श्रीलिङ्गमहापुराण लिंग पुराण [ उत्तरभाग ] चौथा अध्याय
वासुदेवपरायण विष्णुभक्तों के लक्षण तथा उनकी महिमा
ऋषय ऊचुः
वैष्णवा इति ये प्रोक्ता वासुदेवपरायणाः ।
कानि चिह्नानि तेषां वै तन्नो ब्रूहि महामते ।। १
तेषां वा किं करोत्येष भगवान् भूतभावनः ।
एतन्मे सर्वमाचक्ष्व सूत सर्वार्थवित्तम ॥ २
ऋषिगण बोले- है महामते ! जो वासुदेवपरारण वैष्णव कहे गये हैं, उनके क्या लक्षण हैं; उसे हमें बताइये। हे सूत ! हे सर्वतत्त्वज्ञ । भगवान् भूतभावन उन्हें कौन-सी गति प्रदान करते हैं; यह सब इनसे कहिये ॥ १-२ ॥
सूत उवाच
अम्बरीषेण वै पृष्टो मार्कण्डेयः पुरा मुनिः।
युष्माभिरद्य यत् प्रोक्तं तद्वदामि यथातथम् ॥ ३
सूतजी बोले- आपलोगोंने आज मुझसे बो पूछा है, वही बात पूर्वकालमें अम्बरीषने मार्कण्डेयमुनिसे पूछी थी; [उस समय उन्होंने जो कहा था] उसे में यथार्थ रूपसे आपलोगोंको बता रहा हूँ ॥३॥
मार्कण्डेय उवाच
शृणु राजन् यथान्यायं यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
यत्रास्ते विष्णुभक्तस्तु तत्र नारायणः स्थितः ॥ ४
विष्णुरेव हि सर्वत्र येषां वै देवता स्मृता।
कीर्त्यमाने हरौ नित्यं रोमाञ्चो यस्य वर्तते ॥ ५
कम्पः स्वेदस्तथाक्षेषु दृश्यन्ते जलबिन्दवः ।
विष्णुभक्तिसमायुक्तान् श्रौतस्मार्तप्रवर्तकान् ॥ ६
प्रीतो भवति यो दृष्ट्वा वैष्णवोऽसौ प्रकीर्तितः ।
नान्यदाच्छादयेद्वस्त्रं वैष्णवो जगतोऽरणे ॥ ७
मार्कण्डेयजी बोले- हे राजन्। आप मुझसे जो पूछ रहे हैं, उसे ध्यानपूर्वक सुनिये। जहाँ विष्णुभक्त रहता है, वहींपर नारायण विराजमान रहते हैं। जिनके लिये सर्वत्र समय जिसके शरीरमें सदा रोमांच होने लगता है, कम्पन विष्णु ही देवता कहे गये हैं, भगवान् श्रीहरिका कीर्तन होते उत्पन्न हो जाता है, पसीना आने लगता है और नेत्रोंमें अनु दिखायी पड़ने लगते हैं; विष्णुकी भक्तिसे युक्त श्रौत स्मार्त कर्मप्रवर्तक विद्वानोंको देखकर जो आनन्दित हो उठता है, उसे वैष्णव कहा गया है। जगत्के दर्शनमें [अपनी रक्षाके निमित्त] वैष्णवको आवश्यक परिधानके अतिरिक्त वस्त्र आदिसे शरीरका आवरण नहीं करना चाहिये ॥ ४-७॥
विष्णुभक्तमथायान्तं यो दृष्ट्वा सन्मुखस्थितः ।
प्रणामादि करोत्येवं वासुदेवे यथा तथा ॥ ८
स वै भक्त इति ज्ञेयः स जयी स्याज्जगत्त्रये।
रूक्षाक्षराणि शृण्वन् वै तथा भागवतेरितः ॥ ९
प्रणामपूर्व क्षान्त्या वै यो वदेद्वैष्णवो हि सः।
गन्धपुष्पादिकं सर्व शिरसा यो हि धारयेत् ॥ १०
हरेः सर्वमितीत्येवं मत्त्वासौ वैष्णवः स्मृतः ।
विष्णुक्षेत्रे शुभान्येव करोति स्नेहसंयुतः ॥ १९
प्रतिमां च हरेर्नित्यं पूजयेत्प्रयतात्मवान्।
विष्णुभक्तः स विज्ञेयः कर्मणा मनसा गिरा ॥ १२
विष्णुभक्तको आता हुआ देखकर जो सामने खड़े होकर उसे वासुदेवतुल्य समझकर प्रणाम आदि करता है, उसे वैष्णव भक्त जानना चाहिये; वह तीनों लोकोंमें विजयी होता है। कठोर वचन सुनता हुआ भी जो भगवद्भावसे युक होकर प्रणामपूर्वक धैर्यके साथ बोलता है, वहीं वैष्णव है सब कुछ श्रीहरिका है-ऐसा मानकर जो गन्ध, पुष्ष आदिको सिरसे लगाता है, वह वैष्णव कहा गया है। जो विष्णु क्षेत्रमें प्रेमयुक्त होकर शुभ कर्म हो करता है और एकाग्रचित्त होकर श्रीहरिकी प्रतिमाका नित्य पूजन करता है, उसे मन वाणी-कर्मसे विष्णुभक्त समझना चाहिये। जो सदा नारायणमें अनुरक्त है, वह परमभागवत है॥ ८-१२ ॥
