लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] चौवनवाँ अध्याय
ज्योतिः सन्निवेश वर्णन में लोकपालों की पुरियों का वर्णन, सूर्य की स्थिति तथा उसकी गतिसे होने वाले अयन एवं ऋतुओं की स्थिति, ध्रुवस्थान तथा मेघोंका स्वरूप और वृष्टिका प्रादुर्भाव
सूत उवाच
ज्योतिर्गणप्रचारं वै सङ्क्षिप्याण्डे ब्रवीम्यहम्।
देवक्षेत्राणि चालोक्य ग्रहचारप्रसिद्धये ॥ १
सूतजी बोले [हे ऋषियो!] देवक्षेत्रोंको देखकर मैं ग्रहोंको गतिके ज्ञानके लिये अण्डमें ज्योतिर्गणों (प्रहों) की गतिका संक्षेपमें वर्णन करता हूँ।॥ १॥
मानसोपरि माहेन्द्री प्राच्यां मेरोः पुरी स्थिता।
दक्षिणे भानुपुत्रस्य वरुणस्य च वारुणी ॥
सौम्ये सोमस्य विपुला तासु दिग्देवताः स्थिताः ।
अमरावती संयमनी सुखा चैव विभा क्रमात् ॥ ३
मेरुके पूर्वमें मानस पर्वतपर महेन्द्रको पुरी स्थित है। दक्षिणमें सूर्यपुत्र यमकी, पश्चिममें वरुणकी और उत्तरमें सोमकी विशाल पुरी है। उनमें दिग्पाल रहते हैं। वे पुरियाँ क्रमसे अमरावती, संयमनी, सुखा तथा विभा [नामवाली] हैं ॥ २-३ ॥
लोकपालोपरिष्टात्तु सर्वतो दक्षिणायने।
काष्ठां गतस्य सूर्यस्य गतिर्या तां निबोधत ॥ ४
दक्षिणप्रक्रमे भानुः क्षिप्तेषुरिव धावति।
ज्योतिषां चक्रमादाय सततं परिगच्छति ॥ ५
लोकपालोंकी पुरियोंके ऊपर सभी ओर दक्षिणायनमें बाणके समान गतिवाले सूर्यकी जो गति है, उसे [आपलोग] जानिये। दक्षिणायनमें सूर्य बाणकी तरह गमन करते हैं, वे नक्षत्रचक्रको साथ लेकर निरन्तर परिभ्रमण करते हैं॥ ४-५ ॥
पुरान्तगो यदा भानुः शक्रस्य भवति प्रभुः ।
सर्वैः सायमनैः सौरो ह्युदयो दृश्यते द्विजाः ॥ ६
स एव सुखवत्यां तु निशान्तस्थः प्रदृश्यते ।
अस्तमेति पुनः सूर्यो विभायां विश्वदृग्विभुः ॥ ७
हे द्विजो। जब प्रभु सूर्य इन्द्रकी पुरीमें प्रवेश करते हैं, तब संयमनीपुरीके सभी लोग सूर्यका उदय देखते हैं; जब वे सूर्य संयमनीपुरीमें होते हैं, तब [पश्चिममें] सुखावतीपुरीमें प्रातःकाल होता है। उस समय विश्वके नेत्रतुल्य भगवान् सूर्य विभापुरीमें अस्त होते हैं ॥ ६-७ ॥
मया प्रोक्तोऽमरावत्यां यथासौ वारितस्करः ।
तथा संयमनीं प्राप्य सुखां चैव विभां खगः ॥ ८
जिस प्रकार मैंने अमरावतीमें सूर्यको गतिको कहा है, उसी प्रकार ये सूर्य संयमनीको पाकर 'सुखा' तथा 'विभा'को भी प्राप्त करते हैं ॥ ८॥
यदापराह्नस्त्वाग्नेय्यां पूर्वाह्रो नैर्ऋते द्विजाः।
तदा त्वपररात्रश्च वायुभागे सुदारुणः ॥ ९
ईशान्यां पूर्वरात्रस्तु गतिरेषा च सर्वतः।
एवं पुष्करमध्ये तु यदा सर्पति वारिपः ॥ १०
त्रिंशांशकं तु मेदिन्यां मुहूर्तेनैव गच्छति।
योजनानां मुहूर्तस्य इमां सङ्ङ्ख्यां निबोधत ॥ ११
