लिंग पुराण : भगवती गायत्रीका आवाहन तथा जप, सूर्यकी प्रार्थना, सूर्यसूक्तोंका पाठ | Linga Purana: Invocation and chanting of Bhagwati Gayatri, prayer to Sun, recitation of Surya Suktas
लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] छब्बीसवाँ अध्याय
भगवती गायत्री का आवाहन तथा जप, सूर्यकी प्रार्थना, सूर्य सूक्तों का पाठ, देव-ऋषि पितृत र्पण, पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान, भस्मस्नान एवं मन्त्रस्नान
नन्हुवाच
अर्घ्य दत्त्वा समभ्यर्च्य प्रणम्य शिरसा स्वयम् ।
उत्तमे शिखरे देवीत्युक्त्वोद्वास्य च मातरम् ॥ ४
प्राच्यालोक्याभिवन्ध्रेशां गायत्री वेदमातरम।
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा प्रार्थयेद्धास्करं तथा॥ ५
उदुत्यं च तथा चित्र जातवेदसमेव च।
अभिवन्द्य पुनः सूर्य ब्रह्माणं च विधानतः॥ ६
तथा सौराणि सूक्तानि ऋग्यजु:सामजानि च।
जप्त्वा प्रदक्षिणं पश्चात्रि: कृत्वा च विभावसो: ॥
आत्मानं चान्तरात्मानं परमात्मानमेव च।
अभिवन्द्य पुनः सूर्य ब्रह्माणं च विभावसुम्। ८
मुनीन् पितृन् यथान्यायं स्वनाम्नावाहयेत्तत: ।
सर्वानावाहयामीति देवानावाह्य सर्वत:॥ ९
तर्पयेद्विधिना पश्चात्प्राइमुखो वा ह्युदढूमुख: ।
ध्यात्वा स्वरूपं तत्तत्त्वमभिवन्द्य यथाक्रमम्॥ १०
देवानां पुष्पतोयेन ऋषीणां तु कुशाम्भसा।
पितृणां तिलतोयेन गन्धयुक्तेन सर्वतः॥ ११
यज्ञोपवीती देवानां निवीती ऋषितर्पणम्।
प्राचीनावीती विप्रेन्द्र पितृणां तर्पयेत् क्रमात्॥ १२
अङ्गल्यग्रेण वै धीमांस्तर्पयेद्देवतर्पणम् ।
ऋषीन् कनिष्ठाङ्गुलिना श्रोत्रियः सर्वसिद्धये ॥ १३
पितृस्तु तर्पयेद्विद्वान् दक्षिणाङ्गुष्ठकेन तु।
तथैवं मुनिशार्दूल ब्रह्मयज्ञं यजेद् द्विजः ॥ १४
देवयज्ञं च मानुष्यं भूतयज्ञं तथैव च।
पितृयज्ञं च पूतात्मा यज्ञकर्मपरायणः ॥ १५
स्वशाखाध्ययनं विप्रा ब्रह्मयज्ञ इति स्मृतः ।
अग्नौ जुहोति यच्चान्नं देवयज्ञ इति स्मृतः ॥ १६
सर्वेषामेव भूतानां बलिदानं विधानतः ।
भूतयज्ञ इति प्रोक्तो भूतिदः सर्वदेहिनाम् ॥ १७
सदारान् सर्वतत्त्वज्ञान् ब्राह्मणान् वेदपारगान्।
प्रणम्य तेभ्यो यद्दत्तमन्नं मानुष उच्यते ॥ १८
पितृनुद्दिश्य यद्दत्तं पितृयज्ञः स उच्यते।
एवं पञ्च महायज्ञान् कुर्यात्सर्वार्थसिद्धये ॥ १९
सर्वेषां शृणु यज्ञानां ब्रह्मयज्ञः परः स्मृतः ।
ब्रह्मयज्ञरतो मयों ब्रह्मलोके महीयते ॥ २०
ब्रह्मयज्ञेन तुष्यन्ति सर्वे देवाः सवासवाः।
ब्रह्मा च भगवान् विष्णुः शङ्करो नीललोहितः ॥ २१
