लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] छिहत्तरवाँ अध्याय
विविध शिव स्वरूपों की प्रतिष्ठा एवं उपासना का फल
सूत उवाच
अतः परं प्रवक्ष्यामि स्वेच्छाविग्रहसम्भवम् ।
प्रतिष्ठायाः फलं सर्वं सर्वलोकहिताय वै ॥ १
सूतजी बोले [हे विप्रो !] इसके आगे मैं सभी लोकोंके कल्याणके लिये अपनी इच्छासे उनके विग्रहकी उत्पत्ति तथा [मूर्ति] प्रतिष्ठाके सम्पूर्ण फलका वर्णन करूँगा ॥ १ ॥
स्कन्दोमासहितं देवमासीनं परमासने।
कृत्वा भक्त्या प्रतिष्ठाप्य सर्वान् कामानवाप्नुयात् ॥ २
स्कन्दोमासहितं देवं सम्पूज्य विधिना सकृत्।
यत्फलं लभते मर्त्यस्तद्वदामि यथाश्रुतम् ॥ ३
स्कन्द (कार्तिकेय) तथा उमासहित महादेवकी मूर्ति बनाकर उन्हें उत्तम आसनपर विराजमान करके भक्तिपूर्वक [उस मूर्तिकी] प्रतिष्ठाकर सभी कामनाओंको प्राप्त करना चाहिये कार्तिकेय तथा उमासहित शिवकी विधिपूर्वक एक बार भी पूजा करके मनुष्य जो फल प्राप्त करता है, उसे जैसा मैंने सुना है; वैसा बताता हूँ ॥ २-३॥
सूर्यकोटिप्रतीकाशैर्विमानैः सार्वकामिकैः ।
रुद्रकन्यासमाकीर्णैर्गेयनाट्यसमन्वितैः ॥ ४
शिववत्क्रीडते योगी यावदाभूतसम्प्लवम् ।
तत्र भुक्त्वा महाभोगान् विमानैः सार्वकामिकैः ॥ ५
औमं कौमारमैशानं वैष्णवं ब्राह्ममेव च।
प्राजापत्यं महातेजा जनलोकं महस्तथा ॥ ६
ऐन्द्रमासाद्य चैन्द्रत्वं कृत्वा वर्षायुतं पुनः।
भुक्त्वा चैव भुवोंके भोगान् दिव्यान् सुशोभनान् ॥ ७
वह योगी करोड़ों सूर्योक समान तेजवाले, सभी अभीष्ट वस्तुओंसे सम्पन्न, रुद्रकन्याओंसे युक्त, गान- नृत्य आदिसे परिपूर्ण विमानोंमें [भगवान्] शिवकी भाँति प्रलयपर्यन्त विहार करता है। वहाँ महान् सुखोंका उपभोग करके वह महातेजस्वी [योगी] सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले विमानोंसे [क्रमशः ] उमालोक, कुमारलोक, ईशानलोक, विष्णुलोक, ब्रह्मलोक, प्रजापतिलोक, जनलोक तथा महर्लोक पहुँच जाता है; पुनः इन्द्रलोकमें पहुँचकर वहाँ दस हजार वर्षोंतक इन्द्रपदका भोग करनेके अनन्तर भुवर्लोकमें दिव्य तथा परम सुन्दर सुखोंको भोगकर मेरु पर्वतपर पहुँचकर देवताओंके भवनोंमें आनन्द प्राप्त करता है ॥ ४-७ ॥
मेरुमासाद्य देवानां भवनेषु प्रमोदते।
एकपादं चतुर्बाहुं त्रिनेत्रं शूलसंयुतम् ॥ ८
सृष्ट्वा स्थितं हरिं वामे दक्षिणे चतुराननम्।
अष्टाविंशतिरुद्राणां कोटिः सर्वाङ्गसुप्रभम् ॥ ९
पञ्चविंशतिकं साक्षात्पुरुषं हृदयात्तथा।
