लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] छाछठवाँ अध्याय
इक्ष्वाकुवंशी राजाओंकी कथा तथा ययातिवंश-वर्णन
सूत उवाच
अश्वमेधसहस्त्रस्य फलं प्राप्य प्रयत्नतः ॥ १
त्रिधन्वा देवदेवस्य प्रसादात्तण्डिनस्तथा।
गाणपत्यं दृढं प्राप्तः सर्वदेवनमस्कृतः ।
आसीत्त्रिधन्वनश्चापि विद्वांस्त्रय्यारुणो नृपः ॥ २
तस्य सत्यव्रतो नाम कुमारोऽभून्महाबलः ।
तेन भार्या विदर्भस्य हृता हत्वामितौजसम् ॥ ३
पाणिग्रहणमन्त्रेषु निष्ठामप्रापितेष्विह ।
तेनाधर्मेण संयुक्त राजा त्रव्यारुणोऽत्यजत् ॥ ४
सूतजी बोले- [हे द्विजो !] त्रिधन्वाने देवदेव तण्डीकी कृपासे प्रयत्न पूर्वक हजार अश्वमेधयज्ञों का फल प्राप्त करके सभी देवताओंसे नमस्कृत होकर महान् गणाधिपपद प्राप्त कर लिया। उन त्रिधन्वाके पुत्र विद्वान् राजा त्रय्यारुण थे। उन [त्रय्यारुण] का सत्यव्रत नामक महाबली पुत्र हुआ। उसने अमित तेजवाले विदर्भ देशके राजाको मारकर पाणिग्रहण के मन्त्रोंके पूर्ण होनेसे पहले ही उसकी पत्नीका हरण कर लिया। तब राजा त्रय्यारुणने उस अधर्मसे युक्त [अपने] पुत्रका त्याग कर दिया ॥ १-४ ॥
पितरं सोऽब्रवीत्त्यक्तः क्व गच्छामीति वै द्विजाः ।
पिता त्वेनमथोवाच श्वपाकैः सह वर्तय ॥५
हे द्विजो! तत्पश्चात् [पिताके द्वारा] त्यक्त उस [सत्यव्रत] ने पितासे कहा-'मैं कहाँ जाऊँ?' तब पिताने उससे कहा- 'तुम चाण्डालोंके साथ रहौ' ॥ ५ ॥
इत्युक्तः स विचक्राम नगराद्वचनात्पितुः ।
प्स तु सत्यव्रतो धीमाञ्छुपाकावसथान्तिके ॥ ६
पित्रा त्यक्तोऽवसद्वीरः पिता चास्य वनं ययौ।
सर्वलोकेषु विख्यातस्त्रिशङ्कुरिति वीर्यवान् ॥ ७
वसिष्ठकोपात्पुण्यात्मा राजा सत्यव्रतः पुरा।
विश्वामित्रो महातेजा वरं दत्त्वा त्रिशङ्कवे ॥ ८
राज्येऽभिषिच्य तं पित्र्ये याजयामास तं मुनिः ।
मिषतां देवतानां च वसिष्ठस्य च कौशिकः ॥ ९
सशरीरं तदा तं वै दिवमारोपयद्विभुः ।
तस्य सत्यव्रता नाम भार्या कैकयवंशजा ॥ १०
कुमारं जनयामास हरिश्चन्द्रमकल्मषम् ।
हरिश्चन्द्रस्य च सुतो रोहितो नाम वीर्यवान् ॥ ११
हरितो रोहितस्याथ धुन्धुहर्धारित उच्यते।
विजयश्च सुतेजाश्च धुन्धुपुत्रौ बभूवतुः ॥ १२
इस प्रकार कहा गया वह [सत्यव्रत] पिताके आदेशसे नगरसे निकल गया और पिताके द्वारा त्यक्त वह बुद्धिमान् सत्यव्रत चाण्डालोंके निवासस्थानके समीप रहने लगा और उसके पिता वनमें चले गये। पूर्वकालमें वसिष्ठके कोपके कारण वह पुण्यात्मा राजा सत्यव्रत सभी लोकोंमें पराक्रमी त्रिशंकु-इस नामसे विख्यात हुआ। उसके बाद महातेजस्वी मुनि विश्वामित्रने त्रिशंकुको वर प्रदानकर उसे पिताके राज्यपर अभिषिक्त करके उससे यज्ञ कराया था। देवताओं तथा वसिष्ठके निषेध करनेपर भी ऐश्वर्यशाली विश्वामित्रने उसे सशरीर स्वर्ग भेज दिया था ॥ ६-९२॥
