लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] बावनवाँ अध्याय
विभिन्न द्वीपों की नदियों का वर्णन, केतुमाल, कुरुवर्ष, भारत वर्ष, किम्पुरुष आदि वर्षों में रहने वाले लोगों तथा उनकी लोकवृत्ति का वर्णन
सूत उवाच
नद्यश्च बहवः प्रोक्ताः सदा बहुजलाः शुभाः।
सरोवरेभ्यः सम्भूतास्त्वसंख्याता द्विजोत्तमाः ॥ १
प्राङ्मुखा दक्षिणास्यास्तु चोत्तरप्रभवाः शुभाः ।
पश्चिमाग्राः पवित्राश्च प्रतिवर्ष प्रकीर्तिताः ॥ २
सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो । प्रत्येक वर्षमें सदा विपुल जलसे भरी हुई बहुत-सी असंख्य पवित्र नदियाँ बतायी गयी हैं, वे सरोवरोंसे निकली हुई हैं। वे पवित्र नदियाँ पूर्वकी ओर, दक्षिणकी ओर, उत्तरकी और तथा पश्चिमको ओर प्रवाहित होनेवाली कही गयी हैं॥१-२॥
आकाशाम्भोनिधिर्योऽसौ सोम इत्यभिधीयते।
आधारः सर्वभूतानां देवानाममृताकरः ।। ३
अस्मात्प्रवृत्ता पुण्योदा नदी त्वाकाशगामिनी।
सप्तमेनानिलपथा प्रवृत्ता चामृतोदका ॥ ४
सा ज्योतींष्यनुवर्तन्ती ज्योतिर्गणनिषेविता ।
ताराकोटिसहस्त्राणां नभसश्च समायुता ॥ ५
आकाशमें जो जलसागर है, उसे सोम कहा जाता है। वह सभी प्राणियोंका आधार तथा देवताओंके लिये अमृतका भण्डार है; इससे निकली हुई पुण्य जलवाली नदी आकाशमें बहती है। सातवें वायुमार्गसे प्रवृत्त यह अमृतमय जलवाली नदी ज्योतिरूप गणों के बीच प्रवाहित होती है। यह आकाशके हजारों-करोड़ों ताराओंसे घिरी हुई है। यह चन्द्रमाकी भाँति प्रतिदिन चारों ओर प्रवाहित होती रहती है॥ ३-५ ॥
परिवर्तत्यहरहो यथा सोमस्तथैव सा।
चत्वार्यशीतिश्च तथा सहस्त्राणां समुच्छ्रितः ।। ६
योजनानां महामेरुः श्रीकण्ठाक्रीडकोमलः ।
तत्रासीनो यतः शर्वः साम्बः सह गणेश्वरैः ॥ ७
क्रीडते सुचिरं कालं तस्मात्पुण्यजला शिवा।
गिरिं मेरुं नदी पुण्या सा प्रयाति प्रदक्षिणम् ॥ ८
विभज्यमानसलिला सा जवेनानिलेन च।
मेरोरन्तरकूटेषु निपपात चतुर्व्वपि ॥ ९।
समन्तात्समतिक्रम्य सर्वाद्रीन् प्रविभागश:।
नियोगाद्वेवदेवस्य प्रविष्टा सा महार्णवम्॥ १०
अस्था विनिर्गता नद्यः शतशोथ सहस्त्रश:।
सर्वद्वीपाद्रिवर्षषणु बहवः परिकीर्तिता:॥ १९
महामेरु चौरासी हजार योजन ऊँचा है, वह भगवान् श्रीकण्ठका कोमल क्रीड़ास्थल है। वहाँ शिवजी उमा तथा गणेश्वरोंके साथ विराजमान रहते हैं और दीर्घकालतक क्रीड़ा करते हैं, अतः वह पवित्र जलवाली तथा कल्याण कारिणी है। वह पुण्यदायिनी नदी मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा करती है वायुके वेगके कारण विभाजित होते हुए जलवाली वह नदी मेरुके अन्तर्गत चारों कूटोंमें प्रवाहित होती है। सभी पर्वतोंको विभागपूर्वक सभी औरसे लाँधकर वह देवदेव शिवके आदेशसे महासागरमें प्रवेश करती है। इससे निकली हुई सैकड़ों-हजारों अनेक नदियाँ कही गयी हैं, जो सभी द्वीपों, पर्वतों तथा देशोंमें हैं। छोटी नदियाँ तो असंख्य हैं; गंगा आकाशसे पृथ्वीपर आयी हुई हैं, इसलिये वे गंगा कहलाती हैं॥६-११॥
