लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] छियासीवाँ अध्याय
पाशुपत योग ज्ञान का स्वरूप तथा उसकी महिमा
ऋषय ऊचुः
जपाच्छ्रेष्ठतमं प्राहुर्ब्रह्मणा दग्धकिल्विषाः ।
विरक्तानां प्रबुद्धानां ध्यानयज्ञं सुशोभनम् ॥ १
तस्माद्वदस्व सूताद्य ध्यानयज्ञमशेषतः ।
विस्तरात्सर्वयत्नेन विरक्तानां महात्मनाम् ॥ २
ऋषिगण बोले- दग्ध पापवाले ब्राह्मणोंने विरक्त ज्ञानियोंके उत्तम ध्यानयज्ञको जपसे श्रेष्ठ कहा है; अतः हे सूतजी। अब आप विरक्त महात्माओंके ध्यानयज्ञ के विषयमें पूर्णरूपसे विस्तारपूर्वक पूर्णप्रयत्नके साथ [हमलोगोंको] बताइये ॥ १-२ ॥
तेषां तद्वचनं श्रुत्वा मुनीनां दीर्घसत्रिणाम्।
रुद्रेण कथितं प्राह गुहां प्राप्य महात्मनाम् ॥ ३
संहृत्य कालकूटाख्यं विषं वै विश्वकर्मणा।
सूत उवाच
गुहां प्राप्य सुखासीनं भवान्या सह शङ्करम् ॥ ४
मुनयः संशितात्मानः प्रणेमुस्तं गुहाश्रयम्।
अस्तुवंश्च ततः सर्वे नीलकण्ठमुमापतिम् ॥ ५
अत्युग्रं कालकूटाख्यं संहृतं भगवंस्त्वया।
अतः प्रतिष्ठितं सर्वं त्वया देव वृषध्वज ॥ ६
तेषां तद्वचनं श्रुत्वा भगवान्नीललोहितः ।
प्रहसन् प्राह विश्वात्मा सनन्दनपुरोगमान् ॥ ७
किमनेन द्विजश्रेष्ठा विषं वक्ष्ये सुदारुणम्।
संहरेत्तद्विषं यस्तु स समर्थो ह्यनेन किम् ॥ ८
न विषं कालकूटाख्यं संसारो विषमुच्यते।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन संहरेत सुदारुणम् ॥ ९
दीर्घ कालतक यज्ञ करनेवाले उन ऋषियोंका वचन सुनकर सूतजीने वह सारा वृत्तान्त कहा, जिसे विश्वकी रचना करनेवाले रुद्रने कालकूट नामक विषको निष्क्रिय करके [मेरुपर्वतकी] गुफामें आकर महात्माओंको बताया था सूत जी बोले- [हे ऋषियो!] गुफामें पहुँचकर पार्वतीके साथ सुखपूर्वक बैठे हुए उन शंकरको महात्मा मुनियोंने प्रणाम किया। उसके बाद उन सभीने गुफामें विराजमान उमापति [भगवान्] नीलकण्ठको स्तुति की और कहा- हे भगवन्! आपने अति भयंकर कालकूट नामक विषको निष्क्रिय कर दिया; अतः हे देव! हे वृषध्वज ! आपके द्वारा ही सब कुछ प्रतिष्ठित है उनका वह वचन सुनकर विश्वात्मा भगवान् नीललोहित सनन्दन आदि [मुनियों] से हँसते हुए कहने लगे हे श्रेष्ठ द्विजो। यह [विष] क्या है। मैं अति भयंकर विषके विषयमें बताऊँगा, जो इस [कालकूट] विषको भी निष्क्रिय कर देता है, वह [परम] समर्थ है; यह कालकूट विष कौन-सी चीज है। कालकूट नामक विष [ वास्तवमें] विष नहीं है, बल्कि संसार ही विष कहा जाता है। अतः पूर्ण प्रयत्नसे इस संसाररूपी अत्यन्त भीषण विषको नष्ट करना चाहिये अर्थात् संसारमें मिध्यात्वका भाव रखना चाहिये ॥ ३-९ ॥
संसारो द्विविधः प्रोक्तः स्वाधिकारानुरूपतः ।
पुंसां सम्मूढचित्तानामसङ्क्षीणः सुदारुणः ॥ १०
ईषणारागदोषेण सर्गों ज्ञानेन सुव्रताः।
तद्वशादेव सर्वेषां धर्माधर्मों न संशयः ॥ ११
अपने अधिकारके अनुसार यह संसार दो प्रकारका कहा गया है; मूढ़चित्तवाले मनुष्योंके लिये यह असंक्षीण (क्षय न होनेवाला) तथा अत्यन्त भयंकर है। हे सुव्रतो! यह सृष्टि इच्छा तथा रागजनित दोषके कारण है; इसका ज्ञान होनेपर संसार बाधित हो जाता है। उन्हीं (ईषणा और ज्ञान) के वशमें होनेसे ही सभी लोगोंकी धर्म तथा अधर्ममें प्रवृत्ति होती है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ १०-११ ॥
असनिनिकृष्टे त्वर्थडपि शास्त्र तच्छुवणात्सताम्।
बुद्धिमुत्पादयत्येव संसारे विदुषां द्विजा:॥ ९२
तस्माद् दृष्टानुश्रविकं दुष्टमित्युभयात्मकम्।
सन्त्यजेत्सर्ववत्नेन विरक्त: सो5भिधीयते॥ १३
शास्त्रमित्युच्यते5 भागं श्रुते: कर्मसु तद् द्विजा: ।
मूर्धान॑ ब्रह्मण: सार ऋषीणां कर्मण: फलम्॥ ९४
ननु स्वभाव: सर्वेषां कामो दृष्टो न चान्यथा।
श्रुति: प्रवर्तिका तेषामिति कर्मण्यतद्विद:॥ १५
निवृत्तिलक्षणो धर्म: समर्थानामिहोच्यते।
तस्मादज्ञानमूलो हि संसार: सर्वदेहिनाम्॥ १६
कला संशोषमायाति कर्मणान्यस्वभावतः।
सकलस्त्रिविधो जीवो ज्ञानहीनस्त्वविद्यया।॥ १७
है ब्राह्मणो! पारलौकिक पदार्थके प्रत्यक्ष न रहनेपर भी शास्त्रके द्वारा उसके विषयमें श्रवण कर लेनेसे उसमें सज्जनों तथा विद्वानोंकी प्रवृत्ति हो जाती है। अतः जो इहलौकिक तथा पारलौकिक-इन दोनों पदार्थोंको हेय समझकर पूर्ण प्रयत्नसे इनका परित्याग कर देता है; वह विरक्त कहा जाता है हे द्विजो! श्रुतिप्रतिपादित सकाम कर्मोंमें, जिसमें सबकी प्रवृत्ति है तथा वेदके मस्तकस्वरूप एवं मन्त्र- द्रष्टा ऋषियोंके सारस्वरूप निष्कामकर्मफलको प्रतिपादित करनेवाला जो अध्यात्मशास्त्र है, वही शास्त्र कहा जाता है जो श्रुतिके रहस्यको नहीं जानते हैं, वे ही ऐसा कहते हैं कि चूँकि सभी लोगोंका स्वभाव कामनामूलक दिखायी देता है, अतः श्रुति सकामकर्मकी ही प्रवर्तिका है वास्तविक रूपमें विरक्त जनोंके लिये निष्कामकर्मका प्रतिपादन करनेमें ही श्रुतिका तात्पर्य है, अतः सभी देहधारियोंके लिये संसार अज्ञानमूलक है। वेदोक्त निष्कामकर्मके द्वारा जीवभाव क्षीण होता है। अविद्यासे उत्पन्न जो अज्ञान है, उसके कारण सकामकर्मके वशीभूत तीन प्रकारका जीवभाव दृढ़ होता है॥ ९२-१७॥
नारकी पापकृत्स्वर्गी पुण्यकृत्पुण्यगौरवात्।
व्यतिमिश्रेण वै जीवश्चतुर्धा संव्यवस्थित: ॥ १८
उद्धिज: स्वेदजश्चैव अण्डजो वै जरायुज:।
एवं व्यवस्थितो देही कर्मणाज्ञों हानिर्वृतः॥ १९
प्रजया कर्मणा मुक्तिर्धनेन च सतां न हि।