जेता क्षत्रस्य सर्वत्र विजयस्तेन स स्मृतः ।
रुचकस्तस्य तनयो राजा परमधार्मिकः ॥ १३
रुचकस्य वृकः पुत्रस्तस्माद् बाहुश्च जज्ञिवान्।
सगरस्तस्य पुत्रोऽभूद्राजा परमधार्मिकः ॥ १४
द्वै भार्ये सगरस्यापि प्रभा भानुमती तथा।
ताभ्यामाराधितः पूर्वमौर्वोऽग्निः पुत्रकाम्यया ।। १५
और्वस्तुष्टस्तयोः प्रादाद्यथेष्टं वरमुत्तमम् ।
एका षष्टिसहस्त्राणि सुतमेकं परा तथा ॥ १६
अगृह्लाद्वंशकर्तारं प्रभागृहात्सुतान् बहून् ।
एकं भानुमतिः पुत्रमगृह्लादसमञ्जसम् ।। १७
ततः षष्टिसहस्त्राणि सुषुवे सा तु वै प्रभा।
खनन्तः पृथिवीं दग्धा विष्णुहुङ्कारमार्गणैः ॥ १८
कैकयवंशमें उत्पन्न उसकी सत्यव्रता नामक भार्याने निष्पाप हरिश्चन्द्र नामक पुत्रको जन्म दिया। हरिश्चन्द्रका रोहित नामक पराक्रमी पुत्र था। रोहितका पुत्र हरित था। हरितका पुत्र धुंधु कहा जाता है। धुंधुके दो पुत्र हुए-विजय और सुतेज। उस [विजय] ने समस्त क्षत्रियोंको जीत लिया था, अतः उसे विजय कहा गया है। उसका पुत्र रुचक महान् धार्मिक राजा था। रुचकका पुत्र वृक था। उस [वृक]-से बाहु उत्पन्न हुआ। उसका पुत्र सगर हुआ; वह परम धार्मिक राजा था सगरकी भी प्रभा तथा भानुमती [नामक] दो भार्याएँ थीं। उन दोनोंने पूर्वकालमें पुत्रकी कामनासे अग्निसदृश और्व ऋषिकी आराधना की थी; और्वने प्रसन्न होकर उन्हें यथेष्ट उत्तम वर प्रदान किया। उनमेंसे एक [रानी]-ने साठ हजार तथा दूसरीने वंशको बढ़ानेवाले एक पुत्रको माँगा था। प्रभाने बहुत पुत्रोंको प्राप्त किया और भानुमतीने असमंजस नामक एक पुत्रको प्राप्त किया। उसके बाद प्रभाने जिन साठ हजार पुत्रोंको जन्म दिया था, वे पृथ्वीको खोदते हुए कपिलरूप विष्णुके हुंकाररूपी बाणोंले दग्ध हो गये ॥ १३-१८ ॥
असमञ्जस्य तनयः सोंऽशुमान्नाम विश्रुतः ।
तस्य पुत्रो दिलीपस्तु दिलीपात्तु भगीरथः ॥ १९
येन भागीरथी गङ्गा तपः कृत्वावतारिता।
भगीरथसुतश्चापि श्रुतो नाम बभूव ह ॥ २०
नाभागस्तस्य दायादो भवभक्तः प्रतापवान् ।
अम्बरीषः सुतस्तस्य सिन्धुद्वीपस्ततोऽभवत् ।। २१
नाभागेनाम्बरीषेण भुजाभ्यां परिपालिता।
बभूव वसुधात्यर्थ तापत्रयविवर्जिता ॥ २२
असमंजसके पुत्र अंशुमान् नामसे विख्यात हुए। उन [अंशुमान्] के पुत्र दिलीप थे और दिलीपसे भगीरथ हुए, जिन्होंने तपस्या करके भागीरथी गंगाका अवतरण कराया। भगीरथके श्रुत नामक पुत्र हुए। उन [श्रुत] के पुत्र नाभाग हुए, जो शिवभक्त तथा प्रतापशाली थे। उन [नाभाग] के अम्बरीष नामक पुत्र हुए। उन [अम्बरीष] से सिन्धुद्वीप उत्पन्न हुए। नाभागपुत्र अम्बरीषके द्वारा भुजाओंसे भली-भाँति पालित की गयी पृथ्वी [दैहिक, दैविक, भौतिक तीनों प्रकारके तापोंसे पूर्णरूपसे विहीन हो गयी थी ॥ १९-२२॥