क्षुद्रनद्यस्त्वसंख्याता गड़ा यदगां गताम्बरात्।
केतुमाले नराः काला: सर्वे पनसभोजना: ॥ १२
स्त्रियश्चोत्पलवर्णाभा जीवित चायुत॑ स्मृतम्।
भद्राएवे शुक्लवर्णाश्च स्त्रियश्चन्द्रांशसन्निभा: ॥ १३
कालाम्रभोजना: सर्वे निरातड्डा रतिप्रिया:।
दशवर्षसहस्त्राण जीवन्ति शिवभाविता:॥ १४
हिरण्मया इवात्यर्थमीएवरारपितचेतस: ।
तथा रमणके जीवा न्यग्रोधफलभोजना:॥ १५
दशवर्षसहस्त्राण शतानि दशपञज्च च।
जीवन्ति शुक्लास्ते सर्वे शिवध्यानपरायणा: ॥ १६
हैरण्मया महाभागा हिरण्मयवनाश्रया:।
एकादशसहस्त्राणि शतानि दशपञ्च च॥ ९१
वर्षाणां तत्र जीवन्ति अश्वत्थाशनजीवना: ।
हिरण्मया. इवात्यर्थमीएवरार्पितमानसा: ॥ १८
केतुमालवर्षमें मनुष्य कृष्णवर्णवाले हैं, वे सब कटहलका आहार ग्रहण करते हैं। वहाँकी स्त्रियाँ उत्पलके वर्णवाली हैं। वहाँके लोगोंकी आयु दस हजार वर्ष कही गयी है। भद्राश्ववर्षमें स्त्रियाँ चन्द्रमाकी किरणोंके समान शुक्ल वर्णकी हैं। वहाँके सभी लोग कालाग्रका भोजन करनेवाले, भयरहित तथा रतिप्रिय हैं। शिवका ध्यान करनेवाले वे लोग दस हजार वर्षतक जीवित रहते हैं। हिरण्मयवर्षके लोगोंके समान वे भी मनको ईश्वरमें लगाये रखते हैं रमणकवर्ष में लोग बरगदका फल ग्रहण करते हैं। वे ग्यारह हजार पाँच सौ वर्ष जीवित रहते हैं। वे सब शुक्लवर्णके होते हैं और शिवके ध्यानमें लगे रहते हैं। हिरण्मयवनका आश्रय लेकर महाभाग्यशाली हिरण्मय लोग रहते हैं । वे वहाँपर बारह हजार पाँच सौ वर्ष जीते हैं और अश्वत्थ (पीपल)-के आहारपर जीवित रहते हैं। हिरण्मयवर्षक लोग अपने मनको शिवमें लगाये रखते हैं॥ १२-१८ ॥
कुरुवर्ष तु कुरव: स्वर्गलोकात्परिच्युता: ।
सर्वे मैथुनजाताएच क्षीरिण: क्षीरभोजना:॥ १९
अन्योन्यमनुरक्ताश्च चक्रवाकसधमिण:।
अनामया हाशोकाएच नित्यं सुखनिषेविण: ॥ २०
त्रयोदशसहस्त्राण शतानि दशपञ्च च।
जीवन्ति ते महावीर्या न चान्यस्त्रीनिषेविण: ॥ २१
सहैव मरणं तेषां कुरूणां स्वर्गवासिनाम्।
हृष्टानां सुप्रवुद्धानां सर्वान्नामृतभोजिनाम्॥ २२
सदा तु चन्द्रकान्तानां सदा यौवनशालिनाम्।
श्यामाडुगनां सदा सर्वभूषणास्पददेहिनाम्॥ २३
जम्बूद्वीपे तु तत्रापि कुरुवर्ष सुशोभनम्।
तत्र चन्द्रप्रभं शम्भोर्विमानं चन्द्रमौलिन:॥ २४