त्यागेनैकेन मुक्ति: स्थात्तदभावाद् भ्रमत्यसौ॥ २०
एवमज्ञानदोषेण नानाकर्मवशेन च।
षट्कौशिकं समुद्धूतं भजत्येष कलेवरम्॥ २१
पापकर्म करनेवाला नारकी होता है, पुण्यकर्म करनेवाला अपने पुण्यकी महिमाके कारण स्वर्गी होता है और पाप-पुण्यकर्मके मिश्रणवाला जीव उद्भिज, स्वेदज, अण्डज तथा जरायुज-इन चार रूपोंमें व्यवस्थित होता है। इस प्रकारसे व्यवस्थित वह अज्ञानी जीव अपने कर्मके कारण [संसारचक्रसे] मुक्त नहीं हो पाता है सन्तान, कर्म तथा धनसे सज्जनोंकी मुक्ति नहीं होती है; एकमात्र त्यागके द्वारा ही मुक्ति प्राप्त होती है और उसके अभावके कारण यह जीव भ्रमण करता रहता है। इस प्रकार अज्ञानके दोषके कारण तथा अनेक कर्मोंके वशीभूत होनेके कारण यह जीव छः कोशों (स्नायु, अस्थि, मज्जा, त्वचा, मांस, रक्त) से निर्मित इस शरीरको धारण करता है॥ १८-२१॥
गर्भे दुःखान्यनेकानि योनिमार्गे च भूतले।
कौमारे यौवने चैव वार्धके मरणेऽपि वा ॥ २२
विचारतः सतां दुःखं स्त्रीसंसर्गादिभिर्द्विजाः ।
दुःखेनैकेन वै दुःखं प्रशाम्यन्तीह दुःखिनः ॥ २३
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्सव भूय एवाभिवर्धते ॥ २४
तस्माद्विचारतो नास्ति संयोगादपि वै नृणाम्।
अर्थानामर्जनेऽप्येवं पालने च व्यये तथा ॥ २५
पैशाचे राक्षसे दुःखं याक्षे चैव विचारतः।
गान्धर्वे च तथा चान्द्रे सौम्यलोके द्विजोत्तमाः ॥ २६
प्राजापत्ये तथा ब्राह्मे प्राकृते पौरुषे तथा।
क्षयसातिशयाद्यैस्तु दुःखैर्दुःखानि सुव्रताः ॥ २७
तानि भाग्यान्यशुद्धानि सन्त्यजेच्च धनानि च।
तस्मादष्टगुणं भोगं तथा षोडशधा स्थितम् ॥ २८
चतुर्विशत्प्रकारेण संस्थितं चापि सुव्रताः।
द्वात्रिंशद्भेदमनघाश्चत्वारिंशद्गुणं पुनः ॥ २९
तथाष्टचत्वारिंशच्च षट्पञ्चाशत्प्रकारतः ।
चतुःषष्टिविधं चैव दुःखमेव विवेकिनः ॥ ३०
गर्भमें, योनिमार्गमें, पृथ्वीतलपर, कुमारावस्थामें, युवावस्थामें, वृद्धावस्थामें और मृत्युके समय प्राणीको अनेक दुःख होते हैं। हे द्विजो! विचारपूर्वक देखा जाय तो स्वीसंसर्ग आदिसे ही सज्जनोंको दुःख उत्पन्न होता वे एक दुःखसे दूसरे दुःखको शान्त करना चाहते हैं और दुःखी होते रहते हैं। विषयोंके उपभोगसे कामकी शान्ति कभी नहीं होती है; जैसे हविसे अग्नि बढ़ती है, वैसे ही वह [वासना] निरन्तर बढ़ती ही जाती है अतः विचार किया जाय तो मनुष्योंको विषयोंके प्राप्त होनेपर भी सुख नहीं प्राप्त होता है। धनके अर्जनमें, उसकी सुरक्षा करनेमें तथा व्ययमें भी दुःख है। हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! विचार करनेपर देखा जाय, तो पिशाचलोक, राक्षसलोक, यक्षलोक, गन्धर्वलोक, चन्द्रलोक, बुधलोक, प्रजापतिलोक, ब्राह्मलोक और प्रकृतिलोक तथा पुरुषलोकमें भी भोगोंके नाशकी सम्भावनासे तथा एक-दूसरेसे श्रेष्ठ होनेके कारण ईर्ष्याजन्य दुःखोंसे वे भी दुःखी ही रहते हैं। अतः हे सुव्रतो! भाग्यसे प्राप्त अशुद्ध भोगों तथा अशुद्ध धनोंका त्याग कर देना चाहिये; हे सुव्रतो। चाहे वह भोग (सुख) आठ प्रकारका हो, अथवा सोलह प्रकारका हो, अथवा चौबीस प्रकारका हो, अथवा बत्तीस प्रकारका हो, अथवा चालीस प्रकारका हो, अथवा अड़तालीस प्रकारका हो, अथवा छप्पन प्रकारका हो अथवा चौंसठ प्रकारका हो, विवेकयुक्त व्यक्तिके लिये भोग दुःखरूप ही होता है ॥ २२-३० ॥
पार्थिवं च तथाप्यं च तैजसं च विचारतः ।
वायव्यं च तथा व्यौम मानसं च यथाक्रमम् ॥ ३१
आभिमानिकमप्येवं बौद्धं प्राकृतमेव च।
दुःखमेव न सन्देहो योगिनां ब्रह्मवादिनाम् ॥ ३२
गौणं गणेश्वराणां च दुःखमेव विचारतः ।
आदौ मध्ये तथा चान्ते सर्वलोकेषु सर्वदा ॥ ३३
वर्तमानानि दुःखानि भविष्याणि यथातथम्।
दोषदुष्टेषु देशेषु दुःखानि विविधानि च ॥ ३४
न भावयन्त्यतीतानि ह्यज्ञाने ज्ञानमानिनः ।
क्षुद्व्याधेः परिहारार्थं न सुखायान्नमुच्यते ॥ ३५
यथेतरेषां रोगाणामौषधं न सुखाय तत्।
शीतोष्णवातवर्षाद्यैस्तत्तत्कालेषु देहिनाम् ॥ ३६
विचार किया जाय तो पृथ्वीसम्बन्धी, जलसम्बन्धी अग्निसम्बन्धी, वायुसम्बन्धी, आकाशसम्बन्धी, मन सम्बन्धी, अहंकार सम्बन्धी, बुद्धिसम्बन्धी तथा प्रकृतिसम्बन्धी भोग भी ब्रह्मवादी योगियोंके लिये दुःख ही हैं; इसमें सन्देह नहीं है। विचारपूर्वक देखा जाय, तो गणेश्वरोंके गुण भी [वास्तवमें] दुःख ही हैं। समस्त लोकोंमें प्रारम्भ, मध्य तथा अन्तमें सर्वदा दुःख ही है। वास्तवमें वर्तमानमें भी दुःख है और भविष्यमें भी दुःख होंगे। दोषोंसे ग्रस्त सभी देशोंमें अनेक प्रकारके दुःख हैं; अपनेको ज्ञानी समझनेवाले [कुछ लोग] अज्ञानके कारण अतीतका स्मरण नहीं करते हैं। जिस प्रकार औषधि रोगोंके उपचारके लिये होती है; न कि सुखके लिये, उसी प्रकार आहारको भूखरूपी रोगको दूर करनेके लिये बताया गया है, न कि सुखके लिये। शीत, ताप, वायु, वर्षा आदिके द्वारा उन-उन कालोंमें शरीरधारियों को दुःख ही होता है, इसमें सन्देह नहीं है; किंतु अज्ञानी लोग इसे नहीं समझ पाते हैं॥ ३१-३६॥
दुःखमेव न सन्देहो न जानन्ति ह्यपण्डिताः ।
स्वर्गेऽप्येवं मुनिश्रेष्ठा ह्यविशुद्धक्षयादिभिः ॥ ३७
रोगैर्नानाविधैर्ग्रस्ता रागद्वेषभयादिभिः ।
छिन्नमूलतरुर्यद्वदवशः पतति क्षितौ ॥ ३८
पुण्यवृक्षक्षयात्तद्वद् गां पतन्ति दिवौकसः ।
दुःखाभिलाषनिष्ठानां दुःखभोगादिसम्पदाम् ॥ ३९
अस्मात्तु पततां दुःखं कष्टं स्वर्गाद्दिवौकसाम्।
