अग्नि पुराण तीन सौ चारवाँ अध्याय ! Agni Purana 304 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ चारवाँ अध्याय ! Agni Purana 304 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ चारवाँ अध्याय - पञ्चाक्षरादिपूजामन्त्राः

अग्निरुवाच

मेषः संज्ञा विषं साज्यमस्ति दीर्घेदकं रसः ।
एतत् पञ्चाक्षरं मन्त्रं शिवदञ्च शिवात्मकं ॥ १ ॥

तारकादि समभ्यर्च्च्य देवत्वादि समाप्नुयात् ।
ज्ञानात्मकं परं ब्रह्म परं बुद्धिः शिवो हृदि ॥ २ ॥

तच्छक्तिभूतः सर्व्वेशो भिन्नो ब्रह्मादिमूर्त्तिभिः ।
मन्त्रार्णाः पञ्च भूतानि तन्मन्त्रा विषयास्तथा ॥ ३ ॥

प्राणादिवायवः पञ्च ज्ञानकर्म्मेन्द्रियाणि च ।
सर्वं पञ्चाक्षरं ब्रह्म तद्वदष्टाक्षरान्तकः ॥ ४ ॥

गव्येन प्रोक्षयेद्दीक्षास्थानं मन्त्रेण चोदितं ।
तन्त्रसम्भूतसम्भावः शिवमिष्ट्वा विधानतः ॥ ५ ॥

मूलमूर्त्त्यङ्गविद्याभिस्तण्डुलक्षेपणादिकम् ।
कृत्वा चरुञ्च यत् क्षीरं पुनस्तद्विभजेत् त्रिधा ॥ ६ ॥

निवेद्यैकं परं हुत्वा सशिष्योऽन्यद् भजेद्‌गुरुः ।
आचम्य सकलीकृत्य दद्याच्छिष्याय देशिकः ॥ ७ ॥

दन्तकाष्ठं हृदा जप्तंक्षीरवृक्षादिसम्भवम् ।
संशोध्य दन्तान् संक्षीप्त्वा प्रक्षाल्यैतत् क्षिपेद्भुवि ॥ ८ ॥

पूर्व्वेण सौम्यवारीशगं शुभमतौ शुभम् ।
पुनस्तं शिष्यमायान्तं शिखाबन्धादिरक्षितं ॥ ९ ॥

कृत्वा वेद्यां सहानेन स्वपेद्दर्भास्तरे बुधः ।
सुषुप्तं वीक्ष्य तं शिष्यः प्रभाते श्रावयेद् गुरुं ॥ १० ॥

शुभैः सिद्धिपदैर्भक्तिस्तैः पुनर्म्मण्डलार्च्चनम् ।
मण्डलं भद्रकाद्युक्तं पूजयेत्सर्व्वसिद्धिदं ॥ ११ ॥

स्नात्वाचम्य मृदा देहं मन्त्रैरालिप्य कल्प्यते ।
शिवतीर्थे नरः स्नायादघमर्षणपूर्वकम् ॥ १२ ॥

हस्ताभिषेकं कृत्वाथ प्रायात् पूजादिकं बुधः ।
मूलेनाब्जासनं कुर्य्यात्तेन पूरककुम्भकान् ॥ १३ ॥

आत्मानं योजयित्वोर्द्ध्वं शिखान्ते द्वादशाङ्गुले ।
संशोष्य दग्धवा स्वतनुं प्लावयेदमृतेन च ॥ १४ ॥

ध्यात्वा दिव्यं वपुस्तस्मिन्नात्मानञ्च पुनर्नयेत् ।
कृत्वैवं चात्मशुद्धिः स्याद्विन्यस्यार्च्चनमारभेत् ॥ १५

क्रमात् कृष्णसितश्यामरक्तपीता नगादयः ।
मन्त्रार्णा दण्डिनाङ्गनि तेषु सर्व्वास्तु मूर्त्तयः ॥ १६ ॥

अङ्गुष्ठादिकनिष्ठान्तं विन्यस्याङ्गानि सर्व्वतः ।
न्यसेन्मन्त्राक्षरं पादगुह्यहृद्वक्त्रमूर्द्धसु ॥ १७ ॥

