लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] चौरासीवाँ अध्याय
उमामहेश्वरब्रत का वर्णन तथा पूजा विधान
सूत उवाच
उमामहेश्वरं वक्ष्ये ब्रतमीश्वभाषितम्।
नरनार्यादिजन्तूनां हिताय मुनिसत्तमा:॥ १
पौर्णमास्याममावास्यां चतुर्दश्यष्टमीषु च।
नक्तमब्दं॑ प्रकुर्वीत हविष्यं पूजयेद्धवम्॥ २
सूतजी बोले--हे श्रेष्ठ मुनियो। अब में नर, नारी आदि प्राणियोंके हितके लिये [स्वयं] शिवजीद्वारा कहे गये उमा महेश्वरब्रत को बताऊँगा वर्षभर अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या तथा पूर्णिमाको रातमें हविष्य ग्रहण करना चाहिये और शिवजीकी पूजा करनी चाहिये॥ १-२॥
उमामहेशप्रतिमां हेम्ना कृत्वा सुशोभनाम्।
राजतीं बाथ वर्षान्ते प्रतिष्ठाप्प यथाविधि॥ ३
ब्राह्मणान् भोजयित्वा च दत्त्वा शक्त्या च दक्षिणाम्।
रथाचचैर्वापि देवेशं नीत्वा रुद्रालयं प्रति ॥ ४
सर्वातिशयसंयुक्तैश्छत्रचामरभूषणैः।
निवेदयेद् व्रतं चैव शिवाय परमेष्ठिने ॥ ५
[ शैलादि बोले- ]हे प्रभो [ सनत्कुमा [मनुष्य | सुवर्ण अथवा चाँदीकी उमा-महेशकी परम सु प्रतिमा बनाकर वर्षके अन्तमें विधिपूर्वक उसको प्रतिष्य करके ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा प्रदान करके पूर्ण सौन्दर्ययुक्त तथा छत्र-चामर-आभूषणोंसे अलंकृत रथ आदिसे देवेश [शिव]-को शिवालयमें ले जाकर इस व्रतको परमेश्वर शिवको निवेदित करता है, वह शिवसायुज्य प्राप्त करता है और यदि नारी हो, तो वह भगवती उमाका सायुज्य प्राप्त करती है॥ ३-५॥
स याति शिवसायुज्यं नारी देव्या यदि प्रभो।
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां नियता ब्रह्मचारिणी ॥ ६
वर्षमेकं न भुञ्जीत कन्या वा विधवापि वा।
वर्षान्ते प्रतिमां कृत्वा पूर्वोक्तविधिना ततः ॥ ७
प्रतिष्ठाप्य यथान्यायं दत्त्वा रुद्रालये पुनः।
ब्राह्मणान् भोजयित्वा च भवान्या सह मोदते ॥ ८
या नार्येवं चरेदब्दं कृष्णामेकां चतुर्दशीम् ।
वर्षान्ते प्रतिमां कृत्वा येन केनापि वा द्विजाः ॥ ९
कन्या हो अथवा विधवा हो वह एक वर्षटक अष्टमी तथा चतुर्दशीको नियमपूर्वक ब्रह्मचारिणी रहकर भोजन न करे, वर्षके अन्तमें पूर्वोक्त विधिसे प्रतिमा बनाकर विधानके अनुसार उसकी प्रतिष्ठा करके उसे रुद्रालयमें प्रदान करके पुनः ब्राह्मणोंको भोजन कराकर वह भवानी (पार्वती) के साथ आनन्द मनाती है। हे द्विजो ! जो स्त्री वर्षपर्यन्त केवल कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको यह व्रत करती है और वर्षके अन्तमें जिस किसी पदार्थसे प्रतिमा बनाकर पूर्वोक्त समस्त विधान सम्पन्न करती है, वह भवानीके साथ आनन्द मनाती है ॥ ६-९॥