नरके दुःखमेवात्र नरकाणां निषेवणात् ॥ ४०
विहिताकरणाच्चैव वर्णिनां मुनिपुङ्गवाः ॥ ४१
यथा मृगो मृत्युभयस्य भीतो उच्छिन्नवासो न लभेत निद्राम्।
एवं यतिर्थ्यांनपरो महात्मा संसारभीतो न लभेत निद्राम् ॥ ४२
कीटपक्षिमृगाणां च पशूनां गजवाजिनाम्।
दृष्टमेवासुखं तस्मात्त्यजतः सुखमुत्तमम् ॥ ४३
वैमानिकानामप्येवं दुःखं कल्पाधिकारिणाम्।
स्थानाभिमानिनां चैव मन्वादीनां च सुव्रताः ॥ ४४
देवानां चैव दैत्यानामन्योन्यविजिगीषया ।
दुःखमेव नृपाणां च राक्षसानां जगत्त्रये ॥ ४५
हे श्रेष्ठ मुनियो! इसी प्रकार स्वर्गमें भी लोग पुण्यके क्षय आदि दुःखोंसे तथा राग, द्वेष, भय आदि नानाविध रोगोंसे ग्रस्त होते हैं। जैसे जड़से कटा हुआ वृक्ष विवश होकर पृथ्वीपर गिर जाता है, वैसे ही स्वर्गमें रहनेवाले भी पुण्यरूपी वृक्षके क्षय होनेसे पृथ्वीपर पुनः आ जाते हैं। दुःखमय कामनाओंसे युक्त तथा दुःखमय भोगसम्पदासे परिपूर्ण स्वर्गवासी [देवताओं] को भी इस स्वर्गसे पतित होनेपर दुःख तथा कष्ट ही होता है। हे श्रेष्ठ मुनियो। शास्त्रोचित कर्मोंको न करनेसे विभिन्न वर्णके लोगोंको नरकोंमें पड़नेके कारण वहाँ दुःख ही भोगना पड़ता है जैसे उजड़े हुए निवासवाला मृग मृत्युसे भयभीत होकर निद्रा ग्रहण नहीं कर पाता, उसी प्रकार ध्यानपरायण महात्मा संन्यासी संसारसे भयभीत होकर निद्रा ग्रहण नहीं कर पाता अर्थात् प्रमादरहित होकर सर्वथा सजग रहता है कीटों, पक्षियों, मृगों, घोड़ा-हाथी आदि पशुओंमें भी [सर्वदा] दुःख ही देखा गया है; अतः भोगका त्याग करने वाले को उत्तम सुख प्राप्त होता है। हे सुव्रतो! वैमानिक देवताओं और कल्पोंके अधिकारी तथा अपने पदका अभिमान करनेवाले मनु आदिको भी दुःख प्राप्त होता है। तीनों लोकोंमें एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छाके कारण देवताओं तथा दैत्योंको और राजाओं तथा राक्षसोंको भी दुःख प्राप्त होता है ॥ ३७-४५ ॥
श्रमार्थमा श्रमश्चापि वर्णानां परमार्थतः ।
आश्रमैर्न च देवैश्च यज्ञः सांख्यैव्रतैस्तथा ॥ ४६
उग्रैस्तपोभिर्विविधैर्दानैर्नानाविधैरपि ।
न लभन्ते तथात्मानं लभन्ते ज्ञानिनः स्वयम् ॥ ४७
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन चरेत्पाशुपतव्रतम् ।
भस्मशायी भवेन्नित्यं व्रते पाशुपते बुधः ॥ ४८
पञ्चार्थज्ञानसम्पन्नः शिवतत्त्वे समाहितः ।
कैवल्यकरणं योगविधिकर्मच्छिदं बुधः ॥ ४९
वस्तुतः समस्त वर्षोंके आश्रम भी श्रमके कारण दुःख ही देते हैं। लोग आश्रमों, देवों, यज्ञों, सांख्यों, व्रतों, विविध कठोर तपों तथा अनेक प्रकारके दानोंसे भी आत्मतत्त्व नहीं प्राप्त करते; अपितु ज्ञानवान् लोग स्वतः प्राप्त कर लेते हैं, अतः पूर्ण प्रयत्नसे पाशुपतत्वत करना चाहिये। बुद्धिमान्को पाशुपतन्नतमें स्थित होकर नित्य भस्मशायी होना चाहिये। सद्योजातादि पाँच मन्त्रकि अर्थ-ज्ञानसे सम्पन्न तथा शिवतत्त्वमें समाहित बुद्धिमान् व्यक्तिको मुक्तिदायक तथा कर्मका नाश करनेवाले पाशुपत योगका आश्रय लेना चाहिये। पंचार्थयोगसे युक्त विद्वान् दुःखके अन्तको प्राप्त होता है॥ ४६-४९॥
पञ्चार्थयोगसम्पन्नो दुःखान्तं व्रजते सुधीः।
परया विद्यया वेहां विदन्त्यपरया न हि ॥५०
द्वे विद्ये वेदितव्ये हि परा चैवापरा तथा।
अपरा तत्र ऋग्वेदो यजुर्वेदो द्विजोत्तमाः ॥ ५१
सामवेदस्तथाधवों वेदः सर्वार्थसाधकः ।
शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्द एव च ॥ ५२
ज्योतिषं चापरा विद्या पराक्षरमिति स्थितम् ।
तददृश्यं तदग्राह्यमगोत्रं तदवर्णकम् ॥ ५३
तदचक्षुस्तदश्रोत्रं तदपाणि अपादकम् ।
तदजातमभूतं च तदशब्दं द्विजोत्तमाः ॥ ५४
अस्पर्श तदरूपं च रसगन्धविवर्जितम्।
अव्ययं चाप्रतिष्ठं च तन्नित्यं सर्वगं विभुम् ॥ ५५
महान्तं तद् बृहन्तञ्च तदर्ज चिन्मयं द्विजाः ।
अप्राणममनस्कं च तदस्निग्धमलोहितम् ॥ ५६
अप्रमेयं तदस्थूलमदीर्घ तदनुल्बणम्।
अह्रस्वं तदपारं च तदानन्दं तदच्युतम् ॥ ५७
अनपावृतमद्वैतं तदनन्तमगोचरम्।
असंवृतं तदात्मैकं परा विद्या न चान्यथा ॥ ५८
भक्तजन परा विद्यासे ही ज्ञान प्राप्त करते हैं, अपरा विद्यासे नहीं। परा तथा अपरा-ये दो प्रकारकी विद्याएँ कही गयी हैं। हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, सभी अर्थोको सिद्ध करनेवाला अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष- ये अपरा विद्या हैं। परा विद्या अक्षररूपमें स्थित है। हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! वह अदृश्य, अग्राह्य, गोत्ररहित, वर्णरहित, नेत्र-कान-हाथ- पैर आदिसे रहित, अजात, अभूत तथा शब्दविहीन है। हे द्विजो। वह स्पर्श रहित, रूपरहित, रस-गन्धहीन, अव्यय, आधारहीन, नित्य, सर्वगामी, सर्वशक्तिशाली, महान्, बृहत्, अज तथा चित्स्वरूप है। वह प्राणरहित, मनरहित, स्नेहरहित तथा अलोहित है। वह अप्रमेय, अस्थूल, अदीर्घर्ष तथा अनुल्बण है। वह अहस्व, अपार आनन्दमय एवं अच्युत है। वह अनपावृत, अद्वैत, अनन्त, अगोचर, आवरणरहित तथा आत्मस्वरूप है; उस पराविद्याका अन्य प्रकारसे वर्णन नहीं किया जा सकता है॥ ५०-५८॥
परापरेति कथिते नैवेह परमार्थतः।
अहमेव जगत्सर्वं मय्येव सकलं जगत् ॥ ५९
मत्त उत्पद्यते तिष्ठन्मयि मय्येव लीयते ।
मत्तो नान्यदितीक्षेत मनोवाक्याणिभिस्तथा ॥ ६०
सर्वमात्मनि सम्पश्येत्सच्चासच्य समाहितः ।