व्यापकं न्यस्य मूर्द्धादि मूलमङ्गानि विन्यसेत् ।
रक्तपीतश्यामसितान् पीठपादान् स्वकोणजान् ॥ १८ ॥

स्वाङ्गान्मन्त्रैर्न्यसेद् गात्राण्यधर्म्मादीनि दिक्षु च ।
तत्र पद्मञ्च सूर्य्यादिमण्डल त्रितयं गुणान् ॥ १९ ॥

पूर्व्वादिपत्रे वामाद्या नवमी कर्णिकोपरि ।
वामा ज्येष्ठा क्रमाद्रौद्री काली कलविकारिणी ॥ २० ॥

बलविकारिणी चाथ बलप्रमथनी तथा ।
सर्व्वभूतदमनी च नवमी च मनोन्मनी ॥ २१ ॥

श्वेता रक्ता सिता पीता श्यामा वह्निनिभाषिता ।
कृष्णारुणाश्च ताः शक्तीर्ज्वालारूपाः स्मरेत् क्रमात् ॥ २२ ॥

अनन्तयोगपीठे च आवाह्याथ हृदब्जतः ।
स्फटिकाभं चतुर्बाहुं फलशूलधरं शिवम् ॥ २३ ॥

साभयं वरदं पञ्चवदनञ्च त्रिलोचनम् ।
पत्रेषु मूर्त्तयः पञ्च स्थाप्यास्तत्पुरुषादयः ॥ २४ ॥

पूर्व्वे तत्पुरुषः श्वेतो अघोरोऽष्टभुजोऽसितः ।
चतुर्बाहुमुखः पीतः सद्योजातश्च पश्चिमे ॥ २५ ॥

वामदेवः स्त्रीविलासी चतुर्वक्त्रभुजोऽरुणः ।
सौम्ये पञ्चास्य ईशाने ईशानः सर्व्वदः सितः ॥ २६ ॥

इष्टाङ्गानि यथान्यायमनन्तं सूक्ष्म्मर्च्चयेत् ।
सिद्धेश्वरं त्वेकनेत्रं पूर्व्वादौ दिशि पूजयेत् ॥ २७ ॥

एकरुद्रं त्रिनेत्रञ्च श्रीकण्ठञ्च शिखण्डिनम् ।
ऐशान्यादिविदिक्ष्वेते विद्येशाः कमलासनाः ॥ २८ ॥

श्वेतः पीतः सितो रक्तो धूम्रो रक्तोऽरुणः सितः ।
शूलाशनिशरेष्वासवाहवश्चतुराननाः ॥ २९ ॥

उमा चण्डीशनन्दीशौ महाकालो गणेश्वरः ।
वृषो भृङ्गरिटिस्कन्दानुत्तरादौ प्रपूजयेत् ॥ ३० ॥

कुलिशं शक्तिदण्डौ च खड्गपाशध्वजौ गदां ।
शूलं चक्रं यजेत् पद्मं पूर्व्वादौ देवमर्च्य च ॥ ३१ ॥

ततोऽधिवासितं शिष्यं पाययेद् गव्यपञ्चकम् ।
आचान्तं प्रोक्ष्य नेत्रान्तैर्नेत्रे नेत्रेण बन्धयेत् ॥ ३२ ॥

द्वारे प्रवेशयेच्छिष्यं मण्डपस्याथ दक्षिणे ।
सासनादिकुशासीनं तत्र संशोधयेद् गुरुः ॥ ३३ ॥

आदितत्त्वानि संहृत्य परमार्थे लयः क्रमात् ।
पुनरुत्पादयेच्छिष्यं सृष्टिमार्गेण देशिकः ॥ ३४ ॥

न्यासं शिष्ये ततः कृत्वा तं प्रदक्षिणमानयेत् ।
पश्चिमद्वारमानीय क्षेपयेत् कुसुमाञ्जलिम् ॥ ३५ ॥

यस्मिन् पतन्ति पुष्पाणि तन्नामाद्यं विनिर्द्दिशेत् ।
पार्श्वे यागभुवः खाते कुण्डे सन्नाभिमेखले ॥ ३६ ॥

शिवाग्निं जनयित्वेष्ट्वा पुनः शिष्येण चार्च्चयेत् ।
ध्यानेनात्मनि तं शिष्यं संहृत्य प्रलयः क्रमात् ॥ ३७ ॥

