लिंग पुराण : मंगल, बुध, बृहस्पति, शनि आदि ग्रहों एवं सूर्यके माहात्म्यका वर्णन | Linga Purana: Description of the importance of planets like Mars, Mercury, Jupiter, Saturn etc. and the Sun

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] साठवाँ अध्याय

मंगल, बुध, बृहस्पति, शनि आदि ग्रहों एवं सूर्यके माहात्म्यका वर्णन

सूत उवाच

शेषाः पञ्च ग्रहा ज्ञेया ईश्वराः कामचारिणः । 
पठ्यते चाग्निरादित्य उदकं चन्द्रमाः स्मृतः ॥ १

सूतजी बोले- सूर्य अग्निके रूपमें पढ़ा जाता है और चन्द्रमाको जल कहा गया है। शेष [भौम आदि] पाँच ग्रहोंको ईश्वर तथा इच्छाके अनुसार भ्रमण करनेवाला जानना चाहिये ॥ १॥ 

शेषाणां प्रकृतिं सम्यग् वक्ष्यमाणां निबोधत । 
सुरसेनापतिः स्कन्दः पठ्यतेऽङ्गारको ग्रहः ॥ २

नारायणं बुधं प्राहुर्देवं ज्ञानविदो जनाः ।
सर्वलोकप्रभुः साक्षाद्यमो लोकप्रभुः स्वयम् ॥ ३

महाग्रहो द्विजश्रेष्ठा मन्दगामी शनैश्चरः । 
देवासुरगुरू द्वौ तु भानुमन्तौ महाग्रहौ ।॥ ४

प्रजापतिसुतावुक्तौ ततः शुक्रबृहस्पती। 
आदित्यमूलमखिलं त्रैलोक्यं नात्र संशयः ॥ ५ ।

[हे ऋषियो!] मैं शेष ग्रहोंकी प्रकृति भलीभाँति बताता हूँ, आपलोग सुनिये। भौम (मंगल) ग्रहको देवताओंका सेना पति स्कन्द कहा जाता है। ज्ञानीलोग बुधको नारायण देव कहते हैं। हे द्विजश्रेष्ठो। मन्द गतिवाला महाग्रह शनैश्चर समस्त लोकोंका स्वामी तथा लोकप्रभु साक्षात् यम है। देवताओं और असुरोंके गुरु भानुमान् महाग्रह बृहस्पति तथा शुक्र प्रजापतिके पुत्र कहे गये हैं। आदित्य ही सम्पूर्ण त्रैलोक्यका मूल है; इसमें सन्देह नहीं है॥ २-५॥

भवत्यस्माज्जगत्कृत्स्नं सदेवासुरमानुषम् । 
रुद्रेन्द्रोपेन्द्रचन्द्राणां विप्रेन्द्राग्निदिवौकसाम् ॥ ६

द्युतिद्युतिमतां कृत्स्नं यत्तेजः सार्वलौकिकम् । 
सर्वात्मा सर्वलोकेशो महादेवः प्रजापतिः ॥ ७

सूर्य एव त्रिलोकेशो मूलं परमदैवतम्। 
ततः सञ्जायते सर्वं तत्रैव प्रविलीयते ॥ ८

देवता, असुर तथा मनुष्यसहित सम्पूर्ण जगह इसी [सूर्य] से उत्पन्न होता है। वे सूर्य रुद्र, इन्द्र, उपेन्द्र, चन्द्रमा, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, अग्नि एवं देवताओं इन सब द्युतिसम्पन्न देवोंकी द्युति हैं। उनका जे सम्पूर्ण तेज है, वह सार्वलौकिक है। वे सबकी आत्मा, सभी लोकोंके ईश्वर, महादेव और प्रजापति हैं। सूर्य ही तीनों लोकोंके ईश, सबके कारणस्वरूप एवं परम देवता हैं। उन्होंसे सब कुछ उत्पन्न होता है और उन्होंमें विलीन हो जाता है ॥ ६-८॥ 

भावाभावौ हि लोकानामादित्यान्निः सृतौ पुरा। 
अविज्ञेयो ग्रहो विप्रा दीप्तिमान् सुप्रभो रविः ॥ ९

अत्र गच्छन्ति निधनं जायन्ते च पुनः पुनः। 
क्षणा मुहूर्ता दिवसा निशाः पक्षाश्च कृत्स्नशः ॥ १०

मासाः संवत्सराश्चैव ऋतवोऽथ युगानि च। 
तदादित्यादृते होषा कालसंख्या न विद्यते ॥ ११

कालादृते न नियमो न दीक्षा नाह्निकक्रमः । 
ऋतूनां च विभागश्च पुष्पं मूलं फलं कुतः ॥ १२

कुतः सस्यविनिष्पत्तिस्तृणौषधिगणोऽपि च। 
अभावो व्यवहाराणां जन्तूनां दिवि चेह च ॥१३

जगत्प्रतापनमृते भास्करं रुद्ररूपिणम्। 
स एष कालश्चाग्निश्च द्वादशात्मा प्रजापतिः ।। १४

लोकों के भाव तथा अभाव पूर्वकालमें आदित्य से ही निकले थे। हे विनो! उत्तम प्रभावाला दीप्तिमान् सूर्य [नामक] ग्रह अविज्ञेय हैक्षण, मुहूर्त, दिन, रात, पक्ष, मास, संवत्सर (वर्ष), ऋतु तथा युग इन्हीं सूर्यसे बार-बार उत्पन्न होते हैं और इन्हींमें समाप्त होते हैं। इसलिये सूर्यके बिना यह कालगणना नहीं होती है। कालके बिना न नियम हो सकता है, न दीक्षा हो सकती है और न दैनिक कृत्य ही हो सकता है। [इनके बिना] ऋतुओंका विभाजन, पुष्प, मूल तथा फल कैसे हो सकते हैं? धान्यकी उत्पत्ति कैसे सम्भव है और तृण तथा औषधियाँ भी कैसे हो सकती हैं? जगत्‌को तपानेवाले रुद्ररूप भास्करके बिना इस लोकमें तथा स्वर्गमें प्राणियोंक व्यवहारका अभाव हो जायगा। वे ही काल, अग्नि, द्वादश आत्मा तथा प्रजापति हैं ॥ ९-१४॥