सर्वं ह्यात्मनि सम्पश्यन्न बाह्ये कुरुते मनः ॥ ६१
जो परा तथा अपरा विद्याएँ कही गयी हैं; वे परमार्थकी दृष्टिसे नहीं हैं। वास्तवमें मैं ही सम्पूर्ण जगद हूँ; मुझमें ही सम्पूर्ण जगत् स्थित है। यह जगत् मुझसे ही उत्पन्न होता है, मुझमें ही स्थित रहता है और [अन्तमें] मुझमें ही विलीन हो जाता है। मुझसे पृथक् कुछ नहीं है-ऐसा मन, वचन तथा कर्मसे अनुभव करना चाहिये। एकाग्रचित्त होकर सत् तथा असत् सब कुछ आत्मामें ही देखना चाहिये; आत्मामें ही सब कुछ देखनेवाला [साधक] अपने मनको बाह्य जगत्में आसक्त नहीं करता है॥ ५९-६१॥
अधोदृष्ट्या वितस्त्यां तु नाभ्यामुपरि तिष्ठति ।
हृदयं तद्विजानीयाद्विश्वस्यायतनं महत् ॥ ६२
हृदयस्यास्य मध्ये तु पुण्डरीकमवस्थितम् ।
धर्मकन्दसमुद्भूतं ज्ञाननालं सुशोभनम् ॥ ६३
ऐश्वर्याष्टदलं श्वेतं परं वैराग्यकर्णिकम्।
छिद्राणि च दिशो यस्य प्राणाद्याश्च प्रतिष्ठिताः ॥ ६४
नाभिसे बारह अंगुल ऊपर अधोमुख हत्कमल- स्थित है; उसे विश्वका महान् गृह समझना चाहिये। इस हृदयके मध्यमें कमल विराजमान है; जो धर्मरूपी कन्दसे उत्पन्न, ज्ञानरूपी नालवाला, अत्यन्त सुन्दर, आठ सिद्धिस्वरूप अष्ट दलसे युक्त और श्वेत तथा उत्तम वैराग्यरूपी कर्णिकावाला है एवं जिसके छिद्र प्राणवायुरूपी दिशाओंके रूपमें प्रतिष्ठित हैं ॥ ६२-६४॥
प्राणाद्यैश्चैव संयुक्तः पश्यते बहुधा क्रमात्।
दशप्राणवहा नाड्यः प्रत्येकं मुनिपुङ्गवाः ॥ ६५
द्विसप्ततिसहस्त्राणि नाड्यः सम्परिकीर्तिताः ।
नेत्रस्थं जाग्रतं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समादिशेत् ॥ ६६
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्धनि स्थितम्।
जाग्रे ब्रह्मा च विष्णुश्च स्वप्ने चैव यथाक्रमात् ॥ ६७
ईश्वरस्तु सुषुप्ते तु तुरीये च महेश्वरः।
वदन्त्येवमथान्येऽपि समस्तकरणैः पुमान् ॥ ६८
वर्तमानस्तदा तस्य जाग्रदित्यभिधीयते।
मनोबुद्धिरहङ्कारं चित्तं चेति चतुष्टयम् ॥ ६९
यदा व्यवस्थितस्त्वेतैः स्वप्न इत्यभिधीयते।
करणानि विलीनानि यदा स्वात्मनि सुव्रताः ॥ ७०
सुषुप्तः करणैर्भिन्नस्तुरीयः परिकीर्त्यते।
परस्तुरीयातीतोऽसौ शिवः परमकारणम् ॥ ७१
प्राण आदिसे युक्त होनेपर साधक बहुत रूपोंमें इसे क्रमसे देख सकता है। हे श्रेष्ठ मुनियो। प्रत्येक नाड़ी दस प्राणोंका वहन करती है; कुल बहत्तर हजार नाड़ियाँ बतायी गयी हैं। जाग्रत् [अवस्था] को नेत्रमें जानना चाहिये। इसी प्रकार सुषुप्तको हृदयमें स्थित तथा स्थित जानना चाहिये और स्वप्नको कण्ठमें स्थित तुरीयको सिरमें स्थित जानना चाहिये। क्रमके अनुसार जाग्रत्-अवस्थामें ब्रह्मा, स्वप्नावस्थानें विष्णु, सुषुप्तावस्थामें ईश्वर (शिव) तथा तुरीयावस्थामें महेश्वर प्रतिष्ठित रहते हैं। अन्य लोग ऐसा भी कहते हैं कि जब मनुष्य सभी इन्द्रियोंके द्वारा संयमित रहता है, तब उसकी जाग्रत्-अवस्था कही जाती है। मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त-यह अन्तःकरणचतुष्टय है; इनके द्वारा जब मनुष्य व्यवस्थित रहता है, तब उसकी स्वप्नावस्था कही जाती है। हे सुव्रतो! जब मनुष्यकी इन्द्रियाँ उसकी आत्मामें विलीन हो जाती हैं, तब उसकी सुषुप्तावस्था कही जाती है। इन्द्रियोंसे अतीत मनुष्य तुरीय-अवस्थावाला कहा जाता है। [जगत्के] परम कारण तथा परस्वरूप ये शिव तुरीयसे भी अतीत हैं ॥ ६५-७१ ॥
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिश्च तुरीयं चाधिभौतिकम् ।
आध्यात्मिकं च विप्रेन्द्राश्चाधिदैविकमुच्यते ॥ ७२
तत्सर्वमहमेवेति वेदितव्यं विजानता।
बुद्धीन्द्रियाणि विप्रेन्द्रास्तथा कर्मेन्द्रियाणि च ॥ ७३
मनोबुद्धिरहङ्कारश्चित्तं चेति चतुष्टयम्।
अध्यात्यं पृथगेवेदं चतुर्दशविधं स्मृतम् ॥ ७४
द्रष्टव्यं चैव श्रोतव्यं घातव्यं च यथाक्रमम् ।
रसितव्यं मुनिश्रेष्ठाः स्पर्शितव्यं तथैव च ।। ७५
मन्तव्यं चैव बोद्धव्यमहङ्कर्तव्यमेव च।
तथा चेतयितव्यं च वक्तव्यं मुनिपुङ्गवाः ।॥ ७६
आदातव्यं च गन्तव्यं विसर्गायितमेव च।
आनन्दितव्यमित्येते ह्यधिभूतमनुक्रमात् ।। ७७
आदित्योऽपि दिशश्चैव पृथिवी वरुणस्तथा।
वायुश्चन्द्रस्तथा ब्रह्मा रुद्रः क्षेत्रज्ञ एव च ॥ ७८
अग्निरिन्द्रस्तथा विष्णुर्मित्रो देवः प्रजापतिः ।
आधिदैविकमेवं हि चतुर्दशविधं क्रमात् ॥ ७९
हे विप्रेन्द्रो! जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीयके पश्चात् अब मैं आधिभौतिक, आध्यात्मिक तथा आधिदैविक स्वरूपका वर्णन करूंगा; यह सब मैं ही हूँ-ऐसा बुद्धिमान्को जानना चाहिये। मन-बुद्धि-अहंकार- चित्त-यह चतुर्वर्ग, [पाँच] ज्ञानेन्द्रियाँ और [पाँच] कर्मेन्द्रियाँ- ये पृथक् रूपसे चौदह आध्यात्मिक पदार्थ कहे गये हैं। है मुनिश्रेष्ठ ! हे मुनिपुंगवो। जो भी देखनेयोग्य, सुननेयोग्य, सूँघनेयोग्य, स्वाद लेनेयोग्य, स्पर्श करनेयोग्य, चिन्तन करनेयोग्य, जाननेयोग्य, गर्व करनेयोग्य, चेतनाके योग्य, बोलनेयोग्य, ग्रहण करनेयोग्य, गमन करनेयोग्य, छोड़नेयोग्य तथा आनन्दके योग्य हैं- ये सब क्रमसे आधिभौतिक हैं। सूर्य, दिशाएँ, पृथ्वी, वरुण, वायु, चन्द्र, ब्रह्मा, रुद्र, क्षेत्रज्ञ, अग्नि, इन्द्र, विष्णु, मित्र और देव प्रजापति- ये चौदह क्रमसे आधिदैविक हैं॥ ७२-७९॥
राज्ञी सुदर्शना चैव जिता सौम्या यथाक्रमम् ।
मोघा रुद्रामृता सत्या मध्यमा च द्विजोत्तमाः ॥ ८०
