लिंग पुराण : पाशुपत योग से प्राप्त होने वाली अष्टसिद्धियों का वर्णन तथा प्राणाग्निहोम का स्वरूप | Linga Purana: Description of the eight Siddhis obtained from Pashupat Yoga and the nature of Pranagnihom

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] अट्ठासीवाँ अध्याय

पाशुपत योग से प्राप्त होने वाली अष्टसिद्धियों का वर्णन तथा प्राणाग्नि होम का स्वरूप

ऋषय ऊचुः

केन योगेन वै सूत गुणप्राप्तिः सतामिह। 
अणिमादिगुणोपेता भवन्त्येवेह योगिनः ।
तत्सर्वं विस्तरात्सूत वक्तुमर्हसि साम्प्रतम् ॥ १

ऋषिगण बोले- हे सूतजी ! किस योगसे सज्जनोंको इस लोकमें मोक्षकी प्राप्ति होती है और योगिजन अणिमा आदि गुणोंसे युक्त होते हैं? हे सूतजी! इस समय आप विस्तारपूर्वक यह सब बतायें ॥ १ ॥ 

सूत उवाच

अत ऊर्ध्व प्रवक्ष्यामि योगं परमदुर्लभम्। 
पञ्चधा संस्मरेदादौ स्थाप्य चित्ते सनातनम् ॥ २

कल्पयेच्चासनं पदां सोमसूर्याग्निसंयुतम् ।
षड्विंशच्छक्तिसंयुक्तमष्टधा च द्विजोत्तमाः ॥ ३

ततः षोडशधा चैव पुनर्द्वादशधा द्विजाः। 
स्मरेच्च तत्तथा मध्ये देव्या देवमुमापतिम् ॥ ४

अष्टशक्तिसमायुक्तमष्टमूर्तिमजं प्रभुम् ।
ताभिश्चाष्टविधा रुद्राश्चतुःषष्टिविधाः पुनः ॥ ५

शक्तयश्च तथा सर्वा गुणाष्टकसमन्विताः । 
एवं स्मरेत्क्रमेणैव लब्ध्वा ज्ञानमनुत्तमम् ॥ ६

एवं पाशुपतं योगं मोक्षसिद्धिप्रदायकम्। 
तस्याणिमादयो विप्रा नान्यथा कर्मकोटिभिः ॥ ७

सूतजी बोले- [हे ऋषियो!] अब मैं परन दुर्लभ योगका वर्णन करूँगा। सबसे पहले चित्तमें सनातन शिवको स्थापित करके उनके [सद्योजात आदि] पाँच रूपोंका स्मरण करना चाहिये और हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! चन्द्र-सूर्य-अग्निसे युक्त तथा छब्बीस शक्तियोंसे समन्वित अष्टदलकमल, उसके ऊपर षोडशदल कमल, पुनः उसके ऊपर द्वादशदलकमलरूप आसनको भावना करनी चाहिये। तदनन्तर है द्विजो! उसके मध्यमें देवीके साथ आठ शक्तियोंसहित अष्टमूर्ति, अजन्मा, ऐश्वर्यमय भगवान् उमापतिका स्मरण करना चाहिये। उन शक्तियोंके साथ आठ रुद्र और आठों सिद्धियोंसे सम्पन्न सभी चौंसठ शक्तियाँ प्रतिष्ठित हैं- ऐसा क्रमसे स्मरण करना चाहिये। हे विप्रो! इस प्रकार उत्तम ज्ञान प्राप्त करके जो मोक्षसिद्धि प्रदान करनेवाले पाशुपतयोगको करता है, उसे अणिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं; अन्यथा करोड़ों उपाय करनेपर भी नहीं मिल सकतीं ॥ २-७॥

तत्राष्टगुणमैश्वर्यं योगिनां समुदाहृतम्। 
तत्सर्वं क्रमयोगेन ह्युच्यमानं निबोधत ॥ ८

अणिमा लघिमा चैव महिमा प्राप्तरिव च। 
प्राकाम्यं चेव सर्वत्र ईशित्वं चैव सर्वतः॥ ९

वशित्वमथ सर्वत्र यत्र कामावसायिता। 
तच्चापि त्रिविध॑ ज्ञेयमैश्वर्य सार्वकामिकम्‌॥ १०

सावद्य॑ निरवद्य॑ च सूक्ष्म॑ चैव प्रवर्तते। 
सावद्य॑ नाम यत्तत्र पञ्चभूतात्मक॑ स्मृतम्‌॥ १९

इन्द्रियाणि मनएचैव अहड्डारश्च यः स्मृतः। 
तत्र सूक्ष्मप्रवृत्तिस्तु पठ्चभूतात्मिका पुनः॥ १९

इन्द्रियणि मनश्चित्तबुद्धयहड्डारसंज्ञितम्‌। 
तथा सर्वमयं चैव आत्मस्था ख्यातिरिव च॥ १३

संयोग एवं त्रिविध: सूक्ष्मेष्वेव प्रवर्तते। 
पुनरष्टगुणश्चापि सूक्ष्मेष्वेव. विधीयते॥ १४

