लिंग पुराण : आसन्नमृत्युसूचक लक्षण एवं योगसाधनामें प्रणवका माहात्म्य तथा शिवोपासनानिरूपण | Linga Purana: Symptoms indicating imminent death and the greatness of Pranava and worship of Shiva in yoga practice

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] इक्यानबेवाँ अध्याय

आसन्नमृत्युसूचक लक्षण एवं योगसाधना में प्रणव का माहात्म्य तथा शिवोपासना निरूपण

सूत उवाच

अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि अरिष्टानि निबोधत ।
येन ज्ञानविशेषेण मृत्युं पश्यन्ति योगिनः ॥ १

सूतजी बोले- [हे ऋषियो!] इसके बाद मैं अरिष्टों (मृत्युको सूचित करनेवाले चिह्नों) को बताऊँगा, जिस ज्ञानविशेषसे योगीलोग मृत्युको देखते हैं; आपलोग उन्हें जानिये ॥ १॥

अरुन्धतीं ध्रुवं चैव सोमच्छायां महापथम्।
यो न पश्येन्न जीवेत्स नरः संवत्सरात्परम् ॥ २

अरश्मिवन्तमादित्यं रश्मिवन्तं च पावकम्।
यः पश्यति न जीवेद्वै मासादेकादशात्परम् ।। ३

वमेन्मूत्रं पुरीषं च सुवर्ण रजतं तथा।
प्रत्यक्षमथवा स्वप्ने दशमासान्न जीवति ॥ ४

रुक्मवर्णं द्रुमं पश्येद् गन्धर्वनगराणि च।
पश्येत्प्रेतपिशाचांश्च नवमासान् स जीवति ॥ ५

अकस्माच्च भवेत्स्थूलो हाकस्माच्च कृशो भवेत्।
प्रकृतेश्च निवर्तेत चाष्टौ मासांश्च जीवति ॥ ६

जो मनुष्य अरुन्धती, ध्रुव, सोमछाया (छायापुरुष) तथा आकाशगंगामार्गको नहीं देख पाता है, वह एक वर्षसे अधिक नहीं जीवित रहता है। जो रश्मिरहित सूर्यको तथा रश्मियुक्त अग्निको देखता है, वह ग्यारह महीनेसे अधिक नहीं जीता है। जो प्रत्यक्ष अथवा स्वप्नमें मूत्र, पुरीष (विष्ठा), सुवर्ण अथवा रजत (चाँदी) का वमन करता है, वह दस महोनेसे अधिक नहीं जीता है। जो स्वप्नमें सुनहरे वृक्षको देखता है और गन्धर्वनगरों तथा प्रेतपिशाचोंको देखता है, वह नौ महीनेतक जीवित रहता है। जो अकस्मात् स्थूल हो जाता है, अकस्मात् दुर्बल हो जाता है और अपने स्वभावसे दूर हो जाता है, वह आठ महीनेतक जीवित रहता है॥ २-६॥

अग्रतः पृष्ठतो वापि खण्डं यस्य पदं भवेत्। 
पांशुके कर्दमे वापि सप्तमासान् स जीवति ॥ ७

काकः कपोतो गृध्रो वा निलीयेद्यस्य मूर्धनि। 
क्रव्यादो वा खगो यस्य षण्मासान्नातिवर्तते ॥ ८

गच्छेद्वायसपङ्कीभिः पांसुवर्षेण वा पुनः । 
स्वच्छायां विकृतां पश्येच्चतुः पञ्च स जीवति ॥ ९

अनभ्रे विद्युतं पश्येद्दक्षिणां दिशमास्थिताम्। 
उदके धनुरैन्द्रं वा त्रीणि द्वौ वा स जीवति ॥ १०