नाडी राशिशुका चैव असुरा चैव कृत्तिका।
भास्वती नाडयश्चैताश्चतुर्दश निबन्धनाः ॥ ८१
वायवो नाडिमध्यस्था वाहकाश्च चतुर्दश।
प्राणो व्यानस्त्वपानश्च उदानश्च समानकः ॥ ८२
वैरम्भश्च तथा मुख्यो ह्यन्तर्यामः प्रभञ्जनः ।
कूर्मकश्च तथा श्येनः श्वेतः कृष्णस्तथानिलः ॥ ८३
हे श्रेष्ठ द्विजो। राज्ञी, सुदर्शना, जिता, सौम्या, मोधा, रुद्रा, अमृता, सत्या, मध्यमा, नाड़ी, राशिशुका, असुरा, कृत्तिका और भास्वती- ये चौदह निबन्धन नाड़ियाँ हैं। नाड़ियोंके मध्य चौदह वाहक वायु स्थित हैं। प्राण, व्यान, अपान, उदान, समान, वैरम्भ, मुख्य अन्तर्याम, प्रभंजन, कूर्म, श्येन, श्वेत, कृष्ण, अनिल तथा नाग- ये चौदह वायु कहे गये हैं॥ ८०-८३
नाग इत्येव कथिता वायवश्च चतुर्दश।
यश्चक्षुष्वथ द्रष्टव्ये तथादित्ये च सुव्रताः ॥ ८४
नाड्यां प्राणे च विज्ञाने त्वानन्दे च यथाक्रमम्।
हृद्याकाशे य एतस्मिन् सर्वस्मिन्नन्तरे परः ॥ ८५
आत्मा एकश्च चरति तमुपासीत मां प्रभुम्।
अजरं तमनन्तं च अशोकममृतं ध्रुवम् ॥ ८६
चतुर्दशविधेष्वेव सञ्चरत्येक एव सः।
लीयन्ते तानि तत्रैव यदन्यं नास्ति वै द्विजाः ॥ ८७
एक एव हि सर्वज्ञः सर्वेशस्त्वेक एव सः।
एष सर्वाधिपो देवस्त्वन्तर्यामी महाद्युतिः ॥ ८८
उपास्यमानः सर्वस्य सर्वसौख्यः सनातनः ।
उपास्यति न चैवेह सर्वसौख्यं द्विजोत्तमाः ॥ ८९
उपास्यमानो वेदैश्च शास्त्रैर्नानाविधैरपि।
न वैष वेदशास्त्राणि सर्वज्ञो यास्यति प्रभुः ॥ ९०
अस्यैवान्नमिदं सर्वं न सोऽन्नं भवति स्वयम्।
हे सुव्रतो! नेत्रोंमें, द्रष्टव्य पदार्थोंमें, सूर्यमें, नाड़ीमें, प्राणमें, विज्ञानमें, आनन्दमें, हृदयाकाशमें तथा इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें जो एकमात्र आत्माके रूपमें संचरण करता है, उस मुझ अजर, अनन्त, शोकरहित, अमृतस्वरूप तथा अटल प्रभुकी उपासना करनी चाहिये। एकमात्र वह ही चौदहों प्रकारकी नाड़ियोंमें संचरण करता है और हे द्विजो! वे सब उसीमें लीन हो जाते हैं; क्योंकि उसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। एकमात्र वह ही सर्वज्ञ है और एकमात्र वह ही सर्वेश्वर है। वह सबका स्वामी, देवता, अन्तर्यामी तथा महाज्योतिसे युक्त है। हे उत्तम द्विजो! सभी प्रकारका सुख देनेवाले सनातन परमात्मा सभीके द्वारा उपासना किये जानेपर स्वयं सर्वसौख्यकी अपेक्षा नहीं करते। वेदों तथा नानाविध शास्त्रोंसे उपासित होकर उन सर्वज्ञ प्रभुको वेद-शास्त्र आदिकी अपेक्षा नहीं रहती ॥ ८४-९० ॥
स्वात्मना रक्षितं चाद्यादन्नभूतं न कुत्रचित् ॥ ९१
सर्वत्र प्राणिनामन्नं प्राणिनां ग्रन्थिरस्म्यहम्।
प्रशास्ता नयनश्चैव पञ्चात्मा स विभागशः ॥ ९२
अन्नमयोऽसौ भूतात्मा चाह्यते ह्यन्नमुच्यते।
प्राणमयश्चेन्द्रियात्मा सङ्कल्पात्मा मनोमयः ॥ ९३
कालात्मा सोम एवेह विज्ञानमय उच्यते।
सदानन्दमयो भूत्वा महेशः परमेश्वरः ॥ ९४
सोऽहमेवं जगत्सर्वं मय्येव सकलं स्थितम्।
परतन्त्रं स्वतन्त्रेऽपि तदभावाद्विचारतः ॥ ९५
एकत्वमपि नास्त्येव द्वैतं तत्र कुतस्त्वहो।
यह सारा जगत् इस आत्माका भोग्य है और वह आत्मा स्वयं भोग्य नहीं होता है अर्थात् वह भोक्ता है। अपने द्वारा रक्षित अन्न (भोग) को वह भोगता है और जीवोंके भोग्यको कभी नहीं भोगता। मैं सभी प्राणियोंका अन्न हूँ, मैं प्राणियोंकी [प्राणापानरूप] ग्रन्थि हूँ, मैं ही सबपर शासन करनेवाला, सबको ले जानेवाला और विभागपूर्वक [पंचकोशरूप] पंचात्मा हूँ। जो ग्रहण किया जाता है, वह अन्न कहा जाता है। वह भूतात्मा अन्नमयकोश है, इन्द्रियात्मा प्राणमयकोश है, संकल्पात्मा मनोमयकोश है और सोमस्वरूप कालात्मा विज्ञानमयकोश कहा जाता है। सर्वदा आनन्दमग्न होकर महेश परमेश्वर आनन्दमयकोश के रूपमें विद्यमान हैं। वह पंचकोश मैं ही हूँ; विचारपूर्वक देखा जाय, तो उस जगत्के अभावके कारण परतन्त्ररूप सम्पूर्ण जगत् मुझ स्वतन्त्रमें ही स्थित है॥ ९१-९५ ॥
एवं नास्त्यथ मर्त्य च कुतोऽमृतमजोद्भवः ॥ ९६
नान्तःप्रज्ञो बहिःप्रज्ञो न चोभयगतस्तथा।
न प्रज्ञानघनस्त्वेवं न प्राज्ञो ज्ञानपूर्वकः ॥ ९७
विदितं नास्ति वेद्यं च निर्वाणं परमार्थतः ।
निर्वाणं चैव कैवल्यं निःश्रेयसमनामयम् ॥ ९८
अमृतं चाक्षरं ब्रह्म परमात्मा परापरम्।
निर्विकल्पं निराभासं ज्ञानं पर्यायवाचकम् ॥ ९९
प्रसन्नं च यदेकाग्रं तदा ज्ञानमिति स्मृतम्।
अज्ञानमितरत्सर्वं नात्र कार्या विचारणा ॥ १००
इत्थं प्रसन्नं विज्ञानं गुरुसम्पर्कजं ध्रुवम्।
रागद्वेषानृतक्रोधं कामतृष्णादिभिः सदा ॥ १०१
अपरामृष्टमहौव विज्ञेयं मुक्तिदं त्विदम्।
अज्ञानमलपूर्वत्वात्पुरुषो मलिनः स्मृतः ॥ १०२
तत्क्षयाद्धि भवेन्मुक्तिर्नान्यथा जन्मकोटिभिः ।
एकत्व भी नहीं है, तब द्वैत कैसे हो सकता है? इसी प्रकार कोई मर्त्य नहीं है। तब वे अजोद्भव भी अमर कैसे होंगे? इस प्रकार वह न अन्तःप्रज्ञ है, न बहिःप्रज्ञ है, न दोनों प्रकारकी प्रज्ञावाला है, न प्रज्ञानघन है और न तो ज्ञानसम्पन्न प्राज्ञ ही है। वस्तुतः वह ब्रह्म न विदित है, न वेद्य (जाननेयोग्य) है और न तो निर्वाणस्वरूप है। निर्वाण, कैवल्य, निःश्रेयस, अनामय, अमृत, अक्षर, ब्रह्म, परमात्मा, परापर, निर्विकल्प, निराभास और ज्ञान ये पर्यायवाची हैं। जिसके अन्तः करणमें एकमात्र अद्वितीय ब्रह्म स्थित है तथा जो समरस है, जब वह प्रसन्न तथा एकाग्र होता है, वह ज्ञान स्वरूप कहा जाता है, इसके अतिरिक्त सब कुछ अज्ञान है; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये इस प्रकार पूर्ण ज्ञान निश्चित रूपसे गुरुके सान्निध्यसे उत्पन्न होता है। यह राग, द्वेष, मिथ्या, क्रोध, काम, तृष्णा आदिसे सदा रहित होता है; इसे मुक्ति देनेवाला जानना चाहिये। अज्ञान-मलसे युक्त रहनेके कारण पुरुष मलिन कहा गया है; उस [अज्ञानमल] - के नाशसे ही मुक्ति होती है, अन्यथा करोड़ों जन्मोंमें भी मुक्ति नहीं मिल सकती ॥ ९६-१०२ ॥