पूर्वोक्तमखिलं कृत्वा भवान्या सह मोदते।
अमावास्यां निराहारा भवेदब्दं सुयन्त्रिता ॥ १०
शूलं च विधिना कृत्वा वर्षान्ते विनिवेदयेत्।
स्नाप्येशानं यजेद् भक्त्या सहस्त्रैः कमलैः सितैः ॥ ११
राजतं कमलं चैव जाम्बूनदसुकर्णिकम्।
दत्त्वा भवाय विप्रेभ्यः प्रदद्याद्दक्षिणामपि ॥ १२
कामतोऽपि कृतं पापं भ्रूणहत्यादिकं च यत्।
तत्सर्वं शूलदानेन भिन्द्यान्नारी न संशयः ॥ १३
सायुज्यं चैवमाप्नोति भवान्या द्विजसत्तमाः।
कुर्याद्यद्वा नरः सोऽपि रुद्रसायुज्यमाप्नुयात् ॥ १४
स्त्रीको चाहिये कि वर्षपर्यन्त नियन्त्रित रहती हुई अमावस्याके दिन आहार ग्रहण न करे और वर्षके अन्तमें विधिपूर्वक त्रिशूल बनवाकर शिवको निवेदित करे तथा ईशानको स्नान कराकर हजार श्वेत कमलोंसे भक्तिपूर्वक उनका पूजन करे और सुवर्णमयी कर्णिकासे युक्त चाँदीका कमल शिवजीको समर्पित करके ब्राह्मणोंको दक्षिणा भी प्रदान करे। वह स्त्री [शिवजीके निमित्त] त्रिशूलके दानसे जानबूझकर भ्रूणहत्या आदि जो भी पाय होता है, उन सबको ध्वस्त कर डालती है; इसमें सन्देह नहीं है और हे श्रेष्ठ द्विजो। वह भवानीका सायुज्य प्राप्त कर लेती है। यदि [कोई] मनुष्य इसे करता है, तो वह भी रुद्रसायुज्य प्राप्त कर लेता है ॥ १०-१४॥
पौर्णमास्याममावास्यां वर्षमेकमतन्द्रिता।
उपवासरता नारी नरोऽपि द्विजसत्तमाः ॥ १५
नियोगादेव तत्कार्य भर्तृणां द्विजसत्तमाः।
जयं दानं तपः सर्वमस्वतन्त्राः यतः स्त्रियः ॥ १६
वर्षान्ते सर्वगन्धाढ्यां प्रतिमां सन्निवेदयेत्।
सा भवान्याश्च सायुज्यं सारूप्यं चापि सुव्रता ॥ १७
हे श्रेष्ठ द्विजो! पूरे एक वर्षभर पूर्णमासी तथा अमावस्याको आलस्यरहित तथा उपवासपरायण होकर नारीको तथा नरको भी इसे करना चाहिये। हे श्रेष्ठ द्विजो ! पतिकी आज्ञासे ही स्त्रियोंको यह व्रत, जप, दान, तप- सब कुछ करना चाहिये; क्योंकि स्त्रियाँ स्वतन्त्र नहीं हैं। हे सुव्रतो! वर्षके अन्तमें सभी प्रकारके गन्धोंसे युक्त उस प्रतिमाको शिवको निवेदित कर देना चाहिये; वह सुव्रता [स्त्री] भवानीका सायुज्य तथा सारूप्य प्राप्त कर लेती है; इसमें सन्देह नहीं है, मैं यह पूर्णतः सत्य कह रहा ॥ १५-१७॥
लभते नात्र सन्देहः सत्यं सत्यं वदाम्यहम्।
कार्तिक्यां वा तु या नारी एकभक्तेन वर्तते ॥ १८
क्षमाहिंसादिनियमैः संयुक्ता ब्रह्मचारिणी।
दद्यात्कृष्णतिलानां च भारमेकमतन्द्रिता ॥ १९
सघृतं सगुडं चैव ओदनं परमेष्ठिने।
दत्त्वा च ब्राह्मणेभ्यश्च यथाविभवविस्तरम् ॥ २०
अष्टम्यां च चतुर्दश्यामुपवासरता च सा।
भवान्या मोदते सार्धं सारूप्यं प्राप्य सुव्रता ॥ २९
क्षमा सत्यं दया दानं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
