उत्तम जगत् , अध्यात्म तत्त्व तथा ध्यान योग का वर्णन,Uttam Jagat, Adhyaatm Tatv Tatha Dhyaan Yog Ka Varnan

उत्तम जगत् , अध्यात्म तत्त्व तथा ध्यान योग का वर्णन


भरद्वाज जी बोले - महर्षे! इस लोक से उत्तम एक लोक यानी प्रदेश सुना जाता है। मैं उस उत्तम लोक को जानना चाहता हूँ। आप उसके विषय में बतलानेकी कृपा करें।
भृगुजीने कहा-उत्तर में हिमालय के पास सर्वगुणसम्पन्न पुण्यमय प्रदेश है, जो पुण्यदायक, क्षेमकारक और कमनीय है। वही 'उत्तम लोक' कहा जाता है। वहाँके मनुष्य पापकर्मसे रहित, पवित्र, अत्यन्त निर्मल, लोभ-मोहसे शून्य तथा उपद्रवरहित हैं। वह प्रदेश स्वर्गके समान है। वहाँ सात्त्विक शुभ गुण बताये गये हैं। वहाँ समय आनेपर ही मृत्यु होती है (अकाल मृत्यु नहीं होती)। रोग वहाँ के मनुष्योंका स्पर्श नहीं करता। वहाँ किसीके मनमें परायी स्त्रीके लिये लोभ नहीं होता। सब लोग अपनी ही स्त्रीसे प्रेम रखनेवाले हैं। उस देशमें धनके लिये दूसरोंका वध नहीं किया जाता। उस प्रदेशमें अधर्म अच्छा नहीं माना जाता। किसीको धर्मविषयक संदेह नहीं होता। वहाँ किये हुए कर्मका फल प्रत्यक्ष मिलता है। इस लोकमें तो किन्हींके पास जीवन-निर्वाहमात्रके लिये सब सामग्री उपलब्ध है और कोई-कोई बड़े परिश्रमसे जीविका चलाते हैं। यहाँ कुछ लोग धर्मपरायण हैं, कुछ लोग शठता करनेवाले हैं, कोई सुखी है, कोई दुःखी; कोई धनवान् है, कोई निर्धन। इस लोक में परिश्रम, भय, मोह और तीव्र क्षुधाका कष्ट प्राप्त होता है। मनुष्योंके मनमें धनके लिये लोभ रहता है, जिससे अज्ञानी पुरुष मोहित होते हैं। कपट, शठता, चोरी, परनिन्दा, दोषदृष्टि, दूसरोंपर चोट करना, हिंसा, चुगली तथा मिथ्याभाषण-इन दुर्गुणोंका जो सेवन करता है, उसकी तपस्या नष्ट होती है। जो विद्वान् इनका आचरण नहीं करता उसकी तपस्या बढ़ती है।

इस लोकमें धर्म और अधर्म-सम्बन्धी कर्मके लिये नाना प्रकारकी चिन्ता करनी पड़ती है। लोकमें यह कर्मभूमि है। यहाँ शुभ और अशुभ कर्म करके मनुष्य शुभ कर्मोंका शुभ फल और अशुभ कर्मोंका अशुभ फल पाता है। पूर्वकालमें यहाँ प्रजापति ब्रह्मा, अन्यान्य देवता तथा महर्षियोंने यज्ञ और तपस्या करके पवित्र हो ब्रह्मलोक प्राप्त किया था। पृथ्वीका उत्तरीय भाग सबसे अधिक पवित्र और शुभ है। यहाँ जो पुण्य कर्म करनेवाले मनुष्य हैं, वे यदि सत्कार (शुभ फल) चाहते हैं तो पृथ्वीके उस भागमें जन्म पाते हैं। कुछ लोग कर्मानुसार पशु-पक्षी आदिकी योनियोंमें जन्म लेते हैं, दूसरे लोग क्षीणायु होकर यहीं भूतलपर नष्ट हो जाते हैं। जो एक-दूसरेको खा जानेके लिये उद्यत रहते हैं, ऐसे लोभ और मोहमें डूबे हुए मनुष्य यहीं चक्कर लगाते रहते हैं, उत्तर दिशाको नहीं जाते। जो गुरुजनोंकी सेवा करते और इन्द्रियसंयमपूर्वक ब्रह्मचर्यके पालनमें तत्पर होते हैं, वे मनीषी पुरुष सम्पूर्ण लोकोंका मार्ग जानते हैं। इस प्रकार मैंने ब्रह्माजीके बताये हुए धर्मका संक्षेपसे वर्णन किया है। जो जगत्के धर्म और अधर्मको जानता है, वही बुद्धिमान् है।

