गणेश सहस्रनाम स्तोत्र (PDF)
गणेश सहस्रनाम स्तोत्र : विघ्नों का नाश करने वाला एक दिव्य स्तोत्र
गणेश सहस्रनाम स्तोत्र भगवान गणेश के 1008 पवित्र नामों का स्तोत्र है। इस स्तोत्र का पाठ सभी विघ्न-बाधाओं को दूर करने और सुख-समृद्धि पाने के लिए किया जाता है। माना जाता है कि इसका नियमित पाठ व्यक्ति को शांति, सुरक्षा, और सिद्धि की प्राप्ति कराता है।

गणेश सहस्रनाम का महत्त्व
इस स्तोत्र में गणेश जी के अलग-अलग नामों से उनकी महिमा का बखान किया गया है। यह प्राचीन ग्रंथों में वर्णित है और गणेश जी की अपार शक्ति का प्रतीक है। अनेक मंदिरों में भक्तगण इसका पारायण करते हैं, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इससे व्यक्ति के जीवन में आने वाले सभी प्रकार के कष्ट और बाधाएं दूर हो जाती हैं।
श्री गणेश सहस्रनाम स्तोत्र पाठ विधि
गणेश सहस्रनाम स्तोत्र भगवान गणेश की कृपा प्राप्त करने और जीवन के विघ्नों को दूर करने के लिए अत्यंत शुभ और फलदायी माना गया है। इस स्तोत्र का पाठ एक निश्चित विधि से किया जाए, तो साधक को मनचाही सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं। यहाँ गणेश सहस्रनाम स्तोत्र पाठ की विधि दी जा रही है:
1. पूजा की तैयारी:
- सबसे पहले, स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- पूजा स्थल को पवित्र करके वहाँ गणेश जी की प्रतिमा या चित्र रखें।
- पूजा स्थल को फूलों, दीपों और अगरबत्ती से सजाएँ।
2. आरंभिक पूजन:
- श्री गणेश जी का ध्यान करके उनका आवाहन करें।
- आसन ग्रहण करके ‘ॐ गं गणपतये नमः’ मंत्र का जाप करें और गणेश जी से पूजा में शामिल होने की प्रार्थना करें।
- गणेश जी को पुष्प, जल, अक्षत, फल, दूर्वा, और मिठाई अर्पित करें।
- दीपक और अगरबत्ती जलाकर उनकी आरती करें।
3. न्यास:
- गणेश सहस्रनाम स्तोत्र के पाठ से पहले, "गं" बीज मंत्र के साथ निम्नलिखित अंग-न्यास करें:
- "ॐ गं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः" - अंगूठे पर
- "ॐ गीं तर्जनीभ्यां नमः" - तर्जनी (अंगुली) पर
- "ॐ गूं मध्यमाभ्यां नमः" - मध्यमा (मध्य अंगुली) पर
- "ॐ गैं अनामिकाभ्यां नमः" - अनामिका (रिंग फिंगर) पर
- "ॐ गौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः" - कनिष्ठिका (छोटी अंगुली) पर
4. ध्यान:
- अब गणेश जी का ध्यान करें। उनके पंचमुखी और दसभुज स्वरूप का ध्यान करें, जिसमें वे श्वेत वस्त्र धारण किए, चन्द्रमा को मस्तक पर धारण किए हुए, सर्पों से सुसज्जित दिखते हैं।
- ध्यान करें कि उनके आस-पास देवता और भक्तगण हैं और वे हाथों में विभिन्न आयुध धारण किए हुए हैं।
5. गणेश सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ:
- अब गणेश सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करें। इसे धीमी, स्पष्ट और श्रद्धा से पूर्ण उच्चारण के साथ पढ़ें। यदि समय कम हो, तो मात्र एक माला या 108 नामों का पाठ भी किया जा सकता है।
- यह पाठ दो तरह से किया जा सकता है:
- वैदिक पद्धति से, जिसमें मंत्रों का उच्चारण ठीक वैसा हो जैसा शास्त्रों में निर्दिष्ट है।
- पौराणिक पद्धति से, जिसमें नामों को सरल भाव से स्मरण कर पाठ किया जाता है।
6. अंतिम प्रार्थना:
- पाठ समाप्त करने के बाद, गणेश जी से अपने मन की कामनाओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना करें।
- "ॐ गं गणपतये नमः" का 11 या 21 बार जाप करके श्री गणेश जी का धन्यवाद करें और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करें।
7. आरती और प्रसाद:
- अंत में गणेश जी की आरती करें और उन्हें दूर्वा, लड्डू, या अपने घर में उपलब्ध कोई मिठाई का भोग लगाएँ।
- सभी पूजा सामग्रियों को किसी पवित्र स्थान में विसर्जित करें और प्रसाद ग्रहण करें।
- इस स्तोत्र का पाठ करने के दौरान पूर्ण ध्यान और श्रद्धा बनाए रखें।
- पाठ करते समय अनुशासन और विनम्रता बनाए रखें।
- यह स्तोत्र शुक्ल पक्ष, चतुर्थी या बुधवार के दिन से आरंभ करना विशेष फलदायी माना जाता है।
गणेश सहस्रनाम का यह विधिपूर्वक पाठ जीवन के सभी विघ्नों को दूर करने में सहायक है, और साधक को सुख-समृद्धि प्रदान करता है।
श्री गणेश सहस्रनाम स्तोत्र पाठ के नियम
भगवान गणेश का सहस्रनाम स्तोत्र एक शक्तिशाली स्तोत्र है, और इसका विधिपूर्वक पाठ करने से साधक को अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। इस स्तोत्र के पाठ के लिए कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक है, जिससे इसकी शक्ति और फल प्राप्त करने की संभावना बढ़ जाती है। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण नियम दिए गए हैं:
1. शुद्धता और पवित्रता:
- स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- पाठ करने से पहले शारीरिक और मानसिक शुद्धि का ध्यान रखें। मन और शरीर को शांत रखें।
- पाठ स्थल को स्वच्छ करें और पूजा सामग्री को भी पवित्र स्थान पर रखें।
2. व्रत का पालन:
- गणेश सहस्रनाम का पाठ करते समय साधक व्रत का पालन कर सकते हैं। पूर्ण व्रत या फलाहार करके पाठ करना अत्यधिक लाभकारी माना गया है।
- यदि संकल्प लेकर पाठ कर रहे हैं, तो पाठ के दिनों में सात्त्विक भोजन करें और तामसिक भोजन (मांसाहार, लहसुन, प्याज) से परहेज करें।
3. निर्धारित समय और स्थान:
- पाठ का समय निश्चित रखें। प्रातः काल या सायंकाल का समय उत्तम होता है।
- पाठ का स्थान भी निर्धारित होना चाहिए। एक ही स्थान पर पाठ करना अधिक फलदायी होता है।
- पाठ करते समय पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके बैठना उत्तम माना गया है।
4. मंत्र का उच्चारण:
- गणेश सहस्रनाम स्तोत्र के नामों का उच्चारण स्पष्ट और शुद्ध हो।
- प्रत्येक नाम को श्रद्धा और भक्ति के साथ पढ़ें।
- यदि संभव हो तो पाठ के साथ एक माला (108 बार) या तीन माला करें, जिससे पाठ पूर्ण हो।
5. अनुशासन और नियमबद्धता:
- गणेश सहस्रनाम का पाठ प्रतिदिन करें तो इसे एक निश्चित नियम के साथ प्रारंभ और समाप्त करें।
- गणेश चतुर्थी, संकष्टी चतुर्थी, बुधवार या शुक्ल पक्ष में इसका आरंभ करना विशेष रूप से शुभ होता है।
6. मौन और ध्यान:
- पाठ के दौरान मौन धारण करें और ध्यान लगाकर भगवान गणेश के रूप का ध्यान करें।
- मानसिक एकाग्रता और ध्यान से पाठ का प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है।
7. नियमितता:
- यदि आप एक निश्चित अवधि के लिए पाठ कर रहे हैं (जैसे 7 दिन, 21 दिन, या 40 दिन), तो उस अवधि में पाठ नियमित रखें। बीच में न छोड़ें।
- संकल्प के साथ किए गए पाठ में नियमितता और निरंतरता का विशेष महत्व है।
8. श्रद्धा और समर्पण:
- पाठ करते समय भगवान गणेश के प्रति पूर्ण श्रद्धा और भक्ति रखें।
- पाठ समाप्त होने पर भगवान गणेश को धन्यवाद दें और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करें।
9. प्रसाद का वितरण:
- पाठ के बाद गणेश जी को दूर्वा, लड्डू, मोदक, या किसी अन्य मिठाई का भोग अर्पित करें।
- प्रसाद को स्वयं ग्रहण करें और परिवार के अन्य सदस्यों को भी वितरित करें।
10. विसर्जन:
- पाठ की समाप्ति पर भगवान गणेश की मूर्ति का या जल में पुष्प का विसर्जन कर सकते हैं।
- जो भी पूजा सामग्री उपयोग की गई हो, उसे पवित्र स्थान में विसर्जित करें।
इन नियमों का पालन करके श्री गणेश सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करना अधिक प्रभावशाली और फलदायी होता है।
श्री गणेश सहस्रनाम स्तोत्र पाठ के लाभ
भगवान गणेश का सहस्रनाम स्तोत्र अत्यंत शक्तिशाली और प्रभावशाली स्तोत्र माना गया है। इसमें भगवान गणेश के 1000 नामों का जप करने से साधक को अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। यह स्तोत्र जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता, समृद्धि, और शांति प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करता है।
1. सभी विघ्नों का नाश:
- भगवान गणेश को विघ्नहर्ता कहा जाता है, और उनके सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से जीवन में आने वाले सभी प्रकार के विघ्नों और बाधाओं का नाश होता है।
- इसे नियमित रूप से करने पर कठिनाइयाँ दूर होती हैं और सभी कार्यों में सफलता मिलती है।
2. सुख-समृद्धि और संपत्ति में वृद्धि:
- सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ व्यक्ति के जीवन में आर्थिक स्थिरता और समृद्धि लाने में सहायक है।
- इससे घर में सुख-शांति और ऐश्वर्य का वास होता है, और धन-धान्य में वृद्धि होती है।
3. मानसिक शांति और स्थिरता:
- सहस्रनाम स्तोत्र का नियमित पाठ मन को शांति और स्थिरता प्रदान करता है। इससे चिंता, तनाव, और मानसिक तनावों का नाश होता है।
- इसके पाठ से साधक को आत्मिक शांति मिलती है और उसका आत्मबल बढ़ता है।
4. शत्रुओं पर विजय और सुरक्षा:
- इस स्तोत्र का पाठ शत्रुओं से रक्षा करता है और साधक को विजयशाली बनाता है।
- विशेष रूप से जब कोई व्यक्ति शत्रु बाधा, अदालती मामलों या कानूनी समस्याओं का सामना कर रहा हो, तो इस स्तोत्र का पाठ करने से लाभ मिलता है।
5. विद्या, बुद्धि और ज्ञान की प्राप्ति:
- गणेश जी को बुद्धि और ज्ञान का देवता माना जाता है। उनके सहस्रनाम का जप विद्यार्थियों के लिए अत्यंत लाभकारी होता है।
- इससे विद्या और बुद्धि का विकास होता है, और व्यक्ति में ज्ञान, स्मरणशक्ति, और एकाग्रता का विकास होता है।
