लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] तिरपनवों अध्याय
भुवनकोश वर्णन में प्लक्ष,शाल्मलि, क्रौंचद्वीपों के महापर्वतों, ऊर्धवलोकों तथा नरकों का वर्णन, सर्वत्र सदाशिव की व्यापकता एवं यक्षरूप शिव और भगवती उमाका माहात्म्य
सूत उवाच
प्लक्षद्वीपादिद्वीपेषु सप्त सप्तसु पर्वता:।
ऋज्वायता: प्रतिदिशं निविष्टा वर्षपर्वता:॥ ९
सूतजी बोले--प्लक्ष आदि सात द्वैपोंमें सात पर्वत हैं, जो सीधे, लम्बे तथा प्रत्येक दिशाओंमें फैले हुए हैं; बे वर्षपर्वतके रूपमें प्रतिष्ठित हैं॥ १॥
प्लक्षद्वीपे तु वक्ष्यामि सप्त दिव्यानू महाचलान्।
गोमेदकोत्र प्रथमो द्वितीयश्चान्द्र उच्चते॥ २
तृतीयो नारदो नाम चतुर्थों दुन्दुभि: स्मृतः।
पञ्चम: सोमको नाम सुमना: षष्ठ उच्यते॥ ३
स एव वैभव: प्रोक्तो वैध्राज: सप्तम: स्मृतः ।
सप्तैते गिरय: प्रोक्ता: प्लक्षद्वीपे विशेषत:॥ ४
मैं प्लक्षद्वीपमें स्थित सातों दिव्य महापर्वतोंका वर्णन करूँगा। पहला गोमेदक तथा दूसरा चान्द्र कहा जाता है। तीसरा नारद तथा चौथा दुन्दुभि नामवाला कहा गया है। पाँचवाँ सोमक तथा छठा सुमनस् नामवाला कहा जाता है, उसे वैभव [नामवाला] भी कहा गया है। सातवाँ पर्वत वैश्राज नामसे प्रसिद्ध है। विशेष रूपसे ये ही सात पर्वत प्लक्षद्वीपमें बताये गये हैं॥ २--४॥
सप्त वे शाल्मलिद्वीपे तांस्तु वक्ष्याम्यनुक्रमात्।
कुमुदश्चोत्तमएचेव पर्वतश्च बलाहक:॥ ५
द्रोण: कड्ढएच महिष: ककुद्मान् सप्तम: स्मृतः ।
कुशद्दवीपे तु सप्तैव द्वीपाएच कुलपर्वता:॥ ६
तांस्तु सड़क्षेपतों वक्ष्ये नाममात्रेण वे क्रमात्।
विद्रुम: प्रथमः प्रोक्तो द्वितीयो हेमपर्वतः॥ ७
तृतीयो द्युतिमान्नाम चतुर्थ: पुष्पित: स्मृतः।
कुशेशयः पञ्चमस्तु षष्ठो हरिगिरि: स्मृत:॥ ८
सप्तमो मन्दरः श्रीमान् महादेवनिकेतनम्।
मन्दा इति हापां नाम मन्दरो धारणादपाम्॥ ९
शाल्मलिद्वीपमें भी सात पर्वत हैं, में क्रमसे उन्हें बताऊँगा। कुमुद, उत्तम, बलाहक, द्रोण, कंक, महिष और सातवाँ ककुद्मान् कहा गया है। कुशद्वीपमें भी सात उपद्वीप और कुलपर्वत हैं। में केवल नामसे ही संक्षेपमें उन्हें बताऊँगा। पहला विद्म तथा दूसरा हेमपर्वत कहा गया है। तीसरा द्युतिमान् एवं चौथा पुष्पित नामवाला बताया गया है। पाँचवाँ कुशेशय तथा छठा हरिगिरि [नामवाला] कहा गया है। सातवाँ पर्वत शोभासम्पनन मन्दर है, यह महादेवजीका निवासस्थान है। जलोंका नाम मन्दा है; इसीलिये जलोंको धारण करनेसे इसका नाम मन्दर है॥५-९॥
तत्र साक्षाद वृषाडुस्तु विश्वेशो विमल: शिव:।
सोम: सनन्दी भगवानास्ते हेमगुहोत्तमे॥ १०
तपसा तोषित: पूर्व मन्दरेण महेश्वरः।
अविमुक्ते महाक्षेत्रे लेभे स परम वरम्॥ १९