प्रकृतिं वामतश्चैव बुद्धिं वै बुद्धिदेशतः ॥ १०
अहङ्कारमहङ्कारात्तन्मात्राणि तु तत्र वै।
इन्द्रियाणीन्द्रियादेव लीलया परमेश्वरम् ॥ ११
पृथिवीं पादमूलात्तु गुह्यदेशाज्जलं तथा।
नाभिदेशात्तथा वहिं हृदयाद्भास्करं तथा ॥ १२
कण्ठात्सोमं तथात्मानं भ्रूमध्यान्यस्तकाद्दिवम्।
सृष्ट्वैवं संस्थितं साक्षाज्जगत्सर्वं चराचरम् ॥ १३
सर्वज्ञं सर्वगं देवं कृत्वा विद्याविधानतः ।
प्रतिष्ठाप्य यथान्यायं शिवसायुज्यमाप्नुयात् ॥ १४
जो एक पैर, चार भुजाओं, तीन नेत्रों तथा त्रिशूलसे युक्त हैं; जो अपने वाम भागसे विष्णु तथा दक्षिण भागसे ब्रह्माको उत्पन्न करके विराजमान हैं; जिनसे अट्ठाईस करोड़ रुद्र उत्पन्न हुए हैं, जो सभी अंगोंसे अत्यन्त प्रभावाले तथा पचीस तत्त्वोंवाले जीवात्मा साक्षात् पुरुषको हृदयसे, अपने बायें भागसे प्रकृतिको, बुद्धिदेशसे बुद्धिको, अपने अहंकारसे अहंकारको, तन्मात्राओंसे तन्मात्राओंको, अपनी इन्द्रियोंसे लीलापूर्वक इन्द्रियोंको, पैरके मूलभागसे पृथ्वीको, गुह्यदेशसे जलको, नाधिस्थलसे अग्निको, हृदयदेशसे सूर्यको, कण्ठसे चन्द्रमाको, भौहोंके मध्यभागसे आत्मा (रुद्र) को, मस्तकसे स्वर्गको इस प्रकार सम्पूर्ण चराचर जगत्को उत्पन्न करके साक्षात् विराजमान हैं, उन सर्वज्ञ तथा सर्वव्यापी परमेश्वरकी मूर्तिको विद्याविधानके अनुसार बनाकर विधिपूर्वक उनकी प्रतिष्ठा करके मनुष्य शिवसायुज्य प्राप्त करता है ॥ ८-१४॥
त्रिपादं सप्तहस्तं च चतुः शृङ्गं द्विशीर्षकम् ।
कृत्वा यज्ञेशमीशानं विष्णुलोके महीयते ॥ १५
तत्र भुक्त्वा महाभोगान् कल्पलक्षं सुखी नरः ।
क्रमादागत्य लोकेऽस्मिन् सर्वयज्ञान्तगो भवेत् ॥ १६
तीन पैरोंवाले, सात हाथोंवाले, चार श्रृंगोंवाले तथा दो सिरोंवाले यज्ञेश्वर अग्निस्वरूप ईशानको स्थापित करके मनुष्य विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। वहाँ एक लाख कल्पतक महान् भोगोंको भोगकर मनुष्य सुखी रहता है और [पुनः] क्रमसे इस लोकमें आकर समस्त यज्ञोंको सम्पन्न करता है॥ १५-१६ ॥
वृषारूढं तु यः कुर्यात्सोमं सोमार्धभूषणम्।
हयमेधायुतं कृत्वा यत्पुण्यं तदवाप्य सः ॥ १७
काञ्चनेन विमानेन किङ्किणीजालमालिना।
गत्वा शिवपुरं दिव्यं तत्रैव स विमुच्यते ॥ १८
नन्दिना सहितं देवं साम्बं सर्वगणैर्वृतम् ।
कृत्वा यत्फलमाप्नोति वक्ष्ये तद्वै यथाश्रुतम् ॥ १९
सूर्यमण्डलसङ्काशैर्विमानैर्वृषसंयुतैः ।
अप्सरोगणसङ्कीर्णैर्देवदानवदुर्लभैः ॥ २०
