लिंग पुराण : यतियोंके लिये प्रायश्चित्तनिरूपण | Linga Purana: Atonement for Yetis

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] नब्बेवाँ अध्याय

यतियोंके लिये प्रायश्चित्तनिरूपण

सूत उवाच

अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि यतीनामिह निश्चितम्। 
प्रायश्चित्तं शिवप्रोक्तं यतीनां पापशोधनम् ॥ १

सूतजी बोले- [हे ऋषियो!] इसके बाद मैं यत्तियोंके लिये निश्चित किये गये प्रायश्चित्तका वर्णन करूंगा; शिवके द्वारा कहा गया यह [प्रायश्चित्त] यतियोंके पापका शोधन करनेवाला है॥ १॥

पापं हि त्रिविधं ज्ञेयं वाड्मनः कायसम्भवम् ।
सततं हि दिवा रात्रौ येनेदं वेष्ट्यते जगत् ॥ २

तत्कर्मणा विनाप्येष तिष्ठतीति परा श्रुतिः।
क्षणमेवं प्रयोज्यं तु आयुष्यं तु विधारणम् ॥ ३

भवेद्योगोऽप्रमत्तस्य योगो हि परमं बलम्।
न हि योगात्परं किञ्चिन्नराणां दृश्यते शुभम् ॥ ४

तस्माद्योगं प्रशंसन्ति धर्मयुक्ता मनीषिणः ।
अविद्यां विद्यया जित्वा प्राप्यैश्वर्यमनुत्तमम् ॥ ५

मन, वाणी तथा शरीरसे होनेवाले पापको तीन प्रकारका जानना चाहिये, जिसके द्वारा दिन-रात निरन्तर यह जगत् व्याप्त है। यति कर्मके बिना भी स्थित रहता है-यह उपनिषद्‌का कथन है; प्रत्येक क्षणको योगमें प्रयुक्त करना चाहियेः क्योंकि आयु अत्यन्त चलायमान है। प्रमादरहितको ही योग प्राप्त होता है। योग महान् बल है; मनुष्योंके लिये योगसे बढ़कर कल्याणकारी कुछ भी नहीं दिखायी देता है। अतः धर्मयुक्त विद्वान् लोग योगकी प्रशंसा करते हैं। विद्याके द्वारा अविद्याको जीतकर अत्युत्तम ऐश्वर्य प्राप्त करके पुनः ब्रह्म तथा मायाविलासका भली- भाँति विचार करके धीर लोग [शिवनामक] उस परम पदको प्राप्त करते हैं॥ २-५॥

दृष्ट्वा परावरं धीराः परं गच्छन्ति तत्पदम् । 
व्रतानि यानि भिक्षूणां तथैवोपव्रतानि च।॥ ६

एकैकातिक्रमे तेषां प्रायश्चित्तं विधीयते। 
उपेत्य तु स्त्रियं कामात्प्रायश्चित्तं विनिर्दिशेत् ॥ ७

प्राणायामसमायुक्तं चरेत्सान्तपनं व्रतम् । 
ततश्चरति निर्देशात्कृच्छ्रे चान्ते समाहितः ॥ ८

पुनराश्रममागत्य चरेद्धिक्षुरतन्द्रितः । 
न धर्मयुक्तमनृतं हिनस्तीति मनीषिणः ॥ ९

तथापि न च कर्तव्यं प्रसङ्गो होष दारुणः। 
अहोरात्रोपवासश्च प्राणायामशतं तथा ॥ १०

असद्वादो न कर्तव्यो यतिना धर्मलिप्सुना। 
परमापद्गतेनापि न कार्यं स्तेयमप्युत ॥ ११

स्तेयादभ्यधिकः कश्चिन्नास्त्यधर्म इति श्रुतिः । 
हिंसा होषा परा सृष्टा स्तैन्यं वै कथितं तथा ॥ १२

यदेतद्रविणं नाम प्राणा होते बहिश्चराः। 
स तस्य हरते प्राणान् यो यस्य हरते धनम् ।। १३

एवं कृत्वा सुदुष्टात्मा भिन्नवृत्तो व्रताच्च्युतः । 
भूयो निर्वेदमापन्नश्चरेच्चान्द्रायणं व्रतम् ॥ १४

यतियोंके लिये जो व्रत तथा उपव्रत हैं; उनमें प्रत्येकका अतिक्रम (उल्लंघन) होनेपर उनके लिये प्रायश्चित्तका विधान किया गया है। [गृहस्थको भी] कामनापूर्वक स्त्री- गमन करनेपर प्रायश्चित्त करना चाहिये; यतिको प्राणायामयुक्त सान्तपनव्रत करना चाहिये, इसके बाद एकाग्रचित्त होकर नियमानुसार कृच्छूव्रत करना चाहिये, तत्पश्चात् अपने आश्रममें लौटकर आलस्यरहित होकर भिक्षुक (यति)- को आचारपूर्वक रहना चाहिये धर्मार्थ असत्य [किसीको] दूषित नहीं करता है- ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं; फिर भी उसे नहीं करना चाहिये। यह असत्य प्रसंग भयंकर होता है। [यदि यह हो जाता है, तो एक दिन तथा एक रात उपवास और सौ प्राणायाम इसका प्रायश्चित्त है। धर्मके इच्छुक यतिको असद्वाद नहीं करना चाहिये; बड़ी से बड़ी विपत्ति पड़नेपर भी उसे चोरी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि चोरीसे बढ़कर कोई अधर्म नहीं है-ऐसा श्रुति कहती है। चोरीको प्राणवधके समान होनेवाली हिंसाके रूपमें कहा गया है। जो यह धन है, वह मनुष्योंका बाहर विचरण करनेवाला प्राण ही है। जो जिसके धनका हरण करता है, वह मानो उसका प्राण हो हर लेता है। इस [चौर] कर्मको करके वह अत्यन्त दुष्ट मनवाला व्यक्ति आचाररहित तथा व्रतच्युत हो जाता है। उसे फिरसे वैराग्ययुक्त होकर शास्त्रोक्त विधिसे एक वर्षतक चान्द्रायणव्रत करना चाहिये- ऐसा श्रुति कहती है। वर्षके अन्तमें वह पापरहित हो जाता है;इसके बाद यतिको वैराग्ययुक्त होकर आलस्यरहित हो सदाचारका पालन करना चाहिये ॥ ६-१५ ॥

