लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] एक सौ दोवाँ अध्याय
पार्वती की तपस्या से प्रसन्न हो भगवान् शिवका ब्राह्मणवेष में आकर उन्हें वरदान देना, हिमालय द्वारा पार्वती स्वयंवर की घोषणा, स्वयंवरमें भगवान् शिव का बालरूप में उपस्थित होकर सभीको मोहित करना, पुनः ब्रह्माकी स्तुतिसे प्रसन्न हो महेश्वर का मनोहर वररूप धारणकर सबको आनन्दित करना
सूत उवाच
तपसा च महादेव्याः पार्वत्या वृषभध्वजः ।
प्रीतश्च भगवान् शर्वो वचनाद् ब्रह्मणस्तदा ।। १
हिताय चाश्रमाणां च क्रीडार्थं भगवान् भवः ।
तदा हैमवतीं देवीमुपयेमे यथाविधि ॥ २
सूतजी बोले- [हे ऋषियो !] भगवान् वृषभध्वज शर्व पार्वती की तपस्या से प्रसन्न हो गये। इसके बाद ब्रह्मा जी के कहनेसे भगवान् भवने सभी आश्रमों के हितके लिये और क्रीड़ा करनेके लिये विधिपूर्वक पार्वतीके साथ विवाह किया ॥ १-२॥
जगाम स स्वयं ब्रह्मा मरीच्याद्यैर्महर्षिभिः ।
तपोवनं महादेव्याः पार्वत्याः पद्मसम्भवः ॥ ३
प्रदक्षिणीकृत्य च तां देवीं स जगतोऽरणीम्।
किमर्थ तपसा लोकान् सन्तापयसि शैलजे ॥ ४
त्वया सृष्टं जगत्सर्वं मातस्त्वं मा विनाशय।
त्वं हि सन्धारये लोकानिमान् सर्वान् स्वतेजसा ॥ ५
सर्वदेवेश्वरः श्रीमान् सर्वलोकपतिर्भवः ।
यस्य वै देवदेवस्य वयं किङ्करवादिनः ॥ ६
स एवं परमेशानः स्वयं च वरयिष्यति।
वरदे येन सृष्टासि न विना यस्त्वयाम्बिके ॥ ७
उस समय कमलसे उत्पन्न ब्रह्माजी स्वयं मरीचि आदि महर्षियोंके साथ महादेवी पार्वतीके तपोवनमें गये थे। उन्होंने जगत्की निमित्तकारणस्वरूपा उन देवीकी प्रदक्षिणा करके कहा-'हे शैलजे! आप तपस्थासे लोकोंको किसलिये संतप्त कर रही हैं? हे मातः! आपने ही सम्पूर्ण जगत्का सृजन किया है, अतः आप इसका विनाश मत कीजिये; आप अपने तेजसे इन समस्त लोकोंको धारण कीजिये। श्रीमान् शिवजी सभी देवताओंक ईश्वर तथा सभी लोकोंके स्वामी हैं। हमलोग जिन देवाधिदेवके सेवक कहे जाते हैं, वे परमेश्वर ही स्वयं आपका वरण करेंगे। हे वरदे। जिन्होंने आपका सूजन किया है और हे अम्बिके। जो आपके बिना रह नहीं सकते; वे [शिवजी] आपके पति होंगे; इसमें सन्देह नहीं है' ॥ ३-७॥
वर्तते नात्र सन्देहस्तव भर्ता भविष्यति।
इत्युक्त्वा तां नमस्कृत्य मुहुः सम्प्रेक्ष्य पार्वतीम् ॥ ८
गते पितामहे देवो भगवान् परमेश्वरः।
जगामानुग्रहं कर्तुं द्विजरूपेण चाश्रमम् ॥ ९
सा च दृष्ट्वा महादेवं द्विजरूपेण संस्थितम् ।
प्रतिभाद्यैः प्रभुं ज्ञात्वा ननाम वृषभध्वजम् ॥ १०
सम्पूज्य वरदं देवं ब्राह्मणं छद्यनागतम् ।
तुष्टाव परमेशानं पार्वती परमेश्वरम् ॥ ११