भरद्वाजजीने कहा- तपोधन! पुरुषके शरीरमें अध्यात्म-नामसे जिस वस्तुका चिन्तन किया जाता है, वह अध्यात्म क्या है और कैसा है। यह मुझे बताइये। भृगुजी बोले- ब्रह्मर्षे ! जिस अध्यात्मके विषयमें पूछ रहे हो, उसकी व्याख्या करता हूँ। तात ! वह अतिशय कल्याणकारी सुखस्वरूप है। अध्यात्मज्ञानका जो फल मिलता है- वह है सम्पूर्ण प्राणियोंका हित। पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और पाँचवाँ तेज-ये पाँच महाभूत हैं, जो सब प्राणियोंकी उत्पत्ति और लयके स्थान हैं। जो भूत जिससे उत्पन्न होते हैं, वे फिर उसीमें लीन हो जाते हैं। जैसे समुद्रसे लहरें उठती हैं और फिर उसीमें लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार ये महाभूत क्रमशः अपने-अपने कारणरूप अन्य भूतोंसे उत्पन्न होते और प्रलयकाल आनेपर फिर उन्हींमें लीन हो जाते हैं। जैसे कछुआ अपने अङ्गोंको फैलाकर फिर उन्हें समेट लेता है, उसी प्रकार भूतात्मा परमेश्वर अपने रचे हुए भूतोंको पुनः अपनेमें लीन करते हैं। महाभूत पाँच ही हैं। सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति करनेवाले परमात्माने समस्त प्राणियोंमें उन्हीं पाँचों भूतोंको भलीभाँति नियुक्त किया है, किंतु जीव उन परमात्माको नहीं देखता है।

शब्द, कान और शरीरके छिद्र- ये तीनों आकाशसे प्रकट हुए हैं। स्पर्श, चेष्टा और त्वचा- ये तीन वायुके कार्य हैं। रूप, नेत्र और पाक इन तीन रूपोंमें तेजकी उपलब्धि कही जाती है। रस, क्लेद (गीलापन) और जिह्वा- ये तीन जलके गुण बताये गये हैं। गन्ध, नासिका और शरीर- ये तीन भूमिके कार्य हैं। इन्द्रियरूपमें पाँच ही महाभूत हैं और छठा मन है। इस प्रकार श्रोत्रादि पाँच इन्द्रियोंका और मनका ही परिचय दिया गया है। बुद्धिको सातवाँ तत्त्व कहा गया है। क्षेत्रज्ञ आठवाँ है। कान सुननेके लिये और त्वचा स्पर्शका अनुभव करनेके लिये है। रसका आस्वादन करनेके लिये रसना (जिह्वा) और गन्ध ग्रहण करनेके लिये नासिका है। नेत्रका काम देखना है। मन संदेह करता है। बुद्धि निश्चय करनेके लिये है और क्षेत्रज्ञ साक्षीकी भाँति स्थित है। दोनों पैरोंसे ऊपर सिरतक जो कुछ भी नीचे- ऊपर है, सबको वह क्षेत्रज्ञ ही देखता है। क्षेत्रज्ञ (आत्मा) व्यापक है। इसने इस सम्पूर्ण शरीरको बाहर भीतरसे व्याप्त कर रखा है। पुरुष ज्ञाता है और सम्पूर्ण इन्द्रियाँ उसके लिये ज्ञेय हैं। तम, रज और सत्त्व-ये सारे भाव पुरुषके आश्रित हैं। जो मनुष्य इस अध्यात्मज्ञानको जान लेता है, वह भूतोंके आवागमनका विचार करके धीरे-धीरे उत्तम शान्ति पा लेता है। पुरुष जिससे देखता है, वह नेत्र है। जिससे सुनता है, उसे श्रोत्र (कान) कहते हैं। जिससे सूंघता है, उसका नाम प्राण (नासिका) है। वह जिह्वासे रसका अनुभव करता है और त्वचासे स्पर्शको जानता है। बुद्धि सदा ज्ञान या निश्चय कराती है। पुरुष जिससे कुछ इच्छा करता है, वह मन है। बुद्धि इन सबका अधिष्ठान है। अतः पाँच विषय और पाँच इन्द्रियाँ उससे पृथक् कही गयी हैं। इन सबका अधिष्ठाता चेतन क्षेत्रज्ञ इनसे नहीं देखा जाता।