तस्य रूप॑ प्रवक्ष्यामि यथाह भगवान्‌ प्रभु: । 
त्रैलोक्ये सर्वभूतेषु यथास्य नियम: स्मृतः॥ १५

अणिमाद्यं तथाव्यक्तं सर्वत्रेव प्रतिष्ठितम्‌। 
त्रैलोक्ये सर्वभूतानां दुष्प्राप्प॑ समुदाहतम्‌॥ १६

तत्तस्य भवति प्राप्यं प्रथमं योगिनां बलम्‌। 
लड्टनं प्लवनं लोके रूपमस्य सदा भवेत्‌॥ १७

हे मुनियो ! योगियोंका आठ गुणोंसे युक्त ऐश्वर्य कहा गया है। उन सबको क्रमसे बता रहा हूँ; [ आपलोग] सुनिये। अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व तथा कामावसायिता--ये आठ सिद्धियाँ हैं। सभी कामना ओं को पूर्ण करनेवाले उस ऐश्वर्यको भी तीन प्रकारका जानना चाहिये; सावद्य, निरवद्य तथा सूक्ष्म--ये तीन प्रकार होते हैं। उनमें जो सावद्य है, वह पंचभूतात्मक कहा गया है। इन्द्रियाँ, मन तथा जो अहंकार कहा गया है--ये निरवद्य ऐश्वर्य हैं। आत्मामें पंचभूतोंकी तन्मात्रारूपा सूक्ष्म प्रवृत्ति ही सूक्ष्म ऐश्वर्य है। इस प्रकार इन्द्रियाँ, मन, चित्त, बुद्धि तथा अहंकार निरवद्य ऐश्वर्य हैं; पंचभूतमय ऐश्वर्य सावद्य नामवाला है और शब्द आदि विषयरूप ऐश्वर्य सूक्ष्म है। तीन प्रकारका यह भेद [ अणिमा आदि] सूक्ष्म ऐश्वर्योमें प्रवृत्त होता है। पुनः आठ गुणोंका भेद भी सूक्ष्म ऐश्वर्योमें होता है। तीनों लोकोंके सभी प्राणियोंमें सर्वत्र यह अणिमादि अव्यक्त ऐश्वर्य जिस प्रकारसे प्रतिष्ठित है और जैसा इसका नियम बताया गया है--भगवान्‌ प्रभुने इस विषयमें जैसा कहा है, उसके स्वरूपको मैं बताऊँगा। जो ऐश्वर्य त्रिलोकीमें सभी प्राणियोंके लिये दुर्लभ बताया गया है, वह योगियोंके लिये प्राप्त होनेवाला अणिमारूप पहला बल होता है; इसका स्वरूप संसारमें कहीं भी, कभी भी लंघन तथा प्लवन करनेका होता है॥ ८--१७॥

शीघ्रत्व॑ सर्वभूतेषु द्वितीयं तु प्द स्मृतम्‌। 
त्रैलोक्ये सर्वभूतानां महिम्ना चैव वन्दितम्‌॥ १८

महित्वं चापि लोके स्मिंस्तृतीयो योग उच्यते। 
त्रैलोक्ये सर्वभूतेषु यथेष्टगमनं स्मृतम्‌॥ १९

प्राकामान्‌ विषयान्‌ भुड्डे तथाप्रतिहतः क्वचित्‌।
त्रैलोक्ये सर्वभूतानां सुखदुःखं प्रवर्तते॥ २०

ईशो भवति सर्वत्र प्रविभागेन योगवित्‌। 
वश्यानि चास्य भूतानि जैलोक्ये सचराचरे॥ २१

इच्छया तस्य  रूपाणि भवन्ति न भवन्ति च। 
यत्र कामावसायित्वं त्रैलोक्ये सचराचरे॥ २२

शब्द: स्पर्शों रसो गन्धो रूपं चेव मनस्तथा। 
प्रवर्तन्तेडस्य चेच्छातो न भवन्ति यथेच्छया॥ २३