तपत्येष द्विजश्रेष्ठास्त्रैलोक्यं सचराचरम् । 
स एष तेजसां राशिः समस्तः सार्वलौकिकः ॥ १५

उत्तमं मार्गमास्थाय रात्र्यहोभिरिदं जगत्। 
पार्श्वतोर्ध्वमधश्चैव तापयत्येष सर्वशः ॥ १६

यथा प्रभाकरो दीपो गृहमध्येऽवलम्बितः । 
पार्श्वतोर्ध्वमधश्चैव तमो नाशयते समम् ॥ १७

तद्वत्सहस्त्रकिरणो ग्रहराजो जगत्प्रभुः।
सूर्यो गोभिर्जगत्सर्वमादीपयति सर्वतः ॥ १८

हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! ये ही सूर्य चराचरसहित त्रैलोक्यको प्रकाश देते हैं। ये ही तेजोंकी राशि, सम्पूर्ण स्वरूपवाले तथा सार्वलौकिक हैं। उत्तम मार्गका आश्रय लेकर ये [सूर्य] ही इस जगत्‌को पार्श्वभागसे, ऊपरसे, नीचेसे, सभी ओरसे दिन-रात ताप प्रदान करते हैं। जिस प्रकार घरमें रखा हुआ प्रभा करनेवाला दीपक पार्श्वभागमें, ऊपर तथा नीचे समान रूपसे अन्धकारका नाश करता है, उसी तरह हजार किरणोंवाले ग्रहोंके राजा एवं जगत्‌के स्वामी सूर्य [अपनी] किरणोंसे सारे जगत्‌को सभी ओरसे प्रकाशित करते हैं ॥ १५-१८ ॥

रखे रश्मिसहस्त्रं यत्प्राङ्मया समुदाहृतम्। 
तेषां श्रेष्ठाः पुनः सप्त रश्मयो ग्रहयोनयः ॥ १९

सुषुम्नो हरिकेशश्च विश्वकर्मा तथैव च। 
विश्वव्यचाः पुनश्चाद्यः सन्नद्धश्च ततः परः ॥ २०

सर्वावसुः पुनश्चान्यः स्वराडन्यः प्रकीर्तितः ।
सुषुम्नः सूर्यरश्मिस्तु दक्षिणां राशिमैधयत् ॥ २९

व्यगूर्ध्वाधः प्रचारोऽस्य सुषुम्नः परिकीर्तितः ।
हरिकेशः पुरस्ताद्यो ऋक्षयोनिः प्रकीर्त्यते ॥ २२

दक्षिणे विश्वकर्मा च रश्मिर्वर्धयते बुधम्। 
विश्वव्यचास्तु यः पश्चाच्छुक्रयोनिः स्मृतो बुधैः ॥ २३

सन्नद्धश्च तु यो रश्मिः स योनिलर्लोहितस्य तु। 
षष्ठः सर्वावसू रश्मिः स योनिस्तु बृहस्पतेः ॥ २४

शनैश्चरं पुनश्चापि रश्मिराप्यायते स्वराट्। 
एवं सूर्यप्रभावेन नक्षत्रग्रहतारकाः ।। २५

दृश्यन्ते दिवि ताः सर्वाः विश्वं चेदं पुनर्जगत् । 
न श्रीयन्ते यतस्तानि तस्मान्नक्षत्रता स्मृता ।। २६

मैं सूर्यकी जिन हजार किरणोंको पहले बता चुका हूँ, उनमें सात श्रेष्ठ किरणें ग्रहोंको उत्पन्न करनेवाली हैं। वे सुषुम्ना, हरिकेश, विश्वकर्मा, विश्वव्यचा, सन्नद्ध, सर्वावसु और स्वराट्‌ [नामवाली] कही गयी हैं। सूर्यकी सुषुम्ना [नामक] रश्मि दक्षिण राशिकी वृद्धि करती है। इस सुषुम्नाका गमन पार्श्व, ऊपर तथा नीचे सभी ओर कहा गया है। सामनेकी ओर जो हरिकेश [रश्मि] है, उसे नक्षत्रोंकी योनि कहा जाता है। विश्वकर्मा [नामक] रश्मि दक्षिणमें बुधको विकसित करती है। पीछेकी ओर जो विश्वव्यचा [नामक रश्मि] है, उसे विद्वानोंने शुक्रकी योनि कहा है। जो सनन्‍नद्ध [नामक] रश्मि है, वह मंगलकी योनि है। छठी जो सर्वावसु रश्मि है, वह बृहस्पतिकी योनि है। इसके बाद स्वराट्‌ रश्मि शनैश्चरको पोषित करती है। इस प्रकार सूर्यके ही प्रभावसे सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे अन्तरिक्षमें दिखायी देते हैं और यह सम्पूर्ण जगत्‌ दिखायी देता है। चूँकि वे नष्ट नहीं होते, इसलिये उन्हें नक्षत्र कहा गया है॥ १९--२६ ॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे सूर्यप्रभावर्णनं नाम षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६० ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'सूर्यप्रभाववर्णन' नामक साठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६० ॥

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