अयुतायुः सुतस्तस्य सिन्धुद्वीपस्य वीर्यवान्।
पुत्रोऽयुतायुषो धीमानृतुपर्णो महायशाः ॥ २३
दिव्याक्षहृदयज्ञो वै राजा नलसखो बली।
नलौ द्वावेव विख्यातौ पुराणेषु दृढव्रतौ ॥ २४
वीरसेनसुतश्चान्यो यश्चेक्ष्वाकुकुलोद्भवः ।
ऋतुपर्णस्य पुत्रोऽभूत्सार्वभौमः प्रजेश्वरः ॥ २५
सुदासस्तस्य तनयो राजा त्विन्द्रसमोऽभवत् ।
सुदासस्य सुतः प्रोक्तः सौदासो नाम पार्थिवः ॥ २६
ख्यातः कल्माषपादो वै नाम्ना मित्रसहश्च सः ।
वसिष्ठस्तु महातेजाः क्षेत्रे कल्माषपादके ॥ २७
अश्मकं जनयामास इक्ष्वाकुकुलवर्धनम् ।
अश्मकस्योत्तरायां तु मूलकस्तु सुतोऽभवत् ॥ २८
स हि रामभयाद्राजा स्त्रीभिः परिवृतो वने।
बिभर्ति त्राणमिच्छन् वै नारीकवचमुत्तमम् ॥ २९
मूलकस्यापि धर्मात्मा राजा शतरथः सुतः ।
तस्माच्छतरथाज्जज्ञे राजा त्विलविलो बली ।॥ ३०
आसीत्त्वैलविलिः श्रीमान् वृद्धशर्मा प्रतापवान् ।
पुत्रो विश्वसहस्तस्य पितृकन्या व्यजीजनत् ॥ ३१
दिलीपस्तस्य पुत्रोऽभूत्खट्वाङ्ग इति विश्रुतः ।
येन स्वर्गादिहागत्य मुहूर्त प्राप्य जीवितम् ॥ ३२
त्रयोऽग्नयस्त्रयो लोका बुद्धया सत्येन वै जिताः ।
दीर्घबाहुः सुतस्तस्य रघुस्तस्मादजायत ।। ३३
अजः पुत्रो रघोश्चापि तस्माज्जज्ञे च वीर्यवान्।
राजा दशरथस्तस्माच्छ्रीमानिक्ष्वाकुवंशकृत् ॥ ३४
रामो दशरथाद्वीरो धर्मज्ञो लोकविश्रुतः ।
भरतो लक्ष्मणश्चैव शत्रुघ्नश्च महाबलः॥ ३५
उन सिन्धुद्रोपके अयुतायु नामक पराक्रमी पुत्र हुए। अयुतायुके ऋतुपर्ण नामक पुत्र हुए; वे बुद्धिमान् तथामहायशस्वी थे। वे बलवान् राजा [ऋतुपर्ण] नलके सखा और दिव्य द्यूतक्रीड़ाके मर्मज्ञ थे। पुराणोंमें दृढ़व्रतवाले दो नल प्रसिद्ध हैं। एक तो वीरसेनका पुत्र था और दूसरा इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न हुआ था, ऋतुपर्णके पुत्र राजा सार्वभौम हुए और उनके पुत्र सुदास हुए, वे इन्द्रके समान थे। सुदासके पुत्र राजा सौदास कहे गये हैं। उनका नाम मित्रसह था, किंतु वे कल्माषपाद नामसे प्रसिद्ध हुए। महातेजस्वी वसिष्ठने कल्माषपादके क्षेत्रमें इक्ष्वाकुकुलकी वृद्धि करनेवाले अश्मकको उत्पन्न किया। उत्तराके गर्भसे अश्मकके मूलक नामक पुत्र उत्पन्न हुए। वे परशुरामके भयसे स्त्रियोंसे घिरे रहते थे और वनमें अपनी रक्षाकी इच्छा करते हुए उत्तम नारीकवच धारण किये रहते थे। मूलकके शतरथ नामक