लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] तिरासीवाँ अध्याय
विभिन्न मासों में किये जाने वाले शिव व्रतों का विधान
ऋषय ऊचुः
व्यपोहनस्तवं पुण्यं श्रुतमस्माभिरादरात्।
प्रसङ्गाल्लिङ्गदानस्य व्रतान्यपि वदस्व नः ॥ १
ऋषिगण बोले- [हे सूतजी।] हम लोगोंने आदरपूर्वक पवित्र व्यपोहनस्तवको सुन लिया; अब आए प्रसंगसे लिङ्गदानके व्रतोंको भी हमलोगोंको बताइये ॥ १ ॥
सूत उवाच
व्रतानि वः प्रवक्ष्यामि शुभानि मुनिसत्तमाः।
नन्दिना कथितानीह ब्रह्मपुत्राय धीमते ॥ २
तानि व्यासादुपश्रुत्य युष्माकं प्रवदाम्यहम्।
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां पक्षयोरुभयोरपि ॥ ३
वर्षमेकं तु भुञ्जानो नक्तं यः पूजयेच्छिवम् ।
सर्वयज्ञफलं प्राप्य स याति परमां गतिम् ॥ ४
पृथिवीं भाजनं कृत्वा भुक्त्वा पर्वसु मानवः ।
अहोरात्रेण चैकेन त्रिरात्रफलमश्नुते ॥ ५
सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ मुनियो। मैं आप लोगोंको शुभ व्रत बताऊँगा, नन्दीने बुद्धिमान् ब्रह्मापुत्र सनत्कुमारको उन्हें बताया था, उन्हीं [व्रतों] को व्यासजीसे सुनकर मैं आप लोगोंको बता रहा हूँ॥२२॥ एक वर्षतक दोनों पक्षोंकी अष्टमी तथा चतुर्दशीको केवल रात्रिमें आहार ग्रहण करता हुआ जी [मनुष्य] शिवकी पूजा करता है, वह समस्त यज्ञोंका फल प्राप्त करके परमगति प्राप्त करता है। पर्वोपर एक दिन- रात इस व्रतको करके और पृथ्वीको पात्र बनाकर भोजन करनेसे मनुष्य तीन रात्रियोंका फल प्राप्त करता है॥३-५॥
द्वयोर्मासस्य पञ्चम्योर्द्वयोः प्रतिपदोर्नरः ।
क्षीरधाराव्रतं कुर्यात्सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥ ६
कृष्णाष्टम्यां तु नक्तेन यावत्कृष्णचतुर्दशी।
भुञ्जन् भोगानवाप्नोति ब्रह्मलोकं च गच्छति ॥ ७
योऽब्दमेकं प्रकुर्वीत नक्तं पर्वसु पर्वसु।
ब्रह्मचारी जितक्रोधः शिवध्यानपरायणः ॥ ८
संवत्सरान्ते विप्रेन्द्रान् भोजयेद्विधिपूर्वकम् ।
स याति शाङ्करं लोकं नात्र कार्या विचारणा ॥ ९
उपवासात्परं भैक्ष्यं भैक्ष्यात्परमयाचितम्।
अयाचितात्परं नक्तं तस्मान्नक्तेन वर्तयेत् ॥ १०
जो मनुष्य महीनेकी दोनों पंचमी तथा प्रतिपदा तिथियोंमें क्षीरधाराव्रत करता है अर्थात् केवल दुग्धके आहारपर रहता है, वह अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। कृष्णपक्षकी अष्टमीसे कृष्णपक्षकी चतुर्दशीतक [केवल] रातमें भोजन करनेवाला भोगोंको प्राप्त करता है और [अन्तमें] ब्रह्मलोक जाता है जो (मनुष्य] ब्रह्मचर्यमें स्थित रहकर, क्रोधको वशमें करके तथा शिवध्यानपरायण होकर एक वर्षतक सभी पर्वोंमें नक्तव्रत करता है और वर्षके अन्तमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक भोजन कराता है, वह शिवलोक जाता है; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये उपवास की अपेक्षा भिक्षा श्रेष्ठ है, भिक्षाकी अपेक्षा बिना माँगे प्राप्त भोजन श्रेष्ठ है और बिना माँगे प्राप्त भोजनकी अपेक्षा नक्तत्रत श्रेष्ठ है; अतः नक्तव्रत करना चाहिये ॥ ६-१० ॥
