लिंग पुराण : ययातिपुत्र यदुके वंशका वर्णन | Linga Purana: Description of the dynasty of Yayatiputra Yaduke

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] अड़सठवाँ अध्याय

ययातिपुत्र यदुके वंश का वर्णन

सूत उवाच

यदोर्वशं प्रवक्ष्यामि ज्येष्ठस्योत्तमतेजसः ।
सङ्क्षेपेणानुपूर्व्याच्च गदतो मे निबोधत ॥ १

यदोः पुत्रा बभूवुर्हि पञ्च देवसुतोपमाः।
सहस्त्रजित्सुतो ज्येष्ठो क्रोष्टुनर्नीलोऽजको लघुः ॥ 

सहस्त्रजित्सुतस्तद्वच्छतजिन्नाम पार्थिवः ।
सुताः शतजितः ख्यातास्त्रयः परमकीर्तयः ॥ ३

हैहयश्च हयश्चैव राजा वेणुहयश्च यः।
हैहयस्य तु दायादो धर्म इत्यभिविश्रुतः ॥ ४

तस्य पुत्रोऽभवद्विप्रा धर्मनेत्र इति श्रुतः ।
धर्मनेत्रस्य कीर्तिस्तु सञ्जयस्तस्य चात्मजः ५

सञ्जयस्य तु दायादो महिष्मान्नाम धार्मिकः ।
आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान् ॥ ६

भद्रश्रेण्यस्य दायादो दुर्दमो नाम पार्थिवः।
दुर्दमस्य सुतो धीमान् धनको नाम विश्रुतः ॥ ७

सूतजी बोले [हे ऋषियो!] अब मैं [ययातिके] उत्तम तेजवाले ज्येष्ठ पुत्र यदुके वंशका क्रमानुसार संक्षेपमें वर्णन करूंगा; मुझ कहनेवालेसे [आपलोग] सुनें। यदुके देवपुत्रतुल्य पाँच पुत्र हुए; उनमें सहस्रजित् ज्येष्ठ पुत्र था और क्रोष्टु, नील, अजक तथा लघु अन्य पुत्र थे। सहस्रजित्का पुत्र उन्हींके समान था। वह शतजित् नामक राजा हुआ। शतजित्‌के महाकीर्तिशाली तीन पुत्र कहे गये हैं, वे हैहय, हय तथा राजा वेणुहय नामवाले थे। हैहयका जो पुत्र हुआ, वह धर्म नामसे प्रसिद्ध है। हे विप्रो! उसका धर्मनेत्र [नामक] पुत्र हुआ ऐसा सुना गया है। धर्मनेत्रका पुत्र कीर्ति था और उस [कीर्ति] का पुत्र संजय था। संजयका महिष्मान् नामक धार्मिक पुत्र था और महिष्मान्‌का पुत्र भद्रश्रेण्य था; वह प्रतापशाली था। भद्रश्रेण्यका पुत्र दुर्दम नामक राजा था। दुर्दमका बुद्धिमान् पुत्र धनक नामसे प्रसिद्ध था ॥ १-७ ॥

धनकस्य तु दायादाश्चत्वारो लोकसम्मताः ।
कृतवीर्यः कृताग्निश्च कृतवर्मा तथैव च ॥८

कृतौजाश्च चतुर्थोऽभूत्कार्तवीर्यस्ततोऽर्जुनः।
जज्ञे बाहुसहस्त्रेण सप्तद्वीपेश्वरोत्तमः ॥ ९

तस्य रामस्तदा त्वासीन्मृत्युनर्नारायणात्मकः।
तस्य पुत्रशतान्यासन् पञ्च तत्र महारथाः ॥ १०

कृतास्त्रा बलिनः शूरा धर्मात्मानो मनस्विनः।
शूरश्च शूरसेनश्च धृष्टः कृष्णस्तथैव च ॥ ११

जयध्वजश्च राजासीदावन्तीनां विशां पतिः ।
जयध्वजस्य पुत्रोऽभूत्तालजङ्गो महाबलः ॥ १२

शतं पुत्रास्तु तस्येह तालजङ्घाः प्रकीर्तिताः । 
तेषां ज्येष्ठो महावीर्यो वीतिहोत्रोऽभवन्नृपः ।। १३