न जायते न प्रियते छिद्यते न च भिद्यते। 
न दह्मते न मुहठोत लीयते न च लिप्यते॥ २४

न क्षीयते न क्षरति खिद्यते न कदाचन। 
क्रियते वा न सर्वत्र तथा विक्रीयते न च॥ २५

अगन्धरसरूपस्तु अस्पर्श: शब्दवर्जित:।
अवर्णो हास्वरश्चैव असवर्णस्तु कहिचित्‌॥ २६

सभी प्राणियोंकी अपेक्षा शीघ्रत्व गुणसे सम्पन्न होना लघिमा नामक दूसरी सिद्धि कही गयी है। तीनों लोकोंमें सभी प्राणियोंमें माहात्म्यबलसे वन्दित तथा पूजित होना इस लोकमें महिमारूप तीसरी सिद्धि कही जाती है। त्रिलोकीमें सभी प्राणियोंके भीतर स्वेच्छासे प्रवेश करना प्राप्ति नामक सिद्धि कही गयी है प्राकाम्य ऐश्वर्यसे युक्त व्यक्ति तीनों लोकोंमें कहीं भी बाधारहित होकर विषयोंका भोग करता है और सभी प्राणियोंको सुख-दुःखमें प्रव॒त्त कर सकता है। ईशित्व ऐश्वर्यके द्वारा वह योगवेत्ता यथेष्ट देहधारणके द्वारा सभी जगह स्वामी बन जाता है। वशित्वसे चराचरसहित त्रिलोकीमें सभी प्राणी उसके  हे जाते हैं। जिसके पास कामावसित्व ऐश्व होता है, चराचरसहित तीनों लोकोंमें उसके रूप अनुसार बन सकते हैं और नहीं भी बन सकते है शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध, रूप तथा मन उसकी होते हैं और उसकी इच्छाके अनुसार नहीं भी होते हैं। वह कभी भी न उत्पन्न होता है, न मरता है, न कट सकता है, न भेदा जा सकता है, न जलाया जा सकता है, न मूच्छित होता है, न आकर्षित होता है न लिप्त (आसक्त) होता है, न उसका क्षय होता है वह नष्ट नहीं होता है और न तो खिनन होता है। वह सर्वत्र न तो कुछ करता है और न तो विकृत ही होता है। वह शब्द, स्पर्श, गन्ध, रस तथा रूपसे रहित होता है। वह सदा अवर्ण, स्वररहित तथा असवर्ण होता है। वह विषयोंका भोग करता है, किन्तु उनसे लिप्त नहीं होता है॥ १८--२६॥

स भुड्डे विषयांश्चैव विषयैर्न च युज्यते। 
अणुत्वात्तु पर: सूक्ष्म: सूक्ष्मतवादपवर्गिक:॥ २७

व्यापकस्त्वपवर्गाच्च व्यापकात्पुरुष: स्मृतः । 
पुरुष: सूक्ष्मभावात्तु ऐश्वर्य परमे स्थित:॥ २८

गुणोत्तरमथेश्वर्ये. सर्वतः . सूक्ष्ममुच्यते। 
ऐश्वर्य चाप्रतीघातं प्राप्प योगमनुत्तमम्‌॥ २९

अणुभाववाला होनेके कारण जीव सूक्ष्म है और सूक्ष्म होनेके कारण मुक्तिके योग्य है। मुक्त होनेके कारण व्यापक है और व्यापक होनेके कारण वह पुरुष कहा गया है सूक्ष्म भाव होनेके कारण वह पुरुष परम ऐश्वर्यमें स्थित होता है। ऐश्वर्योका गुण क्रमश: सूक्ष्म होता जाता हैऐसा कहा गया है । अबाधित ऐश्वर्य तथा उत्तम योग प्राप्त करके साधक मुक्ति प्राप्त करता है; वही सूक्ष्म परम पव है॥ २७--२९ ॥

अपवर्ग ततो गच्छेत्सूक्ष्म॑ तत्परमं॑ पदम्‌। 
एवं पाशुपतं योगं ज्ञातव्यं मुनिपुड्रवा:॥ ३०

स्वर्गापवर्गफलदं शिवसायुज्यकारणम्‌। 
अथवा गततविज्ञानो रागात्कर्म समाचरेत्‌॥ ३९

राजसं तामसं वापि भुकत्वा तत्रैव मुच्यते। 
तथा सुकृतकर्मा तु फलं स्वर्गे समएनुते॥ ३२

तस्मात्स्थानात्पुन: श्रेष्ठो मानुष्यमुपपद्यते। 
तस्माद्‌ ब्रह्म परं सौख्य॑ ब्रह्म शाश्वतमुत्तमम्‌॥ ३३

ब्रह्म एवं हि सेवेत ब्रहैव हि परं सुखम्‌। 
परिश्रमो हि यज्ञानां महतार्थेन वर्तते॥ ३४

भूयो मृत्युवशं याति तस्मान्मोक्ष: परं सुखम।
अथवा ध्यानसंयुक्तो ब्रह्मतत्त्वपरायण:॥ ३५

न तु च्यावयितुं शक्यो मन्वन्तरशतैरपि। 
दृष्ट्वा तु पुरुष दिव्यं विश्वाख्यं विश्वतोमुखम्‌॥ ३६

विश्वपादशिरोग्रीव॑ विश्वेशं विश्वरूपिणम्‌। 
विश्वगन्धं विश्वमाल्यं विश्वाम्बरधरं प्रभुम्‌॥ ३७