ऐसा कहकर उन पार्वतीको नमस्कार करके बार बार उनकी ओर देखकर पितामह (ब्रह्मा) के चले जानेपर भगवान् परमेश्वर [शिव] अनुग्रह करनेके लिये ब्राह्मणके रूपमें उस आश्रममें गये द्विजरूपसे उपस्थित महादेवको देखकर उन पार्वतीने उनकी दीप्ति आदिके द्वारा उन्हें भगवान् वृषभध्वज जानकर प्रणाम किया। ब्राह्मणके छद्मरूपमें आये हुए वरदाता महादेवकी पूजा करके पार्वतीने उन परमेशान परमेश्वरकी स्तुति की ॥ ८-११॥
अनुगृह्य तदा देवीमुवाच प्रहसन्निव।
कुलधर्माश्रयं रक्षन् भूधरस्य महात्मनः ॥ १२
क्रीडार्थं च सतां मध्ये सर्वदेवपतिर्भवः ।
स्वयंवरे महादेवि तव दिव्यसुशोभने ॥ १३
आस्थाय रूपं यत्सौम्यं समेष्येऽहं सह त्वया।
इत्युक्त्वा तां समालोक्य देवो दिव्येन चक्षुषा ॥ १४
जगामेष्टं तदा दिव्यं स्वपुरं प्रययौ च सा।
दृष्ट्वा हृष्टस्तदा देवीं मेनया तुहिनाचलः ॥ १५
आलिङ्ग्याघ्नाय सम्पूज्य पुर्वी साक्षात्तपस्विनीम्।
दुहितुर्देवदेवेन न जानन्नभिमन्त्रितम् ॥ १६
तदनन्तर देवीपर अनुग्रह करके शिवजी हँसते हुए बोले- 'हे महादेवि! सभी देवताओंका स्वामी मैं शिव महात्मा हिमालयके कुलधर्मकी परम्पराकी रक्षा करता हुआ क्रीड़ा करनेके लिये सज्जनोंके मध्य तुम्हारे दिव्य तथा अतिसुन्दर स्वयंवरमें सौम्य रूप धारण करके तुमसे मिलूँगा ऐसा कह करके उन्हें दिव्य दृष्टिसे देखकर शिवजी अपने अभीष्ट (प्रिय) दिव्य लोकको चले गये और इसके बाद वे भी चली गयीं। तब देवीको देखकर मैनासहित हिमालय साक्षात् तपस्विनी अपनी पुगेका आलिंगन करके, उनका मस्तक सैंधकर और उनको पूजा करके अत्यन्त प्रसन्न हुए। तत्पश्चात् देवाधिदेव [शिव]-द्वारा अपनी पुत्रीको दिये गये संकेतको र जानते हुए भी हिमालयने सभी लोकोंमें देवीके स्वयंवत्री घोषणा कर दी ॥ १२-१६ ॥
स्वयंवरं तदा देव्याः सर्वलोकेष्वघोषयत्।
अथ ब्रह्मा च भगवान् विष्णुः साक्षाज्जनार्दनः ॥ १७
शक्रश्च भगवान् वहिर्भास्करो भग एव च।
त्वष्टार्यमा विवस्वांश्च यमो वरुण एव च ॥ १८
वायुः सोमस्तथेशानो रुद्राश्च मुनयस्तथा।
अश्विनौ द्वादशादित्या गन्धर्वा गरुडस्तथा ॥ १९
यक्षाः सिद्धास्तथा साध्या दैत्याः किंपुरुषोरगाः ।
समुद्राश्च नदा वेदा मन्त्राः स्तोत्रादयः क्षणाः ॥ २०
नागाश्च पर्वताः सर्वे यज्ञाः सूर्यादयो ग्रहाः ।
त्रयस्त्रिंशच्च देवानां त्रयश्च त्रिशतं तथा ॥ २९
त्रयश्च त्रिसहस्त्रं च तथान्ये बहवः सुराः।
जग्मुर्गिरीन्द्रपुत्र्यास्तु स्वयंवरमनुत्तमम् ॥ २२
इसके अनन्तर ब्रह्मा, साक्षात् भगवान् जनार्दन विष्णु, ऐश्वर्यशाली इन्द्र, अग्निदेव, सूर्य, भग, त्वष्ट, अर्थमा, विवस्वान्, यम, वरुण, वायु, सोम, ईशान, सभी रुद्र, मुनिगण, दोनों अश्विनीकुमार, बारहों आदित्य समस्त गन्धर्व, गरुड़, यक्ष, सिद्ध, साध्य, दैत्य, किंपुरुष उरग, समुद्र, नद, वैद, मन्त्र, स्तोत्र आदि, क्षण, नाग, पर्वत, सभी यज्ञ, सूर्य आदि ग्रह, वसु, रुद्र तथा आदित्य आदि तैंतीस देवताओंके भेद-प्रभेदरूप ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव ये तीन, तीन सौ तथा तीन हजार तीन देवत तथा अन्य बहुत-से देवता पर्वतराजकी पुत्रीके अत्युत्तम स्वयंवरमें पहुँचे ॥ १७-२२॥