प्रीति या प्रसन्नता सत्त्वगुणका कार्य है। शोक रजोगुण और क्रोध तमोगुण है। इस प्रकार ये तीन भाव हैं। लोकमें जो-जो भाव हैं, वे सब इन तीनों गुणोंमें आबद्ध हैं। सत्त्व, रज और तम-ये तीन गुण सदा प्राणियोंके भीतर रहते हैं। इसलिये सब जीवोंमें सात्त्विकी, राजसी और तामसी- यह तीन प्रकारकी अनुभूति देखी जाती है। तुम्हारे शरीर अथवा मनमें जो कुछ प्रसन्नतासे संयुक्त है, वह सब सात्त्विक भाव है। मुनिश्रेष्ठ ! जो कुछ भी दुःखसे संयुक्त और मनको अप्रसन्न करनेवाला है, उसे रजोगुणका ही प्रकाश समझो। इससे अतिरिक्त जो कुछ मोहसे संयुक्त हो और उसका आधार व्यक्त न हो तथा जो ज्ञानमें न आता हो, वह तमोगुण है-ऐसा निश्चय करे। हर्ष, प्रीति, आनन्द, सुख एवं चित्तकी शान्ति- इन भावोंको सात्त्विक गुण समझना चाहिये। असंतोष, परिताप, शोक, लोभ तथा असहनशीलता- ये रजोगुणके चिह्न हैं। अपमान, मोह, प्रमाद, स्वप्न, तन्द्रा आदि भाव तमोगुणके ही भिन्न-भिन्न कार्य हैं। जो बहुधा दोषकी ओर जाता है, उस मनके दो स्वरूप हैं- याचना करना और संशय। जिसका मन अपने अधीन है, वह इस लोकमें तो सुखी होता ही है, मरनेके बाद परलोकमें भी उसे सुख मिलता है।

सत्त्व (बुद्धि) तथा क्षेत्रज्ञ (पुरुष) ये दोनों सूक्ष्म हैं। जिसे इन दोनों का अन्तर (पार्थक्य) ज्ञात हो जाता है, वह भी इहलोक और परलोकमें सुखका भागी होता है। इनमें एक तो गुणोंकी सृष्टि करता है और एक नहीं करता। सत्त्व आदि गुण आत्माको नहीं जानते, किंतु आत्मा सब प्रकारसे गुणोंको जानता है। यद्यपि पुरुष गुणोंका द्रष्टामात्र है, तथापि बुद्धिके संसर्गसे वह अपनेको उनका स्त्रष्टा मानता है। इस प्रकार सत्त्व और पुरुषका संयोग हुआ है, किंतु इनका पार्थक्य निश्चित है। जब बुद्धि मनके द्वारा इन्द्रियरूपी घोड़ोंकी रास खींचती है और भलीभाँति काबूमें रखती है, उस समय आत्मा प्रकाशित होने लगता है। जो मुनि प्राकृत कर्मोंका त्याग करके सदा आत्मामें ही रमण करता है, वह सम्पूर्ण भूतोंका आत्मा होकर उत्तम गतिको प्राप्त होता रहता है। जैसे जलचर पक्षी जलसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार शुद्धबुद्धिपुरुष लिप्त नहीं होता। वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें अनासक्तभावसे रहता है। इस प्रकार अपनी बुद्धिद्वारा विचार करके मनुष्य अनासक्त- भावसे व्यवहार करे। वह हर्ष-शोकसे रहित हो सभी अवस्थाओंमें सम रहे। ईर्ष्या द्वेषको त्याग दे। बुद्धि और चेतनकी एकता है, यही हृदयकी सुदृढ़ ग्रन्थि है। इसको खोलकर विद्वान् पुरुष सुखी हो जाय और संशयका उच्छेद करके सदाके लिये शोक त्याग दे।