ज्ञानमेकं विना नास्ति पुण्यपापपरिक्षयः ॥ १०३
ज्ञानमेवाभ्यसेत्तस्मान्मुक्त्यर्थं ब्रह्मवित्तमाः ।
ज्ञानाभ्यासाद्धि वै पुंसां बुद्धिर्भवति निर्मला ॥ १०४
तस्मात्सदाभ्यसेज्ञ्जानं तन्निष्ठस्तत्परायणः ।
ज्ञानेनैकेन तृप्तस्य त्यक्तसङ्गस्य योगिनः ॥ १०५
कर्तव्यं नास्ति विप्रेन्द्रा अस्ति चेत्तत्त्वविन्न च।
इह लोके परे चापि कर्तव्यं नास्ति तस्य वै ॥ १०६
जीवन्मुक्तो यतस्तस्माद् ब्रह्मवित्परमार्थतः ।
ज्ञानाभ्यासरतो नित्यं ज्ञानतत्त्वार्थवित्स्वयम् ॥ १०७
कर्तव्याभ्यासमुत्सृज्य ज्ञानमेवाधिगच्छति।
वर्णाश्रमाभिमानी यस्त्यक्तक्रोधो द्विजोत्तमाः ॥ १०८
अन्यत्र रमते मूढः सोऽज्ञानी नात्र संशयः ।
संसारहेतुरज्ञानं संसारस्तनुसङ्ग्रहः ।। १०९
मोक्षहेतुस्तथा ज्ञानं मुक्तः स्वात्मन्यवस्थितः ।
अज्ञाने सति विप्रेन्द्राः क्रोधाद्या नात्र संशयः ॥ ११०
क्रोधो हर्षस्तथा लोभो मोहो दम्भो द्विजोत्तमाः ।
धर्माधर्मी हि तेषां च तद्वशात्तनुसङ्ग्रहः ॥ १११
शरीरे सति वै क्लेशः सोऽविद्यां सन्त्यजेद् बुधः ।
अविद्यां विद्यया हित्वा स्थितस्यैव च योगिनः ।। ११२
क्रोधाद्या नाशमायान्ति धर्माधर्मी च वै द्विजाः ।
तत्क्षयाच्च शरीरेण न पुनः सम्प्रयुज्यते ॥ ११३
स एव मुक्तः संसाराहुः खत्रयविवर्जितः ।
एकमात्र ज्ञानके बिना पाप तथा पुण्यका क्षय नहीं होता है, अतः हे श्रेष्ठ ब्रह्मवादियो! मुक्तिके लिये ज्ञानका [निरन्तर] अभ्यास करना चाहिये। ज्ञानके अभ्याससे ही मनुष्योंकी बुद्धि निर्मल होती है, अतः उसके प्रति निष्ठावान् तथा तत्पर होकर सदा ज्ञानका अभ्यास करना चाहिये। हे श्रेष्ठ विष्प्रो! एकमात्र ज्ञानसे सन्तुष्ट मुक्तसंग (आसक्तिरहित) योगीके लिये कुछ भी करणीय नहीं रह जाता है; यदि है तो वह तत्त्वज्ञानी नहीं है। इस लोकमें तथा परलोकमें उसके लिये कुछ भी करनेयोग्य नहीं रहता है। चूंकि वह जीवन्मुक्त है, अतः वास्तविक रूपसे ब्रह्मवेत्ता है। ज्ञानके अभ्यासमें संलग्न तथा ज्ञानतत्त्वार्थविद् स्वयं कर्तव्योंके अभ्यासका त्याग करके ज्ञानको ही प्राप्त होता है हे श्रेष्ठ द्विजो! जो अपने वर्णाश्रमपर गर्व करनेवाला है तथा क्रोधका त्याग कर चुका है, किंतु मूढ़ होकर ज्ञानातिरिक्त अन्य साधनोंमें सुखका अनुभव करता है। वह अज्ञानी है; इसमें सन्देह नहीं है। अज्ञान ही संसारका कारण है; शरीर धारण करना ही संसार है। ज्ञान मोक्षका हेतु है; मुक्त [व्यक्ति] अपनेमें हो अवस्थित रहता है। हे श्रेष्ठ विप्रो ! अज्ञान रहनेपर क्रोध आदि उत्पन होते हैं; इसमें सन्देह नहीं है। हे उत्तम द्विजो ! क्रोध, हर्ष, लोभ, मोह, दम्भ, धर्म, अधर्म लोगोंको होता है और उनके कारण शरीर धारण करना पड़ता है और शरीर रहनेपर क्लेश अवश्य होता है, अतः बुद्धिमान्को चाहिये कि अज्ञानका त्याग कर दे। हे द्विजो! विद्या (ज्ञान) के द्वारा अविद्या (अज्ञान) को नष्ट करके स्थित हुए योगीके क्रोध आदि तथा धर्म-अधर्म [स्वयं] नष्ट हो जाते हैं। उनका नाश हो जानेसे पुनः शरीरसे प्राणीका संयोग नहीं होता है, वह संसारसे मुक हो जाता है और तीनों प्रकारके तापोंसे रहित हो जाता है ॥ १०३-११३ ॥
एवं ज्ञानं विना नास्ति ध्यानं ध्यातुर्द्विजर्षभाः ।। ११४
ज्ञानं गुरोर्हि सम्पर्कान्न वाचा परमार्थतः ।
चतुर्ग्यूहमिति ज्ञात्वा ध्याता ध्यानं समभ्यसेत्॥ ११५
सहजागन्तुकं पापमस्थिवागुद्धवं तथा।
ज्ञानाग्निर्दहते क्षिप्रं शुष्केन्धनमिवानलः ॥ ११६
हे श्रेष्ठ द्विजो! इस प्रकार ज्ञानके बिना ध्यान करनेवालेका ध्यान सिद्ध नहीं होता है, वास्तवमें ज्ञान गुरुके सम्पर्कसे ही होता है, केवल शब्दसे नहीं। चतुर्व्यह (तैजस, विश्व, प्राज्ञ, तुरीय) का ज्ञान करके ध्यान करनेवालेको ध्यानका अभ्यास करना चाहिये। ज्ञानरूपी अग्नि सहज, आगन्तुक और अस्थि (शरीर) तथा वाणीसे होनेवाले पापको उसी प्रकार शीघ्र जला डालती है, जैसे अग्नि सूखे ईंधनको जला डालती है॥ ११४-११६ ॥
ज्ञानात्परतरं नास्ति सर्वपापविनाशनम् ।
अभ्यसेच्च सदा ज्ञानं सर्वसङ्गविवर्जितः ॥ ११७
ज्ञानिनः सर्वपापानि जीर्यन्ते नात्र संशयः।
क्रीडन्नपि न लिप्येत पापैर्नानाविधैरपि ।। ११८
ज्ञानं यथा तथा ध्यानं तस्माद्ध्यानं समभ्यसेत् ।
ध्यानं निर्विषयं प्रोक्तमादौ सविषयं तथा ॥ ११९
षट्प्रकारं समभ्यस्य चतुःषट्दशभिस्तथा ।
तथा द्वादशधा चैव पुनः षोडशधा क्रमात् ॥ १२०
द्विधाभ्यस्य च योगीन्द्रो मुच्यते नात्र संशयः ।
शुद्धजाम्बूनदाकारं विधूमाङ्गारसन्निभम् ॥ १२१
पीतं रक्तसितं विद्युत्कोटिकोटिसमप्रभम् ।
अथवा ब्रह्मरन्ध्रस्थं चित्तं कृत्वा प्रयत्नतः ।। १२२
न सितं वासितं पीतं न स्मरेद् ब्रह्मविद्भवेत् ।