नृत्यद्भिरप्सरः सङ्गैः सर्वतः सर्वशोभितैः ।
गत्वा शिवपुरं दिव्यं गाणपत्यमवाप्नुयात् ॥ २१
नृत्यन्तं देवदेवेशं शैलजासहितं प्रभुम् ।
सहस्त्रबाहुं सर्वज्ञं चतुर्बाहुमथापि वा ॥ २२
भृग्वाद्यैर्भूतसङ्गैश्च संवृतं परमेश्वरम् ।
शैलजासहितं साक्षाद् वृषभध्वजमीश्वरम् ।। २३
ब्रह्मेन्द्रविष्णुसोमाद्यैः सदा सर्वैर्नमस्कृतम्।
मातृभिर्मुनिभिश्चैव संवृतं परमेश्वरम् ॥ २४
कृत्वा भक्त्या प्रतिष्ठाप्य यत्फलं तद्वदाम्यहम् ।
सर्वयज्ञतपोदानतीर्थदेवेषु यत् फलम् ॥ २५
तत्फलं कोटिगुणितं लब्ध्वा याति शिवं पदम् ।
तत्र भुक्त्वा महाभोगान् यावदाभूतसम्प्लवम् ।। २६
जो मनुष्य उमासहित वृषपर आरूढ़ अर्धचन्द्रधारी शिवकी मूर्तिको स्थापित करता है, वह दस हजार अश्वमेध यज्ञोंको करनेसे जो पुण्य होता है, उसे प्राप्तकर किंकिणीजालोंसे युक्त स्वर्ण-विमानसे दिव्य शिवलोकमें जाकर वहींपर मुक्त हो जाता है। नन्दी तथा उमासहित और सभी गणोंसे घिरे हुए महादेवकी प्रतिष्ठा करके मनुष्य जो फल प्राप्त करता है, जैसा मैंने सुना है, उसे बता रहा हूँ। वह सूर्यमण्डलके समान देदीप्यमान वृषभोंसे जुते हुए, अप्सराओंसे भरे हुए, देव-दानवोंके लिये दुर्लभ और नृत्य करती हुई अप्सराओंसे चारों औरसे पूर्णतः सुशोभित विमानोंसे दिव्य शिवलोकमें जाकर गणाधिपति पदको प्राप्त करता है॥ १९-२१॥ पार्वतीसहित नृत्य करते हुए, हजार भुजाओंवाले अथवा चार भुजाओंवाले, भृगु आदि तथा भूतसमूहोंसे घिरे हुए, पार्वतीके साथ, ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र-चन्द्र आदि सभी देवताओंसे सदा नमस्कृत और मातृकाओं तथा मुनियोंसे घिरे हुए देवदेवेश्वर-प्रभु सर्वज्ञ-परमेश्वर-वृषभध्वज शिवकी मूर्ति बनाकर भक्तिपूर्वक उसकी प्रतिष्ठा करके [मनुष्य] जो फल प्राप्त करता है, उसे मैं बताता हूँ- सभी यज्ञ, तप, दान, तीर्थ तथा देवदर्शन करनेमें जो फल होता है, उसका करोड़ों गुना फल प्राप्त करके वह शिवलोकको जाता है और वहाँ प्रलयपर्यन्त महान् सुखोंको भोगकर पुनः दूसरी सृष्टिका प्रारम्भ होनेपर मनु-पद प्राप्त करता है ॥ १७-२६॥
सृष्ट्यन्तरे पुनः प्राप्ते मानवं पदमाप्नुयात्।
नग्नं चतुर्भुजं श्वेतं त्रिनेत्रं सर्पमेखलम् ॥ २७
कृत्वा भक्त्या प्रतिष्ठाप्य शिवसायुज्यमाप्नुयात् ॥ २८
दिगम्बर, चार भुजाओंवाले, श्वेतवर्णवाले, तीन नेत्रोंवाले, सर्पकी मेखलावाले, हाथमें कपाल धारण किये हुए और काले तथा घुँघराले केशवाले देवेश्वरको [मूर्तिरूपमें] बनाकर भक्तिपूर्वक प्रतिष्ठा करके मनुष्य शिव-सायुज्य प्राप्त करता है॥ २७-२८ ॥