पुत्र हुए, वे धर्मात्मा राजा थे। उन शतरथसे बलशाली राजा इलविल उत्पन्न हुए। इलविलके पुत्र वृद्धशर्मा थे, जो ऐश्वर्यसम्पन्न तथा प्रतापशाली थे। उनके पुत्र विश्वसह थे, जिन्हें पितृकन्याने जन्म दिया था। उनके पुत्र दिलीप हुए: वे खट्वांग नामसे प्रसिद्ध हुए, जिन्होंने एक मुहूर्तका जीवन प्राप्त करके स्वर्गसे इस लोकमें आकर [अपनी] बुद्धि एवं सत्यके द्वारा तीनों अग्नियों तथा तीनों लोकोंको जीत लिया था। उनके पुत्र दीर्घबाहु हुए तथा उनसे रघु उत्पन्न हुए। उन रघुसे अज नामक पुत्र उत्पन्न हुए और उन [अज]-से पराक्रमी दशरथ उत्पन्न हुए। उन दशरथसे ऐश्वर्यशाली, इक्ष्वाकुवंशको बढ़ानेवाले, वीर, धर्मज्ञ तथा लोकप्रसिद्ध राम और लक्ष्मण, भरत तथा महाबली शत्रुघ्न उत्पन्न हुए ॥ २३-३५ ॥
तेषां श्रेष्ठो महातेजा रामः परमवीर्यवान्।
रावणं समरे हत्वा यज्ञैरिष्ट्वा च धर्मवित् ॥ ३६
दशवर्षसहस्त्राणि रामो राज्यं चकार सः।
रामस्य तनयो जज्ञे कुश इत्यभिविश्रुतः ॥ ३७
लवश्च सुमहाभागः सत्यवानभवत्सुधीः ।
अतिथिस्तु कुशाज्जज्ञे निषधस्तस्य चात्मजः ।। ३८
नलस्तु निषधाज्जातो नभस्तस्मादजायत।
नभसः पुण्डरीकाख्यः क्षेमधन्वा ततः स्मृतः ॥ ३९
तस्य पुत्रोऽभवद्वीरो देवानीकः प्रतापवान्।
अहीनरः सुतस्तस्य सहस्त्राश्वस्ततः परः ॥ ४०
शुभश्चन्द्रावलोकश्च तारापीडस्ततोऽभवत्।
तस्यात्मजश्चन्द्रगिरिर्भानुचन्द्रस्ततोऽभवत् ॥ ४१
श्रुतायुरभवत्तस्माद् बृहद्दल इति स्मृतः ।
भारते यो महातेजा सौभद्रेण निपातितः ॥ ४२
एते इक्ष्वाकुदायादा राजानः प्रायशः स्मृताः ।
वंशे प्रधाना एतस्मिन् प्राधान्येन प्रकीर्तिताः ॥ ४३
सर्वे पाशुपते ज्ञानमधीत्य परमेश्वरम् ।
समभ्यर्च्य यथाज्ञानमिष्ट्वा यज्ञैर्यथाविधि ॥ ४४
दिवं गता महात्मानः केचिन्मुक्तात्मयोगिनः ।
नृगो ब्राह्मणशापेन कृकलासत्वमागतः ।। ४५
उनमें राम श्रेष्ठ, महातेजस्वी तथा महान् ओजस्वी थे। उन धर्मज्ञ रामने युद्धमें रावणका वध करके तथा यज्ञोंके द्वारा यजन करके दस हजार वर्षीतक राज्य किया था। रामके कुश नामसे एक प्रसिद्ध पुत्र उत्पन्न हुए और दूसरे लव उत्पन्न हुए, जो परम भाग्यशाली, सत्यनिष्ठ और सद्बुद्धिवाले थे। कुशसे अतिथि उत्पन्न हुए। उन [अतिथि] के पुत्र निषध थे। निषधसे नल उत्पन्न हुए और उन [नल]-से नभ उत्पन्न हुए। नभसे पुण्डरीक नामक पुत्र उत्पन्न हुए और उनसे क्षेमधन्वा उत्पन्न कहे गये हैं। उनके देवानीक नामक वीर तथा प्रतापी पुत्र हुए। उनके पुत्र अहोंनर थे तथा उनके पुत्र सहस्राश्व थे। उनसे कल्याणमय चन्द्रावलोक हुए और फिर उनसे तारापीड हुए। उन (तारापीड) के पुत्र