सर्वव्रतेष्वयं धर्मः सामान्यो रुद्रपूजनम् ॥ २२
जो स्त्री कार्तिक मासमें एक बार भोजन करती है, क्षमा-अहिंसा आदि नियमोंसे युक्त रहती है, ब्रह्मचर्यका पालन करती है, आलस्यरहित होकर एक भार काला तिल तथा घृत-गुड़ मिलाकर पकाया भात परमेश्वरको निवेदित करती है, ब्राह्मणोंको अपने सामर्थ्यक अनुसार दान देती है और अष्टमी तथा चतुर्दशीको उपवास करती है वह उत्तम व्रतवाली [स्त्री] भवानीका सारूप्य प्राप्त करके उनके साथ आनन्द मनाती है समस्त व्रतोंमें क्षमा, सत्य, दया, दान, शुद्धि तथा इन्द्रियोंका निग्रह और रुद्रपूजन- यह सामान्य धर्म है ॥ १८-२२ ॥
समासाद्वः प्रवक्ष्यामि प्रतिमासमनुक्रमात् ।
मार्गशीर्षकमासादि कार्तिक्यान्तं यथाक्रमम् ॥ २३
व्रतं सुविपुलं पुण्यं नन्दिना परिभाषितम्।
मार्गशीर्षकमासेऽथ वृषं पूर्णाङ्गमुत्तमम् ॥ २४
अलङ्कृत्य यथान्यायं शिवाय विनिवेदयेत्।
सा च सार्थ भवान्या वै मोदते नात्र संशयः ।। २५
पुष्यमासे तु वै शूलं प्रतिष्ठाप्य निवेदयेत् ।
पूर्वोक्तमखिलं कृत्वा भवान्या सह मोदते ॥ २६
माघमासे रथं कृत्वा सर्वलक्षणलक्षितम्।
दद्यात्सम्पूज्य देवेशं ब्राह्मणांश्चैव भोजयेत् ॥ २७
अब में संक्षेपमें क्रमसे मार्गशीर्षसे प्रारम्भ करके कार्तिकतक प्रत्येक महीनेके व्रतको बताऊँगा, इस परम पुण्यप्रद व्रतको [स्वयं] नन्दीने कहा था जो [स्त्री] मार्गशीर्ष मासमें पूर्ण अंगोंवाले उत्तम वृषभको अलंकृत करके विधिपूर्वक शिवको निवेदित करती है, वह भवानीके साथ आनन्दित रहती है; इसमें सन्देह नहीं है जो पौष मासमें पूर्वोक्त विधिके अनुसार सम्पूर्ण कृत्य करके त्रिशूलकी स्थापनाकर उसे [शिवको] सर्पित करती है, वह भवानीके साथ आनन्द मनाती है हे महाभाग मुनियो। जो माघ महीनेमें सभी लक्षणोंसे युक्त रथ बनाकर देवेशकी पूजा करके उसे शिवको समर्पित करती है और ब्राह्मणोंको भोजन कराती है, वह देवी [पार्वती] के साथ आनन्द करती है; इसमें सन्देह नहीं है॥ २३-२७ ॥
सा च देव्या महाभागा मोदते नात्र संशयः।
फाल्गुने प्रतिमां कृत्वा हिरण्येन यथाविधि ॥ २८
प्रतिष्ठाप्य समभ्यर्च्य स्थापयेच्छङ्करालये ॥ २९
सा च सार्धं महादेव्या मोदते नात्र संशयः।
चैत्रे भवं कुमारं च भवानीं च यथाविधि ॥ ३०
ताम्राद्दद्यैर्विधिवत्कृत्वा प्रतिष्ठाप्य यथाविधि।
भवान्या मोदते सार्थ दत्त्वा रुद्राय शम्भवे ॥ ३१
कृत्वालयं हि कौबेरं राजतं रजतेन वै।
ईश्वरोमासमायुक्तं गणेशैश्च समन्ततः ॥ ३२
सर्वरत्नसमायुक्तं प्रतिष्ठाप्य यथाविधि।
स्थापयेत्परमेशस्य भवस्यायतने शुभे ॥ ३३
वैशाखे वै चरेदेवं कैलासाख्यं व्रतोत्तमम् ।