देवैर्भुक्तं तु पूर्वाह्न मध्याह्ने ऋषिभिस्तथा।
अपराह्ने च पितृभिः सन्ध्यायां गुह्यकादिभिः ॥ ११
सर्ववेलामतिक्रम्य नक्तभोजनमुत्तमम् ।
हविष्यभोजनं स्नानं सत्यमाहारलाघवम् ॥ १२
पूर्वाह्नमें किया गया भोजन देवताओंका, मध्याह्नमें ऋषियोंका, अपराहमें पितरोंका और सन्ध्यामें गुह्यकों का होता है, किन्तु सभी कालोंका अतिक्रमण करके रातमें किया गया भोजन उत्तम होता है। रातमें भोजन करनेवालेको हविष्यान्न ग्रहण करना चाहिये, स्नान करना चाहिये, सत्यका पालन करना चाहिये, कम खाना चाहिये, अग्निहोत्र करना चाहिये और भूमिपर शयन करना चाहिये ॥ ११-१२॥
अग्निकार्यमधः शब्यां नक्तभोजी समाचरेत्।
प्रतिमासं प्रवक्ष्यामि शिवव्रतमनुत्तमम् ॥ १३
धर्मकामार्थमोक्षार्थ सर्वपापविशुद्धये ।
पुष्यमासे च सम्पूज्य यः कुर्यान्नक्तभोजनम् ॥ १४
सत्यवादी जितक्रोधः शालिगोधूमगोरसैः ।
पक्षयोरष्टर्मी यत्नादुपवासेन वर्तयेत् ॥ १५
भूमिशय्यां च मासान्ते पौर्णमास्यां घृतादिभिः ।
स्नाप्य रुद्रं महादेवं सम्पूज्य विधिपूर्वकम् ॥ १६
यावकं चौदनं दत्त्वा सक्षीरं सघृतं द्विजाः ।
भोजयेद् ब्राह्मणाञ्छिष्टाञ्जपेच्छान्तिं विशेषतः ॥ १७
तथा गोमिथुनं चैव कपिलं विनिवेदयेत्।
भवाय देवदेवाय शिवाय परमेष्ठिने ॥ १८
स याति मुनिशार्दूल वाहेयं लोकमुत्तमम् ।
भुक्त्वा स विपुलान् लोकान् तत्रैव स विमुच्यते ।। १९
अब मैं प्रत्येक महीनेमें किये जानेवाले उत्तम शिवव्रतका वर्णन करूँगा, जो धर्म-काम-अर्थ-मोक्षके लिये और सभी पापोंकी शुद्धिके लिये होता है। जो [मनुष्य] सत्यवादी तथा जितक्रोध (क्रोधको वशमें किया हुआ) होकर पुष्य (पौष) मासमें [शिवका] विधिवत् पूजन करके चावल, गेहूँ और गोदुग्धसे बने हुए भोजनको केवल रातमें ग्रहण करता है; दोनों पक्षोंकी अष्टमी तिथिमें यत्नपूर्वक उपवास करता है तथा भूमिपर शयन करता है और हे द्विजो। मासके अन्तमें पूर्णिमाके दिन घृत आदिसे महादेवको स्नान कराकर विधिपूर्वक उनकी पूजा करके श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको दुग्ध तथा घृतमिश्रित पके हुए यव तथा चावलका भोजन कराता है एवं विशेषरूपसे शान्तिमन्त्रोंका जप करता है और देवदेव परमेश्वर भव शिवजीको कपिल वर्णका गोमिथुन (गाय तथा वृषभ) समर्पित करता है- हे श्रेष्ठ मुनियो। वह [मनुष्य] उत्तम अग्निलोकको जाता है और अनेक लोकोंके सुखोंका भोग करके वहींपर मुक्त हो जाता है॥ १३-१९ ॥
माघमासे तु सम्पूज्य यः कुर्यान्नक्तभोजनम्।
कृशरं घृतसंयुक्तं भुञ्जानः संयतेन्द्रियः ॥ २०
सोपवासं चतुर्दश्यां भवेदुभयपक्षयोः।
रुद्राय पौर्णमास्यां तु दद्याद्वै घृतकम्बलम् ॥ २१
कृष्णं गोमिथुनं दद्यात्पूजयेच्चैव शङ्करम्।
भोजयेद् ब्राह्मणांश्चैव यथाविभवविस्तरम् ॥ २२
याम्यमासाद्य वै लोकं यमेन सह मोदते।
फाल्गुने चैव सम्प्राप्ते कुर्याद्वै नक्तभोजनम् ॥ २३
श्यामाकान्नघृतक्षीरैर्जितक्रोधो जितेन्द्रियः।
चतुर्दश्यामथाष्टम्यामुपवासं च कारयेत् ॥ २४