हे श्रेष्ठ मुनियो ! इस प्रकार पाशुपतयोगको जानना चाहिये, जो स्वर्ग तथा मोक्षका फल प्रदान करनेवाली और शिव-सायुज्यका कारण है। विज्ञानरहित व्यक्ति रागके कारण कर्म करता है और राजस अथवा तामर भोग करके वहींपर मुक्त हो जाता है। पुण्यकर्म करनेवाला स्वर्गमें फल प्राप्त करता है; तत्पश्चात्‌  श्रेष्ठ प्राणी [पुण्यके क्षीण होनेपर] पुनः मनुष्यलोक वापस आता है। अत: ब्रह्म ही परम सुख है ही परम शाश्वत है। ब्रह्मकी ही उपासना करनी चाहिं क्योंकि ब्रह्म ही परम आनन्दस्वरूप है॥ ३० यज्ञोंमें बहुत धनके व्ययके साथ ही परिश्रम होता है; उसके बाद भी मनुष्यको मृत्युके वशमें होना पड़ता है, अतः मोक्ष ही परम आनन्द है। विश्व नामवाले, सभी ओर मुख-पैर-सिर-ग्रीवावाले, विश्वके स्वामी, सभी रूपोंवाले, सभी गन्धोंसे युक्त, सम्पूर्ण विश्वको माला तथा बस्त्रके रूपमें धारण करनेवाले (सर्वव्यापक) भगवान्‌ दिव्य पुरुषका दर्शन करके ध्यानयुक्त तथा ब्रह्मतत्त्तपरायण व्यक्तिको सैकड़ों मन्वन्तरोंमें भी [उसके पदसे ] च्युत नहीं किया जा सकता है॥ ३०--३७॥

गोभिर्महीं सम्पतते पतत्त्रिणो नेव॑ भूयो जनयत्येवमेव ।
कविं पुराणमनुशासितारं सूक्ष्माच्य सूक्ष्म॑ महतो महान्तम्‌॥ ३८

योगेन पश्येनन च चक्षुषा पुन- निरिन्द्रियं. पुरुष॑ रुक्‍मवर्णम्‌।
आलिड्रिनं॑ निर्गुणं चेतनं च नित्यं सदा सर्वगं सर्वसारम्‌॥ ३९

पश्यन्ति युक्त्या ह्चलप्रकाशं तद्धावितास्तेजआ दीप्यमानम्‌। 
अपाणिपादोदरपाश्व जिह् हातीन्द्रियो वापि सुसूक्ष्म एक: ॥ ४०

पश्यत्यचक्षु:. स॒ श्रृणोत्यकर्णो न चात्त्यबुद्धं न च बुद्धिरस्ति।
स वेद सर्व न च सर्ववेद्य॑ तमाहुरग्रयं॑ पुरुष॑ महान्तम्‌॥ ४१

अचेतनां सर्वगतां सूक्ष्मां प्रसवधर्मिणीम्‌। 
प्रकृतिं सर्वभूतानां युक्ता: पश्यन्ति योगिन:॥ ४२

पुरुषरूप ईश्वर सूर्यको किरणोंके माध्यमसे पृथ्वीपर पहुँचता है और निरन्तर ही पूर्वसदृश जगत्‌को उत्पन्न करता है; किंतु प्रलयकालमें उत्पन्न नहीं करता । योगी उस कवि, पुरातन, सभीपर शासन करनेवाले, सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, महानसे भी महान्‌, इन्द्रियोंसे रहित, स्वर्णके रंगवाले, सर्वरूपमय, निर्गुण, चैतन्यस्वरूप, नित्य सर्वत्र गमन करनेवाले (सर्वव्यापी ) तथा सर्वसारस्वरूप पुरुषको योगसे देख सकता है न कि चक्षुसे। उसी ब्रह्ममें लीन रहनेवाले साधक उस अचल प्रकाशवाले तथा अपने तेजसे प्रकाशित प्रभुकों योगसे देखते हैं वह [ ब्रह्म] हाथ-पैरउदर-पार्श्व-जिहासे रहित है, इन्द्रियोंसे अतीत है, अत्यन्त सूक्ष्म है तथा अद्वितीय है वह नेत्ररहित होता हुआ भी देखता है, कानोंसे रहित होता हुआ भी सुनता है और बुद्धिहित होता हुआ भी सब कुछ जानता है । वह सबको जानता है, किंतु सबके द्वारा वेद्य नहीं है । उसे आदि महान्‌ पुरुष कहा गया है उनसे युक्त योगिजन सभी प्राणियोंकी प्रकृतिको अचेतन, सर्वव्यापिनी, सूक्ष्म तथा प्रसवधर्मिणी (सृष्टिउत्पादनकर्त्री )-के रूपमें देखते हैं ॥३८-४२॥

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोउक्षिशिरोमुखम्‌। 
सर्वत: श्रुतिमललोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥ ४३

युक्तो योगेन चेशानं सर्वतश्च सनातनम्‌॥ 
पुरुष सर्वभूतानां तं विद्वान्न विमुहाति॥ ४४

भूतात्मानं महात्मानं परमात्मानमव्ययम्‌। 
सर्वात्मानं पर ब्रह्म तद्बै ध्याता न मुहाति॥ ४५

पवनो हि यथाग्राह्यो विचरन् सर्वमूर्तिषु। 
पुरि शेते सुदुर्गाह्यस्तस्मात्पुरुष उच्यते ॥ ४६