प्राथितश्च महादेवो निवासार्थ सहाम्बया।
अविमुक्तादुपागम्य चक्रे वासं स मन्दरे॥ १२
सनन्दी सगण: सोमस्तेनासौ तन्न मुज्चति।
क्रौज्चद्वीपे तु सप्तेह क्रौज्चाद्या: कुलपर्वता: ॥ १३
साक्षात् भगवान् वृषभध्वज विश्वेश्वर अमलात्मा शिव वहाँ उत्तम सुवर्णगृहमें पार्वती तथा नन्दीके साथ रहते हैं। पूर्वकालमें मन्दरने महाक्षेत्र अविमुक्तमें [ अपनी तपस्यासे महेश्वरकों प्रसन्न किया था और उनसे महावरदान प्राप्त किया था उसने महादेवजीसे उमाके साथ वहाँ निवास करनेके लिये प्रार्थना की, तब वे [शिव] अविमुक्तक्षेत्रसे आकर नन्दी, अपने गणों तथा उमाके साथ मन्दर [ पर्वत]-पर निवास करने लगे, इसीलिये वे उस पर्वतको नहीं छोड़ते हैं॥१०-१२ ॥
क्रौज्यो वामनकः पश्चात्तृतीयश्चान्धकारक:।
अन्धकारात्परश्चापि दिवावृन्नाम पर्वत:॥ १४
दिवावृतः परश्चापि विविन्दो गिरिरुच्यते।
विविन्दात्परतश्चापि पुण्डरीको महागिरि:॥ १५
पुण्डरीकात्परश्चापि प्रोच्यते दुन्दुभिस्वन:।
एते रत्तमया: सप्त क्रोज्चद्वीपस्य पर्वता:॥ १६
शाकद्ठवीपे च गिरयः सप्त तांस्तु निबोधत।
उदयो रैवतश्चापि श्यामको मुनिसत्तमा:॥ १७
राजतश्च गिरि: श्रीमानाम्बिकेय: सुशोभन:।
आम्बिकेयात्परो रम्य: सर्वोषधिसमन्वित:॥ १८
क्रौंचद्वीपमें भी क्रौंच आदि सात कुलपर्वत हैं। [ पहला] क्रौंच, [दूसरा] वामन तथा तीसरा अन्धकारक पर्वत है। अन्धकारकके बाद दिवावृत् नामक पर्वत है। दिवावृत्के बाद विविन्द पर्वत कहा जाता है। विविन्दके बाद पुण्डरीक नामक महानू् पर्वत है और पुण्डरीकके बाद दुन्दुभिस्वन पर्वत कहा जाता है। क्रौंचद्वीपके ये सातों पर्वत रत्नमय हैं
शाक द्वीप में भी सात पर्वत हैं, उन्हें जानिये। हे श्रेष्ठ मुनियो। उदय, रैवत, श्यामक, शोभासम्पन्न राजतपर्वत तथा अत्यन्त सुन्दर आम्बिकेय पर्वत हैं। आम्बिकेयके बाद सभी प्रकारकी औषधियोंसे युक्त रम्य नामक पर्वत है। उसके बाद केसरीपर्वत कहा गया है, जहाँसे वायु उत्पन्न होती है॥१५-१८॥
तथेव केसरीत्युक्तो यतो वायु: प्रजायते।
पुष्करे पर्वतः श्रीमान्नेक एवं महाशिलः॥ १९
चित्रेमणिमये: कूटैः शिलाजालै: समुच्छित:।
द्वीपस्य तस्य पूर्वार्ध चित्रसानुस्थितों महान्॥ २०
योजनानां सहस्त्राणि ऊर्ध्व पञ्चाशदुच्छित: ।
अधश्चैव चतुस्त्रिंशत्सहस्राणि महाचल:॥ २१
द्वीपस्यार्ध परिक्षिप्त: पर्वतो मानसोत्तर:।
स्थितो वेलासमीपे तु नवचन्द्र इबोदितः॥ २२
पुष्करद्वीपमें महाशिल नामक एक ही शोभासम्पन्न पर्वत है; यह अद्भुत मणियोंवाले शिखरोंसे तथा शिलासमूहोंसे युक्त है। यह महान् पर्वत उस द्वीपके आधे पूर्वी भागमें अनेक रंगोंके किनारोंके साथ पचास हजार योजन ऊँचा उठा हुआ है। यह महान् पर्वत [ भूतलसे ] चौंतीस हजार योजन नीचेतक गया है। यह पर्वत द्वीपके आधे भागमें उत्तरकी ओर मानसश्रृंखलाके ऊपर फैला हुआ है। समुद्रके समीप स्थित यह पर्वत उगे हुए नवीन चन्द्रमाके समान प्रतीत होता है॥ १९--२२॥
