लिंग पुराण : राजर्षि ययातिका आख्यान तथा ययातिगाथा | Linga Purana: Rajarshi Yayatika narrative and Yayatigatha

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] सड़सठवाँ अध्याय

राजर्षि ययातिका आख्यान तथा ययातिगाथा

ययातिरुवाच

ब्राह्मणप्रमुखा वर्णाः सर्वे शृण्वन्तु मे वचः । 
ज्येष्ठं प्रति यथा राज्यं न देयं में कथञ्चन ॥ १

मम ज्येष्ठेन यदुना नियोगो नानुपालितः । 
प्रतिकूलमतिश्चैव न स पुत्रः सतां मतः ॥ २

मातापित्रोर्वचनकृत्सद्धिः पुत्रः प्रशस्यते। 
स पुत्रः पुत्रवधस्तु वर्तते मातृपितृषु ॥ ३

यदुनाहमवज्ञातस्तथा तुर्वसुनापि च।
हुहोन चानुना चैव मय्यवज्ञा कृता भृशम् ॥ ४

पुरुणा च कृतं वाक्यं मानितश्च विशेषतः । 
कनीयान् मम दायादो जरा येन धृता मम ॥ ५

शुक्रेण मे समादिष्टा देवयान्याः कृते जरा। 
प्रार्थितेन पुनस्तेन जरा सञ्चारिणी कृता ॥ ६

शुक्रेण च वरो दत्तः काव्येनोशनसा स्वयम्। 
पुत्रो यस्त्वानुवर्तेत स ते राज्यधरस्त्विति ॥ ७

ययाति बोले- श्रेष्ठ ब्राह्मण तथा सभी वर्णके लोग मेरा वचन सुनें- 'मैं ज्येष्ठ पुत्रको कभी भी राज्य नहीं दूँगा। ज्येष्ठ पुत्र यदुने मेरी आज्ञाका पालन नहीं किया है। जो [पिताके प्रति] विपरीत बुद्धिवाला हो, वह सज्जनोंके द्वारा पुत्र नहीं माना गया है। सज्जन लोग माता-पिताके वचनको माननेवाले पुत्रकी ही प्रशंसा करते हैं। [वास्तवमें] वही पुत्र है, जो माता-पिताके साथ पुत्रभावमें स्थित होकर व्यवहार करता है। यदुने मेरी अवज्ञा की है; उसी प्रकार तुर्वसु, गुह्य तथा अनुने भी मेरी बहुत अवहेलना की है। पुरुने मेरे वचनका पालन किया है और विशेषरूपसे मेरा सम्मान किया है। मेरा छोटा पुत्र [पुरु] ही मेरा उत्तराधिकारी है, जिसने मेरे बुढ़ापेको स्वीकार किया। शुक्राचार्यने देव्यानीके लिये मुझे जरावस्था प्राप्त होनेकी आज्ञा दी थी। जब मैंने उनसे प्रार्थना की, तब उन्होंने पुनः बुढ़ापेको संचारिणी बना दिया। काव्य तथा उशना नामधारी शुक्रने स्वयं मुझे वर प्रदान किया था कि जो पुत्र आपके अनुकूल व्यवहार करे, वही आपके राज्यका अधिकारी होगा। अतः [हे ब्राह्मणो!] अब आपलोग भी मुझे आज्ञा दें कि यह पुरु राज्यपर अभिषिक्त किया जाय ॥ १-७ ॥

भवन्तोऽप्यनुजानन्तु पूरू राज्येऽभिषिच्यते।

प्रकृतय ऊचुः

यः पुत्रो गुणसम्पन्नो मातापित्रोर्हितः सदा ॥ ८

सर्वमर्हति कल्याणं कनीयानपि स प्रभुः। 
अर्हः पूरुरिदं राज्यं यः सुतो वाक्यकृत्तव ॥ ९