वह [ब्रह्म] सभी ओर हाथ तथा पैरवाला है। वह सभी ओर नेत्र, सिर तथा मुखवाला है। वह सभी ओर कानवाला है तथा संसारमें सभीको व्याप्त करके स्थित है । योगसे युक्त विद्वान्‌ [व्यक्ति] ईशान, सनातन तथा सभी प्राणियोंके परम पुरुष उन ब्रह्मके विषयमें मोहित नहीं होता है। जो व्यक्ति सभी प्राणियोंकी आत्मा, महात्मा, परमात्मा अविनाशी तथा सर्वात्मा परब्रह्मका ध्यान करनेवाला है, वह मोहको प्राप्त नहीं होता है। जिस प्रकार सभी प्राणियोंक भीतर विचरण करता हुआ भी वायु अग्राह्य है, ठीक उसी तरह देहमें स्थित होते हुए भी परमात्मा सुदुर्द्राह्म है। वह देहरूपी पुरमें शयन करता है, अतः पुरुष कहा जाता है ॥ ४३-४६ ॥

अथ चेल्लुप्तधर्मा तु सावशेषैः स्वकर्मभिः । 
ततस्तु ब्रह्मगर्भे वै शुक्रशोणितसंयुते ॥ ४७

कालेन कललं चापि बुबुदं सम्प्रजायते। 
मृत्पिण्डस्तु यथा चक्रे चक्रावर्तेन पीडितः ॥ ४९

हस्ताभ्यां क्रियमाणस्तु बिम्बत्वमनुगच्छति । 
एवमाध्यात्मिकैर्युक्तो वायुना सम्प्रपूरितः ॥ ५०

यदि योनिं विमुञ्चामि तत्प्रपद्ये महेश्वरम्। 
यावद्धि वैष्णवो वायुर्जातमात्रं न संस्पृशेत् ॥ ५१

तावत्कालं महादेवमर्चयामीति चिन्तयेत्। 
जायते मानुषस्तत्र यथारूपं यथावयः ॥ ५२

पुण्यफलके भोगके अनन्तर लुप्त धर्मवाला जौव अपने अवशिष्ट कर्मोंके साथ पुनः ब्राहाणयोनिमें जन्म लेता है। स्त्री-पुरुषके संयोग होनेके अनन्तर शुक्र तथा रक्तके मिलनेपर गर्भकी उत्पत्ति होती है, पुनः वह कललके रूपमें हो जाता है और कुछ समय बाद वह कलल भी बुलबुला बन जाता है। जिस प्रकार मिट्टीका पिण्ड घूमते हुए चाकपर कुम्हारके हाथोंसे आकार प्राप्त करता है, वैसे ही यह जीव पंचमहाभूतोंसे युक्त होकर तथा वायुसे पूरित होकर आकार प्राप्त करता है गर्भमें जीव सोचता है कि यदि मैं गर्भसे निकलूँग, तो महेश्वरकी शरणमें जाऊँगा और उत्पन्न होनेपर जबतक वैष्णव वायु अर्थात् माया मेरा स्पर्श नहीं करेगी, तबतक मैं महादेवका अर्चन करूँगा। इस प्रकार जीव अपने रूप तथा वयके अनुसार अर्थात् अपने प्रारब्धके अनुसार मनुष्य बनता है ॥ ४७-५२ ॥

वायुः सम्भवते खात्तु वाताद्भवति वै जलम् । 
जलात्सम्भवति प्राणः प्राणाच्छुकं विवर्धते ॥ ५३

रक्तभागास्त्रयस्त्रिंशद्रेतोभागाश्चतुर्दश  ।
भागतोऽर्थफलं कृत्वा ततो गर्भो निषिच्यते ।। ५४

ततस्तु गर्भसंयुक्तः पञ्चभिर्वायुभिर्वृतः । 
पितुः शरीरात्प्रत्यङ्गं रूपमस्योपजायते ।। ५५

ततोऽस्य मातुराहारात्पीतलीढप्रवेशनात् । 
नाभिदेशेन वै प्राणास्ते ह्याधारा हि देहिनाम् ॥ ५६

आकाशसे वायु उत्पन्न होता है, वायुसे जल उत्पन्न होता है, जलसे प्राण होता है और प्राणसे शुक्र बढ़ता है। रक्तके तैंतीस भाग तथा शुक्रके चौदह भाग मिश्रित होते हैं; उन दोनोंके भागसे आधे जातीफलके सदृश देह प्राप्त करके गर्भकी वृद्धि होती है। तत्पश्चात् गर्भसे युक्त जीव पाँच वायुओंसे घिर जाता है। पिताके शरीरसे इसके अंग- प्रत्यंग तथा रूपका विकास होता है और माताके आहारसे नाभिदेशसे पीये गये तथा चूसे गये रस आदिके प्रवेशसे जीवका पोषण होता है। वे प्राण (वायु) देहधारियोंके आधार हैं ॥ ५३-५६॥

नवमासात्परिक्लिष्टः संवेष्टितशिरोधरः ।
वेष्टितः सर्वगात्रैश्च अपर्याप्तप्रवेशनः ॥ ५७

नवमासोषितश्चापि योनिच्छिद्रादवाङ्मुखः ।
ततः स्वकर्मभिः पापैर्निरयं सम्प्रपद्यते ॥ ५८