पौर्णमास्यां महादेवं स्नाप्य सम्पूज्य शङ्करम्।
दद्याद गोमिथुनं वापि ताम्नाभं शूलपाणये ।। २५
ब्राह्मणान् भोजयित्वा तु प्रार्थयेत्परमेश्वरम्।
स याति चन्द्रसायुज्यं नात्र कार्या विचारणा ॥ २६
माघ मासमें जो [मनुष्य] पूजन करके केवल नक्त भोजन करता है, घृतयुक्त कृशरका आहार ग्रहण करता है, इन्द्रियोंको वशमें किये रहता है, दोनों पक्षोंकी चतुर्दशीमें उपवास करता है, पूर्णिमाके दिन रुद्रको घृतकम्बल अर्पित करता है, कृष्ण वर्णका गोमिथुन प्रदान करता है, शिवकी पूजा करता है, [अपने] सामध्यके अनुसार ब्राह्मणोंको भोजन कराता है, वह यमलोक पहुँचकर यमके साथ आनन्द मनाता है फाल्गुन मास आनेपर जो घी तथा दूधमें पकाये हुए साँवाँक अन्नका नक्त भोजन करता है, इन्द्रियोंको तथा क्रोधको वशमें किये रहता है, अष्टमी तथा चतुर्दशीके दिन उपवास करता है, पूर्णिमाके दिन महादेव शंकरको स्नान कराकर उनकी पूजा करके उन शूलपाणि [शिव]- को ताम्रवर्णका गोमिथुन प्रदान करता है और ब्राह्मणोंको भोजन कराकर परमेश्वरसे प्रार्थना करता है, वह चन्द्रमाका सायुज्य प्राप्त करता है; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ २०-२६ ॥
चैत्रेऽपि रुद्रमभ्यर्च्य कुर्याद्वै नक्तभोजनम्।
शाल्यन्नं पयसा युक्तं घृतेन च यथासुखम् ॥ २७
गोष्ठशायी मुनिश्रेष्ठाः क्षितौ निशि भवं स्मरेत्।
पौर्णमास्यां शिवं स्नाप्य दद्याद् गोमिथुनं सितम् ॥ २८
ब्राह्मणान् भोजयेच्चैव निर्ऋतेः स्थानमाप्नुयात्।
वैशाखे च तथा मासे कृत्वा वै नक्तभोजनम् ॥ २९
पौर्णमास्यां भवं स्नाप्य पञ्चगव्यघृतादिभिः।
श्वेतं गोमिथुनं दत्त्वा सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥ ३०
हे श्रेष्ठ मुनियो। जो चैत्र महीनेमें रुद्रकी पूजा करके घी और दूधसे युक्त तथा पके हुए शालि-चावलको अपनी रुचिके अनुसार रात्रिमें ग्रहण करता है, रातमें गोशालायें भूमिपर शयन करता है, शिवजीका स्मरण करता है, पूर्णमासीके दिन शिवको स्नान कराकर श्वेतवर्णका गोमिथुन प्रदान करता है और ब्राह्मणोंको भोजन कराता है, वह निर्ऋतिलोक को प्राप्त करता है वैशाख महीनेमें नक्तभोजन करके पूर्णमासी तिथिमें पंचगव्य, घृत आदिसे शिवजीको स्नान कराकर श्वेतवर्णका गोमिथुन अर्पित करके वह [मनुष्य] अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है॥ २७-३०॥
ज्येष्ठे मासे च देवेशं भवं शर्वमुमापतिम्।
सम्पूज्य श्रद्धया भक्त्या कृत्वा वै नक्तभोजनम् ॥ ३१
रक्तशाल्यन्नमध्वा च अद्धिः पूतं घृतादिभिः।
वीरासनी निशार्धं च गवां शुश्रूषणे रतः ॥ ३२
पौर्णमास्यां तु सम्पूज्य देवदेवमुमापतिम्।
स्नाप्य शक्त्या यथान्यायं चरुं दद्याच्च शूलिने ।। ३३
ब्राह्मणान् भोजयित्वा च यथाविभवविस्तरम्।
धूप्रं गोमिथुनं दत्त्वा वायुलोके महीयते ॥ ३४
आषाढे मासि चाप्येवं नक्तभोजनतत्परः।
भूरिखण्डाज्यसम्मिश्र सक्तुभिश्चैव गोरसम् ॥ ३५
पौर्णमास्यां घृताद्यैस्तु स्नाप्य पूज्य यथाविधि।
ब्राह्मणान् भोजयित्वा च श्रोत्रियान् वेदपारगान् ।। ३६
