लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] एक सौ आठवाँ अध्याय
भगवान् श्रीकृष्ण का गुरु उपमन्यु के आश्रम में जाना और उनसे पाशुपतज्ञान प्राप्त करना तथा पाशुपतब्रत का माहात्म्य
ऋषव ऊच्
दृष्टोडइसौ वासुदेवेन कृष्णेनाक्लिष्टकर्मणा।
धौम्याग्रजस्ततो लब्धं दिव्यं पाशुपतं व्रतम्॥ १
कथ॑ लब्धं तदा ज्ञानं तस्मात्कृष्णेन धीमता।
वक्तुमहसि तां सूत कथां पातकनाशिनीम्॥ २
ऋषिगण बोले--अक्लिष्ट कर्मवाले वार्सव' श्रीकृष्णने धौम्यके ज्येष्ठ भ्राता [उपमन्यु]-कीं दर्शी किया था और उनसे दिव्य पाशुपतक्रत ग्रहण किया हे सूतजी! बुद्धिमान् श्रीकृष्णने उनसे यहें ज्ञान कैंत प्राप्त किया; उस पापनाशिनी कथाको बतानेकी कृपा कोजिये॥ १-२॥
सूत उवाच
स्वेच्छ्या ह्यवतीर्णोऽपि वासुदेवः सनातनः।
निन्दयन्नेव मानुष्यं देहशुद्धिं चकार सः ॥ ३
पुत्रार्थ भगवांस्तत्र तपस्तप्तुं जगाम च।
आश्रमं चोपमन्योर्वै दृष्टवांस्तत्र तं मुनिम् ॥ ४
नमश्चकार तं दृष्ट्वा धौम्याग्रजमहो द्विजाः।
बहुमानेन वै कृष्णस्त्रिः कृत्वा वै प्रदक्षिणम् ॥ ५
सूतजी बोले--[हे ऋषियो!] सनातन वासुदेव अपनी इच्छासे अवतीर्ण हुए थे, फिर भी उन्होंने मानवरूपको निनन्दा करते हुए देहशुद्धि की थी॥३॥ भगवान् [श्रीकृष्ण] पुत्रप्राप्तहितु तप करनेके लिये उपमन्युके आश्रममें गये और उन्होंने वहाँ उन मुनिका दर्शन किया। हे द्विजो! उन धौम्याग्रजको देखकर अत्यन्त सम्मानके साथ उनकी तीन बार
प्रदक्षिणा करके श्रीकृष्णने उन्हें नमस्कार किया॥ ४-५॥
तस्यावलोकनादेव मुनेः कृष्णस्य धीमतः ।
नष्टमेव मलं सर्व कायजं कर्मजं तथा ॥ ६
भस्मनोद्धूलनं कृत्वा उपमन्युर्महाद्युतिः ।
तमग्निरिति विप्रेन्द्रा वायुरित्यादिभिः क्रमात् ॥ ७
दिव्यं पाशुपतं ज्ञानं प्रददौ प्रीतमानसः ।
मुनेः प्रसादान्मान्योऽसौ कृष्णः पाशुपते द्विजाः ॥ ८
तपसा त्वेकवर्षान्ते दृष्ट्वा देवं महेश्वरम्।
साम्बं सगणमव्यग्रं लब्धवान् पुत्रमात्मनः ॥ ९
तदाप्रभृति तं कृष्णं मुनयः संशितव्रताः ।
दिव्याः पाशुपताः सर्वे तस्थुः संवृत्य सर्वदा ॥ १०
उन मुनिके अवलोकनमात्रसे बुद्धिमान् श्रीकृष्णका सम्पूर्ण देहजनित तथा कर्मजनित मल नष्ट हो गया हे विप्रेन्दों! महातेजस्वी उपमन्युने भस्मोद्धूलन करके प्रसन्नचित्त होकर क्रमसे अग्नि, वायु आदि मन्त्रोंके द्वारा उन्हें दिव्य पाशुपत ज्ञान प्रदान किया हे द्विजो! मुनिकी कृपासे वे श्रीकृष्ण पाशुपतक्रतमें मान्य हो गये। [अपनी] तपस्यासे एक वर्षके अन्तमें पार्वती तथा गणोंसहित अव्यग्र देव महेश्वरका दर्शन करके उन्होंने अपना पुत्र प्राप्त किया। उसी समयसे प्रशस्त ब्रतवाले दिव्य मुनिगण तथा पशुपतिके सभी भक्त सदा उन कृष्णको घेरकर स्थित रहने लगे॥ ६--१०॥
अन्यं च कथयिष्यामि मुक्त्यर्थं प्राणिनां सदा।
सौवर्णी मेखलां कृत्वा आधारं दण्डधारणम् ॥ ११