हे द्विजो! जब आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) भागमें अपराह्न होता है, तब नैर्ऋत (दक्षिण-पश्चिम) भागमें पूर्वाह्न, उस समय वायव्य (उत्तर-पश्चिम) भागमें भयानक रात्रिका उत्तरार्ध और उत्तर-पूर्व भागमें रात्रिका प्रथम काल होता है। सब प्रकारसे यही गति होती है। इसी प्रकार जब जलको सोखनेवाले सूर्य आकाशके मध्यमें संचरण करते हैं, तब वे एक मुहूर्तमें पृथ्वीपर तीस अंश चलते हैं। एक मुहूर्तमें सूर्यके द्वारा पार की गयी दूरीको योजनपरिमाणमें सुनिये ॥ ९-११॥
पूर्णा शतसहस्त्राणामेकत्रिंशत्तु सा स्मृता।
पञ्चाशच्च तथान्यानि सहस्त्राण्यधिकानि तु ॥ १२
मौहूर्तिकी गतिर्दोषा भास्करस्य महात्मनः ।
एतेन गतियोगेन यदा काष्ठां तु दक्षिणाम् ॥ १३
पर्यपृच्छेत्पतङ्गोऽपि सौम्याशां चोत्तरेऽहनि ।
मध्ये तु पुष्करस्याथ भ्रमते दक्षिणायने ॥ १४
मानसोत्तरशैले तु महातेजा विभावसुः ।
मण्डलानां शतं पूर्णं तदशीत्यधिकं विभुः ॥ १५
बाह्यं चाभ्यन्तरं प्रोक्तमुत्तरायणदक्षिणे।
प्रत्यहं चरते तानि सूर्यो वै मण्डलानि तु ॥ १६
कुलालचक्रपर्यन्तो यथा शीघ्रं प्रवर्तते।
दक्षिणप्रक्रमे देवस्तथा शीघ्रं प्रवर्तते ॥ १७
तस्मात्प्रकृष्टां भूमिं तु कालेनाल्पेन गच्छति।
सूर्यो द्वादशभिः शीघ्रं मुहूर्तेर्दक्षिणायने ॥ १८
त्रयोदशार्थमृक्षाणामह्वा तु चरते रविः।
मुहूर्तस्तावदृक्षाणि नक्तमष्टादशैश्चरन् ॥ १९
वह संख्या इकतीस लाख पचास हजार योजन कही गयी है। यह महात्मा भास्करकी एक मुहूर्तकी गति है। जब सूर्य इस गतिसे दक्षिण दिशाकी ओर जाते हैं, तब [वहाँ छः माह भ्रमण करनेके बाद] पुनः उत्तरायणकालमें उत्तर दिशाकी ओर लौटते हैं। दक्षिणायनके समय महातेजस्वी सूर्य मानसोत्तर पर्वतपर पुष्करके मध्य भ्रमण करते हैं। वे सूर्य एक सौ अस्सी मण्डलसे गुजरते हैं। उत्तरायण तथा दक्षिणायनको बाड़ा एवं आभ्यन्तर कहा गया है। सूर्य प्रतिदिन उन्हों मण्डलोंपर भ्रमण करते हैं। जैसे कुम्हारके चाकका बाहरी भाग शीघ्रतापूर्वक चारों ओर घूमता है, वैसे ही सूर्यदेव दक्षिणायनमें तेजीसे भ्रमण करते हैं। इसलिये वे थोड़े समयमें ही [अपेक्षाकृत अधिक भूमिपर पहुँचते हैं। दक्षिणायनमें सूर्य मात्र बारह मुहूर्तीमें शीघ्रतापूर्वक दिनमें साढ़े तेरह नक्षत्र चलते हैं, जबकि रात्रिमें अठारह मुहूर्तीमें उतनी ही नक्षत्रकी दूरीको तय करते हैं॥ १२-१९॥
कुलालचक्रमध्यं तु यथा मन्दं प्रसर्पति।
तथोदगयने सूर्यः सर्पते मन्दविक्रमः ॥ २०
तस्माद्दीर्घेण कालेन भूमिमल्यां तु गच्छति।
स रथोऽधिष्ठितो भानोरादित्यैर्मुनिभिस्तथा ।। २१
गन्धर्वैरप्सरोभिश्च ग्रामणीसर्पराक्षसैः ।