ज्ञानसे बढ़कर पापका नाश करनेवाला अन्य कुछ भी नहीं है, अतः संसारसे आसक्तिरहित होकर ज्ञानका अभ्यास करना चाहिये। ज्ञानीके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं: इसमें सन्देह नहीं है। आमोद-प्रमोद करता हुआ भी ज्ञानी व्यक्ति नानाविध पापोंसे लिप्त नहीं होता है जैसा ज्ञान है, वैसा ही ध्यान भी है, अतः ध्यानका अभ्यास करना चाहिये। ध्यान निर्विषय बताया गया है; जो आदिमें सविषय होता है। चार, छः, दस, बारह तथा सोलह और पुनः दो प्रकारसे इन छः रूपोंमें क्रमशः अभ्यास करके श्रेष्ठ योगी मुक्त हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है। साधकको विशुद्ध सुवर्णके आकार वाले, धूमरहित अंगारके सदृश, पीले-लाल या श्वेत वर्णवाले, करोड़ों विद्युत्के समान कान्तिवाले आकारमें ध्यान लगाना चाहिये, अथवा चित्तको प्रयत्नपूर्वक ब्रह्मरन्ध्रमें स्थित करके श्वेत, कृष्ण अथवा पीतवर्णसे रहित ब्रह्मका स्मरण करे; ऐसा ध्यान करनेवाला ब्रहावेत्ता होता है॥ ११७-१२२ ॥
अहिंसकः सत्यवादी अस्तेयी सर्वयत्नतः ।। १२३
परिग्रहविनिर्मुक्तो ब्रह्मचारी दृढव्रतः ।
सन्तुष्टः शौचसम्पन्नः स्वाध्यायनिरतः सदा ॥ १२४
मद्भक्तश्चाभ्यसेङ्ख्यानं गुरुसम्पर्कजं ध्रुवम् ।
न बुध्यति तथा ध्याता स्थाप्य चित्तं द्विजोत्तमाः ॥ १२५
न चाभिमन्यते योगी न पश्यति समन्ततः ।
न घ्राति न शृणोत्येव लीनः स्वात्मनि यः स्वयम् ।। १२६
न च स्पर्श विजानाति स वै समरसः स्मृतः ।
पूर्ण प्रयत्नके साथ अहिंसक, सत्यवादी, चौरवृत्तिसे रहित, परिग्रहरहित, ब्रह्मचारी, दृढ़ व्रतवाला, सन्तुष्ट, शुद्धिसे युक्त, सर्वदा स्वाध्यायपरायण और मेरी भक्तिसे युक्त होकर गुरुके सान्निध्यमें ध्यानका अविचल अभ्यास करना चाहिये। हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! ध्यान-साधना करनेवाला योगी अपने चित्तको स्थिर करके किसी अन्य वस्तुका बोध नहीं करता, उसे कुछ भी भान नहीं होता, वह अपने चारों ओर कुछ नहीं देखता, वह न सूँघता है, न सुनता है और न स्पर्शका ही अनुभव करता है; जिसने स्वयंको पूर्णतः अपनी आत्मामें लीन कर दिया है, वह समरस कहा गया है॥ १२३-१२६ ॥
पार्थिवे पटले ब्रह्मा वारित्तत्त्वे हरिः स्वयम् ॥ १२७
वाहेये कालरुद्राख्यो वायुतत्त्वे महेश्वरः ।
सुषिरे स शिवः साक्षात्क्रमादेवं विचिन्तयेत् ।। १२८
क्षितौ शर्वः स्मृतो देवो ह्यपां भव इति स्मृतः ।
रुद्र एव तथा वहाँ उग्रो वायौ व्यवस्थितः ॥ १२९
भीमः सुषिरनाकेऽसौ भास्करे मण्डले स्थितः ।
ईशानः सोमबिम्बे च महादेव इति स्मृतः ॥ १३०
पार्थिव पटलमें ब्रह्मा, जलतत्त्वमें स्वयं विष्णु, अग्नितत्त्वमें कालरुद्र, वायुतत्त्वमें महेश्वर और आकाश तत्त्वमें वे साक्षात् शिव विद्यमान हैं ऐसा क्रमसे चिन्तन करना चाहिये। शर्व पृथ्वीमें विद्यमान कहे गये हैं। भव देवता जलमें विद्यमान कहे गये हैं। रुद्र अग्निमें और उग्र वायुमें प्रतिष्ठित हैं। भीम आकाशमें और ईशान सूर्यके मण्डलमें स्थित हैं। महादेवी चन्द्रमण्डलमें स्थित कहे गये हैं। पुरुषोंमें भगवान् पशुपति विद्यमान हैं। इस प्रकार मैं आठ रूपेमि व्यवस्थित हूँ ॥ १२७-१३० ॥
पुंसां पशुपतिर्देवश्चाष्टधाहं व्यवस्थितः ।
काठिन्यं यत्तनौ सर्व पार्थिवं परिगीयते ॥ १३१
आप्यं द्रवमिति प्रोक्तं वर्णाख्यो वह्निरुच्यते।
यत्सञ्चरति तद्वायुः सुषिरं यद् द्विजोत्तमाः ॥ १३२
तदाकाशं च विज्ञानं शब्दजं व्योमसम्भवम् ।
तथैव विप्रा विज्ञानं स्पर्शाख्यं वायुसम्भवम् ॥ १३३
रूपं वाह्नेयमित्युक्तमाप्यं रसमयं द्विजाः ।
गन्धाख्यं पार्थिवं भूयश्चिन्तयेद्धास्करं क्रमात् ॥ १३४
नेत्रे च दक्षिणे वामे सोमं हृदि विभुं द्विजाः ।
आजानु पृथिवीत्तत्त्वमानाभेर्वारिमण्डलम् ॥ १३५
आकण्ठं वह्नितत्त्वं स्याल्ललाटान्तं द्विजोत्तमाः ।
वायव्यं वै ललाटाद्यं व्योमाख्यं वा शिखाग्रकम् ।। १३६
हंसाख्यं च ततो ब्रह्म व्योम्नश्चोर्ध्वं ततः परम् ।
व्योमाख्यो व्योममध्यस्थो ह्ययं प्राथमिकः स्मरेत् ॥ १३७
शरीरमें जो सम्पूर्ण कठोरता है, वह पृथ्वीतत्त्वमय कही जाती है, आप्य (तरल) पदार्थको जलतत्त्वसे सम्बन्धित कहा गया है। वर्णं (रंग) को अग्निसे सम्बन्नित कहा जाता है। हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो। जो शरीरमें संचरण करता है, वह वायुसे सम्बन्धित है। जो शरीरमें अवकाश (रिक्त स्थान) है, वह आकाशतत्त्व है। शब्दसे होनेवाला ज्ञान आकाशसे उत्पन्न होता है; उसी प्रकार है विप्रो। स्पर्शसे होनेवाला ज्ञान वायुसे उत्पन्न होता है। हे द्विजो। रूपका ज्ञान अग्निसे और रसका ज्ञान जलसे उत्पन्न कहा गया है; गन्धका ज्ञान पृथ्वीसे उत्पन्न होता है। पुनः हे विप्रो! दाहिने नेत्रमें सूर्य, बायें नेत्रमें सोम तथा हृदयमें सर्वव्यापक पुरुषका चिन्तन करना चाहिये। हे द्विजोत्तमो! [देहमें] घुटनोंतक पृथ्वीतत्त्व, नाभिपर्यन्त जल-तत्त्व, कण्ठपर्यन्त वह्नितत्त्व, ललाटपर्यन्त वायुतत्त्व, ललाराग अथवा शिखाग्रमें आकाशतत्त्व, तदनन्तर आकाशसे ऊपर हंससंज्ञक ब्रह्म और व्योमके मध्यमें व्योमसंज्ञक ये शिव स्थित हैं- प्राथमिक ध्याताको इनका ध्यान करना चाहिये ॥ १३१-१३७ ॥
न जीवः प्रकृतिः सत्त्वं रजश्चाथ तमः पुनः ।
महांस्तथाभिमानश्च तन्मात्राणीन्द्रियाणि च ।। १३८
व्योमादीनि च भूतानि नैवेह परमार्थतः।
व्याप्य तिष्ठद्यतो विश्वं स्थाणुरित्यभिधीयते ॥ १३९
उदेति सूर्यो भीतश्च पवते वात एव च।
द्योतते चन्द्रमा वह्निर्ध्वलत्यापो वहन्ति च ॥ १४०
दधाति भूमिराकाशमवकाशं ददाति च।