जिसके पैरकी आकृति धूल या कीचड़में सामने या पीछेसे खण्डित दिखायी दे, वह सात महीनेतक जीता है। जिसके सिरपर कौआ, कबूतर, गोध अथवा मांसभक्षी अन्य पक्षी बैठ जाता है, वह छः महीनेसे अधिक नहीं जीता है। जो कौओंकी पंक्तियोंके साथ गमन करता है अथवा धूलवृष्टि (आँधी) के साथ गमन करता है और अपनी छायाको विकृत देखता है, वह चार-पाँच महीनेतक जीता है। जो मेघरहित आकाशमें विद्युत्‌को दक्षिण दिशामें स्थित देखता है अथवा जलमें इन्द्रधनुषको देखता है, वह दो अथवा तीन महीनेतक जीवित रहता है॥७-१०॥

अप्सु वा यदि वादर्शे यो ह्यात्मानं न पश्यति। 
अशिरस्कं तथा पश्येन्मासादूर्ध्वं न जीवति ॥ ११

शवगन्धि भवेद् गात्रं वसागन्धमथापि वा। 
मृत्युर्युपागतस्तस्य अर्धमासान्न जीवति ॥ १२

यस्य वै स्नातमात्रस्य हृदयं परिशुष्यति। 
धूमं वा मस्तकात्पश्येद्दशाहान्न स जीवति ॥ १३

सम्भिन्नो मारुतो यस्य मर्मस्थानानि कृन्तति । 
अद्भिः स्पृष्टो न हुष्येत तस्य मृत्युरुपस्थितः ।। १४

ऋक्षवानरयुक्तेन रथेनाशां च दक्षिणाम्। 
गायन्नृत्यन् व्रजेत्स्वप्ने विद्यान्मृत्युरुपस्थितः ।। १५

कृष्णाम्बरधरा श्यामा गायन्ती वाप्यथाङ्गना। 
यं नयेद्दक्षिणामाशां स्वप्ने सोऽपि न जीवति ।। १६ 

जो जलमें अथवा दर्पणमें अपने प्रतिबिम्बको नहीं देख पाता है और अपनेको सिरविहीन देखता है, वह एक महीनेसे अधिक नहीं जीता है। यदि किसीका शरीर शवकी गन्धवाला अथवा चर्बीकी गन्धवाला हो जाता है, तो उसकी मृत्यु समीप आयी हुई होती है; वह आधे महीनेसे अधिक नहीं जीवित रहता है। स्नान करनेके तुरंत बाद जिसका हृदय सूख जाता है अथवा मस्तकसे धुआँ दिखायी देता है, वह दस दिनसे अधिक नहीं जीता हैप्रवाहमय वायु जिसके मर्मस्थानोंको भेद देता है और जो जलसे स्पृष्ट होकर प्रसन्न नहीं होता है, उसकी मृत्युको उपस्थित समझना चाहिये। यदि कोई स्वप्नमें ऋक्ष (भालू) तथा बन्दरसे जुते हुए रथसे दक्षिण दिशाको ओर गाते तथा नाचते हुए यात्रा करता है, तो उसको मृत्युको उपस्थित समझना चाहिये। स्वप्नमें काले रंगका वस्त्र धारण किये कृष्ण वर्णवालो स्त्री गाती हुई जिसे दक्षिण दिशाकी ओर ले जाय, वह भी जीवित नहीं रहता है॥ ११-१६॥

छिद्रं वा स्वस्य कण्ठस्य स्वप्ने यो वीक्षते नरः । 
नग्नं वा श्रमणं दृष्ट्वा विद्यान्मृत्युमुपस्थितम् ।। १७

आमस्तकतलाद्यस्तु निमज्जेत्पङ्कसागरे।
दृष्ट्‌वा तु तादृशं स्वप्नं सद्य एव न जीवति ॥ १८

भस्माङ्गारांश्च केशांश्च नदीं शुष्कां भुजङ्गमान्। 
पश्येद्यो दशरात्रं तु न स जीवति तादृशः ॥ १९

कृष्णैश्च विकटैश्चैव पुरुषैरुद्यतायुधैः । 
पाषाणैस्ताड्यते स्वप्ने यः सद्यो न स जीवति ॥ २०