वरदानेन शुक्रस्य न शक्यं कर्तुमन्यथा।

सूत उवाच

एवं जानपदैस्तुष्टैरित्युक्तो नाहुषस्तदा ॥ १०

अभिषिच्य ततो राज्ये पूरुं स सुतमात्मनः । 
दिशि दक्षिणपूर्वस्यां तुर्वसुं पुत्रमादिशत् ॥ ११

दक्षिणायामथो राजा यदुं ज्येष्ठं न्ययोजयत्। 
प्रतीच्यामुत्तरस्यां तु गुहां चानुं च तावुभौ ।। १२

सप्तद्वीपां ययातिस्तु जित्वा पृथ्वीं ससागराम्। 
व्यभजच्च त्रिधा राज्यं पुत्रेभ्यो नाहुषस्तदा ।। १३

पुत्रस‌ङ्क्रामितश्रीस्तु हर्षनिर्भरमानसः । 
प्रीतिमानभवद्राजा भारमावेश्य बन्धुषु ॥ १४

प्रजागण बोले- जो पुत्र गुणसम्पन्न, सर्वदा माता-पिताका हित करनेवाला तथा समस्त कल्याणके योग्य हो, वह छोटा होनेपर भी [राज्यका] उत्तराधिकारी होता है। अतः पुत्र पुरु ही राज्यके योग्य है, जिसने आपके वचनका पालन किया है; शुक्रके वरदानसे विपरीत [कार्य] नहीं किया जा सकता है सूतजी बोले- इस प्रकार जब प्रसन्न हुए नगरवासियोंने नहुषपुत्र [ययाति] से कहा, तब उन्होंने अपने पुत्र पुरुको राज्यपर अभिषिक्त करके तुर्वसुको दक्षिण-पूर्व दिशामें रहनेकी आज्ञा प्रदान की। उसके बाद राजा [ययाति] -ने ज्येष्ठ पुत्र यदुको दक्षिण दिशामें नियोजित कर दिया और उन दोनों द्रुह्य तथा अनुको [क्रमशः] पश्चिम तथा उत्तर दिशामें नियुक्त कर दिया। नहुषपुत्र ययातिने सात द्वीपोंवाली सागरोंसहित पृथ्वीको जीतकर पुत्रोंमें राज्यको तीन भागोंमें बाँट दिया। इस प्रकार पुत्रोंमें राज्य संक्रमित करनेवाले तथा हर्षपूर्ण मनवाले राजा बन्धुओंपर उनका भार सौंपकर प्रसन्न हो गये ॥ ८-१४॥

अत्र गाथा महाराज्ञा पुरा गीता ययातिना। 
याभिः प्रत्याहरेत्कामान् सर्वतोऽङ्गानि कूर्मवत् ।। १५

ताभिरेव नरः श्रीमान्नान्यथा कर्मकोटिकृत्। 
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ॥ १६

हविषा कृष्णवर्लेव भूय एवाभिवर्धते। 
यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ॥ १७

नालमेकस्य तत्सर्वमिति मत्वा शमं व्रजेत्। 
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम् ॥ १८

कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा।
यदा परान्न बिभेति परे चास्मान्न बिभ्यति ॥ १९

यदा न निन्देन्न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा। 
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः ॥ २०

योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् । 
जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः ॥ २१

चक्षुः श्रोत्रे च जीर्येते तृष्णैका निरुपद्रवा।
जीर्यन्ति देहिनः सर्वे स्वभावादेव नान्यथा ॥ २२

जीविताशा धनाशा च जीर्यतोऽपि न जीर्यते।
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम् ॥ २३