ज्येष्ठ मासमें देवेश, भव, शर्व, उमापतिको श्रद्धापूर्वक पूजा करके मधु-जल-घृतमिश्रित पवित्र शालिचावलका केवल रात्तमें आहार ग्रहण करके वीर आसनमें स्थित होकर आधी रातमें गायोंकी सेवामें तत्पर रहकर पूर्णिमाके दिन देवदेव उमापतिको स्नान कराकर उनकी पूजा करके विधानपूर्वक शिवजीको चरु अर्पित करके पुनः अपने सामध्यके अनुसार ब्राह्मणोंको भोजन कराकर धूम्रवर्णका गोमिथुन [शिवजीको] अर्पित करनेसे वह वायुलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है इसी प्रकार आषाढ़ महीनेमें भी चीनी, घृत तथा गोदुग्धमिश्रित सत्तूके नक्त-भोजनमें तत्पर रहते हुए पूर्णिमाके दिन घृत आदिसे [शिवजीको] स्नान कराकर विधिपूर्वक पूजन करके वेदमें पारंगत श्रोत्रिय ब्राह्मणोंको भोजन कराकर जो गौरवर्णका गोमिथुन अर्पित करता है, वह वरुणलोक प्राप्त करता है ॥ ३१--३६ ॥
दद्याद् गोमिथुनं गौरं वारुणं लोकमाप्नुयात्।
श्रावणे च द्विजा मासे कृत्वा वै नक्तभोजनम् ॥ ३७
क्षीरषष्टिकभक्तेन सम्पूज्य वृषभध्वजम्।
पौर्णमास्यां घृताद्यैस्तु स्नाप्य पूज्य यथाविधि ॥ ३८
ब्राह्मणान् भोजयित्वा च श्रोत्रियान् वेदपारगान्।
शवेताग्रपादं पौण्डूं च दह्याद् गोमिथुन पुनः ॥ ३९
हे द्विजो! सावन महीनेमें दूधमिश्रित षष्टिक (साठ दिनमें उत्पन्न होनेवाले शालिचावल) के भातका नक्तभोजन करके वृषभध्वजकी पूजा करके [अन्तमें] पूर्णिमाके दिन घृत आदिसे स्नान कराकर विधिपूर्वक उनकी पूजा करके वेदमें पारंगत श्रोत्रिय ब्राह्मणोंको भोजन कराकर जो [मनुष्य] सफेद खुरवाला तथा चितकबरा गोमिथुन शिवजीको अर्पित करता है, वह वायुदेवका सायुज्य प्राप्त करता है और वायुके समान सर्वगामी हो जाता है॥ ३७-३९॥
स याति वायुसायुज्यं वायुवत्सर्वगों भवेत्।
प्राप्ते भाद्रपदे मासे कृत्वैवं नक्तभोजनम्॥ ४०
हुतशेषं च विप्रेन्द्रान् वृक्षमूलाश्रितों दिवा।
पौर्णमास्यां तु देवेशं स्नाप्य सम्पूज्य शद्भूरम्॥ ४१
नीलस्कन्धं व॒षं गां च दत्त्वा भक्त्या यथाविधि।
ब्राह्मणान् भोजयित्वा च वेदवेदाड्रपारगान्॥ ४२
यक्षलोकमनुप्राप्प यक्षराजो भवेन्नरः ।
ततश्चाश्वयुजे मासि कृत्वैवं॑ नक्तभोजनम्॥ ४३
सघृतं शट्डूरं पूज्य पौर्णमास्यां च पूर्ववत्।
ब्राह्मणान् भोजयित्वा च शिवभक्तान् सदा शुचीन्॥ ४४
वृषभं नीलवर्णाभमुरोदेशसमुन्नतम् ।
गां च दत्त्वा यथान्यायमैशानं लोकमाप्नुयात्॥ ४५
हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो। इसी प्रकार भाद्रपद महीना आनेपर हवनसे बची हुई सामग्रीका नक्तभोजन करके दिनमें वृक्षके मूलका आश्रय लेकर विश्राम करते हुए [अन्तमें] पूर्णिमाके दिन देवेश शंकरको स्नान कराकर [उनकी] पूजा करके भक्तिपूर्वक विधिके अनुसार नीलवर्णके स्कन्धवाला वृषभ तथा एक गाय शिवजीको अर्पित करके वेद वेदांगमें पारंगत ब्राह्मणोंको भोजन कराकर मनुष्य यक्षलोक प्राप्त करके यक्षोंका राजा हो जाता है इसके बाद इसी तरह आश्विन (क्वार) मासमें केवल रातमें घीसे बना हुआ भोजन करके पूर्णिमा तिथिमें पूर्वकी भाँति शंकरकी पूजा करके ब्राह्मणों तथा सर्वदा पवित्र रहनेवाले शिवभक्तोंको भोजन कराकर नीलवर्णकी आभावाले तथा उन्नत उरुदेशवाले एक वृषभ और एक गायका विधिपूर्वक दान करके मनुष्य ईशानलोक प्राप्त करता है॥ ४०-४५ ॥