सूर्योदये प्रत्युषसि प्रत्यक्षं यस्य वै शिवाः। 
क्रोशन्त्यभिमुखं प्रेत्य स गतायुर्भवेन्नरः ॥ २१

यस्य वा स्नातमात्रस्य हृदयं पीड्यते भृशम् । 
जायते दन्तहर्षश्च तं गतायुषमादिशेत् ॥ २२

भूयो भूयस्त्रसेद्यस्तु रात्री वा यदि वा दिवा। 
दीपगन्धं च नाघ्घ्राति विद्यान्मृत्युमुपस्थितम् ॥ २३

रात्रौ चेन्द्रधनुः पश्येद्दिवा नक्षत्रमण्डलम् । 
परनेत्रेषु चात्मानं न पश्येन्न स जीवति ॥ २४

जो मनुष्य स्वप्नमें अपने कण्ठका छिद्र देखता है अथवा नग्न श्रमण (भिक्षु) को देखता है, उसे अपनी मृत्युको उपस्थित समझना चाहिये। जो मनुष्य [स्वप्नमें] अपनेको पैरसे मस्तकतक कीचड़के समुद्रमें डूबा हुआ पाता है; वह उस प्रकारके स्वप्नको देखनेपर जीवित नहीं रहता है और शीघ्र ही मर जाता है। जो भस्म, अंगारों, केशों, सूखी नदी तथा सर्पोको स्वप्नमें देखता है; वह दस राततक जीवित नहीं रह पाता है। जो उठाये हुए शस्त्रोंवाले काले तथा विकट (विकराल) पुरुषोंके द्वारा पत्थरोंसे स्वप्नमें मारा जाता है, वह जीवित नहीं रहता है सूर्योदयके समय प्रातःकाल जिसके सामने प्रत्यक्ष आकर सियार रुदन करते हैं, वह मनुष्य समाप्त आयुवाला होता है। स्नान करनेके तुरंत बाद जिसके हृदयमें तीव्र वेदना होती है और दाँतों में कम्पन होता है, उसे समाप्त आयुवाला समझना चाहिये। जो मनुष्य दिनमें अथवा रातमें बार-बार भयभीत होता हो और दीपककी गन्धको न सूँघ पाता हो, उसे अपनी मृत्युको उपस्थित जानना चाहिये। जो रातमें इन्द्रधनुषको तथा दिनमें तारामण्डलको देखे और दूसरोंके नेत्रोंमें अपना प्रतिबिम्ब न देख सके; वह जीवित नहीं रहता है॥ १७-२४॥ 

नेत्रमेकं स्त्रवेद्यस्य कर्णी स्थानाच्च भ्रश्यतः । 
वक्रा च नासा भवति विज्ञेयो गतजीवितः ॥ २५

यस्य कृष्णा खरा जिह्वा पद्माभासं च वै मुखम्। 
गण्डे वा पिण्डिकारक्ते तस्य मृत्युरुपस्थितः ।। २६

मुक्तकेशो हसंश्चैव गायन्नृत्यंश्च यो नरः। 
याम्यामभिमुखं गच्छेत्तदन्तं तस्य जीवितम् ।। २७

यस्य श्वेतघनाभासा श्वेतसर्षपसन्निभा। 
श्वेता च मूर्तिर्हासकृत्तस्य मृत्युरुपस्थितः ॥ २८

उष्ट्रा वा रासभा वाभियुक्ताः स्वप्ने रथे शुभाः। 
यस्य सोऽपि न जीवेत्तु दक्षिणाभिमुखो गतः ॥ २९

द्वे वाथ परमेऽरिष्टे एकीभूतः परं भवेत्। 
घोषं न शृणुयात्कर्णे ज्योतिर्नेत्रे न पश्यति ॥ ३०

श्वभ्रे यो निपतेत्स्वप्ने द्वारं चापि पिधीयते। 
न चोत्तिष्ठति यः श्वभ्रात्तदन्तं तस्य जीवितम् ॥ ३१

