श्रीलिङ्गमहापुराण लिंग पुराण [ उत्तरभाग ] दूसरा अध्याय
भगवद्गुण गान का माहात्म्य
मार्कण्डेय उवाच
ततो नारायणो देवस्तस्मै सर्वं प्रदाय वै।
कालयोगेन विश्वात्मा समं चक्रेऽथ तुम्बरोः ॥ १
नारदं मुनिशार्दूलमेवं वृत्तमभूत्पुरा।
नारायणस्य गीतानां गानं श्रेष्ठं पुनः पुनः ॥ २
गानेनाराधितो विष्णुः सत्कीर्ति ज्ञानवर्चसी।
ददाति तुष्टिं स्थानं च यथाऽसौ कौशिकस्य वै।।
पद्याक्षप्रभृतीनां च संसिद्धिं प्रददौ हरिः।
तस्मात्त्वत्या महाराज विष्णुक्षेत्रे विशेषतः ॥ ४
अर्चनं गाननृत्याद्यं वाद्योत्सवसमन्वितम् ।
कर्तव्यं विष्णुभक्तैर्हि पुरुषैरनिशं नृप ॥ ५
मार्कण्डेयजी बोले- [हे राजन्!] तदनन्तर परमात्प नारायणने कालयोगसे उन्हें सम्पूर्ण ज्ञान प्रदान करके उन मुनिश्रेष्ठ नारदको तुम्बुरुके समान कर दिया। पूर्वकालमें ऐसी घटना हुई थी। नारायणके गीतोंका श्रेष्ठ गान बार-बार करना चाहिये। गानसे प्रसन्न होकर भगवान् श्रीहरि सत्कीर्ति, ज्ञान, ओज, तुष्टि तथा अपना लोक प्रदान करते हैं, जैसे उन्होंने कौशिक, पद्माक्ष आदिको पूर्णरूपसे सिद्धि प्रदान की थी। अतः है महाराज! है नृप! आपको विशेष रूपसे विष्णुक्षेत्रमें विष्णुभक्त पुरुषोंके साथ गान, नृत्य आदि तथा वाद्य- उत्सवसे युक्त भगवान्का नित्य अर्चन करना चाहिये और उनकी कथा सुननी चाहिये; वे भगवान् श्रीहरि ही सर्वथा श्रवणके योग्य हैं॥१-५ ॥
श्रोतव्यं च सदा नित्यं श्रोतव्योऽसौ हरिस्तथा।
विष्णुक्षेत्रे तु यो विद्वान् कारयेद्भक्तिसंयुतः ॥ ६
गाननृत्यादिकं चैव विष्ण्वाख्यानं कथां तथा।
जातिस्मृतिं च मेधां च तथैवोपरमे स्मृतिम् ॥ ७
हे राजन् ! जो विद्वान् भक्तिपरायण होकर विष्णुक्षेत्रमें गान, नृत्य और विष्णुके आख्यान तथा कथाको सम्पादित कराता है, उसे पूर्वजन्मकी स्मृति, वैराग्य- भावना, मेधा, वैराग्यके प्रति इच्छा और विष्णुसायुज्यको प्राप्ति हो जाती है; यह सत्य है॥ ६-७ ॥
प्राप्नोति विष्णुसायुज्यं सत्यमेतन्नृपाधिप।
एतत्ते कथितं राजन् यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ ८
किं वदामि च ते भूयो वद धर्मभृतां वर ॥ ९
हे राजन् ! मैंने यह सब आपसे कह दिया, जिसे आपने मुझसे पूछा था। हे धर्मधारियोंमें श्रेष्ठ। मैं अब आपको और क्या बताऊँ, पूछिये ॥ ८-९ ॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे विष्णुमाहात्यं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'विष्णुमाहात्म्य' नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २॥
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