कैलासपर्वतं प्राप्य भवान्या सह मोदते ॥ ३४
जो फाल्गुन मासमें अपने सामर्थ्यके अनुसार विधिपूर्वक सोने, चाँदी अथवा ताँबेकी प्रतिमा बनाकर उसकी प्रतिष्ठा तथा पूजा करके शिवालयमें स्थापित करती है, वह महादेवी के साथ आनन्दित रहती है; इसमें सन्देह नहीं है चैत्र मासमें ताँबे आदिसे शिव, कुमार (कार्तिकेय) तथा भवानीकी मूर्तियाँ यथाविधि बनाकर विधिपूर्वक उसकी प्रतिष्ठा करके उन्हें रुद्र शम्भुको अर्पण करनेसे स्त्री भवानीके साथ आनन्दित रहती है कुबेरका रजतमय कैलास आलय बनाकर उसे चारों ओरसे सभी रत्नोंसे युक्त करके उसमें शिव, उमा तथा गणेश्वरोंकी रजतमय मूर्ति रखकर उसकी यथाविधि प्रतिष्ठा करके उसे परमेश्वर शिवके सुन्दर मन्दिरमें स्थापित करना चाहिये; जो [स्त्री] वैशाख मासमें इस प्रकार कैलास नामक उत्तम व्रतको करती है, वह कैलासपर्वत पहुँचकर भवानीके साथ आनन्द करती है ॥ २८-३४॥
ज्येष्ठे मासि महादेवं लिङ्गमूर्तिमुमापतिम् ।
कृताञ्जलिपुटेनैव ब्रह्मणा विष्णुना तथा ॥ ३५
मध्ये भवेन संयुक्तं लिङ्गमूर्ति द्विजोत्तमाः ।
हंसेन च वराहेण कृत्वा ताम्रादिभिः शुभाम् ॥ ३६
प्रतिष्ठाप्य यथान्यायं ब्राह्मणान् भोजयेत्ततः ।
शिवाय शिवमासाद्य शिवस्थाने यथाविधि ॥ ३७
ब्राह्मणैः सहितां स्थाप्य देव्याः सायुज्यमाप्नुयात् ।
आषाढे च शुभे मासे गृहं कृत्वा सुशोभनम् ॥ ३८
पक्वेष्टकाभिर्विधिवद्यथाविभवविस्तरम् ।
सर्वबीजरसैश्चापि सम्पूर्ण सर्वशोधनैः ॥ ३९
गृहोपकरणैश्चैव मुसलोलूखलादिभिः ।
दासीदासादिभिश्चैव शयनैरशनादिभिः ॥ ४०
सम्पूर्णैश्च गृहे वस्त्रैराच्छाद्य च समन्ततः ।
देवं घृतादिभिः स्नाप्य महादेवमुमापतिम् ।। ४१
ब्राह्मणानां सहस्रं च भोजयित्वा यथाविधि।
विद्याविनयसम्पन्नं ब्राह्मणं वेदपारगम् ॥ ४२
प्रथमाश्रमिणं भक्त्या सम्पूज्य च यथाविधि।
कन्यां सुमध्यमां यावत्कालजीवनसंयुताम् ।। ४३
क्षेत्रं गोमिथुनं चैव तद्गृहे च निवेदयेत्।
सायनैर्विविधैर्दिव्यैर्मेरुपर्वतसन्निभैः ॥ ४४
गोलोकं समनुप्राप्य भवान्या सह मोदते।
भवान्या सदृशी भूत्वा सर्वकल्पेषु साव्यया ।। ४५
हे उत्तम ब्राह्मणो! ज्येष्ठ मासमें उमापति महादेवकी ताप्न आदिसे एक शुभ्र लिङ्गमूर्ति बनवाये, जो हाथ जोड़े हुए हंसपर सवार ब्रह्मा तथा वाराहपर सवार विष्णुसे संयुक्त हो और मध्यमें भव (महेश्वर) विराजमान हों-ऐसी लिङ्गमूर्ति बनवाकर विधिपूर्वक उसकी प्रतिष्ठा करनेके अनन्तर ब्राह्मणोंको भोजन कराये और अपने कल्याणके लिये शिवको प्रसन्न करके ब्राहाणोंको साथ लेकर शिवालयमें उसे विधिपूर्वक स्थापित करके वह देवीका सायुज्य प्राप्त कर लेती है