असिपत्रवनं चैव शाल्मलिच्छेदनं तथा।
ताडनं भक्षणं चैव पूयशोणितभक्षणम् ॥ ५९

यथा ह्यापस्तु संछिन्नाः संश्लेष्ममुपयान्ति वै।
तथा छिन्नाश्च भिन्नाश्च यातनास्थानमागताः ॥ ६०

एवं जीवास्तु तैः पापैस्तप्यमानाः स्वयंकृतैः ।
प्राप्नुयुः कर्मभिः शेषैर्दुःखं वा यदि वेतरत् ॥ ६१

नौ महीनेतक शिशु बहुत कष्टमें रहता है, उसकी गर्दन नाभिनालसे लिपटी रहती है, उसका सम्पूर्ण शरीर संकुचित रहता है, वह गर्भमें अपर्याप्त (सीमित) स्थानमें पड़ा रहता है। नौ महीनेतक गर्भमें रहनेके बाद वह शिशु नीचेकी ओर मुख किये हुए योनिमार्गसे बाहर निकलता है। इसके पश्चात् अपने पापमय कर्मोंके कारण नरकमें गिरता है; असिपत्रवन तथा शाल्म लिछेदन नामक नकमें उसका ताड़न तथा भक्षण किया जाता है और उसे पीव तथा रक्तका भक्षण करना पड़ता है। जैसे गर्म किये जानेपर जल श्लेष्मायुक्त (बुलबुला- युक्त) हो जाता है, वैसे ही जीव यातना स्थान को प्राप्त करके छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। इस प्रकार जीव अपने द्वारा किये गये उन पापोंसे तप्त होते हैं; वे अपने अवशिष्ट कर्मोंके अनुसार दुःख या सुख प्राप्त करते हैं॥ ५७-६१ ॥

एकेनैव तु गन्तव्यं सर्वमुत्सृज्य वै जनम्। 
एकेनैव तु भोक्तव्यं तस्मात्सुकृतमाचरेत् ॥ ६२

न होनं प्रस्थितं कश्चिद् गच्छन्तमनुगच्छति। 
बदनेन कृतं कर्म तदेनमनुगच्छति ।। ६३

ते नित्यं यमविषयेषु सम्प्रवृत्ताः क्रोशन्तः सततमनिष्टसम्प्रयोगैः ।
शुष्यन्तेपरिगतवेदनाशरीरा बह्वीभिः सुभृशमनन्तयातनाभिः ॥ ६४

सभीलोगोंको छोड़कर जीवको अकेला ही जाना पड़ता है और अकेला ही भोगना पड़ता है; अतः उत्तम आचरण करना चाहिये। [मृत्युके पश्चात्] प्रस्थान करनेवाले इस जीवके पीछे-पीछे कोई भी नहीं जाता है; इस जीवके द्वारा जो कर्म किया गया होता है, वही इसके साथ जाता है वे जीव [यमलोकमें] निरन्तर अनिष्ट दण्डोंके द्वारा कराहते हुए नित्य यमविषयोंमें प्रवृत्त रहते हैं; अनेक प्रकारकी बड़ी-बड़ी अनन्त यातनाओंके द्वारा वेदनाओंसे घिरे हुए शरीरवाले वे जीव शोकसन्तप्त रहते हैं॥ ६२-६४॥ 

कर्मणा मनसा वाचा यदभीक्ष्णं निषेवते। 
तदभ्यासो हरत्येनं तस्मात्कल्याणमाचरेत् ।। ६५

मानुष्यात्पशुभावश्च पशुभावान्मृगो भवेत्। 
मृगत्वात्पक्षिभावश्च तस्माच्चैव सरीसृपः ॥ ६७

सरीसृपत्वाद् गच्छेद्वै स्थावरत्वं न संशयः । 
स्थावरत्वे पुनः प्राप्ते यावदुन्मिलते जनः ।। ६८

कुलालचक्रवद् भ्रान्तस्तत्रैव परिवर्तते। 
इत्येवं हि मनुष्यादिः संसारस्थावरान्तिकः ॥ ६९

विज्ञेयस्तामसो नाम तत्रैव परिवर्तते। 
सात्त्विकश्चापि संसारो ब्रह्मादिः परिकीर्तितः ॥ ७०

पिशाचान्तः स विज्ञेयः स्वर्गस्थानेषु देहिनाम् । 
ब्राह्ये तु केवलं सत्त्वं स्थावरे केवलं तमः ।। ७१

चतुर्दशानां स्थानानां मध्ये विष्टम्भकं रजः । 
मर्मसु च्छिद्यमानेषु वेदनार्तस्य देहिनः ॥ ७२

ततस्तत्परमं ब्रह्म कथं विप्रः स्मरिष्यति। 
संसारः पूर्वधर्मस्य भावनाभिः प्रणोदितः ॥ ७३

