लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] सतहत्तरवाँ अध्याय
शिवमन्दिरों के निर्माण का फल, शिवक्षेत्रों तथा शिवतीर्थोंके सेवनकी महिमा, शिव मन्दिर के उपलेपन आदि का माहात्म्य
ऋषय ऊचुः
लिङ्गप्रतिष्ठापुण्यं च लिङ्गस्थापनमेव च।
लिङ्गानां चैव भेदाश्च श्रुतं तव मुखादिह ॥ १
मृदादिरत्नपर्यन्तैर्द्रव्यैः कृत्वा शिवालयम् ।
यत्फलं लभते मर्त्यस्तत्फलं वक्तुमर्हसि ॥ २
ऋषिगण बोले- [हे सूतजी!] हमलोगोंने आपके मुखसे लिङ्गकी स्थापना, लिङ्गप्रतिष्ठाके फल तथा लिङ्गोंके भेदोंको सुना; अब आप मिट्टीसे लेकर रत्नोंतक द्रव्योंसे शिवालयका निर्माण करके मनुष्य जो फल प्राप्त करता है, उस फलको कृपापूर्वक बतायें ॥ १-२ ॥
सूत उवाच
यस्य भक्तोऽपि लोकेऽस्मिन् पुत्रदारगृहादिभिः ।
बाध्यते ज्ञानयुक्तश्चेन्न च तस्य गृहैस्तु किम् ॥ ३
तथापि भक्ताः परमेश्वरस्य कृत्वेष्टलोष्टैरपि रुद्रलोकम् ।
प्रयान्ति दिव्यं हि विमानवर्य सुरेन्द्रपद्योद्भववन्दितस्य ॥ ४
सूतजी बोले- [हे ऋषियो!] जिन शिवका ज्ञानसम्पन्न भक्त इस लोकमें पुत्र, स्त्री, घर आदिसे बन्धनको प्राप्त नहीं होता, उसे गृहोंसे क्या प्रयोजन? फिर भी इन्द्र तथा ब्रह्माके द्वारा नमस्कृत परमेश्वरके भक्त ईंटों अथवा पत्थरोंसे उनका उत्तम मन्दिर बनवाकर दिव्य रुद्रलोकको जाते हैं॥ ३-४ ॥
बाल्यात्तु लोष्टेन शिवं च कृत्वा मृदापि वा पांसुभिरादिदेवम्।
गृहं च तादृग्विधमस्य शम्भोः सम्पूज्य रुद्रत्वमवाप्नुवन्ति ॥ ५
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन भक्त्या भक्तैः शिवालयम् ।
कर्तव्यं सर्वयत्नेन धर्मकामार्थसिद्धये ॥ ६
केशरं नागरं वापि द्राविडं वा तथापरम्।
कृत्वा रुद्रालयं भक्त्या शिवलोके महीयते ॥ ७
कैलासाख्यं च यः कुर्यात्प्रासादं परमेष्ठिनः ।
कैलासशिखराकारैर्विमानैर्मोदते सुखी ॥ ८
मन्दरं वा प्रकुर्वीत शिवाय विधिपूर्वकम्।
भक्त्या वित्तानुसारेण उत्तमाधममध्यमम् ॥ ९
मन्दराद्रिप्रतीकाशैर्विमानैर्विश्वतोमुखैः ।
अप्सरोगणसङ्कीर्णैर्देवदानवदुर्लभैः ॥१०
गत्वा शिवपुरं रम्यं भुक्त्वा भोगान् यथेप्सितान् ।
ज्ञानयोगं समासाद्य गाणपत्यं लभेन्नरः ॥ ११
बालभावसे भी पत्थर, मिट्टी अथवा धूलसे इन शम्भुका उस प्रकारका आलय (मन्दिर) बनाकर आदिदेव शिवका विधिपूर्वक पूजन करके वे रुद्रत्व प्राप्त करते हैं अतः भक्तोंको धर्म, अर्थ, कामकी सिद्धिके लिये पूर्ण प्रयत्नसे भक्तिपूर्वक शिवालयका निर्माण करना चाहिये केसर, नागर, द्राविड़ अथवा अन्य प्रकारका शिवालय भक्तिपूर्वक बनाकर भक्त शिवलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है जो [भक्त] कैलास नामक शिवालयका निर्माण करता है, वह कैलासशिखरके आकारवाले विमानोंमें सुखपूर्वक आनन्द मनाता है जो मनुष्य शिवके लिये अपने सामर्थ्यके अनुसार भक्तिके साथ विधिपूर्वक उत्तम, मध्यम अथवा अधम [श्रेणीका] मन्दरनामक शिवालय बनाता है, वह मन्दरपर्वतके सदृश, सभी ओर मुखवाले, अप्सराओंसे युक्त तथा देवदानवोंके लिये दुर्लभ विमानोंसे रम्य शिवलोकमें जाकर अभीष्ट सुखोंका उपभोग करके ज्ञानयोग प्राप्तकर गणाधिपति पद प्राप्त करता है ॥ ५-११॥
यः कुर्यान्मेरुनामानं प्रासादं परमेष्ठिनः।
स यत्फलमवाप्नोति न तत्सर्वैर्महामखैः ॥ १२
सर्वयज्ञतपोदानतीर्थवेदेषु यत्फलम्।
तत्फलं सकलं लब्ध्वा शिववन्मोदते चिरम् ॥ १३
निषधं नाम यः कुर्यात्प्रासादं भक्तितः सुधीः ।
शिवलोकमनुप्राप्य शिववन्मोदते चिरम् ॥ १४
कुर्याद्वा यः शुभं विप्रा हिमशैलमनुत्तमम् ।
हिमशैलोपमैर्यानैर्गत्वा शिवपुरं शुभम् ॥ १५