प्रदीपयन् सहस्त्रांशुरग्रतः पृष्ठतोऽप्यधः ॥ २२
ऊर्ध्वतश्च करं त्यक्त्वा सभां ब्राह्मीमनुत्तमाम् ।
अम्भोभिर्मुनिभिस्त्यक्तैः सन्ध्यायां तु निशाचरान् ॥ २३
जैसे कुम्हारके चाकका मध्यभाग मन्द गतिसे चलता है, उसी प्रकार सूर्य उत्तरायणमें मन्दगतिसे भ्रमण करते हैं। इसलिये वे अधिक समयमें थोड़ी भूमिपर पहुँचते हैं। सूर्यका वह रथ आदित्यों, मुनियों, गन्धवों, अप्सराओं, ग्रामणियों, सर्पों तथा राक्षसोंसे अधिष्ठित रहता है। हजार किरणोंवाले वे सूर्य आगेसे, पीछेसे, नीचेसे तथा ऊपरसे किरण छोड़कर ब्रह्माकी अत्युत्तम सभाको प्रकाशित करते हुए सन्ध्या-वन्दनके समय मुनियों तथा ब्राह्मणोंके द्वारा [अध्यहेतु] छोड़े गये जलसे पास आनेवाले राक्षसोंको मार-मारकर आगे बढ़ते रहते हैं॥ २०-२३॥
हत्वा हत्वा तु सम्प्राप्तान् ब्राह्मणैश्चरते रविः ।
अष्टादश मुहूर्त तु उत्तरायणपश्चिमम् ॥ २४
अहर्भवति तच्चापि चरते मन्दविक्रमः।
त्रयोदशार्धमृक्षाणि नक्तं द्वादशभी रविः।
मुहूर्तस्तावदृक्षाणि दिवाष्टादशभिश्चरन् ॥ २५
उत्तरायणके पश्चिम भागमें दिन अठारह मुहूर्तका होता है, उस समय सूर्य मन्दगतिवाले होकर चलते हैं। सूर्य रात्तमें बारह मुहूर्तमें साढ़े तेरह नक्षत्रदूरीको तय करते हैं और दिनमें चलते हुए वे उतनी ही नक्षत्रकी दूरी अठारह मुहूतोंमें तय करते हैं॥ २४-२५॥
ततो मन्दतरं नाभ्यां चक्रं भ्रमति वै यथा।
मृत्पिण्ड इव मध्यस्थो ध्रुवो भ्रमति वै तथा ॥ २६
त्रिंशन्मुहूर्तरेवाहु रहो रात्रे पुराविद:।
उभयोः काष्ठयोरमध्ये भ्रमतो मण्डलानि तु॥ २७
कुलालचक्रनाभिस्तु यथा तत्रैव वर्तते।
औत्तानपादो भ्रमति ग्रहै: सार्ध ग्रहाग्रणी:॥ २८
गणों मुनिज्योतिषां तु मनसा तस्य सर्पति।
अधिष्ठितः पुनस्तेन भानुस्त्वादाय तिष्ठति॥ २९
किरणै: सर्वतस्तोयं देवों वै ससमीरण:।
औत्तानपादस्य सदा श्रुवत्वं वे प्रसादत:॥ ३०
जिस प्रकार नाभिमें चक्र अधिक मन्द गतिसे घूमता है, उसी प्रकार [चक्रके मध्यस्थित] मिट्टीके पिण्डको भाँति मध्यमें स्थित श्रुव घूमता है। प्राचीन विद्याके वेत्ता कहते हैं कि दिन और रात [मिलकर] तीस मुहूर्तके बराबर होते हैं। दोनों दिशाओंके बीचमें मण्डलोंमें सूर्य घूमता है। जैसे कुलालचक्रकी नाभि उसी स्थानपर रहती है और घूमती है, उसी प्रकार ग्रहोंमें श्रेष्ठ ध्रुव भी ग्रहोंके साथ घूमते हैं। मुनियों तथा नक्षत्रोंका समूह उसीके मनके अनुसार चलता है। उसी [ ध्रुव ]-के द्वारा अधिष्ठित सूर्यदेव वायुके साथ सभी ओरसे अपनी किरणोंके द्वारा जल ग्रहण करते हैं। उत्तानपादके पुत्रको ध्रुवषद भगवान् विष्णुकी कृपासे सुलभ हुआ और ध्रुवने इसे अपने पिताके कारण प्राप्त किया था॥ २६--३०॥