विधिना शास्त्रदृष्टेन संवत्सरमिति श्रुतिः । 
ततः संवत्सरस्यान्ते भूयः प्रक्षीणकल्मषः ।
पुनर्निर्वेदमापन्नश्चरेद्भिक्षुरतन्द्रितः ॥ १५ 

अहिंसा सर्वभूतानां कर्मणा मनसा गिरा। 
अकामादपि हिंसेत यदि भिक्षुः पशून् कृमीन् ॥ १६

कृच्छ्रातिकृच्छ्रं कुर्वीत चान्द्रायणमथापि वा। 
स्कन्देदिन्द्रियदौर्बल्यात् स्त्रियं दृष्ट्वा यतिर्यदि॥ १७

तेन धारयितव्या वै प्राणायामास्तु षोडश। 
दिवा स्कन्नस्य विप्रस्य प्रायश्चित्तं विधीयते ॥ १८

त्रिरात्रमुपवासाश्च प्राणायामशतं तथा। 
रात्रौ स्कन्नः शुचिः स्नात्वा द्वादशैव तु धारणाः ॥ १९

सभी प्राणियोंके प्रति मन, वचन तथा कर्मसे अहिंसा भाव रखना चाहिये। यदि यति अनजानमें भी पशुओं तथा कीड़ोंतककी हिंसा कर दे, तो उसे कृच्छ्रातिकृच्छ अथवा चान्द्रायणाव्रत करना चाहिये। स्त्रीको देखकर इन्द्रिय-दौर्बल्यके कारण यदि यति स्खलित हो जाता है तो उसे सोलह बार प्राणायाम करना चाहिये। दिनमें वीर्यस्खलन करनेवाले विप्रके लिये प्रायश्चित्तस्वरूप तीन राततक उपवास और सौ प्राणायामका विधान है। यदि रातमें स्खलन होता है, तो स्नान करके बारह धारणा (प्राणायाम) करनेके अनन्तर वह शुद्ध हो जाता है। है द्विजो! प्राणायामके द्वारा विप्र शुद्धमनवाला तथा पापसे रहित हो जाता है॥ १६-१९ ॥  

प्राणायामेन शुद्धात्मा विरजा जायते द्विजाः । 
एकान्नं मधुमांसं वा अश्रुतान्नं तथैव च ॥ २०

अभोज्यानि यतीनां तु प्रत्यक्षलवणानि च। 
एकैकातिक्रमात्तेषां प्रायश्चित्तं विधीयते ॥ २१

प्राजापत्येन कृच्छ्रेण ततः पापात्प्रमुच्यते । 
व्यतिक्रमाश्च ये केचिद्वाङ्मनः कायसम्भवाः ।। २२

सद्भिः सह विनिश्चित्य यद् ब्रूयुस्तत्समाचरेत् ॥ २३

चरेद्धि शुद्धः समलोष्ठकाञ्चनः समस्तभूतेषु च सत्समाहितः ।
स्थानं ध्रुवं शाश्वतमव्ययं तु परं हि गत्वा न पुनर्हि जायते ॥ २४

किसी एक व्यक्तिसे प्राप्त अन्न, मधु (शहद), मांस, बिना पका हुआ भोजन तथा प्रत्यक्ष लवण- ये सभी पदार्थ यतियोंके लिये अभोज्य हैं। इनमें किसी एकका भी उल्लंघन होनेपर उनके लिये प्रायश्चित्तका विधान किया गया है; कृच्छ्प्राजापत्यव्रतके द्वारा उस पापसे यति छूट जाता है। मन, वाणी तथा शरीरसे जो कोई भी अन्य व्यतिक्रम हो जाय, तो उनके प्रायश्चित्तके लिये सत्पुरुषोंके साथ निर्णय करके वे जो बतायें, उसे करना चाहिये जो शुद्ध मनसे मिट्टीके ढेले तथा सुवर्णमें समान भाव रखता है और सभी प्राणियोंमें ब्रह्मका चिन्तन करता है; वह स्थिर, शाश्वत तथा अविनाशी परम धामको प्राप्त करके पुनः जन्म नहीं ग्रहण करता है ॥ २०-२४॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे यतिप्रायश्चित्तं नाम नवतितमोऽध्यायः ॥ ९० ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'यतिप्रायश्चित्त' नामक नब्बेवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९०॥

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