जो मेरु नामक शिवालय बनाता है, वह जो फल प्राप्त करता है, वह फल सभी महायज्ञोंके द्वारा भी सम्भव नहीं है; सभी प्रकारके यज्ञ, तप, दान, तीर्थ तथा वेदाध्ययन करनेसे जो फल होता है, उस समस्त फलको प्राप्त करके वह [मनुष्य] शिवकी भाँति चिरकालतक आनन्दित रहता है जो बुद्धिमान् [मनुष्य] भक्तिपूर्वक निषध नामक शिवालय बनाता है, वह शिवलोक प्राप्त करके शिवके समान चिरकालतक आनन्दित रहता है हे विप्रो! जो [मनुष्य] हिमशैल नामक अत्युत्तम शुभ शिवालय बनाता है, वह हिमशैलके समान विमानोंसे दिव्य शिवलोक पहुँचकर ज्ञानयोग प्राप्त करके गणाधिपति पद प्राप्त करता है ॥ १२-१५ ॥
ज्ञानयोगं समासाद्य गाणपत्यमवाप्नुयात् ।
नीलाद्रिशिखराख्यं वा प्रासादं यः सुशोभनम् ॥ १६
कृत्वा वित्तानुसारेण भक्त्या रुद्राय शम्भवे।
यत्फलं लभते मर्त्यस्तत्फलं प्रवदाम्यहम् ॥ १७
हिमशैले कृते भक्त्या यत्फलं प्राक्तवोदितम्।
तत्फलं सकलं लब्ध्वा सर्वदेवनमस्कृतः ॥ १८
जो मनुष्य अपने सामर्थ्यके अनुसार रुद्र शिवके लिये भक्तिपूर्वक नीलाद्रिशिखर नामक परम सुन्दर शिवालय बनाता है, वह जो फल प्राप्त करता है, उसे मैं बता रहा हूँ। भक्तिपूर्वक हिमशैल [नामक शिवालय]- का निर्माण करनेपर जो फल पहले बताया गया है, उस सम्पूर्ण फलको प्राप्त करके वह सभी देवताओंसे नमस्कृत होता हुआ रुद्रलोक प्राप्त करके रुद्रोंके साथ आनन्द मनाता है॥ १६-१८ ॥
रुद्रलोकमनुप्राप्य रुद्रैः सार्ध प्रमोदते।
महेन्द्रशैलनामानं प्रासादं रुद्रसम्मतम् ॥ १९
कृत्वा यत्फलमाप्नोति तत्फलं प्रवदाम्यहम्।
महेन्द्रपर्वताकारैर्विमानैर्वृषसंयुतैः ॥ २०
गत्वा शिवपुरं दिव्यं भुक्त्वा भोगान्यथेप्सितान्।
ज्ञानं विचारितं रुद्रैः सम्प्राप्य मुनिपुङ्गवाः ॥ २१
विषयान् विषवत्त्यक्त्वा शिवसायुज्यमाप्नुयात्।
हेम्ना यस्तु प्रकुर्वीत प्रासादं रत्नशोभितम् ॥ २२
द्राविडं नागरं वापि केसरं वा विधानतः ।
कूटं वा मण्डपं वापि समं वा दीर्घमेव च ॥ २३
न तस्य शक्यते वक्तुं पुण्यं शतयुगैरपि।
जीर्णं वा पतितं वापि खण्डितं स्फुटितं तथा ॥ २४
पूर्ववत्कारयेद्यस्तु द्वाराद्यैः सुशुभं द्विजाः।
प्रासादं मण्डपं वापि प्राकारं गोपुरं तु वा ॥ २५
रुद्रका अत्यन्त प्रिय महेन्द्रशैल नामक शिवालय बनाकर मनुष्य जो फल प्राप्त करता है, उस फलको मैं बता रहा हूँ- है मुनिश्रेष्ठो! वह [मनुष्य] महेन्द्रपर्वतके आकारवाले तथा वृषभोंसे जुते हुए विमानोंसे दिव्य शिवलोकमें जाकर [वहाँ] यथेष्ट सुखोंको भोगकर रुद्रोंसे पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके विषयोंको विषकी भाँति त्यागकर शिवसायुज्य प्राप्त करता है जो [मनुष्य] रत्नजटित सोनेका द्राविड़, नागर अथवा केसर कोटिका शिवालय विधानपूर्वक बनवाता है अथवा सम अथवा दीर्घ शिखर (चोटी) या मण्डप बनवाता है, उसके पुण्यका वर्णन सैकड़ों युगोंमें भी नहीं किया जा सकता है। है द्विजो! जो [मनुष्य] जीर्ण (पुराने), गिरे हुए, टूटे हुए अथवा फूटे हुए शिवालय, उसके मण्डप, चहारदीवारी, फाटक अथवा द्वार आदिको पूर्वकी भाँति अत्यन्त सुन्दर करा देता है; वह [वास्तविक] निर्मातासे भी अधिक पुण्य प्राप्त करता है; इसमें सन्देह नहीं है॥ २२-२५ ॥
कर्तुरप्यधिकं पुण्यं लभते नात्र संशयः।
वृत्त्यर्थं वा प्रकुर्वीत नरः कर्म शिवालये ॥ २६
कर्तुरप्यधिकं पुण्यं लभते नात्र संशयः।
वृत्त्यर्थं वा प्रकुर्वीत नरः कर्म शिवालये ॥ २६
कर्म कुर्याद्यदि सुखं लब्ध्वा चापि प्रमोदते।
तस्मादायतनं भक्त्या यः कुर्यान्मुनिसत्तमाः ॥ २८