इभेन्द्रदारकं देवं साम्बं सिद्धार्थदं प्रभुम् ।
सुधूम्रवर्ण रक्ताक्षं त्रिनेत्रं चन्द्रभूषणम् ॥ २९
काकपक्षधरं मूर्ध्वा नागटङ्कधरं हरम्।
सिंहाजिनोत्तरीयं च मृगचर्माम्बरं प्रभुम् ॥ ३०
तीक्ष्णदंष्ट्रं गदाहस्तं कपालोद्यतपाणिनम्।
हुंफट्कारे महाशब्दशब्दिताखिलदिङ्मुखम् ॥ ३१
पुण्डरीकाजिनं दोर्थ्यां बिभ्रन्तं कम्बुकं तथा।
हसन्तं च नदन्तं च पिबन्तं कृष्णसागरम् ॥ ३२
नृत्यन्तं भूतसङ्गैश्च गणसङ्गैस्त्वलङ्कतम् ।
कृत्वा भक्त्या प्रतिष्ठाप्य यथाविभवविस्तरम् ॥ ३३
सर्वविघ्नानतिक्रम्य शिवलोके महीयते।
तत्र भुक्त्वा महाभोगान् यावदाभूतसम्प्लवम् ॥ ३४
कपालहस्तं देवेशं कृष्णकुञ्चितमूर्धजम् ।
गजासुरको विदीर्ण करनेवाले, उमासहित, सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले, कृष्ण वर्णवाले, लाल नेत्रोंवाले, तीन नेत्रोंवाले, चन्द्रको आभूषणके रूपमें धारण करनेवाले, सिरपर काकपक्ष धारण करनेवाले नागटंक धारण करनेवाले, व्याघ्रचर्मको उत्तरीयके रूपये लपेटे हुए, मृगचर्मको वस्त्ररूपमें धारण किये हुए, तीक्ष्ण दाँतोंवाले, हाथमें गदा लिये हुए, हाथमें कपाल लिये हुए, हुं-फट् महाशब्दसे सभी दिशाओंको गुंजित करते हुए, दोनों हाथोंमें व्याघ्रचर्म तथा कमण्डलु धारण किये हुए, हँसते हुए, गरजते हुए, काले समुद्रको पीते हुए भूतसमूहोंके साथ नृत्य करते हुए और गणसमुदायोंसे सुशोभित होते हुए देवेश्वर प्रभु शिवको [मूर्तिरूपमें] अपने सामर्थ्यके अनुसार बनाकर तथा प्रतिष्ठा करके [मनुष्य] सभी विघ्नोंसे रहित होकर शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है और वहाँ प्रलयपर्यन्त महान् सुखोंको भोगकर रुद्रोंसे विचारपूर्वक ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो जाता है ॥ २९-३४॥
ज्ञानं विचारतो लब्ध्वा रुद्रेभ्यस्तत्र मुच्यते।
अर्धनारीश्वरं देवं चतुर्भुजमनुत्तमम् ॥ ३५
वरदाभयहस्तं च शूलपद्मधरे प्रभुम् ।
स्त्रीपुम्भावेन संस्थानं सर्वाभरणभूषितम् ॥ ३६
कृत्वा भक्त्या प्रतिष्ठाप्य शिवलोके महीयते।
तत्र भुक्त्वा महाभोगानणिमादिगुणैर्युतः ।। ३७
आचन्द्रतारकं ज्ञानं ततो लब्ध्वा विमुच्यते।
यः कुयद्दिवदेवेशं सर्वज्ञं लकुलीश्वरम् ॥ ३८
वृतं शिष्यप्रशिष्यैश्च व्याख्यानोद्यतपाणिनम् ।
कृत्वा भक्त्या प्रतिष्ठाप्य शिवलोकं स गच्छति ॥ ३९
