योग में आपत्ति एवं विघ्नों का वर्णन,
सूतजी बोले- हे ऋषियो ! योग साधन में सर्व प्रथम आलस्य नाम की आपत्ति आती है। दूसरी व्याधि पीड़ा, प्रमाद, संशय चित्त की चंचलता, दर्शन में अश्रद्धा, भ्रान्ति, तीन प्रकार के दुःख दुर्मनस्थता, अयोग्य विषयों में योग्यता होना ये दस प्रकार की बाधायें मुनि लोगों को बताई हैं। आलस्य का कारण तो शरीर का मोटा हो जाना तथा चित्त का योग में न लगना होता है। व्याधि धातु की विषमता से दो प्रकार की होती है। एक कर्म के द्वारा होने वाली तथा दूसरी दोषों (वातपित्त आदि) के द्वारा होने वाली। प्रमाद साधनों के अभाव से होता है। भय के द्वारा ऐसा होगा या नहीं कहना ही संशय है। चित्त की चंचलता (एकाग्र न होने से योगी का आदर नहीं रहता। संसार के बन्धनों से भूमि आदि प्राप्त करने पर भी यदि मन नहीं एकाग्र होता तो योगी की प्रतिष्ठा नहीं होती। योग साधन में भाव रहित वृत्ति का नाम अश्रद्धा है। गुरुज्ञान, आचार, शिव आदि में साधक की भावना न होना ही अश्रद्धा है, ज्ञान का विपर्यय (उलटा समझना) ही भ्रान्ति है। जैसे शरीर को ही आत्मा समझना आदि ।
दुःख आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तीन प्रकार के कहे हैं। दुर्मनस्यता को वैराग्य के द्वारा निरोध करना चाहिये। तमोगुण तथा रजोगुण के द्वारा छुआ हुआ मन ही दुर्मन होता है। योग्य और अयोग्य विषयों में विवेक के द्वारा स्वीकृति ही योग्यता है तथा हठ पूर्वक करना अयोग्यता है। इस प्रकार योगियों को योग योग मार्ग के साधने में यह दश आपत्तियाँ आती हैं। किन्तु अति अधिक उत्साह वाले मनुष्यों के द्वारा यह नष्ट कर दी जाती हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। इन आपत्तियों के नष्ट हो जाने पर सिद्धि की सूचक बाधायें उत्पन्न होती हैं। इनमें प्रतिभा नाम की पहली सिद्धि है। दूसरी श्रवण कही गई है। तीसरी वार्ता, चौथी दर्शना, पाँचवीं आस्वादा, छठी वेदना कही गई है। मनुष्य इन छः सिद्धियों को त्यागने पर ही सिद्ध होता है। प्रतिभा को दूसरों पर प्रभाव डालने वाली सिद्धि कहा है। इसके द्वारा सिद्ध लोग दूसरों को प्रभावित करते हैं। जैसे सूक्ष्म वस्तु को तथा व्यवहार की बात को, बीती हुई तथा आगे की बात को बुद्धि के विवेचन द्वारा बता देना। सभी प्रकार का ज्ञान प्रतिभा का अनुयायी होता है।
योगी लोग बिना ही प्रयत्न के सभी शब्दों को श्रवण सिद्धि के बता देते हैं। हस्व, दीर्घ और प्लुत का ज्ञान भी उन्हें श्रवण सिद्धि के द्वारा सहज ही में हो जाता है। स्पर्श के द्वारा वेदना सिद्धि का मान होता है। दर्शना सिद्धि के द्वारा बिना ही प्रयत्न के दिव्य रूपों के दर्शन होने लगते हैं। दिव्य रसों का स्वाद बिना प्रयत्न के ही जिस सिद्धि से मिलता है, उसको आस्वादा सिद्धि कहा गया है। तन्मात्रा (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) के द्वारा दिव्य गन्धों का बिना ही प्रयत्न के आभास कराने वाली सिद्धि वार्ता है। इस संसार में औपसर्गिक आदि ६४ प्रकार के गुण कहे हैं, परन्तु योगी को आत्म कामना के लिए इन्हें सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। इन गुणों के पिशाच, पार्थिव, राक्षस, याक्ष, गान्धर्व, ऐन्द्र, व्योमात्मक, प्रजापत्य अहंकार, ब्राह्म आदि नाम बताये हैं। इनमें आदि को आठ रूपों वाला दूसरे को सोलह रूपों वाला बताया है। इसी प्रकार तीसरे को चौबीस, चौथे को बत्तीस, पाँचवें को चालीस भूतमात्रा का बताया है। ६४ गुणों से युक्त ब्राह्य गुण होता है। औपसर्गिक आदि गुणों का त्याग करके लोक में ही गुणों को देखकर योगी को योग में तत्पर रहना चाहिए।