काष्ठेष्टकादिभिर्मर्त्यः शिवलोके महीयते।
प्रसादार्थं महेशस्य प्रासादो मुनिपुङ्गवाः ।। २९
जो मनुष्य आजीविकाके लिये शिवालयमें कार्य करता है, वह [अपने] बान्धवोंसहित स्वर्गलोक जाता है; इसमें सन्देह नहीं है। जो अपने सुखकी सिद्धिके लिये शिवालयमें एक बार भी [कुछ] कार्य कर देता है, वह सुख प्राप्त करके प्रसन्न रहता है अतः हे उत्तम मुनियो। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक काष्ठ, पत्थर आदिसे शिवालय बनवाता है, वह शिवलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। हे श्रेष्ठ मुनियो ! महेशकी प्रसन्नता के लिये तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्षके लिये पूर्ण प्रयत्नके साथ शिवालयका निर्माण करना चाहिये ॥ २६-२९ ॥
कर्तव्यः सर्वयत्नेन धर्मकामार्थमुक्तये।
अशक्तश्चेन्मुनिश्रेष्ठाः प्रासादं कर्तुमुत्तमम् ॥ ३०
सम्मार्जनादिभिर्वापि सर्वान् कामानवाप्नुयात्।
सम्मार्जनं तु यः कुर्यान्मार्जन्या मृदुसूक्ष्मया ।। ३१
चान्द्रायणसहस्त्रस्य फलं मासेन लभ्यते ।
यः कुर्याद्वस्त्रपूतेन गन्धगोमयवारिणा ॥ ३२
हे श्रेष्ठ मुनियो। यदि कोई उत्तम शिवालय बनानेमें असमर्थ हो, तो वह [शिवालयमें] सम्मार्जन (बुहारना) आदिके द्वारा भी समस्त वांछित फलोंको प्राप्त कर लेता है। जो [व्यक्ति] कोमल तथा सूक्ष्म झाडूसे सफाई करता है, वह महीने भरमें हजार चान्द्रायण व्रतका फल प्राप्त करता है। जो [मनुष्य] पवित्र वस्त्रसे छने हुए गन्ध तथा गोमयके जलसे विधानके अनुसार आलेपन (लीपनेका कार्य) करता है, वह वर्षपर्यन्त चान्द्रायणव्रत करनेका फल प्राप्त करता है॥ ३०-३२॥
आलेपनं यथान्यायं वर्षचान्द्रायणं लभेत्।
अर्थक्रोशं शिवक्षेत्रं शिवलिङ्गात्समन्ततः ॥ ३३
यस्त्यजेहुस्त्यजान् प्राणाञ्शिवसायुज्यमाप्नुयात्।
स्वायम्भुवस्य मानं हि तथा बाणस्य सुव्रताः ॥ ३४
स्वायम्भुवे तदर्थं स्यात्स्यादार्षे च तदर्थकम् ।
मानुषे च तदर्धं स्यात्क्षेत्रमानं द्विजोत्तमाः ॥ ३५
एवं यतीनामावासे क्षेत्रमानं द्विजोत्तमाः ।
रुद्रावतारे चाद्यं यच्छिष्ये चैव प्रशिष्यके ॥ ३६
शिवलिङ्गके चारों ओर आधा कोशका क्षेत्र शिवक्षेत्र होता है। जो [अपने] दुस्त्पज प्राणोंको [इस क्षेत्रमें] छोड़ता है, वह शिव-सायुज्य प्राप्त करता है। है सुव्रतो! यह [अर्धकोश] मान स्वयम्भू बाणलिङ्ग अर्थात् केवल ज्योतिर्लिङ्गका है। हे द्विजोत्तमो ! अन्य स्वयम्भू लिङ्गके लिये शिवक्षेत्रका मान उसका आधा (कोशका चतुर्थांश), ऋषिस्थापित लिङ्गके लिये उसका आधा (कोशका आठवाँ भाग) और मनुष्यके द्वारा स्थापित लिङ्गके लिये उसका भी आधा (कोशका सोलहवाँ) भाग होता है। हे द्विजोत्तमो ! इसी प्रकार यतियोंके निवासस्थानसे कौशके सोलहवें भागका क्षेत्र शिवक्षेत्र है। रुद्रोंके अवतारस्थल, उनके शिष्यों-प्रशिष्योंके अवतारस्थल, योगाचायेंकि अवतारस्थल उनके शिष्योंके अवतारस्थल तथा उनके भी शिष्य- प्रशिष्योंके अवतारस्थलसे आधे कोशका मण्डल शिवक्षेत्र होता है॥ ३३-३६॥
नरावतारे तच्छिष्ये तच्छिष्ये च प्रशिष्यके ।
श्रीपर्वते महापुण्ये तस्य प्रान्ते च वा द्विजाः ॥ ३७
तस्मिन् वा यस्त्यजेत्प्राणाञ्छिवसायुज्यमाप्नुयात् ।
वाराणस्यां तथाप्येवमविमुक्ते विशेषतः ॥ ३८
केदारे च महाक्षेत्रे प्रयागे च विशेषतः ।
कुरुक्षेत्रे च यः प्राणान् सन्त्यजेद्याति निर्वृतिम् ॥ ३९
प्रभासे पुष्करेऽवन्त्यां तथा चैवामरेश्वरे।
वणीशेलाकुले चैव मृतो याति शिवात्मताम् ।। ४०
वाराणस्यां मृतो जन्तुर्न जातु जन्तुतां व्रजेत् ।
त्रिविष्टपे विमुक्ते च केदारे सङ्गमेश्वरे ॥ ४१
