गद्युतिं पाराशर्यमतीव पुण्यचरितं व्यासं स्मरेत्सिद्धये ॥

'जिनका दाहिना हाथ व्याख्याकी मुद्रासे सुशोभित है, जो उत्तम योगपीठासनपर विराजमान हैं, जिन्होंने अपना बायाँ हाथ बायें घुटनेपर रख छोड़ा है, जो उत्तम विद्याके भण्डार, ब्राह्मणसमूहसे घिरे हुए तथा प्रसन्नचित्त हैं, जिनकी अङ्गकान्ति कमलके समान तथा चरित्र अत्यन्त पुण्यमय है, उन पराशरनन्दन वेदव्यासका सिद्धिके लिये चिन्तन करे। आठ हजार मन्त्र- जप और खीरसे दशांश होम करे। पूर्वोक्त पीठपर व्यासका पूजन करे। पहले अङ्गोंकी पूजा करनी चाहिये। पूर्व आदि चार दिशाओंमें क्रमशः पैल, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तका तथा ईशान आदि कोणोंमें क्रमशः श्रीशुकदेव, रोमहर्षण, उग्रश्रवा तथा अन्य मुनियोंका पूजन करे। इनके बाह्यभागमें इन्द्र आदि दिक्पालों और वज्र आदि आयुधोंकी पूजा करे। इस प्रकार मन्त्र सिद्ध कर लेनेपर मन्त्रोपासक पुरुष कवित्वशक्ति, सुन्दर संतान, व्याख्यान-शक्ति, कीर्ति तथा सम्पदाओंकी निधि प्राप्त कर लेता है।

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