जिसके एक नेत्रसे पानी आता हो, दोनों कान अपने स्थानसे खिसके हुए हों और जिसकी नाक टेढ़ी हो गयी हो, उसे समाप्त जीवनवाला समझना चाहिये। जिसकी जीभ काली तथा खुरदुरी हो जाय, मुख पाण्डुरवर्णवाला हो जाय और दोनों गाल खजूर फलके समान रक्तवर्णके हो जायें, उसकी मृत्यु सन्निकट होती है। जो मनुष्य स्वप्नमें खुले बालोंवाला होकर हँसता हुआ, गाता हुआ तथा नाचता हुआ दक्षिण दिशाकी ओर जाता है, उसका जीवन समाप्त हो जाता है श्वेत सरसोंके समान गौर वर्णका हो जाय, उसकी मृत्यु सन्निकट होती है। जिसके स्वप्नमें रथमें जुते हुए अशुभ ऊँट अथवा गधे दिखायी पड़ें और वह दक्षिण दिशाकी ओर जा रहा हो, वह [व्यक्ति] जीवित नहीं रहता है। जो कानमें ध्वनि न सुन सके और नेत्रमें प्रकाश न देख सके यदि ये दो बहुत अनिष्टकारी घटनाएँ स्वप्नमें एक साथ घटित हों, तो वह व्यक्ति मृत्युको प्राप्त होता है। जो स्वप्नमें गड्ढे में गिर पड़े तथा उसका द्वार बन्द हो जाय और वह गड्ढेसे निकल न सके, उसका जीवन समाप्त हो जाता है॥ २८-३१ ॥

ऊर्ध्वा च दृष्टिर्न च सम्प्रतिष्ठा रक्ता पुनः सम्परिवर्तमाना।
मुखस्य शोषः सुषिरा च नाभि- रत्युष्णमूत्रो विषमस्थ एव ॥ ३२

दिवा वा यदि वा रात्रौ प्रत्यक्षं यो निहन्यते। 
हन्तारं न च पश्येच्च्च स गतायुर्न जीवति ॥ ३३

अग्निप्रवेशं कुरुते स्वप्नान्ते यस्तु मानवः । 
स्मृतिं नोपलभेच्चापि तदन्तं तस्य जीवितम् ॥ ३४

यस्तु प्रावरणं शुक्लं स्वकं पश्यति मानवः । 
कृष्णं रक्तमपि स्वप्ने तस्य मृत्युरुपस्थितः ।। ३५

अरिष्टे सूचिते देहे तस्मिन् काल उपस्थिते।
त्यक्त्वा खेदं विषादं च उपेक्षेद् बुद्धिमान्नरः ।। ३६

जिसका शरीर श्वेत मेधोंकी आभाके समान और जिसके नेत्र ऊपरकी और उलट जायें, स्थिर हो जायें, रक्तवर्णके हो जायें, बार-बार घूमते हों, मुख सूखने लगे, नाभि छिद्रयुक्त हो जाय, मूत्र अत्यधिक गर्म हो; वह संकटग्रस्त होता है अर्थात् उसकी मृत्यु आसन्न होती है जो दिनमें अथवा रातमें किसीके द्वारा प्रत्यक्ष रूपसे मारा जाय, किंतु मारनेवालेको देख न सके; वह समाप्त आयुवाला होता है और जीवित नहीं रह पाता है। जो मनुष्य स्वप्नमें अग्निमें प्रवेश करे और स्वप्नके अन्तमें इसका स्मरण न कर सकें; उसका जीवन समाप्त हो जाता है। जो मनुष्य स्वप्नमें अपने श्वेत प्रावरण (ओढ़नेके वस्त्र) को काला तथा लाल देखता है, उसकी मृत्यु सन्निकट होती है उस मृत्युकालके उपस्थित होनेपर और शरीरमें अरिष्टके सूचित होनेपर बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि खेद तथा विषादका परित्यागकर उपेक्षाभाव धारण करे ॥ ३२-३६ ॥

