लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] इकसठवाँ अध्याय
ज्योतिः सन्निवेशमें ग्रहोंके स्वरूप तथा नक्षत्रों और ग्रहोंकी पारस्परिक स्थितिका वर्णन
सूत उवाच
क्षेत्राण्येतानि सर्वाणि आतपन्ति गभस्तिभिः ।
तेषां क्षेत्राण्यथादत्ते सूर्यो नक्षत्रतारकाः ॥ १
चीर्णेन सुकृतेनेह सुकृतान्ते ग्रहाश्रयाः ।
तारणात्तारका होताः शुक्लत्वाच्चैव तारकाः ॥ २
सूतजी बोले- [हे ऋषियो !] रात्रिमें सूर्यकिरणोंसे प्रकाशित होनेवाले ये सभी क्षेत्र भारतवर्षमें अनुष्ठित पुण्योंद्वारा पुण्यात्माओंके होते हैं, तदनन्तर सूर्य सुकृतोंके पूर्ण होनेपर ग्रहोंके आश्रयमें रहनेवाले [ग्रहाश्रित] नक्षत्र-तारोंको [अपने प्रभामण्डलमें] ले लेते हैं। शुक्ल होनेसे तथा तारक होनेसे ये तारे कहलाते हैं ॥ १-२ ॥
दिव्यानां पार्थिवानां च नैशानां चैव सर्वशः ।
आदानान्नित्यमादित्यस्तेजसां तमसामपि ॥ ३
सवने स्यन्दनेऽर्थे च धातुरेष विभाष्यते।
सवनात्तेजसोऽपां च तेनासौ सविता मतः ॥ ४
बहुलश्चन्द्र इत्येष ह्लादने धातुरुच्यते।
शुक्लत्वे चामृतत्वे च शीतत्वे च विभाव्यते ॥ ५
दिव्य, पार्थिव तथा रात्रिमें होनेवाले अन्धकारोंको अपने तेजसे ग्रहण कर लेनेके कारण वह आदित्य [नामवाला] है। फैलाने तथा बहाने अर्थमें यह [सु] धातु पढ़ी जाती है। अतः तेजको फैलाने तथा जलको बहानेके कारण इसे 'सविता' कहा गया है। यह [चदि] धातु आह्लाद करनेके अर्थमें कही जाती है, आह्लाद करनेके कारण चन्द्रमाका नाम बहुल भी है। [ इसके अतिरिक्त] यह शुक्लत्व, अमृतत्व तथा शीतत्वको भी प्रकट करता है॥ ३--५॥
सूर्याचन्द्रमसोर्दिव्ये मण्डले भास्वरे खगे।
जलतेजोमये शुक्ले वृत्तकुम्भनिभे शुभे॥ ६
घनतोयात्मकं तत्र मण्डलं शशिन: स्मृतम्।
घनतेजोमयं शुक्लं मण्डलं भास्करस्य तु॥ ७
सूर्य तथा चन्द्रमाके मण्डल दिव्य, प्रकाशमान् आकाशगामी, जल-तेजसे युक्त, शुक्लवर्णवाले, गोल घड़ेके समान तथा शुभ हैं। उनमें चन्द्रमाका मण्डल घने जलके स्वरूपवाला तथा सूर्यका मण्डल घने तेजके स्वरूपवाला शुक्लवर्णका कहा गया है॥ ६-७॥
वसन्ति सर्वदेवाश्च स्थानान्येतानि सर्वशः।
मन्वन्तरेषु सर्वेषु. ऋक्षसूर्यग्रहाश्रया:॥ ८
तेन ग्रहा गृहाण्येव तदाख्यास्ते भवन्ति च।
सौरं सूर्यो5विशत्स्थानं सौम्यं सोमस्तथेव च॥ ९
शौक शुक्रो5विशत्स्थानं षोडशार्चि: प्रतापवान्।
बृहद् बृहस्पतिश्चैव लोहितश्चैव लोहितम्॥ १०
शनैएचरं तथा स्थानं देवश्चापि शनेश्चर: ।
बोधं बुधस्तु स्वर्भानु: स्वर्भानुस्थानमाश्रितः ॥ ११
नक्षत्राणि च सर्वाणि नक्षत्राणि विशन्ति च।
गृहाण्येतानि सर्वाणि ज्योतींषि सुकृतात्मनाम्॥ १२
कल्पादौ सम्प्रवृत्तानि निर्मितानि स्वयम्भुवा।
स्थानान्येतानि तिष्ठन्ति यावदाभूतसम्प्लवम्॥ १३