अथ शैलसुता देवी हैममारुह्य शोभनम्।
विमानं सर्वतोभद्रं सर्वरत्नैरलङ्कृतम् ॥ २३
अप्सरोभिः प्रनृत्ताभिः सर्वाभरणभूषितैः ।
गन्धर्वसिद्धैर्विविधैः किन्नरैश्च सुशोभनैः ॥ २४
वन्दिभिः स्तूयमाना च स्थिता शैलसुता तदा।
सितातपत्रं रत्नांशुमिश्रितं चावहत्तथा ।। २५
मालिनी गिरिपुत्र्यास्तु सन्ध्यापूर्णेन्दुमण्डलम् ।
चामरासक्तहस्ताभिर्दिव्यस्त्रीभिश्च संवृता ॥ २६
मालां गृह्य जया तस्थौ सुरद्रुमसमुद्भवाम्।
विजया व्यजनं गृह्य स्थिता देव्याः समीपगा ॥ २७
तदनन्तर पार्वती देवी स्वर्णनिर्मित तथा सभी रत्नोंसे अलंकृत सर्वतोभद्र नामक उत्तम विमानपर आरूढ़ होकर नृत्य करती हुई अप्सराओं, सभी आभूषणोंसे विभूषित विविध गन्धवों, सिद्धों तथा परम सुन्दर किन्नरोंके साथ और बन्दीजनोंद्वारा स्तुत होती हुई वहाँ उपस्थित हुई। [उनकी सखी] मालिनी रत्नकिरणोंसे मिश्रित श्वेत वर्णका सन्ध्याकालीन चन्द्रमण्डलसदृश छत्र [उन] पार्वतीके ऊपर लगाये हुए थी। वे पार्वती हाथोंमें चैवर लिये हुई दिव्य स्त्रियोंसे घिरी हुई थीं। कल्पवृक्षके पुष्पोंसे निर्मित माला [हाथमें] लेकर जया [नामक सखी] खड़ी थी और विजया व्यजन (पंखा) लेकर देवीके समीप खड़ी थी ॥ २३-२७ ॥
मालां प्रगृह्य देव्यां तु स्थितायां देवसंसदि।
शिशुर्भूत्वा महादेवः क्रीडार्थं वृषभध्वजः ॥ २८
उत्सङ्गतलसंसुप्तो बभूव भगवान् भवः।
अथ दृष्ट्वा शिशुं देवास्तस्या उत्सङ्गवर्तिनम् ॥ २९
कोऽयमत्रेति सम्मन्त्र्य चुक्षुभुश्च समागताः ।
वज्रमाहारयत्तस्य बाहुमुद्यम्य वृत्रहा ॥ ३०
प्स बाहुरुद्यमस्तस्य तथैव समुपस्थितः ।
स्तम्भितः शिशुरूपेण देवदेवेन लीलया ॥ ३१
वज्रं क्षेप्तुं न शशाक बाहुं चालयितुं तथा।
वह्निः शक्तिं तथा क्षेप्तुं न शशाक तथा स्थितः ।। ३२
देवताओंकी सभामें [अपने हाथमें] माला लेकर देवी पार्वतीके स्थित होनेपर भगवान् वृषभध्वज भव महादेव क्रीड़ा करनेके लिये एक शिशुके रूपमें होकर देवीकी गोदमें सोये हुएकी भाँति स्थित हो गये। तब उनको गोदमें स्थित शिशुको देखकर 'यहाँपर यह कौन है' ऐसा विचार करके [वहाँ] उपस्थित देवतागण क्षुब्ध हो उठे वृत्रासुरका संहार करनेवाले इन्द्रने भुजा उठाकर उस [शिशु]-के ऊपर बज्र चलाना चाहा, किंतु उनका उठा हुआ वह बाहु वैसा ही रह गया। शिशुरूपधारी देवदेव [शिव]-के द्वारा लीलापूर्वक स्तम्भित कर दिये गये वे इन्द्र वज्र फेंकने तथा अपनी भुजा चलानेमें समर्थ नहीं हुए। [इसी प्रकार] अग्निदेव भी अपनी शक्ति चलानेमें समर्थ नहीं हुए और वैसे ही खड़े रह गये ॥ २८-३२॥