व्यक्ति मन, वाणी तथा कर्मद्वारा बार-बार जो भी आचरण करता है, वहीं अभ्यास बनकर इसे उधर ही ले जाता है, अतः [सर्वदा] शुभाचरण करना चाहिये। जीवात्माका पूर्वकर्ममें अनादि दृढ़बन्धन है, उसीसे जीव घोर तामसिक षड्विध संसारको प्राप्त होता है। जीव मनुष्ययोनिसे पशुभावको प्राप्त होता है और पशुभावसे वह मृग होता है, पुनः वह मृगजन्मसे पक्षीका जन्म और पक्षीसे सरीसृप (रेंगनेवाला जन्तु) होता है, इसके बाद वह सरीसृपसे स्थावरत्वको प्राप्त होता है; इसमें सन्देह नहीं है। पुनः स्थावररूप प्राप्त होनेपर जबतक जीव पुनः मनुष्ययोनि नहीं प्राप्त कर लेता, तबतक कुम्हारके चाककी भाँति वह एका हो स्थानपर चक्कर लगाता रहता है। इस प्रकार मनुष्योनिचे प्रारम्भ होकर स्थावरयोनितकके इस संसारको तामस जानना चाहिये। ब्रह्मासे प्रारम्भ करके पिशाचतकके संसारको सात्त्विक कहा गया है। इसे देहधारियोंकि लिये स्वर्गस्थानमें जानना चाहिये। ब्राह्म जीवनमें केवल सत्व, स्थावरमें केवल तम और चौदह स्थानोंक मध्यमें वेदनासे व्याकुल प्राणीके मर्मस्थानोंका वेधन करनेवाला रज विद्यमान है। ऐसी स्थितिमें विप्र उस परम ब्रह्मको कैसे याद कर सकेगा। पूर्व धर्मकी भावनाओंसे प्रेरित होकर यह संसार सदा मनुष्य- योनिसे युक्त रहता है; अतः ध्यान [अवश्य] करना चाहिये ॥ ६५-७३ ॥ 

मानुषं भजते नित्यं तस्माद्ध्यानं समाचरेत् । 
चतुर्दशविधं ह्येतद् बुद्ध्वा संसारमण्डलम् ॥ ७४

नित्यं समारभेद्धर्म संसारभयपीडितः । 
ततस्तरति संसारं क्रमेण परिवर्तितः ॥ ७५

तस्माच्च सततं युक्तो ध्यानतत्परयुञ्जकः ।
तथा समारभेद्योगं यथात्मानं स पश्यति ।। ७६

इस संसारमण्डलको चौदह भुवनस्वरूप जानकर संसारभयसे पीड़ित प्राणीको सदा धर्मका आचरण करना चाहिये; तब वह क्रमसे परिवर्तित होकर इस संसारको पार कर लेता है। अतएव निरन्तर ध्यानमग्न होकर योगीको योगका आचरण करना चाहिये, जिससे वह आत्म-साक्षात्कार कर ले ॥ ७४-७६ ॥

एष आपः परं ज्योतिरेष सेतुरनुत्तमः । 
विवृत्या होष सम्भेदाद्भूतानां चैव शाश्वतः ॥ ७७

तदेनं सेतुमात्मानमग्निं वै विश्वतोमुखम् ।
हृदिस्थं सर्वभूतानामुपासीत महेश्वरम् ॥ ७८

तथान्तः संस्थितं देवं स्वशक्त्या परिमण्डितम्। 
अष्टधा चाष्टधा चैव तथा चाष्टविधेन च ।। ७९

सृष्ट्यर्थं संस्थितं वहिं सङ्क्षिप्य च हृदि स्थितम्। 
ध्यात्वा यथावद्देवेशं रुद्रं भुवननायकम् ॥ ८०

हुत्वा पञ्चाहुतीः सम्यक् तच्चिन्तागतमानसः । 
वैश्वानरं हृदिस्थं तु यथावदनुपूर्वशः ॥ ८१

आपः पूताः सकृत्प्राश्य तूष्णीं हुत्वा ह्युपाविशन् ।
प्राणायेति ततस्तस्य प्रथमा ह्याहुतिः स्मृता ॥ ८२

अपानाय द्वितीया च व्यानायेति तथा परा। 
उदानाय चतुर्थी स्यात्समानायेति पञ्चमी ॥ ८३

स्वाहाकारैः पृथग् हुत्वा शेषं भुञ्जीत कामतः । 
अपः पुनः सकृत्प्राश्य आचम्य हृदयं स्पृशेत् ॥ ८४

सभी जीवों में सम्भेद तथा पार्थक्य होने पर भी वे [शिव] परम ज्योति (सर्वात्म स्वरूप) हैं, ये ही संसारसागर के जलस्वरूप हैं और ये ही उत्तम तथा शाश्वत सेतु भी हैं। अतः सभी प्राणियोंके हृदयमें स्थित इन आत्मस्वरूप, सेतुस्वरूप तथा सभी ओर मुखवाले अग्निस्वरूप महेश्वरकी उपासना करनी चाहिये। अपनी शक्तिके साथ अन्तःकरणमें स्थित, [पृथ्वी आदि] आठ प्रकारसे, [भव आदि] आठ रूपोंमें तथा वामदेव आदि आठ विग्रहोंके रूपमें विद्यमान रहने वाले और सृष्टिके लिये अग्निको संक्षिप्त करके हृदय में विराजमान देवदेवेश लोक नायक भगवान् रुद्रका ध्यान करके उनके चित्तमें मनको लगाकर हृदयमें स्थित वैश्वानरको भली-भाँति क्रमशः पाँच आहुतियाँ देनी चाहिये। शान्तचित्त होकर बैठ करके एक बार पवित्र जलसे आचमन करके आहुति देनी चाहिये। 'प्राणाय स्वाहा' पहली आहुति कही गयी है। दूसरी आहुति 'अपानाय स्वाहा', तीसरी 'व्यानाय स्वाहा', चौथी 'उदानाय स्वाहा' और पाँचवीं आहुति 'समानाय स्वाहा' है। इस प्रकार स्वाहाकारके द्वारा पृथक् पृथक् आहुति देकर शेषान्नको यथेष्ट ग्रहण करना चाहिये, तत्पश्चात् एक बार जलसे प्राशन तथा पुनः आचमन करके हृदयका स्पर्श करना चाहिये ॥ ७७-८४॥