चन्द्रगिरि हुए और उनसे भानुचन्द्र हुए। उनसे श्रुतायु उत्पन्न हुए, उन्हें बृहद्वल कहा गया है, जिन महा-तेजस्वीको महाभारतके युद्धमें सुभद्रापुत्र [अभिमन्यु]-ने मार डाला था। ये सब प्रायः इक्ष्वाकुवंशके उत्तराधिकारी राजा कहे गये हैं। इस वंशके प्रधान राजाओंका वर्णन मुख्यरूपसे कर दिया गया। ये सब शिवका ज्ञान प्राप्त करके परमेश्वरका अर्चनकर अपने ज्ञानके अनुसार विधिपूर्वक यज्ञोंके द्वारा यजन करके स्वर्ग चले गये; इनमें कुछ महात्मा तथा मुक्त आत्मावाले योगी हुए। [राजा] नृग एक ब्राह्मणके शापसे गिरगिटकी योनिको प्राप्त हो गये थे ॥ ३६-४५ ॥
धृष्टस्य धृष्टकेतुश्च यमबालश्च वीर्यवान्।
रणधृष्टस्य ते पुत्रास्त्रयः परमधार्मिकाः ॥ ४६
आनों नाम शर्यातेः सुकन्या नाम दारिका।
आनर्तस्याभवत्पुत्रो रोचमानः प्रतापवान् ॥ ४७
रोचमानस्य रेवोऽभूद्रेवाग्रैवत एव च।
ककुद्यी चापरो ज्येष्ठपुत्रः पुत्रशतस्य तु ॥ ४८
रेवती यस्य सा कन्या पत्नी रामस्य विश्रुता।
नरिष्यन्तस्य पुत्रोऽभूज्जितात्मा तु महाबली ॥ ४९
नाभागादम्बरीषस्तु विष्णुभक्तः प्रतापवान् ।
ऋतस्तस्य सुतः श्रीमान् सर्वधर्मविदां वरः ॥ ५०
कृतस्तस्य सुधर्माभूत्पृषितो नाम विश्रुतः ।
करूषस्य तु कारूषाः सर्वे प्रख्यातकीर्तयः ॥ ५१
पृषितो हिंसयित्वा गां गुरोः प्राप सुकल्मषम्।
शापाच्छूद्रत्वमापन्नश्च्यवनस्येति विश्रुतः ॥ ५२
दिष्टपुत्रस्तु नाभागस्तस्मादपि भलन्दनः ।
भलन्दनस्य विक्रान्तो राजासीदजवाहनः ॥ ५३
धृष्टके तीन पुत्र थे-धृष्टकेतु, यमबाल तथा पराक्रमी रणधृष्ट; वे सब परम धार्मिक थे शर्यातिके आनर्त नामक पुत्र हुए और सुकन्या नामक पुत्री हुई। आनर्तके प्रतापशाली पुत्र रोचमान उत्पन्न हुए। रोचमानके पुत्र रेव हुए और रेवसे रैवत हुए जो ककुयी इस दूसरे नामसे भी प्रसिद्ध थे, वे सी पुत्रोंवाले रेवके ज्येष्ठ पुत्र थे, जिनकी कन्या रेवती थी; वह राम (बलराम) की पत्नी कही गयी है। नरिष्यन्तके एक जितात्मा तथा महाबली पुत्र था। नाभागसे अम्बरीष हुए, वे विष्णुके भक्त एवं प्रतापशाली थे। उनके पुत्र ऋत हुए, जो ऐश्वर्यशाली तथा धर्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ थे। उनके पुत्र कृत हुए; उनके पुत्र सुधर्मा हुए, जो पुषित नामसे विख्यात हुए। करूषके पुत्र कारूष हुए, वे सब प्रसिद्ध कीर्तिवाले थे। पृषितने [अपने] गुरुकी गायका वध करके महान् पाप किया; वे च्यवनके शापसे शूद्रत्वको प्राप्त हुए थे यह प्रसिद्ध है। दिष्टके पुत्र नाभाग हुए। उन [नाभाग] से भलंदन हुए, भलंदनके पुत्र अजवाहन हुए; वे पराक्रमी राजा थे। [हे ऋषियो!] मैंने संक्षेपमें विशाल भुजाओंवाले मनुपुत्रोंका तथा इक्ष्वाकुके पुत्र, पौत्र आदिका वर्णन कर दिया; अब मैं आप लोगोंसे ऐल वंशका वर्णन करता हूँ ॥ ४६ -५४