6. रोगों से मुक्ति:
- सहस्रनाम स्तोत्र का नियमित पाठ शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है और साधक को विभिन्न रोगों से मुक्ति दिलाता है।
- इससे व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ मिलता है और शरीर में नई ऊर्जा का संचार होता है।
7. परिवार में सौहार्द और संबंधों में मधुरता:
- इस स्तोत्र का पाठ परिवार में प्रेम, सौहार्द, और सामंजस्य को बढ़ावा देता है। परिवार के सदस्यों के बीच संबंध मधुर बनते हैं।
- पति-पत्नी, माता-पिता और बच्चों के बीच अच्छे संबंध स्थापित होते हैं और आपसी मतभेद दूर होते हैं।
8. संकटों से सुरक्षा:
- भगवान गणेश के सहस्रनाम का पाठ जीवन के कठिन समय में सुरक्षा प्रदान करता है। किसी भी संकट या आकस्मिक दुर्घटना से बचाने में यह सहायक है।
- इसके जप से साधक को किसी भी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा से सुरक्षा मिलती है।
9. कामनाओं की पूर्ति:
- यह स्तोत्र व्यक्ति की सभी कामनाओं को पूर्ण करने में सहायक होता है। व्यक्ति के जो भी शुभ संकल्प या इच्छाएँ होती हैं, वे पूर्ण होती हैं।
- साधक को पारिवारिक, व्यावसायिक और व्यक्तिगत जीवन में सफलता मिलती है।
10. आध्यात्मिक उन्नति:
- यह स्तोत्र केवल सांसारिक सुख-समृद्धि के लिए नहीं, बल्कि साधक की आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी अत्यंत उपयोगी है।
- इससे साधक में भगवान गणेश के प्रति भक्ति और श्रद्धा बढ़ती है और मोक्ष की ओर उसकी यात्रा प्रारंभ होती है।
गणेशसहस्त्रनामस्तोत्रम् ! Ganesh Sahasranama Stotram
व्यास उवाच
कथं नाम्नां सहस्त्रं स्वं गणेश उपदिष्टवान्
शिवायैतन्ममाचक्ष्व लोकानुग्रहतत्पर ।॥१॥
ब्रह्मोवाच
देव एवं पुरारातिः पुरत्रय-जयोद्यमे ।
अनर्चनाद् गणेशस्य जातो विघ्नकुलः किल ॥२॥
मनसा स विनिर्धार्य ततस्तद्विघ्नकारणम् ।
महागणपतिं भक्त्या समभ्यर्च्य यथाविधि ॥३॥
विघ्न प्रशमनोपायमपृच्छदपराजितः ।
सन्तुष्टः पूजया शम्भोर्महागणपतिः स्वयम् ॥४॥
सर्वविघ्नैकहरणं सर्वकामफलप्रदम् ।
ततस्तस्मै स्वकं नाम्नां सहस्त्रमिदमब्रवीत् ॥५॥
ॐ अस्य श्रीमहागणपति-सहस्त्रनामस्तोत्र-मन्त्रस्य महागणपतिऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः, महागणपतिर्देवता, गं बीजम्, हुं शक्तिः, स्वाहा कीलकम्, चतुर्विधपुरुषार्थ-सिद्धयर्थे जपादौ विनियोगः ।
न्यासः- ॐ गां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, हृदयाय नमः । ॐ गीं तर्जनीभ्यां नमः, शिरसे स्वाहा। ॐ गूं मध्यमाभ्यां नमः, शिखायै वषट् । ॐ गैं अनामिकाभ्यां नमः, कवचाय हूं। ॐ गौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः, नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ गः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः, अस्त्राय फट् । इति न्यासः ।
ध्यानम्-
पञ्चवक्त्रो दशभुजो भालचन्द्रः शशिप्रभः । मुण्डमालः सर्पभूषो मुकुटाङ्गदभूषणः ॥ अग्न्यर्क-शशिनो भाभिस्तिरस्कुर्वन् दशायुधः ॥ मानसोपचारैः सम्पूज्य, लं पृथिव्यात्मकं गन्धं कल्पयामि नमः, इत्यादि ।
श्री महागणपति रुवाच
ॐ गणेश्वरो गणक्रीडो गणनाथो गणाधिपः ।
एकदंष्ट्रो वक्रतुण्डो गजवक्त्रो महोदरः ॥१॥
लम्बोदरो धूम्रवर्णो विक़टो विघ्ननायकः ।
सुमुखो दुर्मुखो बुद्धो विघ्नराजो गजाननः ॥२॥
भीमः प्रमोद आमोदः सुरानन्दो मदोत्कटः ।
हेरम्बः शम्बरः शम्भुर्लम्बकर्णो महाबलः ॥३॥
नन्दनो ऽलम्पटोऽभीरुर्मेघनादो गणञ्जयः ।
विनायको विरूपाक्षो धीरशूरो वरप्रदः ॥४॥
महागणपतिर्बुद्धिप्रियः क्षिप्रप्रसादनः ।
रुद्रप्रियो गणाध्यक्ष उमापुत्रोऽघनाशनः ॥५॥
कुमारगुरुरीशानपुत्रो मूषकवाहनः ।
सिद्धिप्रियः सिद्धिपतिः सिद्धिः सिद्धिविनायकः ॥६॥
अविघ्नस्तुम्बुरुः सिहवाहनो मोहिनीप्रियः ।
कटङ्कटो राजपुत्रः शालकः सम्मितोऽमितः ॥७॥
कूष्माण्ड-साम-सम्भूतिर्दुर्जयो धूर्जयो जयः ।
भूपतिर्भुवपनपतिर्भूतानां पतिरव्ययः ॥८॥
विश्वकर्ता विश्वमुखो विश्वरूपो निधिघृणिः ।
कविः कवीनामृषभो ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पतिः ॥९॥
ज्येष्ठराजो निधिपतिर्निधिप्रियपतिप्रियः ।
हिरण्मय पुरान्तस्थः सूर्यमण्डलमध्यगः ॥१०॥
कराहति - ध्वस्त सिन्धु सलिलः पूषदन्तभित् ।
उमाङ्ककेलि-कुतुकी मुक्तिदः कुलपालनः ॥११॥
किरीटी कुण्डली हारी वनमाली मनोमयः ।
वैमुख्यहत दैत्यश्रीः पादाहति जितक्षितिः ॥१२॥
सद्योजात-स्वर्णमुञ्ज - मेखली दुर्निमित्तहृत् ।
दुःस्वप्नहृत्प्रहसनो गुणी नादप्रतिष्ठितः ॥१३॥
सुरूपः सर्वनेत्राधिवासो वीरासनाश्रयः ।
पीताम्बरः खण्डरदः खण्डेन्दुकृतशेखरः ॥१४॥
चित्राङ्क-श्यामदशनो भालचन्द्रश्चतुर्भुजः ।
योगाधिपस्तारकस्थः पुरुषो गजकर्णकः ॥१५॥