कुरुवर्षमें कुरुलोग स्वर्गसे गिरे हुए हैं। वे सभी मैथुनक्रियासे उत्पन्न हुए हैं। वे दुग्धका पान तथा भोजन करते हैं। वे एक-दूसरेसे प्रेम करनेवाले, चक्रवाक पक्षीके समान गुण-धर्मवाले, रोगरहित, शोकमुक्त एवं सदा सुखोंका भोग करनेवाले हैं। वे चौदह हजार पाँच सौ वर्षतक जीते हैं। वे महातेजस्वी हैं और अन्य स्त्रीका सेवन नहीं करते हैं। हृष्ट-पुष्ट, अत्यन्त प्रबुद्ध, सभी प्रकारके अन्न तथा अमृतके आहारवाले, सदा चन्द्रमाके समान कान्तिमानू, सदा यौवनशाली, श्याम वर्णके शरीरवाले एवं सर्वदा सभी प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित शरीरवाले उन स्वर्गवासी कुरुओंका मरण साथ-साथ होता है। वहाँ जम्बूद्वीपमें भी अत्यन्त सुन्दर कुरुवर्ष है। चन्द्रशेखर शिवका चन्द्रमाकी प्रभाके समान एक विमान वहाँपर विद्यमान है॥ १९--२४॥
वर्ष तु भारते मर्त्या: पुण्या: कर्मवशायुषः।
शतायुष: समाख्याता नानावर्णाल्पदेहिन: ॥ २५
नानादेवार्चने युक्ता नानाकर्मफलाशिनः।
नानाज्ञानार्थसम्पन्ता दुर्बलाश्चाल्पभोगिन:॥ २६
इन्द्रद्वीप॑ तथा केचित्तथेव च कसेरुके ।
ताग्रद्वीप॑ गता: केचित्केचिद्देशं गर्भस्तिमत्॥ २७
नागद्वीपं तथा सौम्यं गान्धर्व वारुणं गता:।
केचिन्प्लेच्छा: पुलिन्दाश्च नानाजातिसमुद्धवा: ॥ २८
पूर्व किरातास्तस्यान्ते पश्चिमे यवना: स्मृता: ।
ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या मध्ये शूद्राएच सर्वश: ॥ २९
इज्यायुद्धवणिज्याभिरर्तयन्तो व्यवस्थिता:।
तेषां संव्यवहारोउयं वर्ततेडत्र परस्परम्॥ ३०
धर्मार्थकामसंयुक्तो वर्णानां तु स्वकर्मसु।
सड्डुल्पश्चाभिमानश्च आश्रमाणां यथाविधि ॥ ३१
इह स्वर्गापवर्गार्थ प्रवृत्तिय॑त्र मानुषी।
तेषां च युगकर्माणि नान्यत्र मुनिपुड्भवा:॥ ३२
भारतवर्षमें मनुष्य पुण्यशाली, कर्मके कल आयुवाले, [ प्राय: ] सौ वर्षकी आयुवाले, अनेक रंगवाले छोटे शरीरवाले, अनेक देवताओंको पूजामें परायण नानाविध कर्मोका फल भोगनेवाले, अनेक ज्ञानके अर्थोपे सम्पन्न, दुर्बल तथा अल्प सुखको भोगनेवाले कहे गये हैं उनमें से कुछ इन्द्रद्वीपमें, कुछ कसेरुकद्वीप में, कुछ ताम्रद्वीपमें और कुछ गभस्तिमान् देशमें चले गये। कुछ नागद्वीपमें, कुछ सोमद्ठीपमें, कुछ गन्धर्वद्वीपमें तथा कुछ वरुणद्वीपमें चले गये कुछ लोग विविध जातियोंसे उत्पन म्लेच्छ और पुलिन्द हैं। उस द्वीपके पूर्वी भागमें किरात तथा पश्चिमी भागमें यवन बताये गये हैं । उसके मध्यभागमें सर्वत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र हैं। वे पूजन, युद्ध, वाणिज्य आदिके द्वारा जीविका चलाते हुए वहाँ व्यवस्थित हैं उन वर्णोका अपने-अपने कर्मोमें परस्पर यह व्यवहार धर्म, अर्थ तथा कामसे सम्बन्धित है। उनमें संकल्प एवं अभिमान [ ब्रह्मचर्य आदि] आश्रमोंमें उचित रूपमें विद्यमान है। वहाँपर स्वर्ग तथा मोक्षके लिये मनुष्योंकी जो प्रवृत्ति है और उनके जो युगकर्म हैं, हे मुनिश्रेष्ठो ! वैसा अन्यत्र नहीं है॥ २५--३२॥