वृषप्रभृतयश्चान्ये तत्सुताः पुण्यकर्मणः । 
वृषो वंशकरस्तेषां तस्य पुत्रोऽभवन्मधुः ॥ १४

मधोः पुत्रशतं चासीद् वृष्णिस्तस्य तु वंशभाक्।
वृष्णेस्तु वृष्णयः सर्वे मधोर्वै माधवाः स्मृताः ।
यादवा यदुवंशेन निरुच्यन्ते तु हैहयाः ॥ १५

धनकके कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा तथा कृतौजा- ये चार लोकमान्य पुत्र उत्पन्न हुए। उन कृतवीर्यसे कार्तवीर्यार्जुन (सहस्रार्जुन) उत्पन्न हुआ; वह [अपनी] हजार भुजाओंके द्वारा सातों द्वीपोंका श्रेष्ठ स्वामी हो गया था। नारायण स्वरूप वाले परशुराम उस समय उसकी मृत्युका कारण बने। उसके सौ पुत्र थे; उनमेंसे पाँच पुत्र महारथी, अस्त्रोंके ज्ञाता, बलशाली वीर, धर्मात्मा तथा मनस्वी थे। वे शूर, शूरसेन, धृष्ट, कृष्ण तथा जयध्वज [नामवाले] थे। राजा जयध्वज अवन्तीयोंका स्वामी था। जयध्वजको तालजंघ नामक महाबली पुत्र हुआ। उस [तालजंघ] के सौ पुत्र हुए, जो इस लोकमें 'तालजंघ' नामसे प्रसिद्ध हुए। उनमें ज्येष्ठ [पुत्र] वीतिहोत्र महापराक्रमी राजा हुआ। वृष आदि उसके जो अन्य पुत्र थे, वे पुण्यकर्मवाले थे। उनमें वृष ही वंशको चलानेवाला हुआ। उसका पुत्र मधु हुआ। मधुके सौ पुत्र थे। उस [मधु] का पुत्र वृष्णि ही वंशप्रवर्तक हुआ। वृष्णिके सभी वंशज 'वृष्णि' तथा मधुके वंशज माधव कहे गये हैं। यदुवंशसे सम्बन्धित यादव हैहय कहे जाते हैं॥ ८-१५॥

तेषां पञ्चगणा होते हैहयानां महात्मनाम् ॥ १६

वीतिहोत्राश्च हर्याता भोजाश्चावन्तयस्तथा।
शूरसेनास्तु विख्यातास्तालजङ्घास्तथैव च ॥ १७

शूरश्च शूरसेनश्च वृषः कृष्णस्तथैव च। 
जयध्वजः पञ्चमस्तु विख्याता हैहयोत्तमाः ॥ १८

शूरश्च शूरवीरश्च शूरसेनस्य चानघाः। 
शूरसेना इति ख्याता देशास्तेषां महात्मनाम् ॥ १९

वीतिहोत्रसुतश्चापि विश्रुतोऽनर्त इत्युत।
दुर्जयः कृष्णपुत्रस्तु बभूवामित्रकर्षणः ॥ २० 

पुत्र क्रोष्टोश्च शृणु राजर्षेर्वशमुत्तमपौरुषम् । 
यस्यान्वये तु सम्भूतो विष्णुवृष्णिकुलोद्वहः ॥ २१

क्रोष्टोरेकोऽभवत्पुत्रो वृजिनीवान् महायशाः । 
तस्य पुत्रोऽभवत्स्वाती कुशंकुस्तत्सुतोऽभवत् ।। २२

अथ प्रसूतिमिच्छन् वै कुशंकुः सुमहाबलः । 
महाक्रतुभिरीजेऽसौ विविधैराप्तदक्षिणैः ॥ २३

जज्ञे चित्ररथस्तस्य पुत्रः कर्मभिरन्वितः । 
अथ चैत्ररथो वीरो यज्वा विपुलदक्षिणः ॥ २४

शशबिन्दुस्तु वै राजा अन्वयाद् व्रतमुत्तमम्।
चक्रवर्ती महासत्त्वो महावीयों बहुप्रजः ॥ २५