मन्वन्तरेषु सर्वेषु देवस्थानानि तानि वै।
अभिमानिनो5वतिष्ठन्ते देवा: स्थान पुन: पुनः ॥ १४
अतीतैस््तु सहैतानि भाव्याभाव्यै: सुरैः सह।
वर्तन्ते वर्तमानैएच स्थानिभिस्तैः सुरैः सह॥ १५
सभी देवता इन स्थानोंमें भलीभाँति निवास करते हैं। वे सभी मन्वन्तरोंमें नक्षत्रों, सूर्य तथा ग्रहोंका आश्रय ग्रहण करते हैं। इसलिये ग्रह [एक तरहसे ] गृह ही हैं और वे उन्हींके नामवाले होते हैं। सूर्यने सौरस्थानमें प्रवेश किया एवं सोम (चन्द्रमा)-ने सौम्यस्थानमें प्रवेश किया। सोलह किरणोंवाला प्रतापी शुक्र शौक्रस्थानमें प्रविष्ट हुआ। बृहस्पति बृहत् स्थानमें तथा लोहित (भौम) लोहितस्थानमें स्थित हुए। शनैश्चरदेव शनेश्चरस्थानमें, बुध बौधस्थानमें तथा स्वर्भानु (राहु) स्वर्भानुस्थानमें स्थित हुए। सभी नक्षत्र (अपने-अपने) नक्षत्र-स्थानोंमें प्रवेश करते हैं। ये सब ज्योतिस्थान पुण्यात्माओं के गृह हैं। ब्रह्माने इन स्थानोंको निर्मित किया है। ये कल्पके आदियें प्रवृत्त हुए और प्रलयपर्यन्त बने रहते हैं। वे सभी मन्वन्तरोंमें देवताओंके निवासस्थान हुआ करते हैं। अभिमानी देवतालोग उनमें बार-बार निवास करते हैं। ये स्थान अतीत, भाव्य तथा अभाव्य देवताओंके साथ और वर्तमान स्थानी देवताओंके साथ विद्यमान रहते हैं॥ ८--१५॥
अस्मिन् मन्वन्तरे चैव ग्रहा वैमानिका: स्मृता: ।
विवस्वानदिते: पुत्र: सूर्यो बैवस्वतेडन्तरे॥ १६
द्युतिमानृषिपुत्रस्तु सोमो देवो वसुः स्मृतः।
शुक्रो देवस्तु विज्ेयो भार्गवोड्सुरयाजक:॥ १७
बृहत्तेजा: स्मृतो देवो देवाचार्योंउड्रिरासुतः ।
बुधो मनोहरश्चैव ऋषिपुत्रस्तु स स्मृत:॥ १८
शनेश्चरो विरूपस्तु संज्ञापुत्रो विवस्वत:।
अग्निर्विकेश्यां जज्ञे तु युवासौ लोहिताचिष: ॥ १९
नक्षत्रऋक्षनामिन्यो दाक्षायण्यस्तु ता: स्मृता: ।
स्वर्भानुः सिंहिकापुत्रो भूतसन्तापनोउसुर:॥ २०
सोमक्षग्रहसू्येषु. कीर्तितास्त्वभिमानिन:।
स्थानान्येतान्यथोक्तानि स्थानिन्यश्चैव देवता: ॥ २९
इस मन्वन्तरमें ग्रहोंको वैमानिक कहा गया है। वैवस्वत मन्वन्तरमें अदितिका पुत्र विवस्वान् सूर्य है। ऋषिपुत्र च्ुतिमान् देवता वसुको सोम (चन्द्र) कहा गया है। असुरोंके याजक शुक्रदेवको भृगुका पुत्र जानना चाहिये | महातेजस्वी देवाचार्य बृहस्पतिको अंगिराऋषिका पुत्र कहा गया है। जो सुन्दर बुध है, उसे ऋषिपुत्र कहा गया है। विकृतरूपवाला शनैश्चर संज्ञाका पुत्र है; वह विवस्वानूसे उत्पन्न हुआ है । लोहित आभावाला यह युवा भौम अग्निरूप रुद्रके द्वारा उनकी पत्नी विकेशीसे उत्पन्न हुआ है। नक्षत्र-ऋक्ष नामवाली जो भी हैं, वे दक्षकी पुत्रियाँ कही गयी हैं। प्राणियोंक लिये कष्टकारी असुर राहु सिंहिकापुत्र है । इस प्रकार सोम, ऋक्ष, ग्रह तथा सूर्यमें उनके निवासस्थान हैं। इन स्थानोंका वर्णन मैंने कर दिया और अपने-अपने स्थानका अभिमान करनेवाले स्थानी देवताओंका भी वर्णन कर दिया॥ १६--२१॥