शालके वा त्यजेत्प्राणांस्तथा वै जम्बुकेश्वरे ।
शुक्रेश्वरे वा गोकर्णे भास्करेशे गुहेश्वरे ॥ ४२
हिरण्यगर्भे नन्दीशे स याति परमां गतिम् ।
नियमैः शोष्य यो देहं त्यजेत्क्षेत्रे शिवस्य तु ॥ ४३
स याति शिवतां योगी मानुषे दैविकेऽपि वा।
आर्षे वापि मुनिश्रेष्ठास्तथा स्वायम्भुवेऽपि वा ।। ४४
हे द्विजो! महापुण्यप्रद श्रीपर्वत तथा उसके प्रान्तभाग- इस शिवक्षेत्रमें जो प्राणोंका त्याग करता है, वह शिवसायुज्य प्राप्त करता है। जो [मनुष्य] वाराणसीमें तथा विशेषकर वहाँ अविमुक्त क्षेत्रमें, केदारमें, विशेषकर महाक्षेत्र प्रयागमें तथा कुरुक्षेत्रमें प्राणत्याग करता है, वह मोक्ष प्राप्त करता है। प्रभास, पुष्कर, अवन्ती, अमरेश्वर तथा वणीशेलाकुलमें मृत प्राणी शिवात्मताको प्राप्त होता है। वाराणसीमें मरनेवाला प्राणी पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होता है। जो [प्राणी] त्रिविष्टप, विमुक्त, केदारक्षेत्र, संगमेश्वर, शालक, जम्बुकेश्वर, शुक्रेश्वर, गोकर्ण, भास्करेश, गुहेश्वर, हिरण्यगर्भ तथा नन्दीशक्षेत्रमें प्राण छोड़ता है वह परम गति प्राप्त करता है। हे श्रेष्ठ मुनियो! [अपने] शरीरको नियमोंसे सुखाकर जो योगी मानुष (मानवस्थापित), दैविक (देवस्थापित), आर्ष (मुनि- स्थापित) या स्वयम्भू (स्वयं उत्पन्न) किसी भी शिवक्षेत्रमें प्राणत्याग करता है, वह शिवत्वको प्राप्त होता है। ज्योतिर्लिङ्ग क्षेत्र तथा देवक्षेत्रके विषयमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ३७-४४ ॥
स्वयम्भूते तथा देवे नात्र कार्या विचारणा।
आधायाग्निं शिवक्षेत्रे सम्पूज्य परमेश्वरम् ॥ ४५
स्वदेहपिण्डं जुहुयाद्यः स याति परां गतिम्।
यावत्तावन्निराहारो भूत्वा प्राणान् परित्यजेत् ॥ ४६
शिवक्षेत्रे मुनिश्रेष्ठाः शिवसायुज्यमाप्नुयात् ।
छित्त्वा पादद्वयं चापि शिवक्षेत्रे वसेत्तु यः ॥ ४७
स याति शिवतां चैव नात्र कार्या विचारणा।
क्षेत्रस्य दर्शनं पुण्यं प्रवेशस्तच्छताधिकः ॥ ४८
तस्माच्छतगुणं पुण्यं स्पर्शनं च प्रदक्षिणम् ।
तस्माच्छतगुणं पुण्यं जलस्नानमतः परम् ॥ ४९
क्षीरस्नानं ततो विप्राः शताधिकमनुत्तमम्।
दध्ना सहस्त्रमाख्यातं मधुना तच्छताधिकम् ॥ ५०
शिवक्षेत्रमें भलीभाँति परमेश्वरकी पूजा करके आग जलाकर जो [प्राणी] अपने शरीरको उसमें होम कर देता है, वह परम गति प्राप्त करता है। हे श्रेष्ठ मुनियो! जो [मनुष्य निराहार रहकर शिवक्षेत्रमें प्राणका त्याग करता है, वह शिवसायुज्य प्राप्त करता है। जो [अपने] दोनों पैरोंको काटकर भी शिवक्षेत्रमें निवास करता है, वह शिवत्वको प्राप्त होता है; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये शिवक्षेत्रका दर्शन पुण्यदायक होता है, वहाँपर प्रवेश करना उससे सौ गुना अधिक पुण्यदायक होता है और उसका स्पर्श तथा प्रदक्षिणा उससे भी सौ गुना पुण्यप्रद होता है। वहाँपर [मूर्तिको जल-स्नान करानेसे उससे भी सौ गुना पुण्य होता है। हे विप्रो। दुग्धसे स्नान करानेसे उससे सौ गुना, दहीसे स्नान करानेसे उससे हजार गुना, मधुसे स्नान करानेसे उससे सौ गुना, घृतसे स्नान करानेसे उससे अनन्त गुना और शर्करासे स्नान करानेसे उससे भी सौ गुना अधिक पुण्य कहा गया है॥ ४५-५० ॥
घृतस्नानेन चानन्तं शार्करे तच्छताधिकम्।
शिवक्षेत्रसमीपस्थां नदीं प्राप्यावगाह्य च ॥५१
त्यजेद्देहं विहायान्नं शिवलोके महीयते।
शिवक्षेत्रसमीपस्था नद्यः सर्वाः सुशोभनाः ॥ ५२
वापीकूपतडागाश्च शिवतीर्था इति स्मृताः ।
स्नात्वा तेषु नरो भक्त्या तीर्थेषु द्विजसत्तमाः ॥ ५३