जो स्त्री शुभ आषाढ़ महीनेमें अपने सामर्थ्यक अनुसार पके हुए ईंटोंसे विधिवत् गृह बनवाकर उसे सभी बीजरसोंसे, परम सुन्दर मूसल-उलूखल आदि गृहोपयोगी सामग्रियोंसे, दास-दासी आदिसे, [पलंग-विस्तर आदि] शयन-वस्तुओंसे, [अन्न आदि] खाद्य पदार्थोंसे युक्त करके उस गृहको सभी ओरसे पूर्ण वस्त्रोंसे बैंककर उमापति प्रभु महादेवको घृत आदिसे स्नान कराकर विधिपूर्वक एक हजार ब्राह्मणोंको भोजन कराकर विद्या-विनयसे सम्पन्न तथा वेदमें पारंगत ब्रह्मचारी ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक यथाविधि पूजा करके पूर्ण जीवनभरके लिये एक परम सुन्दरी कन्या, क्षेत्र (खेत), गोमिथुन और मेरुपर्वतके समान महाराशिवाले अनेक प्रकारके दिव्य सामानोंसहित वह गृह [शिवको] समर्पित करती है; वह गोलोक प्राप्त करके भवानीके साथ आनन्द करती है, भवानीके सदृश होकर सभी कल्पोंमें अव्यय (शाश्वत) बनी रहती है और [अन्तमें] भवानीका सायुज्य प्राप्त करती है; इसमें सन्देह नहीं है।॥ ३५-४५ ॥
भवान्याश्चैव सायुज्यं लभते नात्र संशयः।
सर्वधातुसमाकीर्णं विचित्रध्वजशोभितम् ॥ ४६
निवेदयीत शर्वाय श्रवणे तिलपर्वतम् ।
वितानध्वजवस्त्राद्यैर्धातुभिश्च निवेदयेत् ॥ ४७
ब्राह्मणान् भोजयित्वा च पूर्वोक्तमखिलं भवेत्।
कृत्वा भाद्रपदे मासि शोभनं शालिपर्वतम् ॥ ४८
वितानध्वजवस्त्राद्यैर्धातुभिश्च निवेदयेत्।
ब्राह्मणान् भोजयित्वा च दापयेच्च यथाविधि ॥ ४९
सावन महीनेमें सभी धातुओंसे युक्त तथा विचित्र ध्वजोंसे सुशोभित तिलपर्वत शिवको समर्पित करना चाहिये। जो [स्त्री] वितान, ध्वज, वस्त्र, धातु आदि सहित तिलपर्यंत निवेदित करती है और [अन्तमें] ब्राह्मणोंको भोजन कराती है, उसे पूर्वमें कहा गया सबकुछ प्राप्त हो जाता है जो भाद्रपद मासमें वितान, ध्वज, वस्त्र, धातु आदिसहित शालि चावलका सुन्दर पर्वत बनाकर उसे शिवको समर्पित करती है और ब्राह्मणोंको भोजन कराकर विधिपूर्वक उसका दान करती है, वह सूर्यकी किरणोंके समान होकर भवानीके साथ आनन्द करती है ॥ ४६-४९ ॥
सा च सूर्याशुसङ्काशा भवान्या सह मोदते।
कृत्वा चाश्वयुजे मासि विपुलं धान्यपर्वतम् ॥ ५०
सुवर्णवस्त्रसंयुक्तं दत्त्वा सम्पूज्य शङ्करम्।
ब्राह्मणान् भोजयित्वा च पूर्वोक्तमखिलं भवेत् ।। ५१
सर्वधान्यसमायुक्तंसर्वबीजरसादिभिः ।
सर्वधातुसमायुक्त सर्वरत्नोपशोभितम् ॥ ५२
शृङ्गैश्चतुर्भिः संयुक्तं वितानच्छत्रशोभितम् ।
गन्धमाल्यैस्तथा धूपैश्चित्रैश्चापि सुशोभितम् ॥ ५३
विचित्रैर्नृत्यगेयैश्च शङ्खवीणादिभिस्तथा।
ब्रह्मघोषैर्महापुण्यं मङ्गलैश्च विशेषतः ॥ ५४
महाध्वजाष्टसंयुक्तं विचित्रकुसुमोज्ज्वलम् ।
नगेन्द्रं मेरुनामानं त्रैलोक्याधारमुत्तमम् ॥ ५५