प्राचीं वा यदि वोदीचीं दिशं निष्क्रम्य वै शुचिः । 
समेऽतिस्थावरे देशे विविक्ते जन्तुवर्जिते ॥ ३७

उदङ्मुखः प्राङ्‌मुखो वा स्वस्थश्चाचान्त एव च। 
स्वस्तिकेनोपविष्टस्तु नमस्कृत्वा महेश्वरम् ॥ ३८

समकायशिरोग्रीवो धारयन्नावलोकयेत् । 
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ॥ ३९

पूरब या उत्तर दिशामें जाकर पवित्र हो करके किसी समतल, अतिस्थावर (आकाशरहित), एकान्त तथा जन्तुविहीन स्थानमें पूरब या उत्तरकी ओर मुख करके स्वस्तिक आसनमें बैठ जाय और शान्त होकर आचमन करके महेश्वरको प्रणामकर शरीर, सिर तथा गरदनको सीधा करके धारणा करते हुए किसी वस्तुकी और न देखे, जैसे वायुरहित स्थानमें रखे दीपककी लौ विचलित नहीं होती है; इसके लिये यह उपमा बतायी गयी है ॥ ३७-३९ ॥

प्रागुदक्प्रवणे देशे तथा युञ्जीत शास्त्रवित्।
कामं वितर्क प्रीतिं च सुखदुःखे उभे तथा ।। ४०

निगृह्य मनसा सर्व शुक्लं ध्यानमनुस्मरेत्।
घ्राणे च रसने नित्यं चक्षुषी स्पर्शने तथा ॥ ४१

श्रोत्रे मनसि बुद्धौ च तत्र वक्षसि धारयेत्।
कालकर्माणि विज्ञाय समूहेष्वेव नित्यशः ॥ ४२

द्वादशाध्यात्ममित्येवं योगधारणमुच्यते।
शतमर्धशतं वापि धारणां मूर्छिन धारयेत् ॥ ४३

खिन्नस्य धारणायोगाद्वायुरूर्ध्व प्रवर्तते।
ततश्चापूरयेद्देहमोङ्कारेण समन्वितः॥ ४४ 

शास्त्रवेत्ताको चाहिये कि पूर्व अथवा उत्तरको और विस्तारवाले स्थानमें ध्यानपरायण होवे। उसे कामना, तर्क, आसक्ति तथा सुख-दुःखको मनसे नियन्त्रित करके पूर्ण विशुद्ध ध्यानमें लीन हो जाना चाहिये। काल तथा कर्मोंको सदा लिङ्गशरीरोंके अन्तर्गत समझकर नाक, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कान, मन, बुद्धि तथा हृदयमें धारणा करनी चाहिये। इस प्रकार योगधारणको द्वादशाध्यात्म (चारह अध्यात्म) नामवाला कहा जाता है। सी अथवा पचास धारणाको सिरमें धारण करना चाहिये। धारणाके अभ्याससे श्रान्त योगीकी वायु ऊपरकी ओर होने लगती है; तब ओंकारसे युक्त होकर शरीरको वायुसे पूर्ण करना चाहिये। इस प्रकार ओंकारमय योगी [अपनेको] ब्रह्ममें लीन करके ब्रह्मसायुज्य प्राप्त कर लेता है॥ ४०-४४ ॥

तथोङ्कारमयो योगी अक्षरे त्वक्षरी भवेत्।
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि ओङ्कारप्राप्तिलक्षणम् ।। ४५ 

एष त्रिमात्रो विज्ञेयो व्यञ्जनं चात्र चेश्वरः ।
प्रथमा विद्युती मात्रा द्वितीया तामसी स्मृता ।। ४६

तृतीयां निर्गुणां चैव मात्रामक्षरगामिनीम्।
गान्धारी चैव विज्ञेया गान्धारस्वरसम्भवा ॥ ४७

पिपीलिकागतिस्पर्शा प्रयुक्ता मूर्छिन लक्ष्यते।
यथा प्रयुक्त ओङ्कारः प्रतिनिर्याति मूर्धनि ॥ ४८ 