विष्णोरौत्तानपादेन चाप्तं॑ तातस्य हेतुना।
आप: पीतास्तु सूर्येण क्रमन्ते शशिन: क्रमात्॥ ३९
निशाकरान्निसत्रवन्ते जीमूतान् प्रत्यप: क्रमात्।
व॒न्दं जलमुचां चैव श्वसनेनाभिताडितम्॥ ३२
क्ष्मायां वृष्टिं विसजते5भासयत्तेन भास्कर: ।
तोयस्य नास्ति वे नाश: तदैव परिवर्तते॥ ३३
हिताय सर्वजन्तूनां गति: शर्वेण निर्मिता।
भूर्भुवः स्वस्तथा ह्यापो हान्नं॑ चामृतमेव च।॥ ३४
प्राणा वे जगतामापो भूतानि भुवनानि च।
बहुनात्र किमुक्तेन चराचरमिंदं जगतू॥ ३५
अपां शिवस्य भगवानाधिपत्ये व्यवस्थित: ।
अपां त्वधिपतिर्देवों भव इत्येव कीर्तित:॥ ३६
भवात्मक॑ जगत्सर्वमिति किं चेह चाद्भधुतम्।
नारायणत्वं देवस्य हरेश्चाद्धि: कृतं विभोः।
जगतामालयो विष्णुस्त्वापस्तस्थालयानि तु॥ ३७
सूर्यके द्वारा ग्रहण किया गया वह जल क्रमसे चन्द्रमाको प्राप्त होता है और पुन: वह जल चन्द्रमासे मेघोंको प्राप्त होता है। इसके बाद वायुद्वारा आघात करनेपर मेघोंका समूह पृथ्वीपर वृष्टि करता है। सूर्य सबको भासित करते हैं, इसलिये वे भास्कर [नामवाले] हैं। जलका कभी नाश नहीं होता, वही जल पुनः परिवर्तित हो जाता है। भगवान् शिवने सभी प्राणियोंके कल्याणके लिये जलकी इस गतिका निर्माण किया है। जल ही भू:, भुव:, स्व:, अन्न तथा अमृत है। जल सभी लोकोंका प्राण है। अधिक कहनेसे क्या लाभ-सभी प्राणी, समस्त भुवन एवं यह चराचर जगत् जलसे बना हुआ है। भगवान् भी शिवरूपी जलके आधिपत्यमें व्यवस्थित हैं। भगवान् शिव जलके अधिपति कहे गये हैं। यह सम्पूर्ण जगत् शिवमय है--इसमें आश्चर्य क्या है ? सर्वव्यापी विष्णुदेवको नारायणपद जलसे ही प्राप्त हुआ है। विष्णु सम्पूर्ण जगत्के निवासस्थान हैं और जल उनका निवासस्थान है॥ ३१--३७॥
दन्दहामानेषु चराचरेषु गोधूमभूतास्त्वथ निष्क्रमन्ति।
या या ऊर्ध्व॑मारुतेनेरिता वे तास्तास्त्वभ्राण्यग्निना वायुना च॥ ३८
अतो धूमाग्निवातानां संयोगस्त्वभ्रमुच्यते।
वारीणि वर्षतीत्यभ्रमभ्रस्येशः सहस्रदूक्॥ ३९
चराचर समस्त प्राणियोंके वायुद्वारा उत्तेजित अग्निसे जल जानेपर धुएके रूपमें जो-जो निकलता है और वायुद्वारा ऊपर ले जाया जाता है, उन्हींको अभ्र कहा गया है। अतः धूम, अग्नि तथा वायुके संयोगको अभ्र कहा जाता है। जो जलकी वर्षा करता है, वह अभ्र है। हजार नेत्रोंवाले इन्द्र अभ्रके स्वामी हैं॥३८-३९॥
यज्ञधूमोद्धवं॑ चापि द्विजानां हितकृत्सदा।
दावाग्निधूमसम्भूतमभ्रं वनहित॑ स्मृतम्॥ ४०
मृतधूमोद्धवं॑ त्वभ्रमशुभाय भविष्यति।
अभिचाराग्निधूमोत्थं भूतनाशाय वे द्विजा:॥ ४१
एवं धूमविशेषेण जगतां वै हिताहितम्।
तस्मादाच्छादयेद्धूममभिचारकृतं नरः ॥ ४२