योजनानां सहस्त्राणि ऊर्ध्व पञ्चाशदुच्छित: ।
तावदेव तु विस्तीर्ण: पाएवत: परिमण्डल: ॥ २३
स॒ एव द्वीपपए्चार्थे मानस: पृथिवीधरः।
एक एवं महासानु: सन्निवेशाद् द्विधा कृत:॥ २४
तस्मिन् द्वीपे स्मृतौ द्वौ तु पुण्यौ जनपदो शुभो।
राजती मानसस्याथ पर्वतस्यानुमण्डलौ॥ २५
महावीतं तु यद्वर्ष बाह्मतों मानसस्य तु।
तस्यैवाभ्यन्तरो यस्तु धातकीखण्ड उच्यते॥ २६
यह पचास हजार योजन ऊपरकी ओर उठा हुआ है। इसकी चौड़ाई तथा चारों ओरका घेरा भी उतना ही विस्तृत है। द्वीपके पश्चिमी आधे भागमें यही पर्वत मानस नामसे प्रतिष्ठित है । यह महापर्वत एक होता हुआ भी सन्निवेशके कारण दो भागोंमें विभक्त हो गया है उस द्वीपमें चाँदीके समान प्रभावाले दो पुण्यमय तथा शुभ जनपद बताये गये हैं, जो इस मानस पर्वतको घेरे हुए हैं ।मानसके बाहर जो महावीत नामक वर्ष है, उसके भीतर जो जनपद है, उसे धातकीखण्ड कहा जाता है॥ २३-२६॥
स्वादूदकेनोदधिना पुष्कर: परिवारितः।
पुष्करद्वीपविस्तारविस्तीणोंइसौ. समन्ततः॥ २७
विस्तारान्मण्डलाच्चैव पुष्करस्थ समेन तु।
एवं द्वीपा: समुद्रैस्तु सप्तसप्तभिरावृताः॥ २८
द्वीपस्यानन्तरो यस्तु समुद्रः सप्तमस्तु वै।
एवं द्वीपसमुद्राणां वृद्धिज्ञेया परस्परम् ॥ २९
पुष्करद्वीप स्वादिष्ट जलवाले सागरसे घिरा हुआ है। यह [सागर] सभी ओर पुष्करद्वीपके विस्तारके बराबर विस्तीर्ण है। यह विस्तारमें तथा घेरेमें पुष्कर द्वीपके ही समान है। इस प्रकार सातों द्वीप सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं। द्वीपके अनन्तर जो समुद्र है, वह सातवाँ समुद्र है। इस प्रकार द्वीपों तथा समुद्रोंकी परस्पर वृद्धिको जानना चाहिये ॥ २७-२९ ॥
परेण पुष्करस्याथ अनुवृत्य स्थितो महान् ।
स्वादूदकसमुद्रस्तु समन्तात्परिवेष्ट्य च ॥ ३०
परेण तस्य महती दृश्यते लोकसंस्थितिः ।
काञ्चनी द्विगुणा भूमिः सर्वा चैकशिलोपमा ॥ ३१
तस्याः परेण शैलस्तु मर्यादापारमण्डलः ।
प्रकाशश्चाप्रकाशश्च लोकालोकः स उच्यते ॥ ३२
दृश्यादृश्यगिरिर्यावत्तावदेषा धरा द्विजाः।
योजनानां सहस्त्राणि दश तस्योच्छ्रयः स्मृतः ।। ३३
तावांश्च विस्तरस्तस्य लोकालोकमहागिरेः ।
अर्वाचीने तु तस्यार्थे चरन्ति रविरश्मयः ॥ ३४
परार्धे तु तमो नित्यं लोकालोकस्ततः स्मृतः ।
एवं सङ्क्षेपतः प्रोक्तो भूर्लोकस्य च विस्तरः ॥ ३५