तथोङ्कारमयो योगी त्वक्षरे त्वक्षरी भवेत् ।
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्मलक्षणमुच्यते ।। ४९

अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्।
ओमित्येकाक्षरं होतद् गुहायां निहितं पदम् ॥ ५०

ओमित्येतत् त्रयो लोकास्त्रयो वेदास्त्रयोऽग्नयः ।
विष्णुक्क्रमास्त्रयस्त्वेते ऋक्सामानि यजूंषि च ॥ ५१

मात्रा चार्थं च तिस्त्रस्तु विज्ञेयाः परमार्थतः। 
तत्प्रयुक्तस्तु यो योगी तस्य सालोक्यमाप्नुयात् ॥ ५२

[है ऋषियो!] इसके बाद मैं ओंकारकी प्राप्तिका लक्षण बताऊँगा। इसे तीन मात्रावाला जानना चाहिये। इसमें व्यंजनसहित मकार ईश्वर (शिव) है। इसमें पहली मात्रा विद्युती (राजसी) एवं दूसरी मात्रा तामसी कहीं गयी है। तीसरी मकाररूप अक्षरगामिनी मात्राको सत्त्वगुणरूपवाली जानना चाहिये। इसे गान्धारी नामसे भी जानना चाहियेः क्योंकि यह गान्धारस्वरसे उत्पन्न है और पिपीलिकाकी गतिके स्पर्शक समान सूक्ष्म गतिवाली है तथा यह मूर्धादेशमें लक्षित होती है। जिस प्रकार उत्त्वारित किया गया ओंकार मूर्धा देशमें गमन करता है, वैसे ही ओंकारमय योगी ब्रह्ममें लीन होकर ब्रहासायुज्य प्राप्त कर लेता है। परमेश्वरका वाचक प्रणव ही धनुष है, यह जीवात्मा ही बाण है और परब्रह्म परमेश्वर ही उसके लक्ष्य हैं। तत्परतासे उनकी उपासना करनेवाले प्रमादरहित साधकके द्वारा ही वह लक्ष्य वेधा जा सकता है, इसलिये उस लक्ष्यको वेधकर बाणकी ही भाँति उसमें तन्मय हो जाना चाहिये 'ओम्'- यह एकाक्षर पद गुहा (बुद्धि) में निहित है। यह 'ओम्' तीनों लोकों, [ऋक्-यजुः-साम] तीनों वेदों, तीनों अग्नियों तथा विष्णुके तीनों पदोंके स्वरूपवाला है। वस्तुतः अर्धमात्रासहित इसकी तीन मात्राएँ जाननी चाहिये। जो योगी इस प्रणवसे प्रेरित होता है, वह ब्रह्मका सायुज्य प्राप्त कर लेता है॥ ४५-५२॥

अकारो हाक्षरो ज्ञेय उकारः सहितः स्मृतः । 
मकारसहितोङ्कारस्त्रिमात्र इति संज्ञितः ॥ ५३

अकारस्त्वेष भूर्लोक उकारो भुव उच्यते। 
सव्यञ्जनो मकारस्तु स्वर्लोक इति गीयते ॥ ५४

ओङ्कारस्तु त्रयो लोकाः शिरस्तस्य त्रिविष्टपम्। 
भुवनाङ्गं च तत्सर्व ब्राह्यं तत्पदमुच्यते ॥ ५५

मात्रापादो रुद्रलोको ह्यमात्रं तु शिवं पदम् । 
एवं ज्ञानविशेषेण तत्पदं समुपास्यते ॥ ५६

तस्माद्धधानरतिर्नित्यममात्रं हि तदक्षरम्। 
उपास्यं हि प्रयत्नेन शाश्वतं सुखमिच्छता ।। ५७