गणाधिराजो विजयस्थिरो गजपतिध्वजी ।
देवदेवः स्मरप्राण-दीपको वायुकीलकः ॥१६॥
विपश्चिद्वरदो नादोन्नद भिन्न बलाहकः ।
वराहरदनो मृत्युञ्जयो व्याघ्घ्राजिनाम्बरः ॥१७॥
इच्छाशक्तिधरो देवत्राता दैत्यविमर्दनः ।
शम्भुवक्त्रोद्भवः शम्भुकोपहा शम्भुहास्यभूः ॥१८॥
शम्भुतेजाः शिवाशोकहारी गौरीसुखावहः ।
उमाङ्गमलजो गौरीतेजोभूः स्वर्धनीभवः ॥१९॥
कूष्माण्ड-साम-सम्भूतिर्दुर्जयो धूर्जयो जयः ।
भूपतिर्भुवपनपतिर्भूतानां पतिरव्ययः ॥८॥
विश्वकर्ता विश्वमुखो विश्वरूपो निधिघृणिः ।
कविः कवीनामृषभो ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पतिः ॥९॥
ज्येष्ठराजो निधिपतिर्निधिप्रियपतिप्रियः ।
हिरण्मय पुरान्तस्थः सूर्यमण्डलमध्यगः ॥१०॥
कराहति - ध्वस्त सिन्धु सलिलः पूषदन्तभित् ।
उमाङ्ककेलि-कुतुकी मुक्तिदः कुलपालनः ॥११॥
किरीटी कुण्डली हारी वनमाली मनोमयः ।
वैमुख्यहत दैत्यश्रीः पादाहति जितक्षितिः ॥१२॥
सद्योजात-स्वर्णमुञ्ज - मेखली दुर्निमित्तहृत् ।
दुःस्वप्नहृत्प्रहसनो गुणी नादप्रतिष्ठितः ॥१३॥
सुरूपः सर्वनेत्राधिवासो वीरासनाश्रयः ।
पीताम्बरः खण्डरदः खण्डेन्दुकृतशेखरः ॥१४॥
चित्राङ्क-श्यामदशनो भालचन्द्रश्चतुर्भुजः ।
योगाधिपस्तारकस्थः पुरुषो गजकर्णकः ॥१५॥
गणाधिराजो विजयस्थिरो गजपतिध्वजी ।
देवदेवः स्मरप्राण-दीपको वायुकीलकः ॥१६॥
विपश्चिद्वरदो नादोन्नद भिन्न बलाहकः ।
वराहरदनो मृत्युञ्जयो व्याघ्घ्राजिनाम्बरः ॥१७॥
इच्छाशक्तिधरो देवत्राता दैत्यविमर्दनः ।
शम्भुवक्त्रोद्भवः शम्भुकोपहा शम्भुहास्यभूः ॥१८॥
शम्भुतेजाः शिवाशोकहारी गौरीसुखावहः ।
उमाङ्गमलजो गौरीतेजोभूः स्वर्धनीभवः ॥१९॥
यज्ञकायो महानादो गिरिवर्मा शुभाननः ।
सर्वात्मा सर्वदेवात्मा ब्रह्ममूर्धा ककुश्रुतिः ॥२०॥
ब्रह्माण्ड - कुम्भश्चिद्व्योम भालः सत्यशिरोरुहः ।
जगज्जन्म - लयोन्मेष - निमेषो ऽग्न्यर्क सोमदृक् ॥२१॥
गिरीन्द्रैकरदो धर्माऽधर्मोष्ठः सामबृंहितः ।
ग्रहर्क्षदशनो वाणीजिह्वो वासवनासिकः ॥२२॥
कुलाचलांसः सोमार्कघण्टो रुद्रशिरोधरः ।
नदीनदभुजः सर्पाङ्गुलीकः तारकानखः ॥२३॥
भ्रूमध्यसंस्थितकरो ब्रह्मविद्यामदोत्कटः ।
व्योमनाभिः श्रीहृदयो मेरुपृष्ठोऽर्णवोदरः ॥२४॥
कुक्षिस्थ यक्ष गन्धर्व रक्ष किन्नर मानुषः ।
पृथ्वीकटिः सृष्टिलिङ्गः शैलोरुर्दस्त्रजानुकः ॥२५॥
पातालजङ्गो मुनिपात्कालांगुष्ठस्त्रयीतनुः ।
ज्योतिर्मण्डल लांगूलो हृदयालाननिश्चलः ॥२६॥
हृत्पद्म - कर्णिकाशालि वियत्केलि सरोवरः ।
सद्भक्त ध्यान निगडः पूजावारीनिवारितः ॥२७॥
प्रतापी कश्यपसुतो गणपो विष्टपी बली ।
यशस्वी धार्मिकः स्वोजाः प्रथमः प्रथमेश्वरः ॥२८॥
चिन्तामणिद्वीपपतिः कल्पद्रुम वनालयः ।
रत्नमण्डप मध्यस्थो रत्नसिंहासनाश्रयः ॥२९॥
तीव्राशिरोधृतपदो ज्वालिनी-मौलि-लालितः ।
नन्दा-ऽऽनन्दित-पीठश्री भोंगदा-भूषितासनः ॥३०॥
सकाम-दायिनीपीठः स्फुरदुग्रासनाश्रयः ।
तेजोवतीशिरोरत्नं सत्यनित्यावतंसितः ॥३१॥
सविघ्ननाशिनीपीठः सर्वशक्त्यम्बुजाश्रयः ।
लिपिपद्मासनाधारो वह्निधामत्रयाश्रयः ॥३२॥
उन्नतप्रपदो गूढगुल्फः संवृत्तपाष्णिकः ।
पीनजङ्घः श्लिष्टजानुः स्थूलोरुः प्रोन्नमत्कटिः ॥३३॥
निम्ननाभिः स्थूलकुक्षिः पीनवक्षा बृहद्भुजः ।
पीनस्कन्धः कम्बुकण्ठो लम्बोष्ठो लम्बनासिकः ॥३४॥
भग्नवाम - रदस्तुङ्ग सव्यदन्तो महाहनुः ।
ह्रस्वनेत्रत्रयः शूर्पकर्णो निबिड-मस्तकः ॥३५॥
स्तबकाकार - कुम्भाग्रो रत्नमौलिर्निरंकुशः ।
सर्पहारकटीसूत्रः सर्पयज्ञोपवीतवान् ॥३६॥
सर्पकोटीरकटकः सर्पग्रैवेयकाङ्गदः ।
सर्पकक्ष्योदराबन्धः सर्पराजोत्तरीयकः ॥३७॥
रक्तो रक्ताम्बरधरो रक्तमाल्यविभूषणः ।
रक्तेक्षणो रक्तकरो रक्तताल्वोष्ठपल्लवः ॥३८॥
श्वेतः श्वेताम्बरधरः श्वेतमाल्यविभूषणः ।
श्वेतातपत्ररुचिरः श्वेतचामरबीजितः ॥३९॥
सर्वावयव सम्पूर्ण सर्वलक्षण लक्षितः ।
सर्वाभरण शोभाढ्यः सर्वशोभा समन्वितः ॥४०॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यः सर्वकारणकारणम् ।
सर्वदैककरः शाङ्ग बीजापुरी गदाधरः ॥४१॥
इक्षुचापधरः शूली चक्रपाणिः सरोजभृत् ।
पाशी धृतोत्पलः शाली मञ्जरीभृत् स्वदन्तभृत् ॥४२॥
कल्पवल्लीधरो विश्वाभयदैककरो वशी ।
अक्षमालाधरो ज्ञान-मुद्रावान् मुद्गरायुधः ॥४३॥
पूर्णपात्री कम्बुधरो विधृतालिसमुद्गतः ।
मातुलिङ्गन्धर श्चूत कलिकाभृत् कुठारवान् ॥४४॥
पुष्करस्थ स्वर्णघटी पूर्णरत्नाभिवर्षकः ।
भारतीसुन्दरीनाथो विनायक रतिप्रियः ॥४५॥
महालक्ष्मीप्रियतमः सिद्धलक्ष्मीमनोरमः ।
रमारमेशपूर्वाङ्गो दक्षिणोमामहेश्वरः ॥४६॥
महावराहवामाङ्गो रतिकन्दर्पपश्चिमः ।
आमोद मोदजननः सप्रमोद प्रमोदनः ॥४७॥
समेधित - समृद्धिश्री ऋद्धि सिद्धि प्रवर्तकः ।
दत्तसौमुख्य सुमुखः कान्तिकन्दलिताश्रयः ॥४८॥
मदनावत्याश्रिताङ्घ्रिः कृतदौर्मुख्यदुर्मुखः ।
विघ्नसम्पल्लवोपघ्नः सेवोन्निद्रमदद्रवः ॥४९॥