पुष्करके बाहर उसे चारों ओरसे घेरकर स्वादिष्ट जलसे युक्त महान् समुद्र स्थित है। उसके बाहर महती लोकस्थिति दिखायी देती है, वहाँकी भूमि स्वर्णमयी है और विस्तारमें दुगुनी है। सम्पूर्ण भूमि एक शिलाके तुल्य है। उसके परे मर्यादामण्डलस्वरूप एक पर्वत है। इसका कुछ भाग प्रकाशमय तथा कुछ भाग अन्धकारमय रहता है, इसे लोकालोक [पर्यंत] कहा जाता है। है द्विजो। जितना यह दृश्य-अदृश्य पर्वत है, उतनी ही यह धरा है। उसको (पर्वतकी) ऊँचाई दस हजार योजन कही गयी है। उस लोकालोक [नामक] महापर्वतका विस्तार भी उतना ही है। उसके आधे भागमें सूर्यकी किरणें पहुँचती हैं और दूसरे आधे भागमें सदा अन्धकार रहता है, इसलिये इसे लोकालोक कहा गया है। [हे द्विजो!] इस प्रकार मैंने संक्षेपमें भूलोकके विस्तारका वर्णन किया ॥ ३०-३५ ॥
आभानोर्वै भुवः स्वस्तु आध्रुवान्मुनिसत्तमाः ।
आवहाद्या निविष्टास्तु वायोर्वै सप्त नेमयः ॥ ३६
आवहः प्रवहश्चैव ततश्चानुवहस्तथा।
संवहो विवहश्चाथ ततश्चोर्ध्व परावहः ॥ ३७
द्विजाः परिवहश्चेति वायोर्वे सप्त नेमयः ।
बलाहकास्तथा भानुश्चन्द्रो नक्षत्रराशयः ॥ ३८
ग्रहाणि ऋषयः सप्त ध्रुवो विप्राः क्रमादिह।
योजनानां महीपृष्ठादूर्ध्व पञ्चदशाधुवात् ॥ ३९
नियुतान्येकनियुर्त भूपृष्ठाद्भानुमण्डलम् ।
रथः षोडशसाहस्त्रो भास्करस्य तथोपरि ॥ ४०
चतुराशीतिसाहस्त्रो मेरुश्चोपरि भूतलात्।
कोटियोजनमाक्रम्य महर्लोको ध्रुवाद् ध्रुवः ॥ ४१
जनलोको महर्लोकात्तथा कोटिद्वयं द्विजाः ।
जनलोकात्तपोलोकश्चतस्त्रः कोटयो मतः ॥ ४२
प्राजापत्याद् ब्रह्मलोकः कोटिषट्कं विसृज्य तु।
पुण्यलोकास्तु सप्तैते ह्यण्डेऽस्मिन् कथिता द्विजाः ॥ ४३
हे श्रेष्ठ मुनियो। भुवर्लोक सूर्यतक है और स्वर्लोक ध्रुवतक है। आवह आदि वायुकी सात नेमियाँ कही गयी हैं। हे द्विजो! आवह, प्रवह, अनुवह, संवह, विवह, परावह और परिवह-ये वायुकी सात नेमियाँ हैं। हे विप्रो। मेघ, सूर्य, चन्द्रमा, तारागण, राशियाँ, ग्रह सप्तर्षि और ध्रुव- ये क्रमसे व्यवस्थित हैं पृथ्वीतल से ऊपर ध्रुवलोकपर्यन्त पन्द्रह नियुत योजनकी दूरी है। भूपृष्ठसे भानुमण्डल एक नियुत योजन दूर है। उसके ऊपर सूर्यका रथ सोलह हजार योजन है। मेरु पर्वत पृथ्वीतलसे चौरासी हजार योजनपर है। ध्रुवसे एक करोड़ योजनके बाद महर्लोक है। हे द्विजो! महलोंकसे दो करोड़ योजनकी दूरीपर जनलोक है। जनलोकसे चार करोड़ योजनकी दूरीपर तपोलोक कहा गया है। प्राजापत्यलोक (तपोलोक) से छः करोड़ योजनकी दूरी छोड़कर ब्रह्मलोक स्थित है। हे ब्राह्मणो! इस प्रकार इस ब्रह्माण्डमें इन सात पुण्यलोकोंको मैंने बता दिया ॥ ३६-४३ ॥
अधः सप्ततलानां तु नरकाणां हि कोटयः।
मायान्ताश्चैव घोराद्या अष्टाविंशतिरेव तु ॥ ४४
पापिनस्तेषु पच्यन्ते स्वस्वकर्मानुरूपतः ।
अवीच्यन्तानि सर्वाणि रौरवाद्यानि तेषु च ॥ ४५
प्रत्येकं पञ्चकान्याहुर्नरकाणि विशेषतः ।