वेदाश्च पितरः सर्वे नात्र कार्या विचारणा।
ग्रामाद् बहिर्गतो भूत्वा ब्राह्मणो ब्रह्मयज्ञवित् ॥ २२
यावत्त्वदृष्टमभवदुटजानां छदं नरः।
प्राच्यामुदीच्यां च तथा प्रागुदीच्यामथापि वा ॥ २३
पुण्यमाचमनं कुर्याद् ब्रह्मयज्ञार्थमेव तत्।
प्रीत्यर्थं च ऋचां विप्राः त्रिः पीत्वा प्लाव्य प्लाव्य च ॥ २४
यजुषां परिमृञ्चैवं द्विः प्रक्षाल्य च वारिणा।
प्रीत्यर्थ सामवेदानामुपस्पृश्य च मूर्धनि ॥ २५
स्पृशेदथर्ववेदानां नेत्रे चाङ्गिरसां तथा।
नासिके ब्राह्मणोऽङ्गानां क्षाल्य क्षाल्य च वारिणा ॥ २६
अष्टादशपुराणानां ब्रह्माद्मानां तथैव च।
तथा चोपपुराणानां सौरादीनां यथाक्रमम्॥ २७
पुण्यानामितिहासानां शैवादीनां तथैव च।
श्रोत्रे स्पृशेद्धि तुष्ट्यर्थ हद्देश्यं तु ततः स्पृशेत्॥ २८
कल्पादीनां तु सर्वेषां कल्पवित्कल्पवित्तमा: ।
एवमाचम्य चास्तीर्य दर्भपिज्जूलमात्मन:॥ २९
कृत्वा पाणितले धीमानात्मनो दक्षिणोत्तरम्।
हेमाडुलीयसंयुक्तो ब्रह्मबन्धयुतोषपि वा॥३०
विधिवद् ब्रह्मयज्ञं च कुर्यात्सूत्री समाहितः।
अकृत्वा च मुनि: पञ्च महायज्ञान् द्विजोत्तम: ॥ ३९
भुक्त्वा च सूकराणां तु योनो वे जायते नरः।
तस्मात्सर्वप्रयत्तेन कर्तव्या: शुभमिच्छता॥ ३२
ब्रह्ययज्ञादथ स्नान कृत्वादौ सर्वथात्मनः।
तीर्थ सड़ग्गृह्य विधिवत्प्रविशेच्छिविरं वशी॥ ३३
बहिरेव गृहात्पादौ हस्तो प्रक्षाल्य वारिणा।
भस्मस्नानं ततः कुर्याद्विधिवद्देहशुद्धये ॥ ३४
शोध्य भस्म यथान्यायं प्रणवेनाग्निहोत्रजम्।
ज्योति: सूर्य इति प्रातर्जुहुयादुदिते यतः॥ ३५
ज्योतिरग्निस्तथा सायं सम्यक् चानुदिते मृषा।
तस्मादुदितहोमस्थं भसितं पावन शुभम्॥ ३६
नास्ति सत्यसमं यस्मादसत्यं पातक॑ च यत्।
ईशानेन शिरोदेशं मुखं तत्पुरुषेण च॥ ३७
उरोदेशमघोरेण गुहां वामेन सुक्रताः।
सदच्येन पादौ सर्वाड्रं प्रणवेनाभिषेचयेत्॥ ३८
ततः प्रक्षालयेत्पादं हस्तं ब्रह्मविदां वरः।
व्यपोह् भस्म चादाय देवदेवमनुस्मरन्॥ ३९
मन्वस्नानं ततः कुर्यादापो हि ष्ठादिभिः क्रमात्।
पुण्यैश्चैव तथामननैऋग्यजुःसामसम्भवैः ॥ ४०
द्विजानां तु हितायैवं कथितं स्नानमा ते।
सक्षिप्य यः सकृत्कुर्यात्स याति परमं पदम् ॥ ४९
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे पञ्चयज्ञविधानं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'पंचयज्ञविधान' नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २६॥
लिंग पुराण के छब्बीसवें अध्याय के FAQs:
प्रश्न 1: लिंग पुराण के छब्बीसवें अध्याय में मुख्य रूप से क्या बताया गया है?