विघ्नकृन्निघ्नचरणो द्राविणीशक्तिसत्कृतः ।
तीव्राप्रसन्ननयनो ज्वालिनीपालितैकदृक् ॥५०॥
मोहिनीमोहनो भोगदायिनीकान्तिमण्डितः ।
- कामिनीकान्त वक्त्रश्रीरधिष्ठित वसुन्धरः ॥५१॥
वसुन्धरा मदोन्नद्ध महाशङ्ख निधिप्रभुः ।
नमद्वसुमतीमौलि महापद्मनिधिप्रभुः ॥५२॥
सर्वसद्गुरुसंसेव्यः शोचिष्केश हृदाश्रयः ।
ईशानमूर्धा देवेन्द्रशिखा पवननन्दनः ॥५३॥
अग्र प्रत्यग्र नयनो दिव्यास्त्राणां प्रयोगवित् ।
ऐरावतादि सर्वाशा वारणावरणप्रियः ॥५४॥
वज्राद्यस्त्रपरीवारो गणचण्डसमाश्रयः ।
जयाऽजयपरीवारो विजया ऽविजयावहः ॥५५॥
अजितार्चित पादाब्जो नित्याऽनित्यावतंसितः । -
विलासिनीकृतोल्लासः शौण्डीसौन्दर्यमण्डितः ॥५६॥
अनन्तानन्तसुखदः सुमङ्गल सुमङ्गलः ।
इच्छाशक्ति- ज्ञानशक्ति क्रियाशक्ति निषेवितः ॥५७॥
सुभगासंश्रितपदो ललिताललिताश्रयः ।
कामिनीकामनः काम मालिनी केलिलालितः ॥५८॥
सरस्वत्याश्रयो गौरीनन्दनः श्रीनिकेतनः ।
गुरुगुप्तपदो वाचासिद्धो वागीश्वरीपतिः ॥५९॥
नलिनीकामुको वामारामो ज्येष्ठामनोरमः ।
रौद्रीमुद्रित - पादाब्जो हुम्बीजस्तुण्डशक्तिकः ॥६०॥
विश्वादिजननत्राणः स्वाहाशक्तिः सकीलकः ।
अमृताब्धिकृतावासो मदघूर्णितलोचनः ॥६१॥
उच्छिष्टगण उच्छिष्टगणेशो गणनायकः ।
सर्वकालिक संसिद्धि र्नित्यशैवो दिगम्बरः ॥६२॥
अनपायो ऽनन्तदृष्टि - रप्रमेयो ऽजरामरः ।
अनाविलो - ऽप्रतिरथो ऽह्यच्युतो ऽमृतमक्षरम् ॥६३॥
अप्रतक्यों-ऽक्षयो-ऽजय्योऽनाधारो ऽनामयोऽमलः ।
अमोघसिद्धिरद्वैत मघोरो ऽप्रमिताननः ॥६४॥
अनाकरोऽब्धि - भूम्यग्नि बलघ्नो ऽव्यक्तलक्षणः ।
आधारपीठ आधार आधाराधेयवर्जितः ॥६५॥
आखुकेतन आशापूरक आखुमहारथः ।
इक्षुसागरमध्यस्थ इक्षुभक्षणलालसः ॥६६॥
इक्षुचापातिरेकश्री रिक्षुचाप निषेवितः ।
इन्द्रगोप समानश्रीरिन्द्रनीलसमद्युतिः ॥६७॥
इन्दीवरदलश्याम इन्दुमण्डलनिर्मलः ।
इध्मप्रिय इडाभाग इराधामेन्दिराप्रियः ॥६८॥
इक्ष्वाकुविघ्नविध्वंसी इतिकर्तव्यतेप्सितः ।
ईशानमौलिरीशान ईशानसुत ईतिहा ॥६९॥
ईशणात्रयकल्पान्त ईहामात्रविवर्जितः ।
उपेन्द्र उडुभृन्मौलिरुण्डेरकबलिप्रियः ॥७०॥
उन्नतानन उत्तुङ्ग उदारत्रिदशाग्रणीः ।
ऊर्जस्वानूष्मलमद ऊहापोह दुरासदः ॥७१॥
ऋग्-यजुः-साम-सम्भूति-ऋद्धि-सिद्धि-प्रदायकः ।
ऋतुचित्तैकसुलभ ऋणत्रयविमोचकः ॥७२॥
लुप्तविघ्नः स्वभक्तानां लुप्तशक्तिः सुरद्विषाम् ।
लुप्तश्रीर्विमुखार्चानां लूता विस्फोट - नाशनः ॥७३॥
एकारपीठमध्यस्थ एकपादकृतासनः ।
एजिताखिल दैत्यश्रीरेधिताखिल संश्रयः ॥७४॥
ऐश्वर्यनिधिरैश्वर्य मैहिका ऽमुष्मिकप्रदः ।
ऐरम्मद समोन्मेष ऐरावत निभाननः ॥७५॥
ओङ्कारवाच्य ओङ्कार ओजस्वानोषधीपतिः ।
औदार्यनिधिरौद्धत्यधुर्य औन्नत्यनिस्वनः ॥७६॥
अङ्कुशः सुरनागानामङ्कुशः सुरविद्विषाम् ।
अःसमस्त विसर्गान्त पदेषु परिकीर्तितः ॥७७॥
कमण्डलुधरः कल्पः कपर्दी कलभाननः ।
कर्मसाक्षी कर्मकर्ता कर्माऽकर्मफलप्रदः ॥७८॥
कदम्बगोलकाकारः कूष्माण्डगणनायकः ।
कारुण्यदेहः कपिलः कथकः कटिसूत्रभृत् ॥७९॥
खर्वः खड्गप्रियः खड्ग-खान्तान्तस्थः खनिर्मलः ।
खल्वाटशृङ्गनिलयः खट्वाङ्गी खदुरासदः ॥८०॥
गुणाढ्यो गहनो गस्थो गद्य पद्य सुधार्णवः ।
गद्यगानप्रियो गर्जी गीतगीर्वाणपूर्वजः ॥८१॥
गुह्याचाररतो गुह्यो गुह्यागमनिरूपितः ।
गुहाशयो गुहाब्धिस्थो गुरुगम्यो गुरोर्गुरुः ॥८२॥
घण्टाघर्घरिकामाली घटकुम्भो घटोदरः ।
चण्डश्चण्डेश्वरसुहृच्चण्डीशश्चण्डविक्रमः ॥८३॥
चराऽचरपति श्चिन्तामणि चर्वणलालसः ।
छन्दश्छन्दोवपुश्छन्दो दुर्लक्ष्यश्छन्दविग्रहः ॥८४॥
जगद्योनि-र्जगत्साक्षी जगदीशो जगन्मयः ।
जपो जपपरो जप्यो जिह्वासिंहासनप्रभुः ॥८५॥
झलझलोल्लसद्दान झङ्कारि भ्रमराकुलः ।
टङ्कार स्फार - संरावष्टङ्कारि - मणिनूपुरः ॥८६॥
ठद्वयोपल्लवान्तस्थ सर्वमन्त्रैक सिद्धिदः ।
डिण्डिमुण्डो डाकिनीशो डामरो डिण्डिमप्रियः ॥८७॥
ढक्का-निनाद-मुदितो ढौको ढुण्ढिविनायकः ।
तत्त्वानां परमं तत्त्वं तत्त्वंपद-निरूपितः ॥८८॥
तारकान्तर संस्थान स्तारकस्तारकान्तकः ।
स्थाणुः स्थाणुप्रियः स्थाता स्थावरं जङ्गमं जगत् ॥८९॥
दक्षयज्ञप्रमथनो दाता दानवमोहनः ।
दयावान् दिव्यविभवो दण्डभृद्दण्डनायकः ॥९०॥
दन्तप्रभिन्नाभ्रमालो दैत्यवारणदारणः ।
दंष्ट्रालग्नद्विपघटो देवार्थनृगजाकृतिः ॥९१॥
धन-धान्यपति-र्धन्यो धनदो धरणीधरः ।
ध्यानैकप्रकटो ध्येयो ध्यानं ध्यानपरायणः ॥९२॥
नन्द्यो नन्दिप्रियो नादो नादमध्य-प्रतिष्ठितः ।
निष्कलो निर्मलो नित्यो नित्याऽनित्यो निरामयः ॥९३॥
परं व्योम परं धाम परमात्मा परं पदम् ।
परात्परः पशुपतिः पशुपाशविमोचकः ॥९४॥
पूर्णानन्दः परानन्दः पुराणपुरुषोत्तमः ।
पद्मप्रसन्ननयनः प्रणताज्ञानमोचनः ॥९५॥
प्रमाण प्रत्ययातीतः प्रणतार्तिनिवारणः ।
फलहस्तः फणिपतिः फेत्कारः फाणितप्रियः ॥९६॥
बाणार्चिताङ्घ्रियुगलो बालकेलि कुतूहली ।