महाराज ययातिके द्वारा इस विषयमें पहले ये गाथाएँ गायी गयी थीं, जिनके द्वारा मनुष्य जिस प्रकार कछुआ अपने सभी अंगोंको समेट लेता है, वैसे ही अपनी समस्त कामनाओंको समेट लेता है और उन्हींसे वह श्रीमान् हो जाता है, अन्यथा नहीं; चाहे वह करोड़ों कर्म करनेवाला ही क्यों न हो। कामनाओंके उपभोगसे इच्छा शान्त नहीं होती है; जैसे हविके द्वारा अग्नि बढ़ती है, उसी प्रकार यह निरन्तर बढ़ती ही जाती है। पृथ्वीपर जो भी व्रीहि, जौ, सोना, पशु तथा स्त्रियाँ हैं, वे सब बस्तुएँ [किसी] एकके लिये भी पर्याप्त नहीं हैं- यह मानकर [मनुष्यको] कामनामुक्त हो जाना चाहिये। जब मनुष्य सभी प्राणियोंके प्रति मन, वचन तथा कर्मसे पापमय भाव नहीं रखता है, तब वह ब्रह्मको प्राप्त होता है। जब वह दूसरेसे डरता नहीं, दूसरे लोग भी उससे नहीं डरते; जब वह [दूसरेकी] निन्दा नहीं करता तथा उससे द्वेष नहीं करता, तब वह ब्रह्मको प्राप्त होता है। जो तृष्णा दुष्ट बुद्धिवालोंके द्वारा बड़ी कठिनाईसे त्यागनेयोग्य है, जो [मनुष्यके] जीर्ण होनेपर भी [स्वयं] जीर्ण नहीं होती तथा जो प्राणका अन्त करनेवाला रोग है; उस तृष्णाका त्याग कर देनेवालेको सुख होता है। जीर्ण व्यक्तिके केश जीर्ण हो जाते हैं, जीर्ण व्यक्तिके दाँत जीर्ण हो जाते हैं और उसके नेत्र तथा कान भी जीर्ण हो जाते हैं; केवल तृष्णा ही [सदा] उपद्रवविहीन रहती है अर्थात् यह सदा तरुण बनी रहती  है। सभी प्राणी स्वभावतः ही जीर्ण होते हैं; इसमें सन्देह नहीं है, किंतु [मनुष्यके] जीर्ण हो जानेपर भी जीवनकी आशा एवं धनकी आशा जीर्ण नहीं होती है। संसारमें जो कामसुख है तथा जो स्वर्गका महान् सुख है, वह तृष्णाके नाशके सुखकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं है॥ १५-२३॥

तृष्णाक्षयसुखस्यैतत्कलां नार्हति षोडशीम्। 
एवमुक्त्वा स राजर्षिः सदारः प्राविशद्वनम् ॥ २४

भृगुतुङ्गे तपस्तप्त्वा तत्रैव च महायशाः । 
साधयित्वा त्वनशनं सदारः स्वर्गमाप्तवान् ॥ २५

तस्य वंशास्तु पञ्चैते पुण्या देवर्षिसत्कृताः । 
यैर्व्याप्ता पृथिवी कृत्स्ना सूर्यस्येव मरीचिभिः ॥ २६

धनी प्रजावानायुष्मान् कीर्तिमांश्च भवेन्नरः । 
ययातिचरितं पुण्यं पठञ्छृण्वंश्च बुद्धिमान्॥ २७

सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥ २८

ऐसा कहकर वे राजर्षि [ययाति] पत्नीके साथ वनमें चले गये। उन महायशस्वीने वहीं भृगुतुंग शिखरपर निराहार रहकर [महान्] तपस्या करके भार्यासहित स्वर्गको प्राप्त किया। उनके ये पवित्र तथा देवर्षियोंद्वारा सत्कृत पाँच वंश हैं, जिनके द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी उसी प्रकार व्याप्त है, जैसे वह सूर्यकी रश्मियोंसे व्याप्त है। ययातिके पुण्यप्रद चरित्रको पड़ने तथा सुननेवाला मनुष्य धनी, सन्तानयुक्त, आयुष्मान, कीर्तिशाली एवं बुद्धिमान् हो जाता है और सभी पापोंसे मुक्त होकर शिवलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ २४-२८ ॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे सोमवंशे ययातिचरितं नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६७ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'सोमवंशमें ययातिचरित' नामक सड़सठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६७॥

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