नारायणपरो नित्यं महाभागवतो हि सः।
भोजनाराधनं सर्वं यथाशक्त्या करोति यः ॥ १३
विष्णुभक्तस्य च सदा यथान्यायं हि कथ्यते।
नारायणपरो विद्वान् यस्यान्नं प्रीतमानसः ॥ १४
अश्नाति तद्धरेरास्यं गतमन्नं न संशयः।
स्वार्चनादपि विश्वात्मा प्रीतो भवति माधवः ॥ १५
महाभागवते तच्च्च दृष्ट्वासौ भक्तवत्सलः ।
वासुदेवपरं दृष्ट्वा वैष्णवं दग्धकिल्विषम् ॥ १६
विष्णु भक्तों के भोजन एवं आराधनकी यथाशक्ति व्यवस्था करनेवाला वास्तविक फलका भागी कहा गया है। नारायणमें भक्ति रखनेवाला विद्वान् प्रसन्नचित्त होकर जिसका भी अन्न खाता है, वह अन्न मानो साक्षात् श्रीहरिके मुखमें चला गया; इसमें संदेह नहीं है भक्तवत्सल लक्ष्मीपति विश्वात्मा विष्णु अपने पूजनकी अपेक्षा अपने महा भागवत भक्तका पूजन देखकर अधिक प्रसन्न होते हैं। वासुदेवमें भक्ति रखनेवाले पापरहित वैष्णवको देखकर देवता भी भयभीत होकर उसे प्रणाम करके जैसे आते हैं, जैसे ही लौट जाते हैं॥ १३-१६॥
देवापि भीतास्तं यान्ति प्रणिपत्य यथागतम् ।
श्रूयतां हि पुरा वृत्तं विष्णुभक्तस्य वैभवम् ॥ १७
दृष्ट्वा यमोऽपि वै भक्तं वैष्णवं दग्धकिल्विषम्।
उत्थाय प्राञ्जलिर्भूत्वा ननाम भृगुनन्दनम् ॥ १८
तस्मात्सम्पूजयेद्भक्त्या वैष्णवान् विष्णुवन्नरः ।
स याति विष्णुसामीप्यं नात्र कार्या विचारणा ॥ १९
अन्यभक्तसहस्त्रेभ्यो विष्णुभक्तो विशिष्यते ।
विष्णुभक्तसहस्त्रेभ्यो रुद्रभक्तो विशिष्यते।
रुद्रभक्तात्परतरो नास्ति लोके न संशयः ॥ २०
तस्मात्तु वैष्णवं चापि रुद्रभक्तमथापि वा।
पूजयेत्सर्वयत्नेन धर्मकामार्थमुक्तये ॥ २१
विष्णुभक्तके वैभवसे सम्बन्धित एक प्राचीनकालका वृत्तान्त सुनिये। दग्ध पापोंवाले वैष्णव भक्त भृगुपुत्र च्यवनको देखकर यमराजने भी उठ करके दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया था। अतः मनुष्यको चाहिये कि भगवान् विष्णुकी हो भाँति भक्तिपूर्वक वैष्णवोंकी पूजा करे; [जो ऐसा करता है। वह विष्णुका सामीप्य प्राप्त कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये विष्णुभक्त अन्य देवताओंके भक्तोंसे हजार गुना श्रेष्ठ होता है और विष्णुभक्तोंसे हजार गुना श्रेष्ठ शिवभक्त होता है; रुद्रभक्तसे श्रेष्ठ कोई भी लोकमें नहीं है, इसमें संशय नहीं है। अतः धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके लिये सम्पूर्ण प्रयत्नके साथ विष्णुभक्त अथवा रुद्रभक्तकी पूजा करनी चाहिये ॥ १७-२१ ॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरधागे विष्णुभक्तकथनं नाथ चतुर्थोऽध्यावः ॥ ४ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'विष्णुभक्तकथन' नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥
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