सौरमग्निमयं स्थान सहस्त्रांशोर्विवस्व॒त: ।
हिमांशोस्तु स्मृतं स्थानमम्मयं शुक्लमेव च॥ २२
आप्यं एयाम॑ मनोज्ञं च बुधरश्मिगृहं स्मृतम्।
शुक्लस्याप्यम्मयं शुक्लं पदं षोडशरश्मिवत्॥ २३
नवरश्मि तु भौमस्य लोहितं स्थानमुत्तमम्।
हरिद्राभं बृहच्चापि षोडशाचिर्॑हस्पते: ॥ २४
अष्टरश्मिगृहं चापि प्रोक्त कृष्णं शनेए्चरे।
स्वर्भानोसतामसं स्थान भूतसन्तापनालयम्॥ २५
विज्ेयास्तारका: सर्वास्त्वृषयस्त्वेकरश्मय: ।
आश्रया: पुण्यकीर्तीनां शुक्लाश्चापि स्ववर्णत: ॥ २६
घनतोयात्मिका ज्ञेया: कल्पादावेव निर्मिता:।
आदित्यरश्मिसंयोगात्सम्प्रकाशात्मिका: स्मृता: ॥ २७
हजार किरणोंवाले सूर्यका अग्निमय सौरस्थान है। चन्द्रमाका स्थान जलमय तथा शुक््लवर्णका कहा गया है। बुधग्रहका निवासस्थान जलमय, श्याम तथा मनोहर बताया गया है। शुक्रका निवासस्थान भी जलमय, शुक्लवर्णवाला तथा सोलह किरणोंसे युक्त है। भौम (मंगल)-का स्थान उत्तम, लोहितवर्णवाला तथा नौ रश्मियोंसे युक्त है। बृहस्पतिका स्थान हरिद्रा (हल्दी )-की आभावाला, विशाल तथा सोलह रश्मियोंसे युक्त है। शनैश्चवरका स्थान आठ रश्मियोंसे युक्त तथा कृष्ण वर्णवाला कहा गया है। राहुका स्थान अन्धकारमय है; यह प्राणियोंक लिये कष्टकारी स्थान है। सभी तारागणोंको ऋषिरूप तथा एक रश्मिवाला जानना चाहिये, ये पुण्यकीर्तिवालोंके आश्रय हैं तथा अपने वर्णसे शुक्ल हैं। इन्हें घने जलके स्वरूपवाला जानना चाहिये। ये कल्पके प्रारम्भमें ही निर्मित किये गये थे; ये सूर्यकी रश्मियोंके संयोगके कारण उत्तम प्रकाशसे युक्त कहे गये हैं॥ २२--२७॥
नवयोजनसाहस्त्रो विष्कम्भ: सवितुः स्मृतः।
त्रिगुणस्तस्य विस्तारों मण्डलस्य प्रमाणतः ॥ २८
द्विगुण: सूर्यविस्ताराद्विसतार: शशिन: स्मृतः।
तुल्यस्तयोस्तु स्वर्भानुर्भूत्वाधस्तात्प्रसर्पति॥ २९
उद्धृत्य पृथिवीछायां निर्मितां मण्डलाकृतिम् ।
स्वर्भानोस्तु बृहत्स्थानं तृतीय यत्तमोमयम्॥ ३०
आदित्यात्तच्च निष्क्रम्य सम॑ गच्छति पर्वसु।
आदित्यमेति सोमाच्च पुनः सौरेषु पर्वसु॥ ३१
सूर्यका विष्कम्भ (व्यास) नौ हजार योजन बताया गया है और मण्डलके प्रमाणसे उसका विस्तार तीन गुना है। चन्द्रमाका विस्तार सूर्यके विस्तारसे दुगुना कहा गया है। उन दोनोंके समान [विस्तारवाला] होकर राहु उनके नीचे गमन करता है। मण्डलके आकारकी बनी हुई पृथ्वी-छायाको लेकर राहुका तीसरा बड़ा स्थान है, जो अन्धकारमय है। वह राहु [चन्द्र] पर्वोर्में सूर्यसे निकलकर चन्द्रमाकौ ओर जाता है और सौर पर्वोमें चन्द्रमासे [निकलकर] सूर्यकी ओर जाता है। चूँकि राहु भानु (सूर्य )-को प्रेरित करता है, अतः इसे स्वर्भानु कहा जाता है॥ २८--३१॥