एते समासतः प्रोक्ता मनुपुत्रा महाभुजाः ।
इक्ष्वाकोः पुत्रपौत्राद्या ऐलस्याथ वदामि वः ।। ५४
सूत उवाच
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः ॥ ५५
उत्तरे यमुनातीर प्रयागे मुनिसेविते।
प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान् प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः ॥ ५६
तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः ।
गन्धर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः ।। ५७
आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः ॥ ५८
आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन् महौजसः ।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः ॥ ५९
नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः ।
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः ॥ ६०
उत्पन्नाः पितृकन्यायां विरजायां महौजसः ।
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः ॥ ६१
विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः ।
यतिर्थेष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः ॥ ६२
ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थी ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः ।
तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः ॥ ६३
देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः ॥ ६४
हे द्विजी! इलाका पुरूरवा नामक पुत्र रुद्रभक्त तथा प्रतापी था। उसने उत्तरमें यमुनाके तटपर मुनियोंके द्वारा सेवित अत्यन्त पवित्र देश प्रयागमें निष्कंटक राज्य किया। प्रतिष्ठानपुरका स्वामी वह पुरूरवा प्रतिष्ठानपुर में प्रतिष्ठित हुआ। उसके सात पुत्र हुए। वे सब महान् तेजस्वी, गन्धर्वलोकमें प्रसिद्ध, शिवभक्त तथा महाबली थे। आयु, मायु, अमायु, विश्वायु, वीर्यवान्, श्रुतायु, शतायु-ये उर्वशीके दिव्य पुत्र थे। आयुके पाँच महान् ओजवाले तथा वीर पुत्र हुएः स्वर्भानुकी पुत्री प्रभासे वे राजा उत्पन्न हुए थे। उनमें पहला [पुत्र] नहुष था, जो धर्मज्ञ एवं लोकप्रसिद्ध था। नहुषके छः पुत्र हुए। इन्द्रके समान तेजवाले तथा महान् ओजस्वी वे सब पितृकन्या विरजासे उत्पन्न हुए थे। यति, ययाति, संयाति, आयाति, अन्धक, विजाति-ये छः पुत्र थे; सब के सब प्रसिद्ध कीर्तिवाले थे। उनमें यति ज्येष्ठ था और ययाति उससे कनिष्ठ था। ज्येष्ठ यति मोक्षका इच्छुक था और वह ब्रह्मस्वरूप हो गया। उन [शेष] पाँचोंमें ययाति महान् बल तथा पराक्रमसे सम्पन्न था। उसने उशना (शुक्राचार्य)- की पुत्री देवयानीको और वृषपर्वाकी पुत्री आसुरी शर्मिष्ठाको भार्यारूपमें प्राप्त किया था॥ ५५-६४॥