ब्रह्महत्यादिभिः पापैर्मुच्यते नात्र संशयः ।
प्रातः स्नात्वा मुनिश्रेष्ठाः शिवतीर्थेषु मानवः ॥ ५४
अश्वमेधफलं प्राप्य रुद्रलोकं स गच्छति।
मध्याह्ने शिवतीर्थेषु स्नात्वा भक्त्या सकून्नरः ॥ ५५
गङ्गास्नानसमं पुण्यं लभते नात्र संशयः।
अस्तं गते तथा चार्के स्नात्वा गच्छेच्छिवं पदम् ।। ५६
पापकञ्चुकमुत्सृज्य शिवतीर्थेषु मानवः ।
द्विजास्त्रिषवणं स्नात्वा शिवतीर्थे सकृन्नरः ॥ ५७
शिवसायुज्यमाप्नोति नात्र कार्या विचारणा।
पुराथ सूकरः कश्चित् श्वानं दृष्ट्वा भयात्पथि ।। ५८
प्रसङ्गाद्वारमेकं तु शिवतीर्थेऽवगाह्य च।
मृतः स्वयं द्विजश्रेष्ठा गाणपत्यमवाप्तवान् ।। ५९
शिवक्षेत्रके समीपमें स्थित [किसी] नदीपर जाकर उसमें स्नान करके और अन्नका त्याग करके जो [अपना] शरीर छोड़ता है, वह शिवलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। शिवक्षेत्रके समीपमें स्थित सभी सुन्दर नदियाँ, बावलियाँ, कुएँ तथा तालाब शिवतीर्थ कहे गये हैं। हे श्रेष्ठ द्विजो! उन तीर्थोंमें श्रद्धापूर्वक स्नान करके मनुष्य ब्रहाहत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है हे श्रेष्ठ मुनियो। शिवतीर्थोंमें प्रातःकाल स्नान करके वह मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करके रुद्रलोकको जाता है। मध्याह्नकालमें शिवतीर्थोंमें एक बार भी भक्तिपूर्वक स्नान करके मनुष्य गंगास्नानके समान पुण्य प्राप्त करता है; इसमें सन्देह नहीं है। सूर्यके अस्त हो जानेपर शिवतीर्थोंमें स्नान करके मनुष्य पापकंचुक छोड़कर शिवपद प्राप्त करता है। हे द्विजो। शिवतीर्थोंमें एक बार भी त्रिस्रवण (तीनों कालोंमें) स्नान करके मनुष्य शिवसायुज्य प्राप्त कर लेता है। इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये। हे श्रेष्ठ द्विजो। पूर्वकालमें कोई सुअर मार्गमें कुत्तेको देखकर डरके मारे संयोगवश शिवतीर्थमें गिर पड़ा और वह एक बार डुबकी लगाकर स्वयं मर गया; इससे उसने गणाधिपति पदको प्राप्त किया ॥ ५१-५९ ॥
यः प्रातर्देवदेवेशं शिवं लिङ्गस्वरूपिणम्।
पश्येत्स याति सर्वस्मादधिकां गतिमेव च ॥ ६०
मध्याह्ने च महादेवं दृष्ट्वा यज्ञफलं लभेत्।
सायाले सर्वयज्ञानां फलं प्राप्य विमुच्यते ॥ ६१
मानसैर्वाचिकैः पापैः कायिकैश्च महत्तरैः।
तथोपपातकैश्चैव पापैश्चैवानुपातकैः ॥ ६२
सङ्क्रमे देवमीशानं दृष्ट्वा लिङ्गाकृतिं प्रभुम् ।
मासेन यत्कृतं पापं त्यक्त्वा याति शिवं पदम् ॥ ६३
अयने चार्धमासेन दक्षिणे चोत्तरायणे।
विषुवे चैव सम्पूज्य प्रवाति परमां गतिम् ॥ ६४
प्रदक्षिणात्रयं कुर्याद्यः प्रासादं समन्ततः ।
सव्यापसव्यन्यायेन मृदुगत्या शुचिर्नरः ॥ ६५
पदे पदेऽश्वमेधस्य यज्ञस्य फलमाप्नुयात्।
वाचा यस्तु शिवं नित्यं संरौति परमेश्वरम् ॥ ६६
जो प्रातःकाल लिङ्गस्वरूपी देवदेवेश्वर शिवका दर्शन करता है, वह सबसे उच्च पद प्राप्त करता है; मध्याह्नमें महादेवका दर्शन करके वह यज्ञका फल प्राप्त करता है और सायंकाल दर्शन करके सभी यज्ञोंका फल प्राप्तकर मानसिक तथा वाचिक पापों, बड़े-से-बड़े शारीरिक पापों, उपपातकों और अनुपातकोंसे मुक्त हो जाता है। सूर्यकी सभी संक्रान्तियोंमें लिङ्गके आकारवाले महादेव प्रभु ईशानका दर्शन करके मनुष्य महीनेभरमें किये गये पापका त्याग करके शिवलोकको जाता है। दक्षिणायन (कर्कसंक्रान्ति) तथा उत्तरायण (मकरसंक्रान्ति) तथा विषुवत् (मेष-तुला)- संक्रान्तिमें अर्धमासपर्यन्त विधिवत् शिवकी पूजा करके मनुष्य परम गति प्राप्त करता है पवित्रावस्था में जो मनुष्य सव्य-अपसव्य-विधिसे अर्थात् सोमसूत्रका उल्लंघन किये बिना धीमी गतिसे चारों ओरसे शिवालयकी तीन प्रदक्षिणा करता है, वह प्रत्येक पदपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। जो [मनुष्य] वाणीसे नित्य परमेश्वर शिवका जप करता है, वह भी शिवलोकको जाता है; उसे पाकर [उसके लिये] फिर क्या शेष रह जाता है॥ ६०-६६ ॥