तस्य मूर्छिन शिवं कुर्यान्मध्यतो धातुनैव तु।
दक्षिणे च यथान्यायं ब्रह्माणं च चतुर्मुखम् ॥ ५६
उत्तरे देवदेवेशं नारायणमनामयम् ।
इन्द्रादिलोकपालांश्च कृत्वा भक्त्या यथाविधि ।। ५७
प्रतिष्ठाप्य ततः स्नाप्य समभ्यर्च्य महेश्वरम् ।
देवस्य दक्षिणे हस्ते शूलं त्रिदशपूजितम् ।। ५८
वामे पाशं भवान्याश्च कमलं हेमभूषितम्।
विष्णोश्च शङ्ख चर्क च गदामब्जं प्रयत्नतः ॥ ५९
ब्रह्मणश्चाक्षसूत्रं च कमण्डलुमनुत्तमम् ।
इन्द्रस्य वज्रमग्नेश्व शक्त्याख्यं परमायुधम् ॥ ६०
यमस्य दण्डं निर्ऋतेः खड्गं निशिचरस्य तु।
वरुणस्य महापाशं नागाख्यं रुद्रमद्धतम् ॥ ६१
वायोर्यष्टिं कुबेरस्य गदां लोकप्रपूजिताम् ।
टङ्कं चेशानदेवस्य निवेडौवं क्रमेण च ॥ ६२
शिवस्य महतीं पूजां कृत्वा चरुसमन्विताम्।
पूजयेत्सर्वदेवांश्च यथाविभवविस्तरम् ॥ ६३
ब्राह्मणान् भोजयित्वा च पूजां कृत्वा प्रयत्नतः ।
महामेरुव्रतं कृत्वा महादेवाय दापयेत् ।। ६४
महामेरुमनुप्राप्य महादेव्या प्रमोदते।
चिरं सायुज्यमाप्नोति महादेव्या न संशयः ॥ ६५
आश्विन महीनेमें सुवर्ण तथा वस्त्रसे युक्त एक विशाल धान्यपर्वत बनाकर उसे शिवको अर्पण करके शंकरकी विधिवत् पूजा करके ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे पूर्वमें कहा गया सबकुछ प्राप्त हो जाता है। तीनों लोकोंके आधारस्वरूप मेरु नामक उत्तम पर्वतराजका निर्माण करे, जो सभी धान्योंसे युक्त हो, सभी बीजों तथा रसोंसे परिपूर्ण हो, सभी धातुओंसे संयुक्त हो, सभी रत्नोंसे सुशोभित हो, चार श्रृंगों (शिखर) से युक्त हो, वितान तथा छत्रसे सुशोभित हो, गन्ध-पुष्प एवं अद्भुत धूपोंसे सुशोभित हो, विचित्र नृत्य-गानोंसे शोभायमान हो, शंख-वीणाकी ध्वनियोंसे युक्त हो, वेदध्वनियोंसे और विशेषकर मंगलसूचक प्रार्थना आदिसे अत्यन्त पवित्र हो, आठ बड़ी ध्वजाओंसे युक्त हो और विचित्र पुष्पोंसे सुशोभित हो। उस [पर्वत] के शिखरपर मध्यमें धातुनिर्मित शिवको विराजमान करे। दक्षिणमें चतुर्मुख ब्रह्मा, उत्तरमें निर्विकार देवदेवेश नारायण, इन्द्र आदि लोकपालोंको भक्तिपूर्वक यथाविधि विराजमान करके उनकी प्रतिष्ठा करनेके अनन्तर स्नान कराकर महेश्वरकी पूजा करके महादेवके दाहिने हाथमें देवपूजित त्रिशूल तथा बायें हाथमें पाश, भवानीके हाथमें हेमभूषित कमल, विष्णुके हाथोंमें शंख-चक्र-गदा- पद्म, ब्रह्माके हाथोंमें अक्षमाला तथा उत्तम कमण्डलु इन्द्रके हाथमें वज्र, अग्निके हाथमें शक्ति नामक महान् आयुध, यमके हाथमें दण्ड, निशिचर निऋतिके हाथमें खड्ग, वरुणके हाथमें नाग नामक भयंकर तथा अद्भुत महापाश, वायुदेवके हाथमें यष्टि (छड़ी), कुबेरके हाथमें