दशवर्षसहस्त्राणि स्थिति: किम्पुरुषे नृणाम्।
सुवर्णवणश्चि नरा: स्त्रियशचाप्सरसोपमा: ॥ ३३
अनामया हाशोकाश्च सर्वे ते शिवभाविता:।
शुद्धसत्त्वाश्च हेमाभा: सदारा: प्लक्षभोजना: ॥ ३४
महारजतसद्भडाशा हरिवर्षेपि मानवाः।
देवलोकाच्च्युता: सर्वे देवाकाराश्च सर्वश: ॥ ३५
हर॑ यजन्ति सर्वेशं पिबन्तीक्षुसं शुभम्।
न जरा बाधते तेन न च जीर्यन्ति ते नरा:॥ ३६
किम्पुरुषवर्ष में मनुष्योंकी स्थिति दस हजार वर्षतक रहती है। वहाँके पुरुष सुवर्णके रंगवाले होते हैं और स्त्रियाँ अप्सराओंके समान होती हैं। वे सब रोगरहित, शोकरहित, शिवभक्तिसे युक्त, विशुद्ध सत्त्वगुणसे सम्पन्न, स्वर्णके समान आभावाले, अपनी पत्नियोंके साथ रहनेवाले तथा गूलरका भोजन करनेवाले होते हैं हरिवर्ष में भी मनुष्य महारजतके समान वर्णवाले होते हैं। वे सब देवलोकसे च्युत हुए हैं और हर प्रकारसे देवताओंके आकारके होते हैं। वे सर्वेश्वर शिवका पूजन करते हैं और पवित्र इश्लुस्सका पान करते हैं, अत: उन्हें बुढ़ापा बाधित नहीं करता और बे लोग वृद्ध नहीं होते। वहाँ “उ दस हजार वर्ष जीवित रहते हैं॥३३-३६॥
दशवर्षसहस्त्राणि तत्र जीवन्ति मानवाः।
मध्यमं यन्मया प्रोक्ते नाम्ना वर्षमिलावृतम्॥ ३७
न तत्र सूर्यस्तपति न ते जीर्यन्ति मानवा:।
चन्द्रसूयों न नक्षत्र न प्रकाशमिलावृते॥ ३८
पदाप्रभाः पद्ममुखा: पद्मपत्रनिभेक्षणा:।
पद्मपत्रसुगन्न्धाश्च जायन्ते भवभाविता:॥ ३९
जम्बूफलरसाहारा अनिष्पन्दा: सुगन्धिन:।
देवलोकागतास्तत्र जायन्ते हाजरामरा: ॥ ४०
त्रयोदशसहस्त्राणि वर्षाणां ते नरोत्तमा:।
आयु:प्रमाणं जीवन्ति वर्ष दिव्ये त्विलावृते॥ ४९
जम्बूफलरसं पीत्वा न जरा बाधते त्विमान्।
न क्षुधा न क्लमश्चापि न जनो मृत्युमांस्तथा॥ ४२
तत्र जाम्बूनदं नाम कनक॑ देवभूषणम्।
इन्द्रगोपप्रतीका्श जायते भास्वरं तु तत्॥ ४३
मध्यमें स्थित जो इलाबृत नामक वर्ष कहा गया का सूर्य नहीं बा तपता है और वहाँ मनुष्य बूढ़े नहीं रलादृतवर्ष में न सूर्य-चन्द्रमा हैं, न तारे हैं और न तो प्रकाश ही है । वहाँके लोग कमलके समान प्रभावाले, कमलके समान मुखवाले, कमलके पत्रके समान नेत्रोंवाले और कमलपत्रकी सुगन्धिसे युक्त होते हैं। वे शिवमें ध्यानपरायण रहते हैं। वे जामुनके फलके रसका आहार करनेवाले, धूपके प्रभावसे रहित तथा सुगन्धमय होते हैं । देवलोकसे आये हुए वे लोग अजर-अमर होते हैं। उस दिव्य इलावृतवर्षमें वे श्रेष्ठ मनुष्य तेरह हजार वर्षतक अपनी पूरी आयुभर जीवित रहते हैं। जामुनके फलका रस पीनेसे इन्हें न बुढ़ापा बाधित करता है, न भूख लगती है और न थकावट होती है। वहाँके लोग [समयसे पूर्व ] मरते नहीं हैं। वहाँ जाम्बूनद नामक स्वर्ण होता है; वह देवताओंका आभूषण है तथा इन्द्रगोप (कीटविशेष)-के समान प्रकाशमान रहता हैं॥ ३७--४३॥