सोऽपि याति शिवं स्थानं प्राप्य किं पुनरेव च।
कृत्वा मण्डलकं क्षेत्रं गन्धगोमयवारिणा ।। ६७
मुक्ताफलमयैश्चूर्णैरिन्द्रनीलमयैस्तथा ।
पद्मरागमयैश्चैव स्फाटिकैश्च सुशोभनैः ॥ ६८
तथा मारकतैश्चैव सौवर्णं राजतैस्तथा।
तद्वर्णैलौकिकैश्चैव चूर्णैर्वित्तविवर्जितैः ॥ ६९
आलिख्य कमलं भद्रं दशहस्तप्रमाणतः ।
सकणिकं महाभागा महादेवसमीपतः ॥ ७०
तत्रावाह्य महादेवं नवशक्तिसमन्वितम् ।
पञ्चभिश्च तथा षड्भिरष्टाभिश्चेष्टदं परम् ।। ७१
पुनरष्टाभिरीशानं दशारे दशभिस्तथा।
पुनर्बाह्ये च दशभिः सम्पूज्य प्रणिपत्य च ॥ ७२
निवेद्य देवदेवाय क्षितिदानफलं लभेत् ।
शालिपिष्टादिभिर्वापि पद्ममालिख्य निर्धनः ।। ७३
हे महाभागो ! गन्ध तथा गोमय-मिश्रित जलसे मण्डलाकार क्षेत्र बनाकर उसमें मोती, इन्द्रनील, पद्मराग, स्फटिक, मरकत, स्वर्ण तथा रजत (चाँदी) के अति सुन्दर चूर्णोके द्वारा अथवा धनके अभावमें उसी वर्णके लौकिक चूर्णांके द्वारा महादेवके समीप कर्णिकासहित दस हाथ परिमापका शुभ कमल बनाकर वहाँ पाँच, छः, आठ तथा नौ वाम आदि शक्तियोंके सहित परम इष्ट प्रदान करनेवाले महादेवका आवाहन करके पुनः आठ शक्तियोंसहित ईशानका आवाहन करके दस कोणोंमें दस शक्तियोंक सहित एवं उसके बाहर दस शक्तियोंके सहित शिवजीका पूजन करके तथा उन्हें प्रणाम करके देवदेवके लिये उसे निवेदित करनेसे पृथ्वीदानका फल प्राप्त होता है। निर्धन [भक्त] शालि चावलके चूर्ण आदिसे भी कमल बनाकर [पूजन करके] पूर्वोक्त समस्त पुण्य प्राप्त करता है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६७-७३॥
पूर्वोक्तमखिलं पुण्यं लभते नात्र संशयः ।
द्वादशारं तथालिख्य मण्डले पद्ममुत्तमम् ॥ ७४
रत्नचूर्णादिभिश्चूर्णैस्तथा द्वादशमूर्तिभिः ।
मण्डलस्य च मध्ये तु भास्करं स्थाप्य पूजयेत् ॥ ७५
ग्रहैश्च संवृतं वापि सूर्यसायुज्यमुत्तमम् ।
एवं प्राकृतमप्यार्या षडस्त्रं परिकल्प्य च ॥ ७६
मध्यदेशे च देवेशीं प्रकृतिं ब्रह्मरूपिणीम्।
दक्षिणे सत्त्वमूर्ति च वामतश्च रजोगुणम् ॥ ७७
अग्रतस्तु तमोमूर्ति मध्ये देवीं तथाम्बिकाम्।
पञ्चभूतानि तन्मात्रापञ्चकं चैव दक्षिणे ॥ ७८
कर्मेन्द्रियाणि पञ्चैव तथा बुद्धीन्द्रियाणि च।
उत्तरे विधिवत्पूज्य षडस्त्रे चैव पूजयेत् ।। ७९
आत्मानं चान्तरात्मानं युगलं बुद्धिमेव च।
अहङ्कारं च महता सर्वयज्ञफलं लभेत् ॥ ८०
मण्डलमें रत्नोंके चूर्ण आदिसे अथवा अन्य चूर्णोसे बारह दलोंवाला उत्तम कमल बनाकर मण्डलके मध्यमें बारह मूर्तियोंके साथ सूर्यको स्थापित करके ग्रहोंसे घिरे हुए सूर्यकी पूजा करनी चाहिये; इससे वह [भक्त] उत्तम सूर्यसायुज्य प्राप्त करता है॥ ७४-७५॥ इसी प्रकार प्राकृत मण्डल बनाकर उसमें छः दलोंवाला कमल बनाकर इसके मध्य भागमें आर्या ब्रहारूपिणी देवेशी प्रकृति, दाहिनी ओर सत्त्वमूर्ति बायीं ओर रजोगुण, सामने तमोमूर्ति, मध्यमें देवी अम्बिका, दक्षिणमें पाँच भूतों तथा पाँच तन्मात्राओं और उत्तरमें पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियोंकी विधिवत् पूजा करके उस षट्दलकमलमें आत्मा-अन्तरात्मा इन दोनोंकी, बुद्धिकी तथा महत्सहित अहंकारकी पूजा करनी चाहिये; इससे वह समस्त यज्ञोंका फल प्राप्त करता है। [हे मुनियो!] इस प्रकार मैंने आप लोगोंको सम्पूर्ण उत्तम प्राकृत मण्डल बता दिया ॥ ७४-८०॥