उन महात्मा हैहयोंके ये पाँच वंश हैं-वीतिहोत्र, हर्यात, भोज, अवन्ति तथा शूरसेन; ये तालजंघ भी कहे गये हैं। शूर, शूरसेन, वृष, कृष्ण एवं पाँचवाँ जयध्वज- ये उत्तम हैहय कहे गये हैं। शूरसेनके वंशज शूर तथा शूरवीर नामवाले थे; हे अनघ [ऋषियो] ! उन महात्माओंके देश भी 'शूरसेन'- इस नामवाले कहे गये हैं। वीतिहोत्रका पुत्र अनर्त नामसे प्रसिद्ध हुआ। कृष्णका दुर्जय नामक पुत्र हुआ, वह शत्रुओंका दमन करनेवाला था। अब राजर्षि क्रोष्टुके उत्तम पौरुषवाले वंशका श्रवण कीजिये, जिसके कुलमें वृष्णिवंशको चलानेवाले विष्णु (कृष्ण) उत्पन्न हुए। क्रोष्टुका एक ही वृजिनीवान् नामक महायशस्वी पुत्र हुआ। उसका पुत्र स्वाती हुआ और तस [स्वाती] का पुत्र कुशंकु हुआ। उसके बाद संतानको इच्छा रखते हुए उन महाबली कुशंकुने अनेक प्रकारके पर्याप्त दक्षिणावाले महायज्ञोंके द्वारा यजन किया। [इसके परिणामस्वरूप] उसका चित्ररथ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो [शुभ कर्मोंसे युक्त था। चित्ररथका पुत्र पराक्रमशाली शशबिन्दु था; उसने विपुल दक्षिणा देकर यज्ञ करके उत्तम तथा पवित्र व्रत आदि किया। [इस प्रकार] वह महाज्ञानी, महापराक्रमी तथा बहुत प्रजाओंवाला चक्रवर्ती राजा हो गया ॥ १६-२५॥ 

शशबिन्दोस्तु पुत्राणां सहस्त्राणामभूच्छतम्। 
शंसन्ति तस्य पुत्राणामनन्तकमनुत्तमम् ॥ २६

अनन्तकात्सुतो यज्ञो यज्ञस्य तनयो धृतिः । 
उशनास्तस्य तनयः सम्प्राप्य तु महीमिमाम् ॥ २७

आजहाराश्वमेधानां शतमुत्तमधार्मिकः । 
स्मृतश्चोशनसः पुत्रः सितेषुनांम पार्थिवः ॥ २८

मरुतस्तस्य तनयो राजर्षिर्वंशवर्धनः । 
वीरः कम्बलबर्हिस्तु मरुतस्यात्मजः स्मृतः ॥ २९

पुत्रस्तु रुक्मकवचो विद्वान् कम्बलबर्हिषः । 
निहत्य रुक्मकवचो वीरान् कवचिनो रणे ॥ ३०

धन्विनो निशितैर्बाणैरवाप श्रियमुत्तमाम्। 
अश्वमेधे तु धर्मात्मा ऋत्विग्भ्यः पृथिवीं ददौ ॥ ३१

शशबिन्दुके हजार पुत्र उपन्न हुए; लोग उनके पुत्रोंमें अनन्तकको सबसे उत्तम कहते हैं। अनन्तकसे यज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। यज्ञका पुत्र धृति हुआ। उस [धृति] का पुत्र उशना हुआ; उस परम धार्मिकने इस पृथ्वीको प्राप्त करके एक सौ अश्वमेध यज्ञ किया। उशनाका पुत्र सितेषु नामक राजा कहा गया है। उसका पुत्र मरुत था; वह वंशको बढ़ानेवाला राजर्षि हुआ। पराक्रमी कम्बलबर्हि [उस] मरुतका पुत्र बताया गया है। कम्बलबर्हिका पुत्र रुक्मकवच हुआ; वह विद्वान् था। रुक्मकवचने युद्धमें कवच तथा धनुष धारण करनेवाले वीरोंको [अपने] तीक्ष्ण बाणोंसे मारकर उत्तम श्री प्राप्त कर ली थी। उस धर्मात्माने अश्वमेध- यज्ञमें [यज्ञ करानेवाले] ऋत्विजोंको पृथ्वीका दान किया था॥ २६-३१॥ 