जैसे मलिन मनुष्य गङ्गामें स्नान करके शुद्ध होते हैं, उसी प्रकार श्रेष्ठ विद्वान् इस ज्ञानगङ्गामें गोता लगाकर निर्मल हो जाते हैं- ऐसा जानो। इस तरह जो मनुष्य इस उत्तम अध्यात्म-ज्ञानको जानते हैं, वे कैवल्यको प्राप्त होते हैं। ऐसा समझकर सब मनुष्य सम्पूर्ण भूतोंके आवागमनपर दृष्टि रखते हुए बुद्धिपूर्वक विचार करें। इससे धीरे-धीरे शान्ति प्राप्त होती है। जिनका अन्तःकरण पवित्र नहीं है, वे मनुष्य भिन्न-भिन्न विषयोंकी ओर प्रवृत्त हुई इन्द्रियोंमें यदि पृथक् पृथक् आत्माकी खोज करना चाहें तो उन्हें इस प्रकार आत्माका साक्षात्कार नहीं हो सकता। आत्मा तो इन सब इन्द्रिय, मन और बुद्धिका साक्षी होनेके कारण उनसे परे है-ऐसा जान लेनेपर ही मनुष्य ज्ञानी हो सकता है। इस तत्त्वको जान लेनेपर मनीषी पुरुष अपनेको कृतकृत्य मानते हैं। अज्ञानी पुरुषोंको जो महान् भय प्राप्त होता है, वह ज्ञानियोंको नहीं प्राप्त होता। जो फलकी इच्छा और आसक्तिका त्याग करके कर्म करता है, वह अपने पूर्वकृत कर्मबन्धनको जला देता है। ऐसा पुरुष यदि कर्म करता है तो उसका किया हुआ कर्म प्रिय अथवा अप्रिय फल नहीं उत्पन्न कर सकता। यदि मनुष्य अपनी आयुभर लोकको सताता है तो कर्ममें लगे हुए उस पुरुषका वह अशुभ कर्म उसके लिये यहाँ अशुभ फल ही उत्पन्न करता है। देखो, कुशल (पुण्य) कर्म करनेसे कोई भी शोकमें नहीं पड़ता, परंतु यदि उससे पाप बनता है तो सदाके लिये भयपूर्ण स्थान प्राप्त होता है।