एवं वः कथितं सर्व प्राकृतं मण्डलं परम्।
अतो वक्ष्यामि विप्रेन्द्राः सर्वकामार्थसाधनम् ॥ ८१
गोचर्ममात्रमालिख्य मण्डलं गोमयेन तु।
चतुरस्त्रं विधानेन चाद्भिरभ्युक्ष्य मन्त्रवित् ॥ ८२
अलङ्कृत्य वितानाद्यैश्छत्रैर्वापि मनोरमैः ।
बुद्बुदैरर्धचन्द्रैश्च हैमैरश्वत्थपत्रकैः ।। ८३
सितैर्विकसितैः पद्म रक्तैर्नीलोत्पलैस्तथा।
मुक्तादामैर्वितानान्ते लम्बितैस्तु सितैर्ध्वजैः ।। ८४
सितमृत्पात्रकैश्चैव सुश्लक्ष्णैः पूर्णकुम्भकैः ।
फलपल्लवमालाभिर्वैजयन्तीभिरंशुकैः॥ ८५
पञ्चाशद्दीपमालाभिधूपैः पञ्चविधैस्तथा।
पञ्चाशद्दलसंयुक्तमालिखेत्पद्ममुत्तमम् ॥८६
तत्तद्वर्णैस्तथा चूर्णैः श्वेतचूर्णरथापि वा।
एकहस्तप्रमाणेन कृत्वा पां विधानतः ॥ ८७
कर्णिकायां न्यसेद्देवं देव्या देवेश्वरं भवम्।
वर्णानि च न्यसेत्पत्रे रुद्रैः प्रागाद्यनुक्रमात् ॥ ८८
प्रणवादिनमोऽन्तानि सर्ववर्णानि सुव्रताः।
सम्पूज्यैवं मुनिश्रेष्ठा गन्धपुष्पादिभिः क्रमात् ॥ ८९
ब्राह्मणान् भोजयेत्तत्र पञ्चाशद्विधिपूर्वकम्।
अक्षमालोपवीतं च कुण्डलं च कमण्डलुम् ।। ९०
आसनं च तथा दण्डमुष्णीषं वस्त्रमेव च।
दत्त्वा तेषां मुनीन्द्राणां देवदेवाय शम्भवे ॥ ९१
महाचरुं निवेद्यद्यैवं कृष्णं गोमिथुनं तथा।
अन्ते च देवदेवाय दापयेच्चूर्णमण्डलम् ॥ ९२
यागोपयोगद्रव्याणि शिवाय विनिवेदयेत्।
ओङ्काराद्यं जपेद्धीमान् प्रतिवर्णमनुक्रमात् ॥ ९३
हे श्रेष्ठ विप्रो ! अब मैं सम्पूर्ण कामनाओंको सिद्ध करनेवाले साधनका वर्णन करूँगा। मन्त्रको जाननेवाला [भक्त] विधानपूर्वक गायके गोबरसे गोचर्म के बराबर चौकोर मण्डल बनाकर जलसे अभ्युक्षण (छिड़काव) करके उसे वितान आदि अथवा मनोहर छत्रोंसे, स्वर्णनिर्मित अर्धचन्द्राकार बुद्बुदोंसे, सुवर्णमय पीपलकी पत्तियों से खिले हुए श्वेत कमलों तथा लाल कमलों और नीलकमलोंसे, वितानके किनारे लटकती हुई मोतियोंकी मालाओंसे, श्वेत ध्वजोंसे, श्वेत मिट्टीके पात्रोंसे, मनोहर जलपूरित घड़ोंसे, फल-पल्लव-मालाओंसे, वैजयन्तियोंसे, अंशुकों (रेशमी वस्त्र) से, पचास दीप मालाओंसे तथा पाँच प्रकारके [सुगन्धित] धूपोंसे अलंकृत करके पचास दलोंसे युक्त उत्तम कमल बनाये। इस प्रकार विविध रंगके चूर्णोसे अथवा सफेद चूर्णोसे विधानपूर्वक एक हाथ परिमापका कमल बनाकर [उसकी] कर्णिकामें देवीसहित देवेश्वर शिवकी स्थापना करे। हे सुव्रतो! [कमलके] पत्रोंमें पूर्व दिशा आदिके क्रमसे रुद्रोंके साथ [अकार आदि] वर्णोंको स्थापित करे, जो आदिमें प्रणव (ॐ) तथा अन्तमें नमः से युक्त हों। हे श्रेष्ठ मुनियो! इस प्रकार [भक्त] क्रमसे गन्ध, पुष्प आदिसे पूजन करके वहाँ विधिपूर्वक पचास ब्राह्मणोंको भोजन कराये। तत्पश्चात् उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको जपमाला, यज्ञोपवीत, कुण्डल, कमण्डलु, आसन, छड़ी, पगड़ी तथा वस्त्र प्रदान करके देवदेव शम्भुको महाचरु निवेदित करके एक काली गाय तथा काला वृषभ प्रदान करे; अन्तमें चूर्णनिर्मित मण्डल तथा पूजनके उपयोगके द्रव्योंको देवदेव शिवको समर्पित कर दे और आदिमें 'ओम्' लगाकर बुद्धिमान् [भक्त] प्रत्येक वर्णको अनुक्रमसे जपे ॥ ८१-९३ ॥
एवमालिख्य यो भक्त्या सर्वमण्डलमुत्तमम् ।
यत्फलं लभते मर्त्यस्तद्वदामि समासतः ॥ ९४
साङ्गान् वेदान् यथान्यायमधीत्य विधिपूर्वकम् ।
इष्ट्वा यज्ञैर्यथान्यायं ज्योतिष्टोमादिभिः क्रमात् ॥ ९५