जज्ञे तु रुक्मकवचात्परावृत्परवीरहा। 
जज्ञिरे पञ्च पुत्रास्तु महासत्त्वाः परावृतः ॥ ३२

रुक्मेषुः पृथुरुक्मश्च ज्यामघः परिघो हरिः।
परिघं च हरिं चैव विदेहेषु पिता न्यसत् ॥ ३३

रुक्मेषुरभवद्राजा पृथुरुक्मस्तदाश्रयात् । 
तैस्तु प्रव्राजितो राजा ज्यामघोऽवसदाश्रमे ॥ ३४

प्रशान्तः स वनस्थोऽपि ब्राह्मणैरेव बोधितः । 
जगाम धनुरादाय देशमन्यं ध्वजी रथी ॥ ३५

नर्मदातीरमेकाकी केवलं भार्यया युतः। 
ऋक्षवन्तं गिरिं गत्वा त्यक्तमन्यैरुवास सः ॥ ३६

रुक्मकवचसे शत्रुवीरोंका संहार करनेवाला परावृत् उत्पन्न हुआ। [उस] परावृत्से पाँच महाशक्तिशाली पुत्र उत्पन्न हुए रुक्मेषु, पृथुरुक्म, ज्यामघ, परिध और हरि। पिताने परिध तथा हरिको विदेहदेशोंमें स्थापित किया। रुक्मेषु राजा हुआ और पृथुरुक्म उसके आश्रयमें रहने लगा। उन सबके द्वारा [राज्यसे] हटा दिया गया राजा ज्यामघ आश्रममें निवास करने लगा। ब्राह्मणोंने शान्त होकर वनमें निवास करनेवाले उस ज्यामघको ज्ञान प्रदान किया और ध्वजा तथा रथ धारण करनेवाला वह [अपना] धनुष लेकर दूसरे देशमें चला गया। अन्य लोगोंद्वारा त्यक्त वह ऋक्षवान् पर्वतपर जाकर अपनी भार्याके साथ नर्मदा नदीके तटपर अकेला निवास करने लगा ॥ ३२-३६॥

ज्यामघस्याभवद्भार्या शैब्या शीलवती सती। 
सा चैव तपसोऽग्रेण शैब्या वै सम्प्रसूयत ॥ ३७

सुतं विदर्भ सुभगा वयःपरिणता सती। 
राजपुत्रसुतायां तु विद्वांसौ क्रथकैशिकौ ॥ ३८

पुत्रौ विदर्भराजस्य शूरी रणविशारदौ। 
रोमपादस्तृतीयश्च बभ्रुस्तस्यात्मजः स्मृतः ॥ ३९

सुतिस्तनयस्तस्य विद्वान् परमधार्मिकः । 
कैशिकस्तनयस्तस्मात्तस्माच्चैद्यान्वयः स्मृतः ॥ ४०

क्रथो विदर्भस्य सुतः कुन्तिस्तस्यात्मजोऽभवत् । 
कुन्तेर्वृतस्ततो जज्ञे रणधृष्टः प्रतापवान् ॥ ४१

ज्यामधकी पत्नी शैब्या शीलसम्पन्न तथा पतिव्रता थी। उस सौभाग्यशालिनी एवं पतिव्रता शैब्याने कठोर तपस्याके द्वारा [अपनी] वृद्धावस्थामें विदर्भ नामक पुत्रको जन्म दिया। राजकुमारीके गर्भसे राजा विदर्भके क्रथ तथा कैशिक नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए; वे विद्वान्, पराक्रमी एवं युद्धमें प्रवीण थे। उसका तीसरा पुत्र रोमपाद भी थाः उसका पुत्र बनु कहा गया है। उस [बभु] का पुत्र सुधृति था; वह विद्वान् तथा परम धार्मिक था। उस विदर्भसे जो कैशिक नामक पुत्र था, उसीसे वैद्यवंश कहा गया है। विदर्भका जो पुत्र क्रथ था, उसका पुत्र कुन्ति हुआ। कुन्तिसे वृत उत्पन्न हुआ और उस [वृत] से प्रतापी रणधृष्ट उत्पन्न हुआ ॥ ३७-४१ ॥