एवं मया समाख्याता नववर्षानुवर्तिन:।
वर्णायुभोजनाद्नि सड्मक्षिप्प न तु विस्तरात्॥ ४४
हेमकूटे तु गन्धर्वा विज्ञेयाश्चाप्सरोगणा:।
सर्वे नागाएच निषधे शेषवासुकितक्षका:॥ ४५
महाबलास्त्रयस्त्रिशद्रमन्ते याज्ञिका: सुरा:।
नीले तु वैडूर्यमये सिद्धा ब्रह्मर्षयोमला: ॥ ४६
देत्यानां दानवानां च श्वेत: पर्वत उच्यते।
श्रृद्धवान् पर्वतश्चेव पितृणां निलय: सदा॥ ४७
हिमवान् यक्षमुख्यानां भूतानामीश्वरस्थ च।
सर्वाद्रिषु महादेवों हरिणा ब्रह्मणाम्बया।॥ ४८
नन्दिना च गणैश्चैव वर्षेषु च वनेषु च।
नीलएवेतत्रिश्रुड्रे च भगवान्नीललोहित: ॥ ४९
सिद्धैर्देवेश्च पितृभिर्दृष्टो नित्यं विशेषतः।
नीलएच वैडूर्यमय: एवेत: शुक्लो हिरण्मय: ॥ ५०
मयूरबरईवर्णस्तु. शातकुम्भस्त्रिश्द्भवान्।
एते पर्वतराजानो जम्बूद्वीपे व्यवस्थिता:॥ ५१
इस प्रकार मैंने नौ वर्षोॉके निवासियोंका वर्णन कर दिया। मैंने उनके वर्ण, आयु, भोजन आदिके विषयमें विस्तारसे नहीं बल्कि संक्षेपमें कहा है हेमकूटपर्वतपर गन्धर्वों तथा अप्सराओंको रहनेवाला जानना चाहिये। शेष, वासुकि, तक्षक और सभी नाग निषधपर रहते हैं। तैंतीस महाबली याज्ञिक देवता, सिद्धशण तथा विशुद्धात्मा ब्रह्मर्षि बेदूर्य मणिवाले नीलपर्वतपर रहते हैं देत्यों एवं दानवोंका निवासस्थान श्वेतपर्वत कहा जाता है। श्रृंगवानपर्वत [सभी] पितरोंका निवासस्थान है। हिमवान् सभी यक्षों, भूतों तथा शिवका निवास है। महादेवजी श्रीविष्णु, ब्रह्मा, उमा, नन्दी और [अपने] गणोंके साथ सभी पर्वतों, वर्षों तथा वनोंमें निवास करते हैं। भगवान् नीललोहित नील, श्वेत एवं त्रिश्रृंग पर्वतोंपर विशेष रूपसे सिद्धों, देवताओं तथा पितरोंके साथ सदा दिखायी पड़ते हैं। नीलपर्वत वैदूर्यमय, श्वेतपर्वत शुक्लवर्णवाला, हिरण्यमयपर्वत मोरपंखके वर्णका और श्रृंगवान्पर्वत सुनहरे वर्णका है। ये सभी पर्वतराज जम्बूद्वीपमें स्थित हैं॥४४--५१॥
॥ इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे भुवनकोशस्वभाववर्णन॑ नाम द्विपज्चाशत्तमोउध्याय: ॥ ५२ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिंगमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'भुवनकोशस्वभाववर्णन ' नामक बावनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ ५२ ॥
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