भरद्वाजजी बोले- ब्रह्मन् ! मुझे अभयपदकी सिद्धिके लिये ध्यानयोग बताइये। जिस तत्त्वको जानकर मनुष्य आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों तापोंसे मुक्त हो जाता है, उसका मुझे उपदेश कीजिये।भृगुजीने कहा-मुने ! मैं तुम्हें ध्यानयोग बतलाता हूँ। (यद्यपि) वह चार प्रकारका है (किंतु यहाँ एक ही बताया जाता है), जिसे जानकर महर्षिगण इस जगत्‌में शाश्वत सिद्धिको प्राप्त होते हैं। योगी लोग भलीभाँति अभ्यासमें लाये हुए ध्यानका जिस प्रकार अनुष्ठान करते हैं, वैसा ही ध्यान करके ज्ञानतृप्त महर्षिगण संसारदोषसे मुक्त हो गये हैं। उन मुक्त पुरुषोंका पुनः इस संसारमें आगमन नहीं होता। वे जन्मदोषसे रहित हो अपने शुद्ध स्वरूपमें स्थित हो गये हैं। उनपर शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वोंका प्रभाव नहीं पड़ता। वे सदा अपने विशुद्ध स्वरूपमें स्थित, सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त तथा परिग्रहशून्य हैं। अनासक्ति आदि गुण मनको शान्ति प्रदान करनेवाले हैं। अनेक प्रकारकी चिन्ताओंसे पीड़ित मनको ध्यानके द्वारा एकाग्र करके ध्येय वस्तुमें स्थित करे। इन्द्रियसमुदायको सब ओरसे समेट करके ध्यानयोगी मुनि काष्ठकी भाँति स्थित हो जाय। कानसे किसी शब्दको न ग्रहण करे। त्वचासे स्पर्शका अनुभव न करे। नेत्रसे रूप न देखे तथा जिह्वासे रसोंका आस्वादन न करे। नासिकाद्वारा सब प्रकारके गन्धोंको ग्रहण करना भी त्याग दे। पाँचों विषय पाँचों इन्द्रियोंको मथ डालनेवाले हैं। तत्त्ववेत्ता पुरुष ध्यानके द्वारा इन विषयोंकी अभिलाषा छोड़ दे। तदनन्तर सशक्त एवं बुद्धिमान् पुरुष पाँच इन्द्रियोंको मनमें लीन करके पाँचों इन्द्रियोंसहित इधर-उधर भटकनेवाले मनको ध्येय वस्तुमें एकाग्र करे। मन चारों ओर विचरण करनेवाला है। उसका कोई दृढ़ आधार नहीं है। पाँचों इन्द्रियोंके द्वार उसके निकलनेके मार्ग हैं। वह अजितेन्द्रिय पुरुषके लिये बलवान् और जितेन्द्रियके लिये निर्बल है। धीर पुरुष पूर्वोक्त ध्यानके साधनमें शीघ्रतापूर्वक मनको एकाग्र करे। जब वह इन्द्रिय और मनको अपने वशमें कर लेता है तो उसका पूर्वोक्त ध्यान सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार मैंने यहाँ प्रथम ध्यानमार्गका वर्णन किया है।

इसके बाद पहलेसे वशमें किया हुआ मनसहित इन्द्रियवर्ग पुनः अवसर पाकर स्फुरित होता है, ठीक इसी तरह जैसे बादलमें बिजली चमकती है। जिस प्रकार पत्तेपर रखी हुई जलकी बूंद सब ओरसे चञ्चल एवं अस्थिर होती है, उसी प्रकार प्रथम ध्यानमार्गमें साधकका चित्त भी चञ्चल होता है। क्षणभरके लिये कभी एकाग्र होकर कुछ देर ध्यानमार्गमें स्थिर होता है, फिर भ्रान्त होकर वायुकी भाँति आकाशमें दौड़ लगाने लगता है। परंतु ध्यानयोगका ज्ञाता पुरुष इससे ऊबे नहीं। वह क्लेश, चिन्ता, ईर्ष्या और आलस्यका त्याग करके पुनः ध्यानके द्वारा चित्तको एकाग्र करे। प्रथम ध्यानमार्गपर चलनेवाले मुनिके हृदयमें विचार, वितर्क एवं विवेककी उत्पत्ति होती है। मन उद्विग्र होनेपर उसका समाधान करे। ध्यानयोगी मुनि कभी उससे खिन्न या उदासीन न हो। ध्यानद्वारा अपना हित-साधन अवश्य करे। इन इन्द्रियोंको धीरे-धीरे शान्त करनेका प्रयत्न करे। क्रमशः इनका उपसंहार करे। ऐसा करनेपर इनकी पूर्णरूपसे शान्ति हो जायगी। मुनीश्वर! प्रथम ध्यानमार्गमें पाँचों इन्द्रियों और मनको स्थापित करके नित्य अभ्यास करनेसे ये स्वयं शान्त हो जाते हैं। इस प्रकार आत्मसंयम करनेवाले पुरुषको जिस सुखकी प्राप्ति होती है, वह किसी लौकिक पुरुषार्थ और प्रारब्धसे नहीं मिलता। उस सुखके प्राप्त होनेपर मनुष्य ध्यानके साधनमें रम जाता है। इस प्रकार ध्यानका अभ्यास करनेवाले योगीजन निरामय मोक्षको प्राप्त होते हैं। सनन्दनजी कहते हैं- ब्रह्मन् ! महर्षि भृगुके इस प्रकार कहनेपर परम धर्मात्मा एवं प्रतापी भरद्वाज मुनि बड़े विस्मित हुए और उन्होंने भृगुजीकी बड़ी प्रशंसा की।

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