प्राणानां ग्रन्थिरस्यात्मा रुद्रो ह्यात्मा विशान्तकः । 
रुद्रो वै ह्यात्मनः प्राण एवमाप्याययेत्स्वयम् ॥ ८५

प्राणे निविष्टो वै रुद्रस्तस्मात्प्राणमयः स्वयम् ।
प्राणाय चैव रुद्राय जुहोत्यमृतमुत्तमम् ॥ ८६

शिवाविशेह मामीश स्वाहा ब्रह्मात्मने स्वयम् । 
एवं पञ्चाहुतीश्चैव श्राद्धे कुर्वीत शासनात् ॥ ८७

आप रुद्र ही प्राणोंकी ग्रन्थि हैं, रुद्र ही आत्मा हैं, अहंकार-देवतारूप आप ही दुःखका नाश करने वाले हैं और रुद्र ही जीवके प्राण हैं- इस प्रकार [कहकर] स्वयंको तृप्त करना चाहिये। रुद्र प्राणमें निविष्ट हैं, अतः रुद्र स्वर्य प्राण स्वरूप हैं। प्राणको तथा रुद्रको उत्तम अमृत समर्पित करना चाहिये; हे शिव! हे ईश। आप मुझ में प्रवेश करें, साक्षात् ब्रह्मात्मा को स्वाहा-इस प्रकार श्राद्धके अवसरपर शास्त्रानुसार पाँच आहुतियाँ प्रदान करनी चाहिये ॥ ८५-८७ ॥

पुरुषोऽसि पुरे शेषे त्वमङ्गुष्ठप्रमाणतः । 
आश्रितश्चैव चाङ्गुष्ठमीशः परमकारणम् ॥ ८८

सर्वस्य जगतश्चैव प्रभुः प्रीणातु शाश्वतः । 
त्वं देवानामसि ज्येष्ठो रुद्रस्त्वं च पुरो वृषा ॥ ८९

मृदुस्त्वमन्नमस्मभ्यमेतदस्तु हुतं तव। 
इत्येवं कथितं सर्वं गुणप्राप्तिविशेषतः ॥ ९०

योगाचारः स्वयं तेन ब्रह्मणा कथितः पुरा। 
एवं पाशुपतं ज्ञानं ज्ञातव्यं च प्रयत्नतः ॥ ९१

भस्मस्नायी भवेन्नित्यं भस्मलिप्तः सदा भवेत्। 
यः पठेच्छृणुयाद्वापि श्रावयेद्वा द्विजोत्तमान् ॥ ९२

दैवे कर्मणि पित्र्ये वा स याति परमां गतिम् ॥ ९३।

आप पुरुष हैं; आप शरीरमें अँगूठेके परिमाणमें विराजमान हैं। अँगूठेके बराबर होते हुए भी आप ईश्वर परम कारणस्वरूप हैं। सम्पूर्ण जगत्‌के स्वामी तथा सनातन प्रभु प्रसन्न हों। आप देवताओंमें ज्येष्ठ हैं, आप रुद्र हैं, आप प्रथम इन्द्र थे, आप हमारे लिये कल्याणकारी हों और [हमारे द्वारा] ग्रहण किया गया यह अन्न आपके लिये आहुतिस्वरूप हो [हे ऋषियो!] इस प्रकार मैंने विशेषरूपसे अणिमादि-गुणप्राप्ति सम्बन्धी सबकुछ कह दिया। पूर्वकालमें स्वयं ब्रह्माने इस योगविद्याको कहा था। इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक पाशुपतविद्याका ज्ञान करना चाहिये, नित्य भस्म-स्नान करना चाहिये और सदा भस्म लगाना चाहिये। जो [व्यक्ति] देवपूजन या पितृकर्म (श्राद्ध) के अवसरपर इसे पढ़ता है या सुनता है या श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको सुनाता है, वह परमगति प्राप्त करता है ॥ ८८-९३ ॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागेऽणिमाद्यष्टसिद्धित्रिगुणसंसारप्राणाग्नी होमादिवर्णनं नामाष्टाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८८ ॥ 

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'अणिमा आदि आठ सिद्धि त्रिगुण संसार प्राणाग्नि में होमादि का वर्णन' नामक अट्ठासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८८ ॥

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