भुक्त्वा तु विपुलांस्तत्र भोगान् युगशतं नरः ।
ज्ञानयोगं समासाद्य तत्रैव च विमुच्यते ॥ ४०
अर्धनारीश्वर, चार भुजाओंवाले, वर तथा अभय मुद्रायुक्त हाथवाले, त्रिशूल तथा पद्म धारण किये हुए, स्त्री तथा पुरुष भावमें स्थित और समस्त आभूषणोंसे सुशोभित अत्युत्तम प्रभु महादेवको [मूर्तिरूपमें] बनाकर भक्तिपूर्वक प्रतिष्ठा करके वह शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है और वहाँ चन्द्रमा तथा तारोंकी स्थितिपर्यन्त महान् सुखोंको भोगकर अणिमा आदि गुणोंसे युक्त होकर ज्ञान प्राप्त करके वह मुक्त हो जाता है जो [मनुष्य] शिष्य-प्रशिष्योंसे घिरे हुए, उपदेशको मुद्रामें उठे हुए हाथवाले, देवदेवेश तथा सर्वज्ञ लकुलीश्वरको [मूर्तिरूपमें] बनाकर और पुनः भक्तिपूर्वक उन्हें स्थापित करके शिवलोकको जाता है। वह मनुष्य सौ युगोंतक वहाँ महान् सुखोंको भोगकर [पुनः] ज्ञानयोग प्राप्त करके वहींपर मुक्त हो जाता है, जो पूर्वदेवों तथा अमरोंका सर्वाभीष्ट स्थान है॥ ३५-४० ॥
पूर्वदेवामराणां च यत्स्थानं सकलेप्सितम्।
कृतमुद्रस्य देवस्य चिताभस्मानुलेपिनः ॥ ४१
त्रिपुण्ड्रधारिणस्तेषां शिरोमालाधरस्य च।
ब्रह्मणः केशकेनैकमुपवीतं च बिभ्रतः ॥ ४२
बिभ्रतो वामहस्तेन कपालं ब्रह्मणो वरम्।
विष्णोः कलेवरं चैव बिभ्रतः परमेष्ठिनः ॥ ४३
कृत्वा भक्त्या प्रतिष्ठाप्य मुच्यते भवसागरात्।
ओं नमो नीलकण्ठाय इति पुण्याक्षराष्टकम् ॥ ४४
मन्त्रमाह सकृद्धा यः पातकैः स विमुच्यते।
मन्त्रेणानेन गन्धाद्यैर्भक्त्या वित्तानुसारतः ॥ ४५
ध्यानमुद्रामें स्थित, चिताकी भस्म लगाये हुए, त्रिपुण्ड्र धारण किये हुए, मुण्डमाला धारण किये हुए, ब्रह्माके केशसे निर्मित एक यज्ञोपवीत धारण किये हुए, बाएँ हाथमें ब्रह्माका श्रेष्ठ कपाल धारण किये हुए और भगवान् विष्णुका शरीर धारण किये हुए महादेव शिवकी मूर्ति बनाकर तथा भक्तिपूर्वक उसकी प्रतिष्ठा करके मनुष्य भवसागरसे पार हो जाता है। जो एक बार भी 'ओम् नमो नीलकण्ठाय'- इस पुण्यदायक अष्टाक्षर मन्त्रका उच्चारण करता है, वह पापोंसे छूट जाता है; और अपने सामर्थ्यके अनुसार गन्ध आदि (उपचारों] से इस मन्त्रके द्वारा भक्तिपूर्वक देवदेवेश्वरकी विधिवत् पूजा करके शिवलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है॥ ४१-४५॥
सम्पूज्य देवदेवेशं शिवलोके महीयते।
जालन्धरान्तकं देवं सुदर्शनधरं प्रभुम् ॥ ४६
कृत्वा भक्त्या प्रतिष्ठाप्य द्विधाभूतं जलन्धरम्।