पुनरुत्पाद्य तत्पाणौ दद्याद्दर्भांश्च मन्त्रितान् ।
पृथिव्यादीनि तत्त्वानि जुहुयाद् हृदयादिभिः ॥ ३८ ॥

एकैकस्य शतं हुत्वा व्योममूलेन होमयेत् ।
हुत्वा पूर्णाहुतिं कुर्य्यादस्त्रेणाष्टाहुतीर्हुनेत् ॥ ३९ ॥

प्रायश्चित्तं विशुद्ध्यर्थं ततः शेषं समापयेत् ।
कुम्भं समन्त्रितं प्रार्च्यं शिशुं पीठेऽभिषेचयेत् ॥ ४० ॥

शिष्ये तु समयं दत्वा स्वर्णाद्यैः स्वगुरुं यजेत् ।
दीक्षा पञ्चाक्षरस्योक्ता विष्ण्वादेरेवमेव हि ॥ ४१ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये पञ्चाक्षरदीक्षाविधानं नाम चतुरधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - तीन सौ चारवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 304 Chapter!-In Hindi

तीन सौ चारवाँ अध्याय - पञ्चाक्षर-दीक्षा-विधान; पूजाके मन्त्र

अग्निदेव कहते हैं- मेष (न) सर्गि विष विसर्ग युक्त मकार (मः) यसे पहलेका अक्षर श और उसके साथ अक्षि- इकार (शि) दीर्घोदक (वा) मरुत् (य)- यह पञ्चाक्षर मन्त्र (नमः शिवाय) शिवस्वरूप तथा शिवप्रदाता है। इसके आदिमें ॐ लगा देनेपर यह षडक्षर मन्त्र हो जाता है। इसका अर्चन (भजन) करके मनुष्य देवत्व आदि उत्तम फलोंको प्राप्त कर लेता है॥१॥

ज्ञानस्वरूप परब्रह्म ही परम बुद्धिरूप है। वही सबके हृदयमें शिवरूपसे विराजमान है। वह शक्तिभूत सर्वेश्वर ही ब्रह्मा आदि मूर्तियोंके भेदसे भिन्न-सा प्रतीत होता है। मन्त्रके अक्षर पाँच हैं, भूतगण भी पाँच हैं तथा उनके मन्त्र और विषय भी पाँच हैं। प्राण आदि वायु पाँच हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ भी पाँच-पाँच हैं। ये सब-की-सब वस्तुएँ पञ्चाक्षर-ब्रह्मरूप हैं। इसी प्रकार यह सब कुछ अष्टाक्षर मन्त्ररूप भी है॥२-४॥ 

दीक्षा-स्थानका मन्त्रोच्चारण पूर्वक पञ्चगव्य से प्रोक्षण करे। फिर वहाँ समस्त आवश्यक सामग्री का संग्रह करके विधि पूर्वक शिव को पूजा करे। तत्पश्चात् मूलमन्त्र, इष्ट मूर्तिसम्बन्धी मन्त्र तथा अङ्गसम्बन्धी मन्त्रों द्वारा अक्षत छींटते हुए भूतापसारण पूर्वक रक्षात्मक क्रिया सम्पादित करे। फिर दूधमें चरु पकाकर उसके तीन भाग करे। उनमेंसे एक भाग तो इष्टदेवताको निवेदित कर दे, दूसरे भागकी आहुति दे और तीसरा शिष्य सहित स्वयं ग्रहण करे। फिर आचमन एवं सकलीकरण करके आचार्य शिष्य को हृदय मन्त्र से अभिमन्त्रित एक दन्तधावन दे, जो दूधवाले वृक्ष आदिका काष्ठ हो। उससे दाँतों का शोधन करके, उसे चीरकर उस के द्वारा जीभ साफ करने के बाद धोकर पृथ्वी पर फेंक दे॥५-८॥

यदि पूर्वदिशा से फेंकनेपर वह दन्तकाष्ठ उत्तर या पश्चिम दिशाकी ओर जाकर गिरे तो शुभ होता है, अन्यथा अशुभ होता है। पुनः अपने सम्मुख आते हुए शिष्यको शिखाबन्धके द्वारा रक्षित करके ज्ञानी गुरु वेदोपर उसके साथ कुशके बिस्तरपर सो जाय। शिष्य सोते समय रातमें जो स्वप्न देखे, उसे प्रातःकाल अपने गुरुको सुनावे ॥ ९-१०॥ 