यमोऽपि दण्डं खड्गं च निर्ऋतिर्मुनिपुङ्गवाः ।
वरुणो नागपाशं च ध्वजयष्टिं समीरणः ॥ ३३
सोमो गदां धनेशश्च दण्डं दण्डभूतां वरः।
ईशानश्च तथा शूलं तीव्रमुद्यम्य संस्थितः ॥ ३४
रुद्राश्च शूलमादित्या मुशलं वसवस्तथा।
मुद्गरं स्तम्भिताः सर्वे देवेनाशु दिवौकसः ॥ ३५
स्तम्भिता देवदेवेन तथान्ये च दिवौकसः ।
शिरः प्रकम्पयन् विष्णुश्चक्रमुद्यम्य संस्थितः ॥ ३६
तस्यापि शिरसो बालः स्थिरत्वं प्रचकार ह।
चर्क क्षेप्तुं न शशाक बाहूंश्चालयितुं न च ॥ ३७
पूषा दन्तान् दशन् दन्तैर्बालमैक्षत मोहितः ।
तस्यापि दशनाः पेतुर्दृष्टमात्रस्य शम्भुना ॥ ३८
हे श्रेष्ठ मुनियो। इसी प्रकार यम अपने दण्डको, निऋति अपने खड्गको, वरुण अपने नागपाशको, वायुदेव अपने ध्वजदण्डको, सोम अपनी गदाको, दण्डधारियोंमें श्रेष्ठ कुबेर अपने दण्डको तथा ईशान अपने तीक्ष्ण त्रिशूलको उठाकर खड़े ही रह गये। सभी रुद्र शूलको, सभी आदित्य मुसलको तथा वसुगण मुद्गरको उठाये ही रह गये, सभी देवता शीघ्र ही महादेवके द्वारा स्तम्भित कर दिये गये। [इसी प्रकार] देवाधिदेवने अन्य देवताओंको भी स्तम्भित कर दिया विष्णु [अपने] सिरको हिलाते हुए चक्र उठाकर खड़े रहे। उस बालकने उनके भी सिरको स्थिर कर दिया। वे [विष्णु] अपना चक्र फेंकने तथा बाहुओंको चलानेमें समर्थ नहीं हुए। पूषाने मोहित होकर अपने दाँतोंसे दाँतोंको किटकिटाते हुए उस बालककी ओर देखा। शिवके देखनेमात्रसे ही उसके दाँत गिर गये। उसी प्रकार विभु शिवने सबके बल, तेज तथा योगको स्तम्भित कर दिया॥ ३३-३८ ॥
बलं तेजश्च योगं च तथैवास्तम्भयद्विभुः ।
अथ तेषु स्थितेष्वेव मन्युमत्सु सुरेष्वपि ॥ ३९
ब्रह्मापरमसंविग्नो ध्यानमास्थाय शङ्करम्।
बुबुधे देवमीशानमुमोत्सङ्गे तमास्थितम् ॥ ४०
स बुद्ध्वा देवमीशानं शीघ्रमुत्थाय विस्मितः ।
ववन्दे चरणौ शम्भोरस्तुवच्च पितामहः ॥ ४१
पुराणैः सामसङ्गीतैः पुण्याख्यैर्गुह्यनामभिः ।
स्त्रष्टा त्वं सर्वलोकानां प्रकृतेश्च प्रवर्तकः ॥ ४२
बुद्धिस्त्वं सर्वलोकानामहङ्कारस्त्वमीश्वरः ।
भूतानामिन्द्रियाणां च त्वमेवेश प्रवर्तकः ॥ ४३
तवाहं दक्षिणाद्धस्तात्सृष्टः पूर्व पुरातनः ।
वामहस्तान्महाबाहो देवो नारायणः प्रभुः ॥ ४४
इयं च प्रकृतिर्देवी सदा ते सृष्टिकारण।
पत्नीरूपं समास्थाय जगत्कारणमागता ॥ ४५
नमस्तुभ्यं महादेव महादेव्यै नमो नमः।
प्रसादात्तव देवेश नियोगाच्च मया प्रजाः ॥ ४६
देवाद्यास्तु इमाः सृष्टा मूढास्त्वद्योगमोहिताः ।
कुरु प्रसादमेतेषां यथापूर्व भवन्त्विमे ॥ ४७