प्रयाति शिवसायुज्यं नात्र कार्या विचारणा ।। ४७
सुदर्शनप्रदं देवं साक्षात्पूर्वोक्तलक्षणम् ।
अर्चमानेन देवेन चार्चितं नेत्रपूजया ।। ४८
कृत्वा भक्त्या प्रतिष्ठाप्य शिवलोके महीयते।
तिष्ठतोऽथ निकुम्भस्य पृष्ठतश्चरणाम्बुजम् ।। ४९
वामेतरं सुविन्यस्य वामे चालिङ्ग्य चाद्रिजाम् ।
शूलाग्रे कूर्परं स्थाप्य किङ्किणीकृतपन्नगम् ॥ ५०
सम्प्रेक्ष्य चान्धकं पार्श्व कृताञ्जलिपुटं स्थितम्।
रूपं कृत्वा यथान्यायं शिवसायुज्यमाप्नुयात् ।। ५१
सुदर्शन चक्र धारण किये हुए तथा जलन्धरको दो टुकड़ोंमें किये हुए स्वरूपमें जलन्धर-विनाशक प्रभु महादेवको [मूर्तिरूपमें] बनाकर भक्तिपूर्वक [उनकी] प्रतिष्ठा करके मनुष्य शिवसायुज्य प्राप्त करता है; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये। पूर्वकथित लक्षणोंवाले, सुदर्शन चक्रके दाता तथा पूज्यमान विष्णुके द्वारा नेत्रदानरूपी पूजासे अर्चित देवेश्वरको [मूर्तिरूपमें] बनाकर तथा भक्तिपूर्वक उन्हें स्थापित करके मनुष्य शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है निकुम्भ की पीठ पर स्थित, [अपना] दाहिना चरणकमल उसकी पीठपर टिकाये हुए, वामभागमें पार्वतीको बैठाये हुए, सर्परूपी किंकिणीसे वेष्टित कुहनीको [अपने] त्रिशूलके अग्रभागपर टिकाये हुए और पासमें हाथ जोड़कर खड़े अन्धककी ओर देखते हुए स्वरूप (मूर्ति) को विधिके अनुसार बनाकर उसकी प्रतिष्ठा करनेसे मनुष्य शिवसायुज्य प्राप्त करता है ॥ ४६-५१॥
यः कुर्याद्देवदेवेशं त्रिपुरान्तकमीश्वरम् ।
धनुर्बाणसमायुक्तं सोमं सोमार्धभूषणम् ॥ ५२
रथे सुसंस्थितं देवं चतुराननसारथिम् ।
तदाकारतया सोऽपि गत्वा शिवपुरं सुखी ॥ ५३
क्रीडते नात्र सन्देहो द्वितीय इव शङ्करः ।
तत्र भुक्त्वा महाभोगान् यावदिच्छा द्विजोत्तमाः ॥ ५४
ज्ञानं विचारितं लब्ध्वा तत्रैव स विमुच्यते।
गङ्गाधरं सुखासीनं चन्द्रशेखरमेव च ॥ ५५
गङ्गया सहितं चैव वामोत्सङ्गेऽम्बिकान्वितम् ।
विनायकं तथा स्कन्दं ज्येष्ठं दुर्गा सुशोभनाम् ॥ ५६
भास्करं च तथा सोमं ब्रह्माणीं च महेश्वरीम् ।
कौमारीं वैष्णवीं देवीं वाराहीं वरदां तथा ॥५७
इन्द्राणीं चैव चामुण्डां वीरभद्रसमन्विताम् ।
विघ्नेशेन च यो धीमान् शिवसायुज्यमाप्नुयात् ॥ ५८