यदि स्वप्न शुभ एवं सिद्धिसूचक हुए तो उनसे मन्त्र तथा इष्टदेवके प्रति भक्ति बढ़ती है। तत्पश्चात् पुनः मण्डलार्चन करना चाहिये। 'सर्वतोभद्र' आदि मण्डल पहले बताये गये हैं। उन्हींमेंसे किसी एकका पूजन करना चाहिये। पूजित हुआ मण्डल सम्पूर्ण सिद्धियोंका दाता है ॥ ११॥

पहले स्नान और आचमन करके मन्त्रोच्चारण पूर्वक देह में मिट्टी लगाये। फिर पूर्व वत् कल्पित शिव तीर्थ में साधक अघमर्षण-मन्त्रके जप पूर्वक स्नान करे। फिर विद्वान् पुरुष हस्ताभिषेक' (हाथोंकी शुद्धि) करके पूजागृहमें प्रवेश करे। मूलमन्त्र से योगपीठ पर कमलासन का न्यास (चिन्तन) करे। मूल से ही पूरक, कुम्भक तथा रेचक प्राणायाम करे ॥ १२-१३ ॥

(सुषुम्णा नाड़ीके मार्गसे) जीवात्माको ऊपर ब्रहारन्ध्रस्थित सहस्रारचक्रमें ले जाकर परमात्मामें योजित (स्थापित) कर दे। सिरसे लेकर शिखापर्यन्त जो बारह अङ्गुल विस्तृत स्थान है, वही 'ब्रह्मरन्ध्र' है। उसीमें स्थित परमात्माके भीतर जीवको ('हंसः सोऽहम्'- इस मन्त्रद्वारा) संयोजित करनेके पश्चात् (यह चिन्तन करे कि सम्पूर्ण भूतोंके तत्त्व बीजरूपसे अपने-अपने कारणमें संहारक्रमसे विलीन हो गये हैं। इस प्रकार प्रकृतिपर्यन्त समस्त तत्त्वोंका परमात्मामें लय हो गया है। तदनन्तर) वायुबीज (यकार) के द्वारा वायुको प्रकट करके उसके द्वारा अपने शरीरको सुखा दे। इसके बाद अग्रिबीज (रकार)- से अग्नि प्रकट करके उसके द्वारा उस समस्त शुष्क शरीरको जलाकर भस्म कर दे। (उसमेंसे दग्ध हुए पापपुरुषके भस्मको विलगाकर) अपने शरीरके भस्मको अमृतबीज (वकार) से प्रकट अमृतकी धारासे आप्लावित कर दे ॥ १४ ॥

(इसके बाद विलीन हुए प्रत्येक तत्त्वके बीजको अपने-अपने स्थानपर पहुंचाकर दिव्य शरीरका निर्माण करे।) दिव्य स्वरूपका ध्यान करके जीवात्माको पुनः ले आकर हृदयकमलमें स्थापित कर दे। ऐसा करनेसे आत्मशुद्धि सम्पादित होती है। तदनन्तर न्यास करके पूजन आरम्भ करे ॥ १५ ॥

पञ्चाक्षर-मन्त्रके न, म आदि पाँच वर्ण क्रमशः कृष्ण, श्वेत, श्याम, रक्त और पीत कान्तिवाले हैं। नकारादि अक्षरोंसे क्रमशः अङ्गन्यास करे। उन्हीं अङ्गोंमें तत्पुरुष आदि पाँच मूर्तियोंका भी न्यास करना चाहिये ॥ १६ ॥