ब्रह्म ब्रह्मार्चितपदो ब्रह्मचारी बृहस्पतिः ॥९७॥
बृहत्तमो ब्रह्मपरो ब्रह्मण्यो ब्रह्मवित्-प्रियः ।
बृहन्नादाग्र्यचीत्कारो ब्रह्माण्डावलिमेखलः ॥९८॥
भ्रूक्षेपदत्त - लक्ष्मीको भर्गो भद्रो भयापहः ।
भगवान् भक्तिसुलभो भूतिदो भूतिभूषणः ॥९९॥
भव्यो भूतालयो भोगदाता भ्रूमध्यगोचरः ।
मन्त्रो मन्त्रपतिर्मन्त्री मदमत्तमनोरमः ॥१००॥
मेखलावान् मन्दगतिर्मतिमत्कमलेक्षणः ।
महाबलो महावीर्यो महाप्राणो महामनाः ॥१०१॥
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्ञगोप्ता यज्ञफलप्रदः ।
यशस्करो योगगम्यो याज्ञिको याजकप्रियः ॥१०२॥
रसो रसप्रियो रस्यो रञ्जको रावणार्चितः ।
रक्षो रक्षाकरो रत्नगर्भो राज्यसुखप्रदः ॥१०३॥
लक्ष्यं लक्ष्यप्रदो लक्ष्यो लयस्थो लड्डुकप्रियः ।
लानप्रियो लास्यपरो लाभकृल्लोकविश्रुतः ॥१०४॥
वरेण्यो वह्निवदनो वन्द्यो वेदान्तगोचरः ।
विकर्ता विश्वतश्चक्षुर्विधाता विश्वतोमुखः ॥१०५॥
वामदेवो विश्वनेता वज्रिवज्रनिवारणः ।
विश्वबन्धन विष्कम्भाधारो विश्वेश्वरप्रभुः ॥१०६॥
शब्दब्रह्म शमप्राप्यः शम्भुशक्तिगणेश्वरः ।
शास्ता शिखाग्रनिलयः शरण्यः शिखरीश्वरः ॥१०७॥
षऋतुकुसुमस्त्रग्वी षडाधारः षडक्षरः ।
संसारवैद्यः सर्वज्ञः सर्वभेषजभेषजम् ॥१०८॥
सृष्टि - स्थिति लयक्रीडः सुरकुञ्जरभेदनः ।
सिन्दूरित महाकुम्भः सदसयुक्तिदायकः ॥१०९॥
साक्षी समुद्रमथनः स्वसंवेद्यः स्वदक्षिणः ।
स्वतन्त्रः सत्यसङ्कल्पः सामगानरतः सुखी ॥११०॥
हंसो हस्तिपिशाचीशो हवनं हव्यकव्यभुक् ।
हव्यो हुतप्रियो हर्षो हृल्लेखामन्त्रमध्यगः ॥१११॥
क्षेत्राधिपः क्षमाभर्ता क्षमापरपरायणम् ।
क्षिप्रक्षेमकरः क्षेमानन्दः क्षोणीसुरद्रुमः ॥११२॥
धर्मप्रदो ऽर्थदः कामदाता सौभाग्यवर्धनः ।
विद्याप्रदो विभवदो भुक्ति-मुक्तिफलप्रदः ॥११३॥
आभिरूप्यकरो वीरश्रीपदो विजयप्रदः ।
सर्ववश्यकरो गर्भदोषहा पुत्रपौत्रदः ॥११४॥
मेधादः कीर्तिदः शोकहारी दौर्भाग्यनाशनः ।
प्रतिवादिमुखस्तम्भो रुष्टचित्तप्रसादनः ॥११५॥
पराभिचारशमनो दुःखभञ्जनकारकः ।
लवसृटिः कला काष्ठा निमेषतत्परः क्षणः ॥११६॥
घटी मुहूर्त्तप्रहरी दिवा नक्तमहर्निशम् ।
पक्षो मासोऽयनः वर्षं युगं कल्पो महालयः ॥११७॥
राशिस्तारा तिथिर्योगो वारः करणमंशकम् ।
लग्नं होरा कालचक्रं मेरुः सप्तर्षयो ध्रुवः ॥११८॥
राहुर्मन्दः कविर्जीवो बुधो भौमः शशी रविः ।
कालः सृष्टिः स्थितिर्विश्वं स्थावरं जङ्गमं च यत् ॥११९॥
भूरापो-ऽग्नि-र्मरुद्-व्योमा ऽहंकृतिः प्रकृतिः पुमान् ।
ब्रह्मा विष्णुः शिवो रुद्र ईशः शक्तिः सदाशिवः ॥१२०॥
त्रिदशाः पितरः सिद्धाः यक्षा रक्षांसि किन्नराः ।
साद्धया विद्याधरा भूता मनुष्या पशवः खगाः ॥१२१॥
समुद्राः सरितः शैला भूतं भव्यं भवोद्भवः ।
साङ्ख्यं पातञ्जलं योगः पुराणानि श्रुतिः स्मृतिः ॥१२२॥
वेदाङ्गानि सदाचारो मीमांसा न्यायविस्तरः ।
आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वं काव्यनाटकम् ॥१२३॥
वैखानसं भागवतं सात्वतं पाञ्चरात्रकम् ।
शैवं पाशुपतं कालामुखं भैरवशासनम् ॥१२४॥
शाक्तं वैनायकं सौरं जैनमार्हतसंहिता ।
सदसद्व्यक्तमव्यक्तं सचेतनमचेतनम् ॥१२५॥
बन्धो मोक्षः सुखं भोगो योगः सत्यमणुर्महान् ।
स्वस्ति हुंफट् स्वधा स्वाहा श्रौषड्-वौषड्वषण्णमः ॥१२६॥
ज्ञानं विज्ञानमानन्दो बोधः संविच्छमो यमः ।
एक एकाक्षराधार एकाक्षरपरायणः ॥१२७॥
एकाग्रधीरेकवीर एकाऽनेकस्वरूपधृक् ।
द्विरूपो द्विभुजो द्वयक्षो द्विरदो द्विपरक्षकः ॥१२८॥
द्वैमातुरो द्विवदनो द्वन्द्वातीतो द्वयातिगः ।
त्रिधामा त्रिकरस्त्रेता त्रिवर्ग - फलदायकः ॥१२९॥
त्रिगुणात्मा त्रिलोकादि स्त्रिशक्तीश स्त्रिलोचनः।
चतुर्बाहुश्चतुर्दन्तश्चतुरात्मा चतुर्मुखः ॥१३०॥
चतुर्विधोपायमय श्चतुर्वर्णाश्रमाश्रयः ।
चतुर्विध वचोवृत्ति परिवृत्ति प्रवर्तकः ॥१३१॥
चतुर्थीपूजनप्रीत श्चतुर्थीतिथिसम्भवः ।
पञ्चाक्षरात्मा पञ्चात्मा पञ्चास्यः पञ्चकृत्यकृत् ॥१३२॥
पञ्चाधारः पञ्चवर्णः पञ्चाक्षरपरायणः ।
पतालः पञ्चकरः पञ्चप्रणवभावितः ॥१३३॥
पञ्चब्रह्ममयस्फूर्तिः पञ्चावरणवारितः ।
पञ्चभक्ष्यप्रियः पञ्चबाणः पञ्चशिवात्मकः ॥१३४॥
षट्कोणपीठः षट्चक्रधामा षड्ग्रन्थिभेदकः ।
षडध्व-ध्वान्त-विध्वंसी षडङ्गुलमहाहृदः ॥१३५॥
षण्मुखः षण्मुखभ्राता षट्शक्तिपरिवारितः ।
षड्वैरिवर्गविध्वंसी षडूर्मिभयभञ्जनः ॥१३६॥
षट्तर्कदूरः षट्कर्मनिरतः षड्रसाश्रयः ।
सप्तपातालचरणः सप्तद्वीपोरुमण्डलः ॥१३७॥
सप्तस्वर्लो कमुकुटः सप्तसप्तिवरप्रदः ।
सप्ताङ्गराज्यसुखदः सप्तर्षिगणमण्डितः ॥१३८॥
सप्तच्छन्दोनिधिः सप्तहोता सप्तस्वराश्रयः ।
सप्ताब्धिकेलिकासारः सप्तमातृनिषेवितः ॥१३९॥
सप्तच्छन्दोमोदमदः सप्तच्छन्दोमखप्रभुः ।
अष्टमूर्ति - ध्येयमूर्तिरष्टप्रकृति कारणम् ॥१४०॥
अष्टाङ्गयोगफलभूरष्टपत्राम्बुजासनः !