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ ॥ ६५
दुह्यं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
ययातये रथं तस्मै ददौ शुक्रः प्रतापवान् ॥ ६६
तोषितस्तेन विप्रेन्द्रः प्रीतः परमभास्वरम्।
सुसङ्गं काञ्चनं दिव्यमक्षये च महेषुधी ॥ ६७
युक्त मनोजवैरश्वैर्येन कन्यां समुद्वहन् ।
स तेन रथमुख्येन षण्मासेनाजयन्महीम् ।। ६८
ययातिर्युधि दुर्धर्षों देवदानवमानुषैः।
भवभक्तस्तु पुण्यात्मा धर्मनिष्ठः समञ्जसः ॥ ६९
देवयानीने यदु और तुर्वसुको उत्पन्न किया; वे दोनों ही उत्तम कर्मवाले, प्रशंसनीय तथा विद्यामें प्रवीण थे। वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने दुह्य, अनु एवं पूरुको जन्म दिया। उन ययातिके द्वारा सन्तुष्ट किये गये प्रतापी विप्रेन्द्र शुक्रने प्रसन्न होकर उन ययातिको दो अक्षय महान् तरकस और अत्यन्त चमकीला, सुन्दरतापूर्वक निर्मित, स्वर्णमय, दिव्य तथा मनके समान वेगवाले घोड़ोंसे जुता हुआ रथ प्रदान किया, जिससे वह कन्याको [अपने घर] लाया था। उसने उस रथसे छः महीनेके भीतर ही [सम्पूर्ण] पृथ्वीको जीत लिया था। ययाति युद्धमें देवताओं, दानवों तथा मनुष्योंसे अजेय था। वह शिवभक्त, पुण्यात्मा, धर्मनिष्ठ, सामंजस्य रखनेवाला, यज्ञ करनेवाला, क्रोधको जीत लेनेवाला तथा सभी प्राणियोंपर दया करनेवाला था ॥ ६५-६९ ॥
यज्ञयाजी जितक्रोधः सर्वभूतानुकम्पनः ।
कौरवाणां च सर्वेषां स भवद्रथ उत्तमः ॥ ७०
यावन्नरेन्द्रप्रवरः कौरवों जनमेजयः।
पूरोर्वशस्य राज्ञस्तु राज्ञः पारीक्षितस्य तु ॥ ७१
जगाम स रथो नाशं शापाद् गर्गस्य धीमतः ।
गर्गस्य हि सुतं बालं स राजा जनमेजयः ॥ ७२
अकूरं हिंसयामास ब्रह्महत्यामवाप सः।
स लोहगन्धी राजर्षिः परिधावन्नितस्ततः ॥ ७३
पौरजानपदैस्त्यक्तो न लेभे शर्म कर्हिचित्।
ततः स दुःखसन्तप्तो न लेभे संविदं क्वचित् ।। ७४
जगाम शौनकमृषिं शरण्यं व्यथितस्तदा।
इन्द्रेतिर्नाम विख्यातो योऽसौ मुनिरुदारधीः ॥ ७५
याजयामास चेन्द्रेतिस्तं नृपं जनमेजयम्।
अश्वमेधेन राजानं पावनार्थं द्विजोत्तमाः ॥ ७६