अनाच्छाद्य द्विज: कुर्याद्धूमं यश्चाभिचारिकम्।
एवमुद्दिश्य लोकस्य क्षयकृच्च भविष्यति॥ ४३
यज्ञके धुएँसे उत्पन्न अभ्र (मेघ) सदा द्विजोंका हित करनेवाला होता है और दावानलके धूमसे उत्पन्न अभ्र वनके लिये हितकर कहा गया है। मृत प्राणियोंके जलानेपर उठे हुए धूमसे उत्पन्न अभ्र अशुभके लिये होता है और हे द्विजो! अभिचाराग्निके धूमसे उत्पन अभ्न प्राणियोंक नाशके लिये होता है। इस प्रकार अलग-अलग धूमोंसे संसारका हित तथा अहित होता है। अत: मनुष्यको चाहिये कि अभिचारकर्मसे उत्पन्न धूमको ढँक दे। यदि कोई द्विज धूमको ढँके बिना अभिचारकर्म करता है, तो यह संसारके विनाशका कारण हो जाता है ॥४०--४३ ॥
अपां निधानं जीमूताः षण्मासानिह सुब्रता:।
वर्षयन्येव जगतां हिताय पवनाज्ञया॥ ४४
स्तनितं चेह वायव्यं वैद्युतं पावकोद्धवम्।
त्रिधा तेषामिहोत्पत्तिरभ्राणां मुनिपुड्गरवा:॥ ४५
न भ्रश्यन्ति यतोभ्राणि मेहनान्मेघ उच्यते।
काष्ठा वाह्नाश्च वैरिंच्या: पक्चाएचेव पृथग्विधा: ॥ ४६
आज्यानां काष्ठसंयोगादम्नेर्धूम: प्रवर्तित:।
द्वितीयानां च॒ सम्भूतिर्विरिज्चोच्छास वायुना॥ ४७
भूभृतां त्वथ पक्षेस्तु मघवच्छेदितैस्तत:।
वह्वेयास्त्वथ जीमूतास्त्वावहस्थानगा: शुभा: ॥ ४८
विरिज्चोच्छासजा: सर्वे प्रवहस्कन्धजास्तत:।
पक्षजा: पुष्कराद्याश्च वर्षन्ति च यदा जलम्॥ ४९
मूकाः सशब्ददुष्टाशास्त्वेतै: कृत्यं यथाक्रमम्॥
क्षामवृष्टिप्रदा दीर्घकाल॑ शीतसमीरिण: ॥ ५०
जीवकाशएच तथा क्षीणा विद्युद्ध्वनिविवर्जिता: ।
तिष्ठन्त्याक्रोशमात्र॑ तु धरापृष्ठादितस्तत: ॥ ५१
अर्धक्रोशे तु सर्वे वे जीमूता गिरिवासिन:।
मेघा योजनमात्र तु साध्यत्वाद्वहुतोयदा: ॥५२
धरापृष्ठाद द्विजा: क्ष्मायां विद्युदुगुणसमन्विता: ।
तेषां तेषां वृष्टिसर्ग त्रेधा कथितमत्र तु॥ ५३
हे सुत्रतो! जलके भण्डारस्वरूप मेघ वायुकी आज्ञासे जगत्के हितके लिये इस लोकमें छ: महीने वृष्टि करते हैं । मेघका गर्जन वायुके द्वारा, विद्युतके द्वारा तथा अग्निके द्वारा होता है। हे मुनिश्रेष्ठो। उन मेघोंकी उत्पत्ति तीन प्रकारसे होती है। 'अभ्र' शब्दका अर्थ है “जो नष्ट नहीं होता है।' 'मेहन' शब्दसे 'मेघ' व्युत्पनन कहा गया है। काष्ठ, वाहन, वैरिंच्य तथा पक्ष--ये विभिन्न प्रकारके मेघ होते हैं। घृतका काष्ठसे संयोग होनेपर अग्निसे जो धूम निकलता है, उससे प्रथम प्रकारका मेघ बनता है। दूसरे प्रकारके मेघकी उत्तपत्ति ब्रह्माकी श्वासवायुसे होती है। इन्द्रके द्वारा पर्वतोंके काटे गये पक्षोंसे तीसरे प्रकारके मेघ उत्पन्न होते हैं। अग्निसे उत्पन्न मेघ शुभ होते हैं और वे आवह नामक वायुके स्थानमें जाते हैं। ब्रह्माके