जो [भक्त] त्रिपुरका विनाश करनेवाले देवदेवेश ईश्वरको इस स्वरूपमें स्थापित करता है- जिसमें वे धनुषबाण लिये हुए हों, अर्धचन्द्रको आभूषणके रूपमें धारण किये हुए हों, उमाके साथ रथपर बैठे हुए हों, ब्रह्माजी [उनके] सारथि हों; वह भी उसी स्वरूपसे शिवलोकमें जाकर आनन्दपूर्वक दूसरे शिवकी भाँति क्रीड़ा करता है; इसमें सन्देह नहीं है। हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो । वहाँ अपनी इच्छाके अनुसार महान् सुखोंको भोगकर उत्तम ज्ञान प्राप्त करके वह वहींपर मुक्त हो जाता है गंगाको धारण किये हुए; सुखसे बैठे हुए; चन्द्रमाको सिरपर धारण किये हुए; गंगासहित; बाएँ गोदमें पार्वतीको बैठाये हुए और विनायक, ज्येष्ठ कार्तिकेय, सुन्दरी दुर्गा, सूर्य, चन्द्रमा, ब्रह्माणी, महेश्वरी, कौमारी, वैष्णवीदेवी, वरदायिनी वाराही, इन्द्राणी, चामुण्डा, वीरभद्र तथा विघ्नेशसहित शिवको [मूर्तिरूपमें] जो बुद्धिमान् स्थापित करता है, वह शिवसायुज्य प्राप्त करता है॥ ५२-५८॥
लिङ्गमूर्ति महाज्वालामालासंवृतमव्ययम् ।
लिङ्गस्य मध्ये वै कृत्वा चन्द्रशेखरमीश्वरम् ॥ ५९
व्योम्नि कुर्यात्तथा लिङ्ग ब्रह्माणं हंसरूपिणम्।
विष्णुं वराहरूपेण लिङ्गस्याधस्त्वधोमुखम् ।। ६०
ब्रह्माणं दक्षिणे तस्य कृताञ्जलिपुटं स्थितम् ।
मध्ये लिङ्गं महाघोरं महाम्भसि च संस्थितम् ॥ ६१
कृत्वा भक्त्या प्रतिष्ठाप्य शिवसायुज्यमाप्नुयात् ।
क्षेत्रसंरक्षकं देवं तथा पाशुपतं प्रभुम् ॥ ६२
कृत्वा भक्त्या यथान्यायं शिवलोके महीयते ॥ ६३
ऐसी मूर्ति जिसमें अव्यय शिवजी लिङ्ग के रूपमें हों, बड़ी-बड़ी ज्वालाओंके समूहोंसे घिरे हुए हो, लिङ्गके मध्यमें चन्द्रमाको धारण किये हुए स्थित हो, हंसरूपधारी ब्रह्मा उनके दाहिने भागमें हाथ जोड़े हुए विराजमान हों, बाराहरूपधारी विष्णु नीचेको ओर मुख किये हुए लिङ्गके अधोभागमें स्थित हों, अघोर महान् लिङ्ग अत्यधिक जलके मध्यमें स्थित हो उसे बनाकर तथा भक्तिपूर्वक स्थापित करके भक्त शिवसायुज्य प्राप्त करता है। क्षेत्रकी रक्षा करनेवाले क्षेत्रपाल तथा प्रभु पशुपति शिवको [मूर्तिरूपमें] बनाकर भक्तिपूर्वक विधानके अनुसार उनको स्थापित करके भक्त शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है॥ ५९-६३॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे शिवमूर्तिप्रतिष्ठाफलकथनं नाम षट्सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७६ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'शिवमूर्तिप्रतिष्ठाफलकथन' नामक छिहत्तरवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७६ ॥
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