वह [रथ] सभी कौरवोंका तबतक उत्तम रथ था, जबतक कुरुवंशी महाराज जनमेजय थे। बुद्धिमान् [ऋषि] गर्नक शापके कारण पुरुवंशमें उत्पन्न परीक्षित्पुत्र राजा जनमेजयका वह रथ विनाशको प्राप्त हो गया। उन राजा जनमेजयने गर्गक पुत्र बालक अक्रूरको मार डाला था, जिससे उन्हें ब्रह्महत्या लग गयी। तब रुधिरकी गन्धवाले वे राजर्षि इधर-उधर भागने लगे। नगरवासियोंने उनका परित्याग कर दिया और उन्हें कहीं भी शान्ति नहीं मिल सकी। जब दुःखसे संतप्त उनको कहीं भी ज्ञान प्राप्त नहीं हो सका, तब वे व्यथित होकर शौनक ऋषिकी शरणमें गये। उदार बुद्धिवाले वे मुनि इन्द्रेति नामसे विख्यात थे। हे श्रेष्ठ द्विजो। इन्द्रेतिने उन राजा जनमेजयको पवित्र करनेके लिये उनसे अश्वमेधयज्ञका यजन कराया ॥ ७०-७६ ॥
स लोहगन्धान्निर्मुक्त एनसा च महायशाः।
यज्ञस्यावभृथे मध्ये यातो दिव्यो रथः शुभः ॥ ७७
तस्माद्वंशात्परिभ्रष्टो वसोश्चेदिपतेः पुनः।
दत्तः शक्रेण तुष्टेन लेभे तस्माद् बृहद्रथः ॥ ७८
ततो हत्त्वा जरासन्धं भीमस्तं रथमुत्तमम् ।
प्रददौ वासुदेवाय प्रीत्या कौरवनन्दनः ॥ ७९
सूत उवाच
अभ्यषिञ्चत्पुरुं पुत्रं ययातिर्नाहुषः प्रभुः ।
कृतोपकारस्तेनैव पुरुणा द्विजसत्तमाः ॥ ८०
अभिषेक्तुकामं च नृपं पुरुं पुत्रं कनीयसम्।
ब्राह्मणप्रमुखा वर्णा इदं वचनमब्रुवन् ॥ ८१
कथं शुक्रस्य नप्तारं देवयान्याः सुतं प्रभो।
ज्येष्ठं यदुमतिक्रम्य कनीयान्नाज्यमर्हति ॥ ८२
एते सम्बोधयामस्त्वां धर्म च अनुपालय ॥ ८३
तदनन्तर वे महायशस्वी जनमेजय रुधिरकी गन्धसे तथा ब्रह्महत्याके पापसे मुक्त हो गये और उस यज्ञके अवभृथस्नानके समय वह दिव्य तथा उत्तम रथ लुप्त हो गया। तदनन्तर इन्द्रने प्रसन्न होकर उस वंशसे परिभ्रष्ट उस रथको चेदिदेशके राजा वसुको दे दिया। पुनः उनसे बृहद्रथने प्राप्त किया। उसके बाद कौरवनन्दन भौमने जरासंधको मारकर वह उत्तम रथ वासुदेवको प्रेमपूर्वक प्रदान कर दिया सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! नहुषके पुत्र ययातिने अपने पुत्र पुरुको [राज्यपर] अभिषिक्त किया था; क्योंकि उस पुरुने उनका उपकार किया था। कनिष्ठ पुत्र पुरुका अभिषेक करनेकी इच्छावाले उन राजासे प्रमुख ब्राह्मणों तथा अन्य नागरिकोने यह वचन कहा था- 'हे प्रभो! शुक्राचार्यके नाती तथा देवयानीके पुत्र ज्येष्ठ यदुका अतिक्रमण करके छोटा भाई [पुरु] राज्यका अधिकारी कैसे हो सकता है? हम लोग आपको यह समझा रहे हैं कि आप धर्मका पालन करें' ॥ ७७-८३॥
।। इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे इक्ष्वाकुवंशवर्णनं नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६६ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'इक्ष्वाकुवंशवर्णन' नामक छाछठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६६ ॥
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