लोकपूजित गदा और ईशान देवके हाथमें टंक- इस प्रकार क्रमसे निवेदित करके शिवकी चरुसमन्वित महान् पूजा करके अपने सामर्थ्यके अनुसार सभी देवताओंकी पूजा करे। इसके बाद ब्राह्मणोंको भोजन कराकर प्रयत्नपूर्वक उनका सम्मान करके महामेरुव्रत सम्पन्नकर महादेवको समर्पित कर दे। ऐसा करनेवाली स्त्री महामेरुपर्वत पहुँचकर महादेवीके साथ आनन्द करती है और चिरकालतक महादेवीका सायुज्य प्राप्त किये रहती है: इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५०-६५ ॥
कार्तिक्यामपि या नारी कृत्वा देवीमुमां शुभाम् ।
सर्वाभरणसम्पूर्णां सर्वलक्षणलक्षिताम् ॥ ६६
हेमताम्रादिभिश्चैव प्रतिष्ठाप्य विधानतः ।
देवं च कृत्वा देवेशं सर्वलक्षणसंयुतम् ॥ ६७
तयोरग्रे हुताशं च स्त्रुवहस्तं पितामहम् ।
नारायणं च दातारं सर्वाभरणभूषितम् ।। ६८
लोकपालैस्तथा सिद्धैः संवृतं स्थाप्य यत्नतः ।
रुद्रालये व्रतं तस्मै दापयेद्भक्तिपूर्वकम् ॥ ६९
सा भवान्यास्तनुं गत्वा भवेन सह मोदते।
एकभक्तव्रतं पुण्यं प्रतिमासमनुक्रमात् ॥ ७०
मार्गशीर्षकमासादिकार्तिकान्तं प्रवर्तितम् ।
नरनार्यादिजन्तूनां हिताय मुनिसत्तमाः ॥ ७१
नरः कृत्वा व्रतं चैव शिवसायुज्यमाप्नुयात्।
नारी देव्या न सन्देहः शिवेन परिभाषितम् ॥ ७२
जो स्त्री कार्तिक मासमें सोने अथवा ताँबेकी सभी आभरणोंसे युक्त तथा सभी लक्षणोंसे समन्वित देवी उमाकी सुन्दर प्रतिमा बनाकर; साथ ही देवेश महादेवकी भी सभी लक्षणोंसे युक्त मूर्ति बनाकर विधानपूर्वक उनकी प्रतिष्ठा करके उन दोनोंके सम्मुख अग्निको, हाथमें सुव लिये हुए ब्रह्माको और लोकपालों तथा सिद्धोंसे घिरे हुए एवं सभी आभूषणोंसे विभूषित कन्या-दाता नारायणको यत्नपूर्वक स्थापित करके भक्तिपूर्वक इस व्रतको रुद्रालयमें उन [शिव]-को समर्पित करती है, वह भवानीका स्वरूप प्राप्त करके शिवके साथ आनन्द करती है एक बार भोजन करके प्रत्येक मासके पुण्यप्रद व्रतको क्रमसे करे; हे श्रेष्ठ मुनियो। नर, नारी आदि प्राणियोंके कल्याणके लिये मार्गशीर्षसे आरम्भ करके कार्तिकतक किये जानेवाले इस व्रतको प्रवर्तित किया गया है। शिवके द्वारा बताये गये इस व्रतको करके पुरुष शिवका सायुज्य प्राप्त करता है और नारी देवी [पार्वती] का सायुज्य प्राप्त करती है; इसमें सन्देह नहीं है॥ ६६-७२ ॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे उमामहेश्वरखतं नाम चतुरशीतितमोऽध्यायः ॥ ८४॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'उमामहेश्वरव्रत' नामक चौरासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८४॥
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