तदाज्ञया ततं सर्वं तस्माद्वै चिन्तयेद् द्विजाः ॥ १४१
तेनैवाधिष्ठितं तस्मादेतत्सर्वं द्विजोत्तमाः ।
सर्वरूपमयः शर्व इति मत्त्वा स्मरेद्भवम् ॥ १४२
जीव, प्रकृति, सत्त्व, रज, तम, महान् (बुद्धि), अहंकार, पंच तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, आकाश आदि पंच भूत-ये सब यथार्थ रूपमें नहीं हैं। चूँकि विश्वको व्याप्त करके वे शिव स्थित हैं, अतः उन्हें स्थाणु कहा जाता है। उन्होंकी आज्ञासे डरकर सूर्य उगता है, हवा बहती है, चन्द्रमा प्रकाशित होता है, अग्नि जलती है, जल प्रवाहित होता है, भूमि [सबको] धारण करती है और आकाश स्थान देता है; सब कुछ उन्हींसे व्याप्त है, अतः हे द्विजो! उन्हींका चिन्तन करना चाहिये। है द्विजोत्तमो ! उन्हींसे यह सम्पूर्ण जगत् अधिष्ठित है अतः शर्व सर्वरूपमय हैं- ऐसा मानकर [महेश्वर] भवका स्मरण करना चाहिये ॥ १३८-१४२ ॥
संसारविषतप्तानां ज्ञानध्यानामृतेन वै।
प्रतीकारः समाख्यातो नान्यथा द्विजसत्तमाः ॥ १४३
ज्ञानं धर्मोद्भवं साक्षाञ्जानाद्वैराग्यसम्भवः ।
वैराग्यात्परमं ज्ञानं परमार्थप्रकाशकम् ॥ १४४
ज्ञानवैराग्ययुक्तस्य योगसिद्धिर्द्विजोत्तमाः ।
योगसिद्धया विमुक्तिः स्यात्सत्त्वनिष्ठस्य नान्यथा ।। १४५
तमोविद्यापदच्छन्नं चित्रं यत्पदमव्ययम्।
सत्त्वशक्तिं समास्थाय शिवमभ्यर्चयेद् द्विजाः ॥ १४६
यः सत्त्वनिष्ठो मद्भक्तो मदर्चनपरायणः ।
हे श्रेष्ठ द्विजो! ज्ञान-ध्यानरूपी अमृतसे ही संसाररूपी विषसे संतप्त लोगोंका प्रतीकार बताया गया है; अन्यथा नहीं। धर्मसे ज्ञान उत्पन्न होता है, साक्षात् ज्ञानसे वैराग्य उत्पन्न होता है और वैराग्यसे परमार्थप्रकाशक परम ज्ञान उत्पन्न होता है अर्थात् ज्ञानके अनुसार व्यवहारमें प्रवृत्ति होने लगती है है श्रेष्ठ द्विजो। ज्ञान-वैराग्यसे युक्त [साधक]-को ही योगकी सिद्धि होती है, पुनः योगसिद्धिके द्वारा उस सत्त्वनिष्ठकी मुक्ति हो जाती है; अन्यथा नहीं। है द्विजो ! तम तथा अविद्या पदसे आच्छादित, अद्भुत एवं अविनाशी जो शिवपद है, सत्त्वशक्तिका आश्रय लेकर उसका अर्चन करना चाहिये ॥ १४३-१४६ ॥
सर्वतो धर्मनिष्ठश्च सदोत्साही समाहितः ॥ १४७
सर्वद्वन्द्वसहो धीरः सर्वभूतहिते रतः।
ऋजुस्वभावः सततं स्वस्थचित्तो मृदुः सदा ॥ १४८
अमानी बुद्धिमाञ्छान्तस्त्यक्तस्पर्धी द्विजोत्तमाः ।
सदा मुमुक्षुर्धर्मज्ञः स्वात्मलक्षणलक्षणः ॥ १४९
ऋणत्रयविनिर्मुक्तः पूर्वजन्मनि पुण्यभाक् ।
जरायुक्तो द्विजो भूत्वा श्रद्धया च गुरोः क्रमात् ॥ १५०
अन्यथा वापि शुश्रूषां कृत्वा कृत्रिमवर्जितः ।
स्वर्गलोकमनुप्राप्य भुक्त्वा भोगाननुक्रमात् ॥ १५१
आसाद्य भारतं वर्षं ब्रह्मविज्जायते द्विजाः ।
सम्पर्काञ्जानमासाद्य ज्ञानिनो योगविद्भवेत् ॥ १५२
क्रमोऽयं मलपूर्णस्य ज्ञानप्राप्तेर्द्विजोत्तमाः ।
तस्मादनेन मार्गेण त्यक्तसङ्गो दृढव्रतः ॥ १५३
संसारकालकूटाख्यान्मुच्यते मुनिपुङ्गवाः ।
हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! जो मेरा भक्त सत्त्वनिष्ठ, मेरी पूजानें लीन रहनेवाला, सब प्रकारसे धर्ममें निष्ठा रखनेवाला, सदा उत्साहसे सम्पन्न, एकाग्रचित्त, सभी द्वन्द्वोंको सहनेवाला, धैर्यशाली, सभी प्राणियोंके हितमें रत, सरल स्वभाववाला, सदा स्वस्थ मनवाला, कोमल चित्तवाला, मानरहित, बुद्धिमान्, शान्त, प्रतिद्वन्द्वितासे रहित, सदा मुक्तिकी इच्छा रखनेवाला, धर्मज्ञ, आत्माके लक्षणोंको जाननेवाला, तीनों प्रकारके ऋणोंसे मुक्त तथा पूर्वजन्ममें पुण्यशाली होता है; वह द्विज श्रद्धाके साथ पाखण्डरहित होकर गुरुकी सेवा करके वृद्ध होनेपर स्वर्गलोक प्राप्त करके वहाँ क्रमसे सुखोंका भोग करके पुनः भारतवर्षमें जन्म लेकर ब्रह्मवेत्ता होता है और हे द्विजो! ज्ञानीके सम्पर्कसे ज्ञान प्राप्त करके योगवेत्ता होता है। हे श्रेष्ठ द्विजो! अज्ञानीके लिये ज्ञानप्राप्तिकी यही विधि है; अतः हे श्रेष्ठ मुनियो। इसी मार्गके द्वारा आसक्तिरहित तथा दृढ़ व्रतवाला व्यक्ति संसाररूपी कालकूट (विष)- से मुक्त हो जाता है ॥ १४७-१५३ ॥
एवं सक्षेपतः प्रोक्तं मया युष्माकमच्युतम् ॥ १५४
ज्ञानस्यैवेह माहात्म्यं प्रसङ्गादिह शोभनम्।
एवं पाशुपतं योगं कथितं त्वीश्वरेण तु ॥ १५५
न देयं यस्य कस्यापि शिवोक्तं मुनिपुङ्गवाः ।
दातव्यं योगिने नित्यं भस्मनिष्ठाय सुप्रियम् ॥ १५६
यः पठेच्छृणुयाद्वापि संसारशमनं नरः।
स याति ब्रह्मसायुज्यं नात्र कार्या विचारणा ॥ १५७
इस प्रकार मैंने आप लोगोंको संक्षेपमें प्रसंगवश ज्ञानका अचल तथा उत्तम माहात्म्य बता दिया। इस पाशुपत योगको [स्वयं] महेश्वरने कहा है। हे श्रेष्ठ मुनियो। शिवके द्वारा कहे गये इस योगको जिस किसीको भी नहीं बताना चाहिये, अपितु भस्मनिष्ठ अर्थात् शिवतत्त्वनिष्ठ योगीको ही इस अत्यन्त प्रिय योगका सदा उपदेश करना चाहिये। जो मनुष्य इस संसाररूपी विषका नाश करनेवाले आख्यानको पढ़ता अथवा सुनता है, वह ब्रह्मसायुज्य प्राप्त करता है; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ १५४-१५७॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे संसारविषकथनं नाम षडशीतितमोऽध्यायः ॥ ८६ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'संसारविषकथन' नामक छियासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८६ ॥
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