कार्तिके च तथा मासे कृत्वा वे नक्तभोजनम्।
क्षीरोदनेन साज्येन सम्पूज्य च भवं प्रभुम॥ ४६
पोर्णमास्यां च विधिवत्स्नाप्य दत्त्वा चरुं पुनः ।
ब्राह्मणान् भोजयित्वा च यथाविभवविस्तरम्॥ ४७
दत्त्वा गोमिथुनं चेव कापिल पूर्ववद् द्विजा: ।
सूर्यसायुज्यमाप्नोति नात्र कार्या विचारणा॥ ४८
मार्गशीर्ष च मासे5पि कृत्वैवं नक्तभोजनम्।
यवान्नेन यथान्यायमाज्यक्षीरादिभि: समम्॥ ४९
पौर्णमास्यां च पूर्वोक्त कृत्वा शर्वाय शम्भवे।
ब्राह्मणान् भोजयित्वा च दरिद्रान् वेदपारगान्॥ ५०
दत्त्वा गोमिथुनं चैव पाण्दुरं विधिपूर्वकम्।
सोमलोकमनुप्राप्प सोमेन सह मोदते॥ ५१
हे द्विजो! कार्तिक मासमें रात्रिमें घृतयुक्त दुग्धोदनका भोजन करके भगवान् शिवका पूजनकर [अन्तमें) पूर्णिमा तिथिमें विधिपूर्वक [शिवजीको] स्नान कराकर पुनः उन्हें चरुका नैवेद्य अर्पित करके अपने सामर्थ्यके अनुसार ब्राह्मणोंको भोजन कराकर पूर्वकी भाँति कपिल वर्णका गोमिथुन शिवजीको समर्पित करके मनुष्य सूर्यसायुज्य प्राप्त करता है; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये मार्गशीर्ष (अगहन) महीनेमें भी विधिपूर्वक दूध तथा धीमें पकाये हुए जौका रात्रिमें भोजन करके [अन्तमें] पूर्णिमाके दिन पूर्वकी भाँति शर्व शम्भुको स्नान कराकर उनकी पूजा करके वेदमें पारंगत निर्धन ब्राह्मणोंको भोजन कराकर तथा विधिपूर्वक पाण्डुरवर्णका गोमिथुन [शिवजीको] समर्पित करके मनुष्य सोमलोक प्राप्त करके [वहाँपर] सोमके साथ आनन्द प्राप्त करता है ॥ ४६-५१ ॥
अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यं क्षमा दया।
त्रिःस्नानं चाग्निहोत्रं च भूशव्या नक्तभोजनम् ॥ ५२
पक्षयोरुपवासं च चतुर्दश्यष्टमीषु च।
इत्येतदखिलं प्रोक्तं प्रतिमासं शिवनतम् ॥ ५३
कुर्याद्वर्ष क्रमेणैव व्युत्क्रमेणापि वा द्विजाः।
स याति शिवसायुज्यं ज्ञानयोगमवाप्नुयात् ॥ ५४
अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य, क्षमा, दया, तीनों कालमें स्नान, अग्निहोत्र, पृथ्वीपर शयन, रात्रिभोजन और दोनों पक्षोंकी अष्टमी तथा चतुर्दशीको उपवास इन सबको तथा प्रत्येक महीनेके शिवव्रतको मैंने कह दिया; है द्विजो! जो [मनुष्य] क्रमसे अथवा विपरीत क्रमसे वर्षभर इसे करता है, वह शिवसायुज्य तथा ज्ञानयोग प्राप्त करता है॥ ५२-५४॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणणे पूर्वभागे शिवव्रतकथनं नाम ज्वशीतितमोऽध्यायः ॥ ८३॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहा पुराण के अन्तर्गत पूर्वभाग में 'शिव व्रत कथन' नामक तिरासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८३ ॥
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