स्वर्भानुं नुदते यस्मात्तस्मात्स्वर्भानुरुच्यते।
चन्द्रस्य घोडशो भागो भार्गवस्य विधीयते॥ ३२
विष्कम्भान्मण्डलाच्चैव योजनाग्रात्प्रमाणत: ।
भार्गवात्पादहीनस्तु विज्ञेयो वे बृहस्पति:॥ ३३
बृहस्पते: पादहीनौ वक्रसौरी उभौ स्मृतौ।
विस्तारान्मण्डलाच्चैव पादहीनस्तयोर्बुध: ॥ ३४
तारानक्षत्ररूपाणि वपुष्मन्तीह यानि वे।
बुधेन तानि तुल्यानि विस्तारान्मण्डलाच्च वे ॥ ३५
शुक्रका विस्तार योजनके प्रमाणसे विष्कम्भ तथा मण्डल (घेरा) -में चन्द्रमाका सोलहवाँ भाग कहा गे है। बृहस्पतिको शुक्रसे एक चौथाई कम जानना चाहिये बृहस्पतिसे एक चौथाई कम मंगल तथा शनि--ये दोनों बताये गये हैं। बुध विस्तार तथा मण्डलमें उन दोनोंसे एक चौथाई कम है। तारा-नक्षत्ररूपवाले जो पिण्ड हैं वे विस्तार तथा मण्डलमें बुधके बराबर हैं॥ ३२--३५॥
प्रायशश्चन्द्रयोगीनि विद्यादृक्षाणि तत्त्ववित्।
तारानक्षत्ररूपाणि हीनानि तु परस्परम्॥ ३६
शतानि पज्च चत्वारि त्रीणि द्वे चेव योजने।
सर्वोपरि निकृष्टानि तारकामण्डलानि तु॥ ३७
योजनान्यर्धमात्राणि तेभ्यो हस्वं न विद्यते।
उपरिष्टात्नरयस्तेषां ग्रहास्ते दूरसर्पिण:॥ ३८
सौरो5ड्विराशएच वक्रश्च ज्ञेया मन्दविचारिण: ।
पूर्वमेव समाख्याता गतिस्तेषां यथाक्रमम्॥ ३९
तत्त्ववेत्ताको प्राय: सभी नक्षत्रोंको चन्द्रमासे सम्बद्ध जानना चाहिये। तारा-नक्षत्ररूपवाले वे परस्पर बहुत छोटे हैं। वे [छोटे तारे] पाँच, चार, तीन तथा दो योजन विस्तारवाले हैं। इन सबके ऊपर अत्यन्त छोटे तारामण्डल हैं, जो केवल आधे योजनके हैं, उनसे छोटा कोई तारा नहीं है। उनके ऊपर तीन ग्रह हैं, वे दूर-दूर भ्रमण करनेवाले हैं। वे सौर, अंगिरा (बृहस्पति) तथा वक्र (भौम) हैं, इन्हें मन्दगतिसे भ्रमण करनेवाला जानना चाहिये। उनकी गतिके विषयमें पहले ही क्रमसे बता दिया गया है॥ ३६-३९ ॥
एतेष्वेव ग्रहा: सर्वे नक्षत्रेषु समुत्थिता:।
विवस्वानदिते: पुत्र: सूर्यों वे मुनिसत्तमा:॥ ४०
विशाखासु समुत्पन्नो ग्रहाणां प्रथमो ग्रह: ।
त्विषिमान् धर्मपुत्रस्तु सोमो देवो वसुस्तु सः ॥ ४१
शीतरश्मि: समुत्पन्त: कृत्तिकासु निशाकर:।
षोडशाचिर्भगोः पुत्र: शुक्र: सूर्यादनन्तरम्॥ ४२
तारग्रहाणां प्रवरस्तिष्ये क्षेत्रे समुत्थितः।
ग्रहश्चाड्विरसः पुत्रो द्वादशाचिरबहस्पति: ॥ ४३
फाल्गुनीषु समुत्पन्न: पूवख्यासु जगदुरु:।
नवाचिलोहिताड्श्च प्रजापतिसुतो ग्रहः ॥ ४४
आषाढास्विह पूर्वासु समुत्पन्न इति स्मृतः।
रेवतीष्वेव सप्तार्चि:स्थाने सौरि: शनैश्चर: ॥ ४५