अकारको अक्षर जानना चाहिये; इसके साथ उकारका संयोग कहा गया है। पुनः मकार (अनुस्वार)- के योगसे बना हुआ ओंकार तीन मात्रावाला कहा गया है। अकारको भूलोक तथा उकारको भुवलॉक कहा जाता है। व्यंजनसहित मकारको स्वर्लोक कहा जाता है। ओंकार त्रिलोकस्वरूप है, उसका सिर स्वर्ग है, सभी भुवन अंग हैं। ब्रह्मलोकको उसका पाद कहा जाता है। रुद्रलोक मात्रापादरूप है। शिवपद मात्रासे अतीत है- इस ज्ञानविशेषके द्वारा उस तुरीय पदकी उपासना की जाती है। इसलिये सदा ध्यानपरायणता होनी चाहिये। शाश्वत (स्थिर) सुख चाहनेवालेको उस मात्रातीत अक्षर [शिवतत्त्व] की प्रयत्नपूर्वक उपासना करनी चाहिये ॥ ५३-५७ ॥

हृस्वा तु प्रथमा मात्रा ततो दीर्घा त्वनन्तरम्।
ततः प्लुतवती चैव तृतीया चोपदिश्यते ॥ ५८

एतास्तु मात्रा विज्ञेया यथावदनुपूर्वशः । 
यावदेव तु शक्यन्ते धार्यन्ते तावदेव हि ॥५९

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिं ध्यायन्नात्मनि यः सदा। 
अर्धं तन्मात्रमपि चेच्छृणु यत्फलमाप्नुयात् ॥ ६०

मासे मासेऽश्वमेधेन यो बजेत शतं समाः । 
तेन यत्प्राप्यते पुण्यं मात्रया तदवाप्नुयात् ॥ ६१

न तथा तपसोग्रेण न यज्ञैर्भूरिदक्षिणैः। 
चत्फलं प्राप्यते सम्यङ्‌मात्रया तदवाप्नुयात् ॥ ६२

[ॐकी] पहली मात्रा इस्व है और दूसरी मात्रा दीर्घ है। तीसरी मात्रा प्लुत कही जाती है। इन मात्राओंको क्रमशः यथावत् जानना चाहिये। जितना अपना सामर्थ्य हो सके, उतना मनीषी लोग इन्हें धारण कर सकते हैं। इन्द्रियों, मन तथा बुद्धिको नियन्त्रित करके यदि जो कोई आत्मामें सदा अर्धमात्राका ध्यान करता है, तो वह जिस फलको प्राप्त करता है, उसे सुनिये। जो सौ वर्षपर्यन्त प्रत्येक मासमें अश्वमेध यज्ञ करता है, वह उसके द्वारा जो पुण्य पाता है, उसे इस मात्रासे प्राप्त कर लेता है। जो फल न तो कठोर तपस्यासे और न तो विपुल दक्षिणावाले यज्ञोंसे प्राप्त किया जा सकता है, वह फल इस मात्राके द्वारा सम्यक् प्राप्त हो जाता है ॥ ५८-६२ ॥

तत्र चैषा तु या मात्रा प्लुता नामोपदिश्यते । 
एषा एव भवेत्कार्या गृहस्थानां तु योगिनाम् ॥ ६३

एषा चैव विशेषेण ऐश्वर्ये हह्यष्टलक्षणे। 
अणिमाद्ये तु विज्ञेया तस्माद्युञ्जीत तां द्विजाः ॥ ६४

उस प्रणवमें जो यह प्लुत नामक मात्रा बतायी गयी है, गृहस्थ योगियोंको उसका अभ्यास करना चाहिये। विशेष रूप से आठ लक्षणोंवाले अणिमा आदि ऐश्वर्यो (सिद्धियों) के लिये इस मात्राको जानना चाहिये; अतः हे द्विजो! उस मात्राकी साधना करनी चाहिये ॥ ६३-६४॥

एवं हि योगसंयुक्तः शुचिर्दान्तो जितेन्द्रियः । 
आत्मानं विद्यते यस्तु स सर्वं विन्दते द्विजाः ॥ ६५

तस्मात्पाशुपतैर्योगैरात्मानं चिन्तयेद् बुधः। 
आत्मानं जानते ये तु शुचयस्ते न संशयः ॥ ६६