इसके बाद क्रोधमें भरे हुए उन समस्त देवताओंवे स्तम्भित हो जानेपर अत्यन्त व्याकुल ब्रह्माने शंकरका ध्यान करके यह जान लिया कि उमाको गोदमें वे भरवार ईशान ही विराजमान हैं। ईशानदेवको पहचानकर शीध उन्हें उठाकर बिस्मित हुए पितामहने शम्भुके चरणोंकों बन्दना की और प्राचीन सामगानों, उनके पवित्र नामों तथा गुप्त नामोंके द्वारा उनकी स्तुति की [ब्रह्माने कहा- आप समस्त लोकोंके सध्य तथा प्रकृतिके प्रवर्तक हैं। आप सभी लोकोंकी बुद्धि एवं अहंकार हैं। आप ईश्वर हैं। हे ईश। आप हो सभी प्राणियोंकी इन्द्रियोंके प्रवर्तक हैं। हे महाबाहो। सर्वप्रथम आपके दाहिने हाथसे पुरातन मैं [ब्रह्मा] उत्पन्न हुआ हूँ और बायें हाथसे भगवान् प्रभु नारायण उत्पन्न हुए हैं। हे सृष्टिकारण! ये देवी प्रकृति सर्वदा आपकी पत्नीका रूप धारणकर जगत्को कारणभूता बनी हैं। हे महादेव! आपको नमस्कार हैं; महादेवीको बार-बार नमस्कार है। हे देवेश! मैंने आपकी कृपासे तथा आपके आदेशसे इन प्रजाओं तथा देवता आदिका सृजन किया है। आपके योगसे मोहित होकर ये देवगण अब मूड़ताको प्राप्त हो गये हैं। अब आप इनपर अनुग्रह कीजिये, जिससे ये पूर्वकी भाँति हो जायें ॥ ३९-४७ ॥
सूत उवाच
विज्ञाप्यैवं तदा ब्रह्मा देवदेवं महेश्वरम्।
संस्तम्भितांस्तदा तेन भगवानाह पद्मजः ॥ ४८
मूढास्थ देवताः सर्वा नैव बुध्यत शङ्करम्।
देवदेवमिहायान्तं सर्वदेवनमस्कृतम् ॥ ४९
गच्छध्वं शरणं शीघ्रं देवाः शक्रपुरोगमाः ।
सनारायणकाः सर्वे मुनिभिः शङ्करं प्रभुम् ॥ ५०
सार्धं मयैव देवेशं परमात्मानमीश्वरम् ।
अनया हैमवत्या च प्रकृत्या सह सत्तमम् ॥ ५१
तत्र ते स्तम्भितास्तेन तथैव सुरसत्तमाः।
प्रणेमुर्मनसा सर्वे सनारायणकाः प्रभुम् ॥ ५२
सूतजी बोले- [हे ऋषियो।] इस प्रकार देवदेव महेश्वरका स्तवन करके पद्मयोनि भगवान् ब्रह्माने उन [शिव] के द्वारा स्तम्भित किये गये देवताओंसे कहा- मूढ़ताको प्राप्त आप सभी देवताओंने सभी देवोंसे नमस्कृत होनेवाले यहाँ आये हुए देवदेव शंकरको नहीं पहचाना। हे देवताओ! इन्द्र आदि आप सभी देवगण नारायणको, सभी मुनियोंको तथा मुझको साथ लेकर इन प्रकृतिस्वरूपण पार्वतीके साथ विराजमान सर्वश्रेष्ठ, प्रभु, देवेश, परमात्मा, ईश्वर शंकरकी शरणमें शीघ्र चलिये तब उन शिवके द्वारा स्तम्भित किये गये नारायणसहित उन सभा बहाँपर अत्त प्रभु [शिव]-को मनसे प्रणाम किया ॥ ४८-५२॥
अथ तेषां प्रसन्नोऽभूद्देवदेवस्त्रियम्बकः ।
यथापूर्व चकाराशु वचनाद् ब्रह्मणः प्रभुः ॥ ५३
तत एवं प्रसन्ने तु सर्वदेवनिवारणम् ।
वपुश्चकार देवेशो दिव्यं परममद्भुतम् ॥ ५४
तेजसा तस्य देवास्ते सेन्द्रचन्द्रदिवाकराः।
सब्रह्मकाः ससाध्याश्च सनारायणकास्तथा ॥ ५५
सयमाश्च सरुद्राश्च चक्षुरप्रार्थयन् विभुम् ।
तेभ्यश्च परमं चक्षुः सर्वदृष्टौ च शक्तिमत् ॥ ५६