सौम्यो बुधो धनिष्ठासु पञ्चार्चिरुदितो ग्रहः ।
तमोमयो मृत्युसुतः प्रजाक्षयकरः शिखी॥ ४६
आएलेषासु समुत्पन्न: सर्वहारी महाग्रह:।
तथा स्वनामधेयेषु दाक्षायण्य: समुत्यिता:॥ ४७
तमोवीर्यमयो राहु: प्रकृत्या कृष्णमण्डल:।
भरणीषु समुत्पन्नो ग्रहए्चन्द्रार्कर्दन: ॥ ४८
सभी ग्रह इन्हीं नक्षत्रोंमें उत्पन्न हुए हैं। हे श्रेष्ठ मुनियो! अदितिका पुत्र विवस्वान् सूर्य, जो ग्रहोंमें प्रथम है, विशाखा नक्षत्रमें उत्पन्न हुआ है। धर्मका पुत्र ओजस्वी सोम वसु देवता है, वह शीत रश्मिवाला चन्द्रमा कृत्तिका नक्षत्रमें उत्पन्न हुआ है। सोलह रश्मियोंवाला भृगुपृत्र शुक्र जो तारग्रहोंमें श्रेष्ठ है, सूर्यके बाद तिष्य नक्षत्रमें उत्पन्न हुआ है। बारह किरणोंवाला अंगिरापुत्र जगदगुरु बृहस्पति ग्रह पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रमें उत्पनन हुआ है। नौ किरणोंसे युक्त तथा लोहित अंगवाला प्रजापतिपुत्र भौमग्रह पूर्वाषाढ नक्षत्रमें उत्पन्न होनेवाला कहा गया है। सात किरणोंसे युक्त सूर्यपुत्र शनैश्चर रेवती नक्षत्रमें उत्पन्न हुआ है। पाँच किरणोंवाला चन्द्रपुत्र बुध ग्रह धनिष्ठा नक्षत्रमें उत्पनन हुआ है। अन्धकारमय, प्रजाका क्षय करनेवाला तथा सबका विनाशक महाग्रह मृत्युपुत्र शिखी (केतु) आश्लेषा नक्षत्रमें उत्पन्न हुआ है। दक्षकी पुत्रियाँ अपने-अपने नामवाले नक्षत्रोंमें उत्पन्न हुई हैं। अन्धकार तथा ओजसे परिपूर्ण, प्रकृतिसे काले मण्डलवाला और सूर्य-चन्द्रका मर्दन करनेवाला ग्रह राहु भरणी नक्षत्रमें उत्पन्न हुआ है॥ ४०--४८॥
एते तारा ग्रहाश्चापि बोद्धव्या भार्गवादय:।
जन्मनक्षत्रपीडासु यान्ति वेगुण्यतां यतः॥ ४९
मुच्यते तेन दोषेण ततस्तद् ग्रहभक्तित:।
सर्वग्रहाणामेतेषामादिरादित्य उच्यते॥ ५०
तारग्रहाणां शुक्रस्तु केतूनां चापि धूमवान्।
ध्रुव: किल ग्रहाणां तु विभक्तानां चतुर्दिशम्॥ ५१
नक्षत्राणां श्रविष्ठा स्थादयनानां तथोत्तरम्।
वर्षाणां चैव पञ्चानामाद्य: सम्वत्सर: स्मृत: ॥ ५२
ऋतूनां शिशिरश्चापि मासानां माघ उच्यते।
पक्षाणां शुक्लपक्षस्तु तिथीनां प्रतिपत्तथा॥ ५३
अहोरात्रविभागानामहश्चादि: प्रकीर्तित: ।
मुहूर्तानां तथेवादिसुहू्तों. रुद्रदैवत: ॥ ५४
न शुक्र आदि ग्रहोंको ताराके नामसे भी जानना चाहिये। ये अपने-अपने जन्म-नक्षत्रोंमें उत्पन्न पीड़ाओंमें वैगुण्यताको प्राप्त होते हैं, तब उस ग्रहकी पूजा करनेसे मनुष्य उस दोषसे मुक्त हो जाता है। इन सभी ग्रहोंमें आदित्य (सूर्य) आदि (प्रधान) ग्रह कहा जाता है। ताणग्रहोंमें शुक्र, केतुओंमें धूमवान् तथा चारों दिशाओंमें विभक्त ग्रहोंमें ध्रुव प्रधान है । नक्षत्रोंमें धनिष्ठा और अयनोंमें उत्तरायण प्रधान है। पाँचों वर्षोमें संवत्सरको प्रधान कहा गया है। ऋतुओंमें शिशिर तथा मासोंमें माघको आदिमास कहा जाता है। पक्षोंमें शुक्लपक्ष और तिथियोंमें प्रतिपदा प्रधान है। दिन तथा रातके विभागोंमें दिनको आदि कहा गया है। मुहूर्तोमें रुद्रदेवत आदिमुहूर्त है ॥ ४९--५४ ॥