रणधृष्टस्य च सुतो निधृतिः परवीरहा। 
दशाहों नैधृतो नाम्ना महारिगणसूदनः ॥ ४२

दशार्हस्य सुतो व्याप्तो जीमूत इति तत्सुतः । 
जीमूतपुत्रो विकृतिस्तस्य भीमरथः सुतः ॥ ४३

अथ भीमरथस्यासीत्पुत्रो नवरथः किल। 
दानधर्मरतो नित्यं सत्यशीलपरायणः ।। ४४

तस्य चासीद् दृढरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः । 
तस्मात्करम्भः सम्भूतो देवरातोऽभवत्ततः ॥ ४५

रणधृष्टका पुत्र निधृति था; वह शत्रुवीरोंका संहार करनेवाला था। निधृतिका दशार्ह नामक पुत्र था, जो बड़े-बड़े शत्रुओंका वध करनेवाला था। दशार्हका पुत्र व्याप्त था और उसका पुत्र जीमूत था। जीमूतका पुत्र विकृति था और उस [विकृति] का पुत्र भीमरथ था। उसके बाद भीमरथके नवरथ [नामक] पुत्र उत्पन्न हुआ; वह सदा दान तथा धर्ममें लगा रहता था और सत्य तथा सदाचारके प्रति परायण था। उसका पुत्र दृढ़ाथ था और उस [दृढ़थ] का पुत्र शकुनि था। उस शकुनिसे करम्भ उत्पन्न हुआ और उस [करम्भ]-से देवरात उत्पन्न हुआ ॥ ४२-४५ ॥ 

देवरातादभूद्राजा देवरातिर्महायशाः । 
देवगभर्भीयमो जज्ञे यो देवक्षत्रनामकः ॥ ४६

देवक्षत्रसुतः श्रीमान् मधुर्नाम महायशाः। 
मधूनां वंशकृद्राजा मधोस्तु कुरुवंशकः ॥ ४७

कुरुवंशादनुस्तस्मात्पुरुत्वान् पुरुषोत्तमः । 
अंशुर्जज्ञे च वैदर्थ्यां भगवत्यां पुरुत्वतः ॥ ४८

ऐक्ष्वाकीमवहच्यांशुः सत्त्वस्तस्मादजायत । 
सत्त्वात्सर्वगुणोपेतः सात्त्वतः कुलवर्धनः॥ ४९

देवरातसे देवराति उत्पन्न हुआ; वह महायशस्वी राजा था। उससे देवपुत्रतुल्य देवक्षत्र नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। देवक्षत्रको मधु नामक पुत्र हुआ; जो ऐश्वर्यशाली,महायशस्वी तथा मधुवंशकी वृद्धि करनेवाला राजा हुआ। मधुसे कुरुवंश नामक पुत्र हुआ। कुरुवंशसे अनु हुआ और उस [अनु] से पुरुषश्रेष्ठ पुरुत्वान् उत्पन्न हुआ। पुरुत्वान्से वैदर्भी भद्रवतीके गर्भसे अंशुने जन्म लिया। अंशुने ऐश्वाकीसे विवाह किया; उस [अंशु]- से सत्त्व उत्पन्न हुआ। सत्त्वसे सात्त्वत उत्पन्न हुआ, वह समस्त गुणोंसे सम्पन्न तथा कुलकी वृद्धि करनेवाला था ॥ ४६-४९ ॥ 

ज्यामघस्य मया प्रोक्ता सृष्टिर्वं विस्तरेण वः । 
यः पठेच्छृणुयाद्वापि निसृष्टिं ज्यामधस्य तु ॥ ५०

प्रजीवत्येति वै स्वर्ग राज्यं सौख्यं च विन्दति ॥ ५१

[हे ऋषियो!] मैंने आपलोगोंसे ज्यामधकी सृष्टिका विस्तारपूर्वक वर्णन कर दिया। जो [व्यक्ति] ज्यामधकी सृष्टिको पढ़ता अथवा सुनता है; वह दीर्घकालतक जीवित रहता है, राज्य तथा सुख प्राप्त करता है और [अन्तमें] स्वर्गकी प्राप्ति करता है॥ ५०-५१॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे वंशानुवर्णन नामाष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्ग महापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'वंशानुवर्णन' नामक अड़सठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६८ ॥

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