सौवर्ण पिण्डिकं चापि व्यजनं दण्डमेव च।
नरैः स्त्रियाथ वा कार्य मषीभाजनलेखनीम् ॥ १२
क्षुराकर्त्तरिका चापि अथ पात्रमथापि वा।
पाशुपताय दातव्यं भस्मोद्धूलितविग्रहैः ॥ १३
सौवर्ण राजतं वापि ताम्र वाथ निवेदयेत्।
आत्मवित्तानुसारेण योगिनं पूजयेद् बुधः ॥ १४
[हे ऋषियो!] सदा सभी प्राणियोंकी मुक्तिके लिये मैं अन्य व्रतको भी बताऊँगा। सुवर्णमयी मेखला (परिनालिका) बनाकर उसके आधार, दण्डधारण (जलनिवारक बाहरी भाग), पिण्डिक (लिङ्ग), व्यवन, दीक्षादण्ड यह सब सोनेका बनाना चाहिये; साथ ही मषीपात्रयुक्त लेखनी, छुरी सहित कैंची तथा जलपात्र भी स्वर्णमय बनाकर इन सभी सामग्रियोंको भस्मसे उद्भूलित शरीरवाले पुरुषोंके द्वारा या स्त्रीके द्वारा किसी पशुपति- भक्तको दे दिया जाना चाहिये। बुद्धिमान् व्यक्तिको चाहिये कि अपने धन सामर्थ्यके अनुसार सोने, चाँदी अथवा ताँबेकी ही सामग्री समर्पित करे और उस योगीकी पूजा करे ॥ ११-१४॥
ते सर्वे पापनिर्मुक्ताः समस्तकुलसंयुताः ।
यान्ति रुद्रपदं दिव्यं नात्र कार्या विचारणा ॥ १५
तस्मादनेन दानेन गृहस्थो मुच्यते भवात्।
योगिनां सम्प्रदानेन शिवः क्षिप्रं प्रसीदति ॥ १६
राज्यं पुत्रं धनं भव्यमश्वं यानमथापि वा।
सर्वस्वं वापि दातव्यं यदीच्छेन्मोक्षमुत्तमम् ॥ १७
अध्रुवेण शरीरेण ध्रुवं साध्यं प्रयत्नतः ।
भव्यं पाशुपतं नित्यं संसारार्णवतारकम् ॥ १८
एतद्वः कथितं सर्व सङ्क्षेपान्न च संशयः ।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि विष्णुलोकं स गच्छति ॥ १९
[ऐसा दान करनेवाले] वे सभीलोग सम्पूर्ण कुलसहित पापमुक्त होकर दिव्य रुद्रपदको जाते हैं; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये। अतः गृहस्थ इस दानके द्वारा संसार [चक्र] से छूट जाता है। योगियोंके लिये यह दान करनेसे शिव शीघ्र ही प्रसन्न होते हैं। यदि कोई उत्तम मोक्ष चाहता हो, तो उसे भव्य राज्य पुत्र, धन, अश्व, यान- यहाँतक कि सर्वस्वका दान कर देना चाहिये। [इस] अनित्य शरीरसे भव्य, नित्य (शाश्वत) तथा संसार सागरसे पार करनेवाले पाशुपतव्रतको प्रयत्नपूर्वक अवश्य सिद्ध करना चाहिये [हे ऋषियो!] मैंने संक्षेपमें आपलोगोंको यह सब बता दिया। जो इसे पढ़ता है अथवा सुनता है, वह विष्णुलोकको जाता है; इसमें संशय नहीं है॥ १५-१९॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे पाशुपतव्रतमाहात्म्यवर्णनं नामाष्टोत्तरशततमोऽध्यायः ॥ १०८ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराण के अन्तर्गत पूर्वभाग में 'पाशुपतव्रतमाहात्म्य वर्णन' नामक एक सौ आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १०८ ॥
॥ समाप्तश्चायं पूर्वभागः ॥ ॥ श्रीलिङ्गमहापुराणका पूर्वभाग पूर्ण हुआ ।।
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