अष्टशक्ति समृद्धश्रीरष्टैश्वर्य - प्रदायकः ॥१४१॥
अष्टपीठोपपीठश्री रष्टमातृ समावृतः ।
अष्टभैरव सेव्योऽष्ट वसुवन्द्यो ऽष्टमूर्तिभृत् ॥१४२॥
अष्टचक्र स्फुरन्मूर्तिरष्टद्रव्य हविःप्रियः ।
नवनागासनाध्यासी नवनिध्यनुशासिता ॥१४३॥
नवद्वारपुराधारो नवाधारनिकेतनः ।
नवनारायणस्तुत्यो नवदुर्गानिषेवितः ॥१४४॥
नवनाथमहानाथो नवनागविभूषणः ।
नवरत्नविचित्राङ्गो नवशक्तिशिरोद्धृतः ॥१४५॥
दशात्मको दशभुजो दशदिक्पतिवन्दितः ।
दशाध्यायो दशप्राणो दशेन्द्रिय-नियामकः ॥१४६॥
दशाक्षर महामन्त्रो दशाशा व्यापि विग्रहः ।
एकादशादिभी रुद्रैः स्तुत एकादशाक्षरः ॥१४७॥
द्वादशोद्दण्डदोर्दण्डो द्वादशान्तनिकेतनः ।
त्रयोदशभिदाभिन्न विश्वेदेवाधिदैवतम् ॥१४८॥
चतुर्दशेन्द्रवरदश्चतुर्दशमनु प्रभुः ।
चतुर्दशादि विद्याढ्य श्चतुर्दश जगत्प्रभुः ॥१४९॥
सामपञ्चदशः पञ्चदशीशीतांशुनिर्मलः ।
षोडशाधारनिलयः षोडशस्वरमातृकः ॥१५०॥
षोडशान्तपदावासः षोडशेन्दुकलात्मकः ।
कलासप्तदशी सप्तदशः सपादशाक्षरः ॥१५१॥
अष्टादशद्वीपपति - रष्टादश पुराणकृत् ।
अष्टादशौषधीसृष्टिरष्टादशविधिस्मृतः ॥१५२॥
अष्टादशलिपिव्यष्टि समष्टि ज्ञान कोविदः ।
एकविंशः पुमानेक विंशत्यङ्गुलि पल्लवः ॥१५३॥
चतुर्विंशति - तत्त्वात्मा पञ्चविंशाख्यपूरुषः ।
सप्तविंशतितारेशः सप्तविंशतियोगकृत् ॥१५४।
द्वात्रिंशद् - भैरवाधीश श्चतुस्त्रिशन्महाहृदः ।
षत्रिंशत्तत्त्वसम्भूतिरष्टात्रिंशत्कलातनुः ॥१५५॥
नमदेकोनपञ्चाशन् मरुद्वर्ग निरर्गलः ।
पञ्चाशदक्षरश्रेणी पञ्चाशद्रुद्रविग्रहः ॥१५६॥
पञ्चाशद्विष्णुशक्तीशः पञ्चाशन्मातृकालयः ।
द्विपञ्चाशद्वपुः श्रेणी त्रिषष्ट्यक्षरसंश्रयः ॥१५७॥
चतुःषष्ट्यर्णनिर्णेता चतुःषष्टिकलानिधिः ।
चतुःषष्टिमहासिद्ध - योगिनीवृन्द वन्दितः ॥१५८॥
अष्टषष्टि - महातीर्थ क्षेत्रभैरव भावनः ।
चतुर्नवति - मन्त्रात्मा षण्णवत्यधिकप्रभुः ॥१५९॥
शतानन्दः शतधृतिः शतपत्रायतेक्षणः ।
शतानीकः शतमखः शतधारावरायुधः ॥१६०॥
सहस्त्रपत्रनिलयः सहस्रफणभूषणः ।
सहस्त्रशीर्षापुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात् ॥१६१॥
सहस्त्रनामसंस्तुत्यः सहस्त्राक्षबलापहः ।
दशसाहस्रफणभृत् फणिराज कृतासनः ॥१६२॥
अष्टाशीतिसहस्त्राद्य महर्षिस्तोत्र यन्त्रितः ।
लक्षाधीशप्रियाधारो लक्षाधारमनोमयः ॥१६३॥
चतुर्लक्षजपप्रीत श्चतुर्लक्ष प्रकाशितः ।
चतुरशीतिलक्षाणां जीवानां देहसंस्थितः ॥१६४॥
कोटिसूर्यप्रतीकाशः कोटिचन्द्रांशुनिर्मलः ।
शिवाभवाध्युष्टकोटि - विनायक - धुरन्धरः ॥१६५॥
सप्तकोटि महामन्त्र मन्त्रितावयवद्युतिः ।
त्रयस्त्रिशत्कोटिसुर श्रेणिप्रणतपादुकः ॥१६६॥
अनन्त नामानन्तश्रीरनन्ता ऽनन्त सौख्यदः ॐ ।
पुनः ऋष्यादिक-न्यासम् उत्तरन्यासं मानसपूजां च कृत्वा,
इति वैनायकं नाम्नां सहस्त्रमिदमीरितम् ।
इदं ब्राह्मो मुहूर्ते यः पठति प्रत्यहं नरः ॥१॥
करस्थं तस्य सकलमैहिका ऽऽमुष्मिकं सुखम् ।
आयुरारोग्यमैश्वर्यं धैर्यं शौर्य बलं यशः ॥२॥
मेधा प्रज्ञा धृतिः कान्तिः सौभाग्यमतिरूपता ।
सत्यं दया क्षमा शान्तिर्दाक्षिण्यं धर्मशालिता ॥३॥
जगत्संयमनं विश्वसंवादो वादपाटवम् ।
सभापाण्डित्यमौदार्य गाम्भीर्यं ब्रह्मवर्चसम् ॥४॥
औन्नत्यं च कुलं शीलं प्रतापो वीर्यमार्यता ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं स्थैर्यं विश्वातिशायिता ॥५॥
धन-धान्या-ऽभिवृद्धिश्च सकृदस्य जपाद् भवेत् ।
वश्यं चतुर्विधं नृणां जपादस्य प्रजायते ॥७॥
धर्माऽर्थ काम - मोक्षाणामनायासेन साधनम् ।
शाकिनी-डाकिनी रक्षो यक्षोरग भयापहम् ॥८॥
साम्राज्यसुखदं चैव समस्त-रिपुमर्दनम् ।
समस्त कलहध्वंसि दग्धबीज प्ररोहणम् ॥९॥
दुःस्वप्ननाशनं क्रुद्धस्वामि चित्त प्रसादनम् ।
षट्कर्माऽष्ट - महासिद्धि त्रिकालज्ञान साधनम् ॥१०॥
परकृत्याप्रशमनं परचक्र विमर्दनम् ।
सङ्ग्रामरङ्गे सर्वेषामिदमेकं जयावहम् ॥११॥
सर्ववन्ध्यात्वदोषघ्नं गर्भरक्षैककारणम् ।
पठ्यते प्रत्यहं यत्र स्तोत्रं गणपतेरिदम् ॥१२॥
देशे तत्र न दुर्भिक्षमीतयो दुरितानि च।
न तद्गृहं जहाति श्रीर्यत्राऽयं पठ्यते स्तवः ॥१३॥
क्षय - कुष्ठ - प्रमेहार्श भगन्दर विसूचिकाः ।
गुल्मं प्लीहानमश्मानमतिसारं महोदरम् ॥१४॥
कासं श्वासं गुदावर्त शूलं शोफादिसम्भवम् ।