तदनन्तर अङ्गुष्ठसे कनिष्ठापर्यन्त पाँच अँगुलियोंमें क्रमशः अङ्गमन्त्रोंका सर्वतोभावेन न्यास' करके पाद, गुह्य, हृदय, मुख तथा मूर्धामें मन्त्राक्षरोंका न्यास' करे। इसके बाद मूर्धा, मुख, हृदय, गुह्य और पाद-इन अङ्गोंमें व्यापक-न्यास' करके मूलमन्त्रके अक्षरोंका तथा अङ्गमन्त्रोंका भी वहीं न्यास करें। फिर अग्नि आदि कोणोंमें प्रकट पीठके धर्म आदि पादोंका, जो क्रमशः रक्त, पीत, श्याम और श्वेत वर्णके हैं, चिन्तन करके उनमें साध्यमन्त्रके अक्षरोंका न्यास करे तथा पूर्वादि दिशाओंमें स्थित अधर्म आदिका चिन्तन करके उनमें अङ्गमन्त्रोंका न्यास' करे। इस प्रकार योगपीठका चिन्तन करके उसके ऊपर अष्टदल कमल का और सूर्य मण्डल, सोम मण्डल तथा अग्निमण्डल-इन तीन मण्डलों का एवं सत्त्वादि गुणों का चिन्तन करे ॥ १७-१९॥

इसके बाद अष्टदल कमलके पूर्वादि दलोंपर वामा आदि आठ शक्तियोंका तथा कर्णिकाके ऊपर नवीं (मनोन्मनी) शक्तिका न्यास या चिन्तन करे। इन शक्तियोंके नाम इस प्रकार हैं-वामा, ज्येष्ठा, रौद्री, काली, कलविकारिणी, बलविकारिणी, बलप्रमधनी, सर्वभूतदमनी तथा नवीं मनोन्मनी। ये शक्तियाँ ज्वालास्वरूपा हैं और इनकी कान्ति क्रमशः श्वेत, रक्त, सित, पीत, श्याम, अग्नि-सदृश, असित, कृष्ण तथा अरुण वर्ण की है। इस प्रकार इनका चिन्तन करे ॥ २०-२२॥
तदनन्तर 'अनन्तयोगपीठाय नमः 'से योग पीठ की पूजा करके हृदयकमल में शिव का आवाहन करे। यथा-

स्फटिकाभं चतुर्बाहुँ फालशूलधरं शिवम्। 
साभयं वरदं पञ्चवदनं च त्रिलोचनम् ॥

'जिनकी कान्ति स्फटिकमणि के समान श्वेत है, जो चार भुजाओं से सुशोभित हैं और उन हाथों में फाल, शूल तथा अभय एवं वरद मुद्राएँ धारण करते हैं, जिनके पाँच मुख और प्रत्येक मुखके साथ तीन-तीन नेत्र हैं, उन भगवान् शिवका मैं ध्यान एवं आवाहन करता हूँ।' इसके बाद कमलदलोंमें तत्पुरुषादि पञ्चमूर्तियोंकी स्थापना करे। यथा नं तत्पुरुषाय नमः (पूर्वे)। में अघोराय नमः (दक्षिणे)। शिं सद्योजाताय नमः (पश्चिमे)। वां वामदेवाय नमः (उत्तरे)। यं ईशानाय नमः (ईशाने)।

तत्पुरुष चतुर्भुज हैं। उनका वर्ण श्वेत है। उनका स्थान कमलके पूर्ववर्ती दलमें है। अघोरके आठ भुजाएँ हैं और उनकी अङ्गकान्ति असित (श्याम) है। इनका स्थान दक्षिणदलमें है। सद्योजातके चार मुख और चार ही भुजाएँ हैं। उनका पीत वर्ण है और स्थान पश्चिमदलमें है। वामदेवविग्रह स्वी (देवी पार्वती) के साथ विलसित होता है। उनके भी मुख तथा भुजाएँ चार-चार ही हैं। कान्ति अरुण है। इनका स्थान उत्तरवर्ती कमलदलमें है। ईशानके पाँच मुख हैं। वे ईशान- दलमें स्थित हैं। उनका वर्ण गौर है तथा वे सब कुछ देनेवाले हैं॥ २३-२६॥

तत्पश्चात् इष्टदेवके अङ्गोंका यथोचित पूजन करे'। फिर अनन्त, सूक्ष्म, सिद्धेश्वर (अथवा शिवोत्तम) और एकनेत्रका पूर्वादि दिशाओंमें (नाममन्त्रसे) पूजन करे। एकरुद्र, त्रिनेत्र, श्रीकण्ठ तथा शिखण्डीका ईशान आदि कोणोंमें पूजन करे। ये सब के सब विद्येश्वर हैं और कमल इनका आसन है। इनकी अङ्गकान्ति क्रमशः श्वेत, पोत, सित, रक्त, धूम्र, रक्त, अरुण और नील है। ये सभी चतुर्भुज हैं और चार हाथोंमें शूल, वज्र, बाण और धनुष लिये रहते हैं। इनके मुख भी चार-चार ही हैं। इसके बाद तृतीय अष्टदल- कमलमें उत्तरादि दलोमें प्रदक्षिण-क्रमसे उमा, चण्डेश, नन्दीश्वर, महाकाल, गणेश्वर, वृषभ, भृङ्गिरिटि तथा स्कन्दका पूजन करे॥ २७-३०॥