उत्तर: इस अध्याय में भगवती गायत्री का आवाहन, सूर्य की प्रार्थना, सूर्य सूक्तों का पाठ, देव-ऋषि-पितृ तर्पण, पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान, भस्मस्नान और मंत्रस्नान की विधि का वर्णन किया गया है।
प्रश्न 2: भगवती गायत्री का आवाहन किस मंत्र से किया जाता है?
उत्तर: भगवती गायत्री का आवाहन "आयातु वरदा देवी" इस मंत्र से किया जाता है।
प्रश्न 3: गायत्री जप की विधि क्या है?
उत्तर:
- स्नान के बाद 'आयातु वरदा देवी' मंत्र से गायत्री का आवाहन करें।
- पाद्य, आचमन, और अर्घ्य अर्पित करें।
- तीन बार प्राणायाम करके एक हज़ार, पाँच सौ, या एक सौ आठ बार प्रणव (ॐ) के साथ गायत्री मंत्र का जप करें।
प्रश्न 4: सूर्य की प्रार्थना के लिए कौन-कौन से मंत्रों का पाठ किया जाता है?
उत्तर: सूर्य की प्रार्थना में "उदुत्यं जातवेदसम्" और "चित्र देवानाम्" जैसे मंत्रों का पाठ किया जाता है।
प्रश्न 5: पंचमहायज्ञ क्या हैं और उनकी क्या महत्ता है?
उत्तर: पंचमहायज्ञ निम्नलिखित हैं:
- ब्रह्मयज्ञ: वेदों का अध्ययन और आचरण।
- देवयज्ञ: अग्नि में अन्न का हवन।
- भूतयज्ञ: सभी जीवों के कल्याण हेतु बलि।
- मानुष्ययज्ञ: ब्राह्मणों और विद्वानों को अन्नदान।
- पितृयज्ञ: पितरों के लिए तर्पण और श्राद्ध।
इन यज्ञों के माध्यम से देवता, ऋषि, पितर, और सभी भूत संतुष्ट होते हैं।
प्रश्न 6: तर्पण के लिए जल में कौन-कौन से पदार्थ मिलाने चाहिए?
उत्तर:
- देवताओं के तर्पण: पुष्पयुक्त जल।
- ऋषियों के तर्पण: कुशयुक्त जल।
- पितरों के तर्पण: तिल और गंधयुक्त जल।
प्रश्न 7: तर्पण करते समय यज्ञोपवीत (जनेऊ) की स्थिति क्या होनी चाहिए?
उत्तर:
- देवतर्पण: यज्ञोपवीत सव्य (दाहिने कंधे से बाएँ कूल्हे की ओर)।
- ऋषितर्पण: यज्ञोपवीत निवीति (गले में पहना हुआ)।
- पितृतर्पण: यज्ञोपवीत अपसव्य (बाएँ कंधे से दाहिने कूल्हे की ओर)।
प्रश्न 8: ब्रह्मयज्ञ क्यों सबसे श्रेष्ठ माना गया है?
उत्तर: ब्रह्मयज्ञ को सबसे श्रेष्ठ इसलिए माना गया है क्योंकि यह वेदाध्ययन और वेदों के आचरण पर आधारित है। इससे सभी देवता, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, और पितर संतुष्ट होते हैं, और यह साधक को ब्रह्मलोक में स्थान प्रदान करता है।
प्रश्न 9: तर्पण करते समय किन अंगों का उपयोग किया जाता है?
उत्तर:
- देवतर्पण: अंगुलि के अग्रभाग से।
- ऋषितर्पण: कनिष्ठा (छोटी उँगली) से।
- पितृतर्पण: दाहिने हाथ के अँगूठे से।
प्रश्न 10: अध्याय का मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर: इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य दैनिक जीवन में गायत्री जप, सूर्य पूजन, पंचमहायज्ञ और तर्पण की विधियों का महत्व बताते हुए उन्हें पूर्ण विधि-विधान से करने की प्रेरणा देना है।
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