अण्डमादौ मया प्रोक्तमण्डस्यावरणानि च ॥ ४६
हिरण्यगर्भसर्गश्च प्रसङ्गाद्बहुविस्तरात् ।
अण्डानामीदृशानां तु कोट्यो ज्ञेयाः सहस्त्रशः ।। ४७
सात तलोंके नीचे घोरसे लेकर मायातक अट्ठाईस कोटिके नरक हैं; पापीलोग उनमें अपने-अपने कर्मोंके अनुरूप दुःख भोगते हैं। उनमेंसे प्रत्येकमें रौरवसे लेकर अवीचितक सभी विशेष रूपसे पाँच नरक कहे गये हैं। मैंने आदिमें अण्डका वर्णन किया और अण्डके आवरणोंका भी वर्णन किया एवं प्रसंगवश ब्रह्माकी सृष्टिका भो विस्तारसे वर्णन किया। इस प्रकारके हजारों-करोड़ों ब्रह्माण्डों को जानना चाहिये ॥ ४४-४७ ॥
सर्वगत्वात्प्रधानस्य तिर्यगूर्ध्वमधस्तथा।
अण्डेष्वेतेषु सर्वेषु भुवनानि चतुर्दश ॥ ४८
प्रत्यण्डं द्विजशार्दूलास्तेषां हेतुर्महेश्वरः ।
अण्डेषु चाण्डबाह्येषु तथाण्डावरणेषु च ॥ ४९
तमोऽन्ते च तमः पारे चाष्टमूर्तिर्व्यवस्थितः ।
अस्यात्मनो महेशस्य महादेवस्य धीमतः ॥ ५०
अस्याष्टमूर्तेः शर्वस्य शिवस्य गृहमेधिनः ॥ ५१
गृहिणी प्रकृतिर्दिव्या प्रजाश्च महदादयः।
पशवः किङ्करास्तस्य सर्वे देहाभिमानिनः ॥ ५२
आद्यन्तहीनो भगवाननन्तः पुमान् प्रधानप्रमुखाश्च सप्त।
प्रधानमूर्तिस्त्वथ षोडशाङ्गो महेश्वरश्चाष्टतनुः स एव ॥ ५३
आज्ञाबलात्तस्य धरा स्थितेह धराधरा वारिधराः समुद्राः ।
ज्योतिर्गणः शक्रमुखाः सुराश्च वैमानिकाः स्थावरजङ्गमाश्च ॥ ५४
प्रधानके सर्वगामी होनेके कारण इन अण्डोंमें तिर्यकू, ऊपर तथा नीचे [सभी ओर] चौदह भुवन हैं। हे श्रेष्ठ द्विजो! उनमें प्रत्येक अण्डके हेतु महेश्वर हैं। अष्टमूर्ति [शिव] अण्डोंमें, अण्डोंके बाहर, अण्डोंके आवरणोंमें, अन्धकारके भीतर तथा अन्धकारके परे भी विद्यमान हैं। सम्पूर्ण जगत् इन महेश्वर, महादेव, धीमान्, देहरहित परमात्माका शरीर है। गृहस्थरूप इन अष्टमूर्ति शर्व शिवको गृहिणी दिव्य प्रकृति है, महत् आदि इनकी सन्तानें हैं और सभी देहाभिमानी पशु इनके सेवक हैं चे [शिव] ही आदि-अन्तसे रहित, भगवान् अनन्त, पुरुष, प्रधान आदि (बुद्धि, अहंकार आदि) सात तत्त्व, प्रधान मूर्तिवाले, सोलह अंगोंवाले (पंचमहाभूत, दस इन्द्रियाँ, मन), अष्टमूर्ति तथा महेश्वर हैं। उन्हींकी आज्ञाके प्रभावसे पृथ्वी, पर्वत, मेष, समुद्र, तारागण, इन्द्र आदि देवता, वैमानिक तथा स्थावर-जंगम सभी प्राणी स्थित हैं ॥ ४८-५४॥
दृष्ट्वा यक्षं लक्षणैर्डीनमीशं दृष्ट्वा सेन्द्रास्ते किमेतत्त्विहेति ।
यक्ष गत्वा निश्चयात्पावकाद्याः शक्तिक्षीणाश्चाभवन्यत्ततोऽपि ॥५५
द्ग्धुं तृणं वापि समक्षमस्थ यक्षस्य वह्विन शशाक विप्रा:।
वायुस्तूणं. चालयितुं. तथान्ये स्वान् स्वान् प्रभावान् सकलामरेन्द्रा: ॥ ५६
तदा स्वयं वृत्ररिपु: सुरेन्द्र सुरेश्वर: सर्वसमृद्धिहेतुः ।