तत्पश्चात् पूर्वादि दिशाओं में चतुरस्र रेखापर इन्द्रादि दिक्पालों तथा उनके अस्त्र-वज्र, शक्ति, दण्ड, खड्ग, पाश, ध्वज, गदा, शूल, चक्र और पदाका पूजन करे। इस प्रकार छः आवरणॉसहित इष्टदेवताकी पूजा करके गुरु अधिवासित शिष्यको पञ्चगव्यपान कराये। फिर आचमन कर लेनेपर उसका प्रोक्षण करे। इसके बाद नेत्रान्त अर्थात् नूतन शुक्ल वस्त्रकी पट्टीसे नेत्र-मन्त्र (वौषट्) का उच्चारण करते हुए गुरु शिष्यके नेत्रोंको बाँध दे। फिर उस शिष्यको मण्डपके दक्षिणद्वारमें प्रवेश कराये। वहाँ आसन आदि या कुशपर बैठे हुए शिष्यका गुरु शोधन करे। पूर्वोक्त रीतिसे शरीर आदि पाञ्चभौतिक तत्त्वोंका क्रमशः संहार करके शिष्यका परमात्मामें लय किया जाय; फिर सृष्टिमार्गसे देशिक शिष्यका पुनरुत्पादन करे। इसके बाद उस शिष्यके दिव्य शरीरमें न्यास करके उसे प्रदक्षिणक्रमसे पश्चिमद्वारपर लाकर उसके द्वारा पुष्पाञ्जलि का क्षेपण कराये। जिस देवता के ऊपर वे फूल गिरें, उसके नामको आदिमें रखते हुए शिष्यके नाम का निर्देश करे। तत्पश्चात् (नेत्र का बन्धन खोलकर) यज्ञभूमिके पार्श्वभाग में सुन्दर नाभि और मेखला से युक्त खुदे हुए कुण्डमें शिवाग्रि को प्रकट कराकर, स्वयं उसका पूजन करके, फिर शिष्य से भी उसकी अर्चना कराये। फिर ध्यान द्वारा आत्मसदृश शिष्य को संहारक्रम से अपनेमें लीन करके पुनः उसका सृष्टिक्रम से उत्पादन करे। तदनन्तर उसके हाथ में अभिमन्त्रित कुश दे और हृदयादि मन्त्रोंद्वारा पृथिवी आदि तत्त्वोंके लिये आहुति प्रदान करे ॥ ३१-३८ ॥ 

पृथ्वी, जल, तेज और वायु - इनमेंसे प्रत्येकके लिये इनके नाम मन्त्रसे सौ-सौ आहुतियाँ देकर आकाशतत्त्वके लिये मूलमन्त्र (ॐ नमः शिवाय)- से सौ आहुतियाँ दे। इस प्रकार हवन करके उसकी पूर्णाहुति करे। फिर अस्त्र-मन्त्र (फट्)- का उच्चारण कर के आठ आहुतियाँ दे। तत्पश्चात् विशेष शुद्धिके लिये प्रायश्चित्त (होम या गोदान) करे। अभिमन्त्रित कलश का पूजन कर पीठस्थित शिष्य का अभिषेक करे। फिर गुरु शिष्यको समयाचार सिखावे। शिष्य स्वर्ण मुद्रा आदिके द्वारा अपने गुरुका पूजन करे। इस प्रकार यहाँ 'शिवपञ्चाक्षर' मन्त्र की दीक्षा बतायी गयी। इसी तरह विष्णु आदि देवताओंके मन्त्रों की भी दीक्षा दी जाती है॥ ३९-४१ ॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'पञ्चाक्षरमन्त्रकी दीक्षाके विधानका वर्णन' नामक तीन सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३०४॥

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