ततो विश्वजिदन्तैश्च पुत्रानुत्पाद्य तादृशान् ।
वानप्रस्थाश्रमं गत्वा सदारः साग्निरेव च ॥ ९६
चान्द्रायणादिकाः सर्वाः कृत्वा न्यस्य क्रिया द्विजाः।
ब्रह्मविद्यामधीत्यैव ज्ञानमासाद्य यत्नतः ॥ ९७
ज्ञानेन ज्ञेयमालोक्य योगी यत्काममाप्नुयात्।
तत्फलं लभते सर्व वर्णमण्डलदर्शनात् ॥ ९८
[हे विप्रो!] इस प्रकार जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक उत्तम सम्पूर्ण मण्डल बनाकर जिस फलको प्राप्त करता है, उसे मैं संक्षेपमें बता रहा हूँ। समुचित रूपसे विधिपूर्वक अंगोंसहित वेदोंका अध्ययन करके विधानके अनुसार क्रमसे ज्योतिष्टोम आदिसे लेकर विश्वजित्तक सभी यज्ञोंको करके अपने सदृश पुत्रोंको उत्पन्न करके पत्नीसहित वानप्रस्थ-आश्रममें प्रविष्ट होकर अग्निकर्म करके; पुनः हे द्विजो! चान्द्रायण आदि सभी व्रत सम्पन्न करके और इसके बाद सभी क्रियाओंका त्याग करके ब्रह्मविद्याका अध्ययनकर यत्नपूर्वक ज्ञान प्राप्तकर पुनः उस ज्ञानके द्वारा ज्ञेयका दर्शन करके वह योगी जो फल पाता है, उस फलको वह सम्पूर्ण वर्णमण्डलके दर्शनमात्रसे प्राप्त कर लेता है ॥ ९४-९८ ॥
येन केनापि वा मर्त्यः प्रलिप्यायतनाग्रतः ।
उत्तरे दक्षिणे वापि पृष्ठतो वा द्विजोत्तमाः ॥ ९९
चतुष्कोणं तु वा चूर्णैरलङ्कृत्य समन्ततः ।
पुष्पाक्षतादिभिः पूज्य सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १००
यस्तु गर्भगृहं भक्त्या सकृदालिप्य सर्वतः ।
चन्दनाद्यैः सकर्पूरैर्गन्धद्रव्यैः समन्ततः ॥ १०१
विकीर्य गन्धकुसुमैर्धूपैर्धूप्य चतुर्विधैः ।
प्रार्थयेद्देवमीशानं शिवलोकं स गच्छति ॥ १०२
तत्र भुक्त्वा महाभोगान् कल्पकोटिशतं नरः ।
स्वदेहगन्धकुसुमैः पूरयञ्छिवमन्दिरम् ॥ १०३
क्रमाद् गान्धर्वमासाद्य गन्धवैश्च सुपूजितः ।
क्रमादागत्य लोकेऽस्मिन् राजा भवति वीर्यवान् ।। १०४
हे श्रेष्ठ द्विजो! जिस किसी भी प्रकार शिवालयको लीपकर सामने, पीछे, उत्तरमें तथा दक्षिणमें चतुष्कोण मण्डल बनाकर उसे चारों ओरसे चूर्णीसे सजाकर पुष्प, अक्षत आदिसे पूजन करके मनुष्य सभी पापोंसे मुल हो जाता है। जो [मनुष्य] एक बार भी भक्तिपूर्वक गर्भगृहको चन्दन आदि तथा कपूरसहित गन्धद्रव्योंसे चारों ओरसे लीपकर सभी ओर सुगन्धित पुष्प बिखेरकर चार प्रकारके धूपोंसे उसे धूपित करके भगवान् ईशान (शिव) की प्रार्थना करता है, वह शिवलोकको जाता है। वह मनुष्य वहाँ सौ करोड़ कल्पोंतक महान् सुखोंको भोगकर अपने देहरूपी सुगन्धित पुष्पोंसे शिवमन्दिरको पूरित करता हुआ क्रमसे गन्धर्वलोक पहुँचकर वहाँ गन्धवाँसे भलीभाँति पूजित होता है, [पुनः] क्रमसे इस लोकमें आकर पराक्रमी राजा होता है ॥ ९९-१०४ ॥
आदिदेवो महादेवः प्रलयस्थितिकारकः ।
सर्गश्च भुवनाधीशः सर्वव्यापी सदाशिवः ।
शिवब्रह्मामृतं ग्राह्यं मोक्षसाधनमुत्तमम् ॥ १०५
व्यक्ताव्यक्तं सदा नित्यमचिन्त्यमर्चयेत्प्रभुम् ॥ १०६
वे सदाशिव आदिदेव, महादेव, सृष्टि-पालन- संहार करनेवाले, जगत्के स्वामी तथा सर्वव्यापी हैं। शिवरूपी ब्रहासे [मोक्षसुखरूपी] अमृतको ग्रहण करना चाहिये और मोक्षके साधनस्वरूप उत्तम, व्यक्त, अव्यक्त, नित्य तथा अचिन्त्य प्रभुका सदा अर्चन करना चाहिये ॥ १०५-१०६ ॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे उपलेपनादिकथनं नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७७ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'उपलेपनादिकथन' नामक सतहत्तरवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७७ ॥
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