इसके बाद देवदेव त्रिलोचन [शिव] उनपर प्रसन्न हो गये और उन प्रभुने ब्रह्माके वचनानुसार सबको पूर्वकी भाँति कर दिया इस प्रकार प्रसन्न हो जानेपर उन देवेश्वरने सभी देवताओंके द्वारा न देखे जा सकनेवाला, दिव्य तथा परम अद्भुत शरीर धारण किया तब उनके तेजसे इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, ब्रह्मा, साध्यगण, नारायण, यम, सभी रुद्र आदिके सहित वे देवता प्रतिहत (नष्ट) दृष्टिवाले हो गये। तब उन लोगोंने प्रभुसे [दिव्य] दृष्टिके लिये प्रार्थना की। इसपर उमापति शर्वने उन्हें सब कुछ देखनेमें समर्थ दिव्य दृष्टि प्रदान की; साथ ही उन्होंने भवानी तथा हिमालयको भी दिव्य दृष्टि दी ॥ ५३-५६ ॥
ददावम्बापतिः शर्वो भवान्याश्च चलस्य च।
लब्ध्वा चक्षुस्तदा देवा इन्द्रविष्णुपुरोगमाः ॥ ५७
सब्रह्मकाः सशक्राश्च तमपश्यन् महेश्वरम् ।
ब्रह्माद्या नेमिरे तूर्ण भवानी च गिरीश्वरः ॥ ५८
मुनयश्च महादेवं गणेशाः शिवसम्मताः ।
ससर्जुः पुष्पवृष्टिं च खेचराः सिद्धचारणाः ॥ ५९
देवदुन्दुभयो नेदुस्तुष्टुवुर्मुनयः प्रभुम् ।
जगुर्गन्धर्वमुख्याश्च ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ ६०
तब दिव्य दृष्टि प्राप्त करके ब्रह्मा तथा शक्र- सहित इन्द्र, विष्णु आदि प्रधान देवताओंने उन महेश्वरका दर्शन किया। ब्रह्मा आदि देवताओं, भवानी (पार्वती), गिरीश्वर [हिमालय], मुनियों तथा शिवप्रिय गणेश्वरोंने शीघ्र ही महादेवको प्रणाम किया। आकाशचारी सिद्धों तथा चारणोंने [उनपर] पुष्पवृष्टि की, देवदुन्दुभिर्यो बजने लगों, मुनिगण प्रभुकी स्तुति करने लगे, प्रधान गन्धर्व गाने लगे तथा अप्सराएँ नाचने लगीं, सभी गणेश्वर आनन्दित हो उठे और अम्बा पार्वती भी आनन्दविभोर हो गयीं ॥ ५७-६०॥
मुमुहुर्गणपाः सर्वे मुमोदाम्बा च पार्वती।
तस्य देवी तदा हृष्टा समक्षं त्रिदिवौकसाम् ।। ६१
पादयोः स्थापयामास मालां दिव्यां सुगन्धिनीम्।
साधु साध्विति सम्प्रोच्य तया तत्रैव चार्चितम् ॥। ६२ ।
सहदेव्या नमश्चकुः शिरोभिर्भूतलाश्रितैः ।
सर्वे सब्रह्मका देवाः सयक्षोरगराक्षसाः ।। ६३
उस समय आह्लादित देवी [पार्वती] ने त्रिदेवोंके समक्ष उन शिवके चरणोंमें दिव्य तथा सुगन्धित माला समर्पित कर दी। ब्रह्मा-यक्ष-उर-राक्षसीसहित स देवताओंने 'साधु-साधु' कहकर वहाँपर उन पार्वती द्वारा पूजित शिवको उन देवीसमेत पृथ्वीतलपर मस्त टेककर प्रणाम किया ॥ ६१-६३॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे उमास्वर्थवरो नाम द्वधधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०२ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'उमास्वयंवर' नामक एक सौ दो अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १०२॥
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