शिरोरोगं वर्मि हिक्कां गण्डमालामरोचकम् ॥१५॥
वात-पित्त-कफ-द्वन्द्व-त्रिदोष-जनित-ज्वरम्
आगन्तुविषमं शीतमुष्णं चैकाहिकादिकम् ॥१६॥
इत्याद्युक्तमनुक्तं वा रोग दोषादि - - सम्भवम् ।
सर्वं प्रशमयत्याशु स्तोत्रस्याऽस्य सकृज्जपः ॥१७॥
सकृत्पाठेन संसिद्धः स्त्री-शूद्र-पतितैरपि ।
सहस्त्रनाममन्त्रोऽयं जपितव्यः शुभाप्तये ॥१८॥
महागणपतेः स्तोत्रं सकामः - प्रजपन्निदम् ।
इच्छया सकलान् भोगाननुभूयेह पार्थिवान् ॥१९॥
मनोरथफलै र्दिव्यै व्र्योमयानै र्मनोरमैः ।
चन्द्रेन्द्र - भास्करोपेन्द्र - ब्रह्मा शर्वादि सद्मसु ॥२०॥
कामरूपः कामगतिः कामतो विचरन्निह ।
भुक्त्वा यथेप्सितान् भोगानभीष्टान् सहबन्धुभिः ॥२१॥
गणेशानुचरो भूत्वा महागणपतेः प्रियः ।
नन्दीश्वरादि सानन्दी नन्दितः सकलैर्गणैः ॥२२॥
शिवाभ्यां कृपया पुत्रनिर्विशेषं च लालितः ।
शिवभक्तः पूर्णकामो गणेश्वरवरात् पुनः ॥२३॥
जातिस्मरो धर्मपरः सार्वभौमोऽभिजायते ।
निष्कामस्तु जपन्नित्यं भक्त्या विघ्नेशतत्परः ॥२४॥
योगसिद्धिं परां प्राप्य ज्ञान-वैराग्य-संस्थितः ।
निरन्तरोदितानन्दे परमानन्दसंविदि ॥२५॥
विश्वोत्तीर्णे परेपारे पुनरावृत्तिवर्जिते ।
लीनो वैनायके धाम्नि रमते नित्यनिर्वृतः ॥२६॥
यो नामभिहुनेदेतैरर्चयेत् पूजयेन्नरः ।
राजानो वश्यतां यान्ति रिपवो यान्ति दासताम् ॥२७॥
मन्त्राः सिध्यन्ति सर्वेऽपि सुलभास्तस्य सिद्धयः ।
मूलमन्त्रादपि स्तोत्रमिदं प्रियतरं मम ॥२८॥
नभस्ये मासि शुक्लायां चतुर्थ्यां मम जन्मनि ।
दूर्वाभिर्नामभिः पूजा तर्पणं विधिवच्चरेत् ॥२९॥
अष्टद्रव्यैर्विशेषेण जुहुयाद् भक्तिसंयुतः ।
तस्येप्सितानि सर्वाणि सिध्यन्त्यत्र न संशयः ॥३०॥
इदं प्रजप्तं पठितं पाठितं श्रावितं श्रुतम् ॥३१॥
व्याकृतं चर्चितं ध्यातं विसृष्टमभिनन्दितम् ।
इहाऽमुत्र च सर्वेषां विश्वैश्वर्यं प्रदायकम् ॥३२॥
स्वच्छन्दचारिणाऽप्येष येनाऽयं धार्यते स्तवः ।
स रक्ष्यते शिवोद्भूतैर्गणैरध्युष्टकोटिभिः ॥३३॥
पुस्तके लिखितं यत्र गृहे स्तोत्रं प्रपूजयेत् ।
तत्र सर्वोत्तमा लक्ष्मीः सन्निधत्ते निरन्तरम् ॥३४॥
दानैरशेषैर खिलैव्रतैश्च तीर्थैरशेषैरखिलैर्मखैश्च ।
न तत्फलं विन्दति यद् गणेश-सहस्त्रनाम्नां स्मरणेन सद्यः ॥३५॥
एतन्नाम्नां सहस्त्रं पठति दिनमणौ प्रत्यहं प्रोज्जिहाने
सायं मध्यंदिने वा त्रिषवणमथवा सन्ततं वा जनो यः ।
स स्यादैश्वर्यधुर्यः प्रभवति च सतां कीर्तिमुच्चैस्तनोति
प्रत्यूहं हन्ति विश्वं वशयति सुचिरं वर्धते पुत्र-पौत्रैः ॥३६॥
अकिञ्चनो ऽपि मत्प्राप्तिश्चिन्तको नियताशनः ।
जपेत्तु चतुरो मासान् गणेशार्चनतत्परः ॥३७॥
दरिद्रतां समुन्मूल्य सप्तजन्मानुगामपि ।
लभते महतीं लक्ष्मीमित्याज्ञा पारमेश्वरी ॥३८॥
आयुष्यं वीतरोगं कुलमतिविमलं सम्पदश्चार्तदानाः
कीर्तिर्नित्यावदाता भणितिरभिनवाकान्तिरव्याधिभव्या ।
पुत्राः सन्तः कलत्रं गुणवदभिमतं यद्यदेतच्च सत्यं नित्यं यः
स्तोत्रमेतत् पठति गणपतेस्तस्य हस्ते समस्तम् ॥३९॥
ॐ गणञ्जयो गणपतिर्हेरम्बो धरणीधरः ।
महागणपतिर्लक्षप्रदः क्षिप्रप्रसादनः ॥४०॥
अमोघसिद्धिरमृतो मन्त्रश्चिन्तामणिर्निधिः ।
सुमङ्गलो बीजमाशापूरको वरदः शिवः ॥४१॥
काश्यपो नन्दनो वाचासिद्धो ढुण्ढिविनायकः ।
मोदकैरेभिरत्रैकविंशत्या नामभिः पुमान् ॥४२॥
यः स्तौति मद्गतमनो मदाराधनतत्परः ।
स्तुतो नाम्नां सहस्त्रेण तेनाऽहं नाऽत्र संशयः ॥४३॥
नमो नमः सुरवर - पूजिताङ्ङ्ग्रये नमो नमो निरुपममङ्गलात्मने ।
नमो नमो विपुलपदैकसिद्धये नमो नमः करिकलभाननाय ते ॥४४॥
इति श्रीगणेशपुराणे उपासनाखण्डे महागणपतिप्रोक्त गणेशसहस्त्रनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
निष्कर्ष:
श्री गणेश सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ एक संपूर्ण साधना है, जो साधक को भौतिक, मानसिक, और आध्यात्मिक स्तर पर लाभ प्रदान करता है। यह स्तोत्र भगवान गणेश की कृपा प्राप्त करने का उत्तम माध्यम है। इसके नियमित पाठ से साधक जीवन के हर क्षेत्र में सफल होता है, उसके विघ्नों का नाश होता है, और उसकी सभी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं।
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