क्षणएचापि निमेषादि: काल: कालविदां वरा: ।
श्रवणान्तं धनिष्ठादि युगं॑ स्यात्पड्चवारषिकम्॥ ५५
भानोर्गतिविशेषेण चक्रवत्परिवर्तते ।
दिवाकरः स्मृतस्तस्मात्कालकृद्दिभुरीएवर: ॥ ५६
चतुर्विधानां भूतानां प्रवर्तकनिवर्तक: ।
तस्यापि भगवान् रुद्र: साक्षाद्वेव: प्रवर्तकः ॥ ५७
इत्येष ज्योतिषामेवं॑ सन्निवेशोर्थनिश्चय: ।
लोकसंव्यवहारार्थ महादेवेन. निर्मित: ॥ ५८
बुद्धिपूर्व भगवता कल्पादौ सम्प्रवर्तित:।
स आश्रयोभिमानी च सर्वस्य ज्योतिरात्मक: ॥ ५९
एकरूपप्रधानस्य परिणामोयमद्भुतः ।
नैष शक्य: प्रसंख्यातुं याथातथ्येन केनचित्॥ ६०
गतागतं मनुष्येण ज्योतिषां मांसचक्षुषा।
आगमादनुमानाच्यच प्रत्यक्षादुपपत्तित: ॥ ६१
परीक्ष्य निपुणं बुद्धया श्रद्धातव्यं विपश्चिता।
चक्षु: शास्त्रं जल॑ लेख्यं गणितं मुनिसत्तमा:॥ ६२
पञ्चैते हेतवो ज्ञेया ज्योतिर्मानविनिर्णये॥ ६३
हे कालवेत्ताओंमें श्रेष्ठ! क्षणोंमें नमिष आदिकाल है। धनिष्ठासे श्रवणपर्यन्त पाँच वर्षोका युग होता है। भानुकी विशेष गतिके कारण जगत् चक्रकी भाँति परिवर्तित होता रहता है, इसलिये सूर्यको कालकी रचना करनेवाला, व्यापक तथा ईश्वर कहा गया है। सूर्य चारों प्रकारके प्राणियोंका प्रवर्तक एवं निवर्तक है और साक्षात् भगवान् रुद्रदेव उस (सूर्य)-के भी प्रवर्तक हैं । इस प्रकार महादेवने लोकव्यवहारके लिये नक्षत्रोंका अर्थनिश्वयवाला यह सन्निवेश निर्मित किया है। उन भगवानने ही कल्पके आरम्भमें बुद्धिपूर्वक इनका प्रवर्तन किया है। वे सबके आश्रय, अभिमानी तथा ज्योति स्वरूप हैं एक रूपवाले उन प्रधानका यह अद्भुत परिणाम है। यथार्थरूपसे इसका वर्णन किसीके द्वारा नहीं किया जा सकता है। भौतिक दृष्टिवाले विद्वान् मनुष्यको इन ज्योतिर्गणोंके प्रमाण तथा गतिके विषयमें आगम (वेद, शास्त्र), अनुमान, प्रत्यक्ष और उपपक्तिके द्वारा सावधानीपूर्वक बुद्धिसे परीक्षण करके इनपर श्रद्धा करनी चाहिये। हे श्रेष्ठ मुनियो! चक्षु, शास्त्र, जल, लेख्य तथा गणित--इन पाँचोंको नक्षत्रोंके प्रमाणके निर्णयमें साधन समझना चाहिये॥ ५५--६३ ॥
॥ इ्ति श्रीलिंगमहा पूर्वभागे ग्रहसंख्यावर्णन॑ नामेकषष्टितमोउध्याय: ॥ ६ ९ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिंगमहा पुराण के अन्तर्गत पूर्वभाय में 'ग्रहसंख्यावर्णन ' नामक इकसठवों अध्याय पूर्ण हुआ॥ ६१ ॥
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