सुरेश्वरं॑ यक्षमुवाच को वा भवानितीत्थं. सकुतूहलात्मा॥ ५७
तदा हादृश्य॑ गत एवं यक्षस्तदाम्बिका हैमवती शुभास्या।
उमा शुभेराभरणैरनेके: सुशोभमाना त्वनु चाविरासीत्॥ ५८
तां शक्रमुख्या बहुशोभमानामुमामजां हैमवतीमपृच्छन्।
किमेतदीशे बहुशोभमाने को वाम्बिके यक्षवपुएचकास्ति॥ ५९
निशम्य तद्यक्षमुमाम्बिकाह त्वगोचरश्चेति सुरा: सशक्रा:।
प्रणेमुरेनां मृगराजगामिनीमुमामजां लोहितशुक्लकृष्णाम्॥ ६०
सम्भाविता सा सकलामरेन्द्र: सर्वप्रवृत्तित्तु. सुरासुराणाम्।
अहं पुरासं प्रकृतिश्च पुंसो यक्षस्य चाज्ञावशगेत्यथाह ॥ ६१
तस्माद् द्विजाः: सर्वमजस्य तस्य नियोगतश्चाण्डमभूदजाद् ।
अजश्च अण्डादखिलं च तस्मात् ज्योतिर्गणैलोंकमजात्मक॑ तत्॥ ६२
लक्षणोंसे रहित यक्षरूपी शिवको देखकर इन्द्रसहित अग्नि आदि वे देवता 'यहाँ यह क्या है?'- ऐसा सोचकर अनिश्चयकी दशामें यक्षके समीप जाकर वे शक्तिहीन हो गये हे विप्रो! अग्निदेव उस यक्षके सामने तिनका भी नहीं जला सके, पवन उस तृणको उड़ानेमें समर्थ नहीं हुए, उसी प्रकार अन्य समस्त श्रैष्ठ देवता भी अपने-अपने प्रभाव प्रदर्शित करनेमें समर्थ नहीं हुए। तब सभी श्रेष्ठ देवताओंके साथ समस्त समृद्धियोंके कारणभूत वृत्रशत्रु उन देवेनद्रने कुतृहलचित्त होकर यक्षरूप सुरेश्वरसे इस प्रकार कहा--आप कौन हैं उसी समय यक्ष अदृश्य हो गये। तब सुन्दर मुखवाली तथा अनेक शुभ आभरणोंसे अत्यन्त शोभित होती हुई हैमवती अम्बिका उमा प्रकट हो गयीं इन्द्र आदिने सुशोभित होती हुई उन हैमवती अजा उमासे पूछा-हे ईशे! हे परम शोभायमान अम्बिके! यह यक्षदेहधारी कौन है ? यह सुनकर उमा अम्बिकाने कहा--यह अगोचर है; तब इन्द्रसहित सभी देवताओंने उस यक्षको तथा सिंहगामिनी और लोहित-शुक्ल-कृष्णवर्णवाली इन अज़ा उमाको प्रणाम किया सभी श्रेष्ठ देवताओंसे सत्कृत होकर देवताओं तथा दानवोंकी समस्त प्रवृत्तिरूपा उन देवीने कहा--मैं पूर्वकालमें इस यक्षरूप [परम] पुरुषकी आज्ञाके अधीन रहनेवाली प्रकृति थी अत: हे द्विजो! उन्हीं अज (शिव)-के नियोगसे ब्रह्मा उत्पन्न हुए, उन ब्रह्मासे अण्ड उत्पन्न हुआ और अण्डसे ज्योतिर्गणोंसहित समग्र विश्व उत्पन्न हुआ; ईस प्रकार सब कुछ शिवात्मक है॥५५ - ६२॥
॥ इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे भुवनकोशविन्यासनिर्णयो नाम त्रिपञ्चाशत्तमोडध्याय: ॥ ५३ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिंगमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभायमें 'धुवनकोशविन्यासनिर्णय ' नामक तिरपनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ १३ ॥
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