श्वाससे उत्पन्न सभी मेघ प्रवह नामक वायुके स्कन्धपर रहते हैं। पुष्कर आदि मेघ पक्षसे उत्पन्न होते हैं। ये जब बरसते हैं तब क्रमसे शान्त, ध्वनि करनेवाले तथा विनाशकारी होते हैं; इनके द्वारा यथाक्रम यह कृत्य होता है। कुछ मेघ अल्प वृष्टि करनेवाले होते हैं और कुछ मेघ दीर्घ कालतक शीतल वायुवाले होते हैं। कुछ मेघ जीवक होते हैं। कुछ मेघ क्षीण होते हैं और वे विद्युत् तथा ध्वनिसे रहित होते हैं। कुछ मेघ पृथ्वीतलसे एक कोसके भीतर आकाशमें इधर-उधर रहते हैं। पर्वतपर रहनेवाले सभी मेघ आधे कोसकी दूरीमें होते हैं। हे द्विजो! पृथ्वीतलसे योजन-मात्रकी दूरीवाले विद्युत्युक्त मेघ साध्य होनेके कारण पृथ्वीपर अधिक जलवृष्टि करनेवाले होते हैं। उन मेघोंका तीन प्रकारका वृष्टिसर्ग बता दिया गया॥ ४४--५३॥
पक्षजा: कल्पजा: सर्वे पर्वतानां महत्तमा:।
कल्पान्ते ते च वर्षन्ति रात्रो नाशाय शारदा: ॥ ५४
पक्षजा: पुष्कराद्याश्च वर्षन्ति च यदा जलम्।
तदार्णवमभूत्सर्व॑तत्र शेते निशीकश्वर:॥ ५५
आग्नेयानां शवासजानां पक्षजानां द्विजर्षभा: ।
जलदानां सदा धूमो ह्याप्यायन इति स्मृत:॥ ५६
पर्वतोंके [कटे हुए] पक्षोंसे उत्पन्न मेघ कल्पज होते हैं और वे अति महान् होते हैं। वे कल्पके अन्तमें विनाशके लिये रात्रिमें बरसते हैं। पुष्कर आदि पक्षजनित मेघ जब बरसते हैं, तब सम्पूर्ण जगत् सागरमय हो जाता है और उसमें भगवान् रातमें शयन करते हैं। हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो। अग्निसे उत्पन्न, [ब्रह्माके] श्वाससे उत्पन्न तथा [कटे हुए पर्वतोंके] पक्षसे उत्पन्न मेघोंका धूम सदा आप्यायन कहा गया है॥ ५४--५६॥
पौण्ड्रास्तु वृष्टय: सर्वा वेद्युता: शीतसस्यदा:।
पुण्ड्देशेषु पतिता नागानां शीकरा हिमा:॥ ५७
गाड् गड्ढाम्बुसम्भूता पर्जन्येन परावहैः।
नगानां च नदीनां च दिग्गजानां समाकुलम्॥ ५८
मेघानां च पृथग्भूतं जलं प्रायादगादगम्।
परावहो यः: एवसनशएचानयत्यम्बिकागुरुम्॥ ५९
मेनापतिमतिक्रम्य वृष्टिशेषं द्विजा: परम्।
अभ्येति भारते वर्ष त्वपरान्तविवृद्धये।॥ ६०
समस्त पौण्ड् (पुण्ड़ देशमें होनेवाली) वृष्टि विद्युन्मय, शीतल तथा अन्न प्रदान करनेवाली होती है। पुण्ड्र देशके मेघ बर्फके समान शीतल होते हैं और वे हाथीके सूँडसे गिरते हुए जलके छिड़कावकी भाँति प्रतीत होते हैं । गांग नामक मेघ गंगाके जलसे उत्पन्न होते हैं। ये परावहसंज्ञक वायुद्वारा पर्वतों, नदियों और दिग्गजोंको व्याकुल कर देते हैं मेघोंसे अलग हुआ जल एक पर्वतसे दूसरे पर्वतपर पहुँचता है। परावह नामक जो वायु है, वह मेघोंको हिमालय (अम्बिकागुरु) पर्वतकी ओर ले जाती है। हे द्विजो ! पुन: मेनापति हिमालयसे आगे बढ़कर ये मेघ समुद्रके मध्य देशोंकों वृद्धिके लिये भारतवर्षमें भारी वर्षा करते हैं॥ ५७--६० ॥