मोटापन, हल्कापन, बालकपन तथा जवानी आदि अनेक प्रकार की जाति देहधारियों के लिए कही गई हैं। पृथ्वी आदिक अंशों के बिना ही सुन्दर गन्ध से युक्त जो ऐश्वर्य हैं वह आठ गुण वाला होता है उसे महा पार्थिव गुण कहा है। जल में रहता हुआ भी भूमि पर निकल आना, इच्छा शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण समुद्र को भी पीने की सामर्थ रखना, संसार में जो देखने की इच्छा हो उसे जल में देख लेना, जो भी वस्तु हों उन्हें कामना के द्वारा ही भोगने की इच्छा से ही भोग लेना, बिना बर्तन के ही हाथ पर जल को पिंड के समान रख लेना, शरीर से अग्नि की लौ निकलते रहने पर भी जलने का भय न होना, शरीर का घाव रहित रहना आदि सोलह प्रकार के ऐश्वर्य कहे हैं। संसार को जलता हुआ दीखने पर भी जले नहीं, जल के बीच में अग्नि जलकर अपनी रक्षा करना, हाथ पर आँच को धारण कर लेना, किसी भी वस्तु को जलाकर भस्म कर देना तथा उसे फिर ज्यों का त्यों बना देना, आदि तेज सम्बन्धी २४ गुण कहे गये हैं।
प्राणियों के मन की बात को जान लेना, पर्वत आदि महान वस्तुओं को कन्धे पर धारण कर लेना, अत्यन्त छोटा बन जाना तथा अत्यधिक बड़ा बन जाना, हाथों के द्वारा वायु को पकड़ लेना, अंगूठे के द्वारा दबा देने पर पृथ्वी का काँप जाना आदि ऐश्वर्यशाली गुण वात (वायु) के सम्बन्धी बताये हैं। आकाश गमन, शरीर को छाया से रहित दिखाना आदि इन्द्रिय सम्बन्धी गुण कहे हैं। दूर से शब्द ग्रहण कर लेना, सभी शब्दों का ज्ञान होना, तन्मात्रता (रूप, रस आदि) का ग्रहण कर लेंना, सभी प्राणियों का दर्शन आदि ऐश्वर्य भी इन्द्रिय सम्बन्धी हैं। इच्छानुसार अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेना, संसार का दर्शन करना आदि मानस गुण के लक्षण हैं। छेदना, ताड़ना देना, बाँध देना, संसार को पलट देना, सब प्राणियों की कृपा होना, काल और मृत्यु को जीत लेना, ये प्रजापत्य अहंकार के लक्षण हैं।
बिना ही कारण के सृष्टि रच देना, पालन करना, संसार बनाने की प्रवृत्ति तथा प्रलय कर देना, इस अदृश्य का तथा व्यक्त जगत का निर्माण तथा अलग अलग बाँटना आदि ब्रह्म सम्बन्धी तेज का गुण है। इस प्रकार ये प्रधान वैष्णव पद भी कहे गए हैं। इनके गुणों को ब्रह्म ही जान सकता है, अन्य किसी में जानने की सामर्थ नहीं है। ये असंख्य गुण हैं; शिव से अन्य और कौन जान सकता है। इन परम ऐश्वर्यों को शैवी गुण कहा है और विष्णु के द्वारा जाने गए हैं।
योग के उत्थान में ये सिद्धियाँ बाधा रूप आती हैं। इनको प्रयत्न के द्वारा वैराग्य पूर्वक रोकना चाहिए। विषयों के भय का नाश तथा अतिशयता जानकर अश्रद्धा से इन सिद्धियों का त्यागना ही विरक्ति है। अतः इन सिद्धियों को वैराग के द्वारा योग में विघ्न समझ कर त्यागना चाहिए। इन औपसर्गिक का परित्याग करने से महेश्वर प्रसन्न होते हैं। उनके प्रसन्न होने पर विमल मुक्ति, अथवा अनुग्रह या लीला को योगी प्राप्त होते हैं। इस प्रकार इन बाधाओं को निरोध करके विशेष चेष्टा से वह मुनि सुखी होता है। कभी-कभी इस भूमि को छोड़कर आकाश में शोभायुक्त होकर क्रीड़ा करता है। कभी वह वेदों का उच्चारण करने लगता है। कभी उनके सूक्ष्म अर्थों को बतलाता है। कभी कभी श्रुतियों के अर्थों को बतलाता हुआ श्लोक (कविता) बनाने लगता है। कभी हजारों प्रकार के बन्धनों से बंध जाता है। कभी मृग पक्षियों के शब्द ज्ञान का बखान करने लगता है।
ब्रह्मा से लेकर स्थावर जंगम तक सभी को हाथ में रखे हुए आँवले के समान देखने लगता है। बहुत कहने से क्या लाभ अनेक प्रकार के विज्ञानों को उत्पन्न करता है। हे श्रेष्ठ मुनियो ! उस महात्मा मुनि के अभ्यास के द्वारा विशुद्ध विज्ञान स्थिर होता है। वह योग में लगा हुआ सभी तेजधारी रूपों को देखता है। अनेकों प्रकार के देवताओं के प्रतिबिम्ब और हजारों विमानों को देखता है। वह योगी, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि, वरुण, आदिक, ग्रह, नक्षत्र, तारे अनेकों हजारों भुवन, पाताल, तलों की संख्या आदि को समाधि में बैठा हुआ आत्म विद्या के दीपक के प्रकाश से स्वस्थचित्त से अचल होकर देखता है। भगवान की कृपा रूपी अमृत से भरे हुए सत्व के पात्र को देखता है तथा अपने हृदय के अंधकार को हटाकर वह पुरुष अपने आत्मा में ही ईश्वर को देखता है। भगवान की कृपा से धर्म ऐश्वर्य, ज्ञान, वैराग्य, अपवर्ग (मोक्ष) प्राप्त होती है इसमें अन्य विचार नहीं करना चाहिए। दस हजार वर्ष, हजार बार बीत जाएँ तो भी उनकी कृपा के विस्तार को नहीं कहा जा सकता। हे मुनीश्वरो ! पाशुपत योग में स्थित योगी की महिमा बड़ी अपार है।
टिप्पणियाँ