वृष्टय: कथिता हाद्य द्विधा वस्तुविवृद्धये।
सस्यद्वयस्यथ सड्श्षेपात्प्रन्रवामि यथामति॥ ६१
स्रष्टा भानुर्महातेजा वृष्टीनां विश्वदृग्विभु:।
सोउपि साक्षाद् द्विजश्रेष्ठाश्चेशान: परम: शिव: ॥ ६२
स एव तेजस्त्वोजस्तु बल॑ विप्रा यशः स्वयम्।
चक्षु: श्रोत्रं मनो मृत्युरात्मा मन्युर्विदिग्दिश: ॥ ६३
सत्यं ऋतं तथा वायुरम्बरं खचरश्च सः।
लोकपालो हरिब्रेह्मा रुद्र: साक्षान्महेश्वरः॥ ६४
सहस्रकिरण: श्रीमानष्टहस्त: सुमड्भलः।
अर्धनारीवपु: साक्षात्रिनेत्रस्त्रिदशाधिपः ॥ ६५
वस्तुओंकी वृद्धिके लिये होनेवाली वृष्टियाँ दो प्रकारकी कही गयी हैं। में बुद्धिके अनुसार उन दोनोंका संक्षेपमें वर्णन करता हूँ। संसारके नेत्रस्वरूप महातेजस्वी भगवान् सूर्य वृष्टियोंका सृजन करनेवाले हैं। हे द्विजश्रेष्ठो ! वे भी साक्षात् ईशान परमेश्वर शिव ही हैं। हे विप्रो! वे ही तेज, ओज, बल, यश, नेत्र, श्रोत्र, मन, मृत्यु, आत्मा, मन्यु (क्रोध), दिशाएँ और विदिशाएँ हैं। वे ही सत्य, ऋत, वायु, आकाश, ग्रह, लोकपाल, विष्णु, ब्रह्मा, रुद्र तथा साक्षात् महेश्वर हैं। वे हजार किरणोंवाले, श्रीमान, आठ भुजाओंवाले, परम कल्याणकारी, अर्धनारीश्वर, तीन नेत्रोंवाले तथा देवताओंके अधिपति हैं ॥ ६१--६५ ॥
अस्यैवेह प्रसादात्तु वृष्टिर्नानाभवद् द्विजाः ।
सहस्त्रगुणमुत्त्रष्टुमादत्ते किरणैर्जलम् ॥ ६६
जलस्य नाशो वृद्धिर्वा नास्त्येवास्य विचारतः ।
ध्रुवेणाधिष्ठितो वायुर्वृष्टिं संहरते पुनः। ६७
ग्रहान्निःसृत्य सूर्यात्तु कृत्स्ने नक्षत्रमण्डले।
चारस्यान्ते विशत्यर्के ध्रुवेण समधिष्ठिता ।। ६८
हे द्विजो। इन्हींकी कृपासे नाना प्रकारकी वृष्टि होते है। ये हजार गुना जल देनेके लिये अपनी किरणोंसे जल ग्रहण करते हैं। विचारपूर्वक देखा जाय तो इस जलका नाश अथवा वृद्धि होती ही नहीं। ध्रुवके द्वारा अधिष्ठित वायु वृष्टिका पुनः हरण कर लेती है। तदनन्तर यह सूर्यग्रहसे निकलकर सम्पूर्ण नक्षत्रमण्डलमें फैलती है। उसके बाद ध्रुवके द्वारा अधिष्ठित यह वृद्धि पुनः सूर्यमें प्रवेश करती है ॥ ६६-६८॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे ज्योतिश्चक्के सूर्यगत्यादिकथनं नाम वतुः पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५४ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'ज्योतिश्चक्रमें सूर्यगत्यादिकथन' नामक चौवनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥५४॥
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