ऋचो यजूंषि सामानि वेदोपनिषदस्तथा। 
योगज्ञानादवाप्नोति ब्राह्मणोऽध्यात्मचिन्तकः ॥ ६७

सर्वदेवमयो भूत्वा अभूतः स तु जायते। 
योनिसङ्क्रमणं त्यक्त्वा याति वै शाश्वतं पदम् ।। ६८

हे द्विजो। इस प्रकार योगसम्पन्न, विशुद्ध, मनपर नियन्त्रण करनेवाला तथा जितेन्द्रिय जो व्यक्ति आत्माको जान लेता है, वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है। अतः बुद्धिमान्‌को पाशुपत योगोंके द्वारा आत्मचिन्तन करना चाहिये। जो आत्माको जान लेते हैं, वे शुद्ध हैं; इसमें सन्देह नहीं है अध्यात्मका चिन्तन करनेवाला ब्राह्मण योगज्ञानके द्वारा ऋक् यजुः सामकी ऋचाओं, सभी वेदों तथा उपनिषदोंका ज्ञान प्राप्त कर लेता है। वह सर्वदेवमय होकर लिङ्गशरीरसे शून्य हो जाता है और पुनर्जन्मका त्याग करके शाश्वत पद (शिवपद) को प्राप्त करता है ॥ ६५-६८ ॥

यथा वृक्षात्फलं पक्वं पवनेन समीरितम्। 
नमस्कारेण रुद्रस्य तथा पापं प्रणश्यति ॥ ६९

यत्र रुद्रनमस्कारः सर्वकर्मफलो ध्रुवः । 
अन्यदेवनमस्कारान्न तत्फलमवाप्नुयात् ॥ ७०

तस्मात् त्रिःप्रवणं योगी उपासीत महेश्वरम्। 
दशविस्तारकं ब्रह्म तथा च ब्रह्मविस्तरैः ॥ ७१

जिस प्रकार पका हुआ फल वायुद्वारा हिलाये जानेपर वृक्षसे गिर पड़ता है, उसी प्रकार भगवान् सदाशिवके नमस्कारसे पाप नष्ट हो जाता है। रुद्रनमस्कार निश्चितरूपसे सभी कर्मोंका फल देनेवाला है; अन्य देवताओंको नमस्कार करनेसे उनका फल प्राप्त नहीं होता है, अतः मन, वचन, कर्म-इन तीनोंसे विनम्र होकर योगीको महेश्वर तथा दसों इन्द्रियोंका विस्तार करनेवाले ब्रह्मकी उपासना दसों इन्द्रियोंसे करनी चाहिये ॥ ६९-७१ ॥

एवं ध्यानसमायुक्तः स्वदेहं यः परित्यजेत्। 
स याति शिवसायुज्यं समुद्धृत्य कुलत्रयम् ॥ ७२

अथवारिष्टमालोक्य मरणे समुपस्थिते। 
अविमुक्तेश्वरं गत्वा वाराणस्यां तु शोधनम् ॥ ७३

येन केनापि वा देहं सन्त्यजेन्मुच्यते नरः । 
श्रीपर्वते वा विप्रेन्द्राः सन्त्यजेत्स्वतनुं नरः ।। ७४

स याति शिवसायुज्यं नात्र कार्या विचारणा। 
अविमुक्तं परं क्षेत्रं जन्तूनां मुक्तिदं सदा ॥ ७५

सेवेत सततं धीमान् विशेषान्मरणान्तिके ॥ ७६

इस प्रकार ध्यानमग्न होकर जो अपने शरीरका त्याग करता है, वह तीनों कुलोंका उद्धार करके शिवसायुज्य प्राप्त करता है। अथवा [योगोपासनामें असमर्थ होनेपर] कुछ अरिष्ट देखनेपर और मृत्यु आसन्न होनेपर वाराणसीमें अविमुक्तेश्वरमें जाकर शुद्धि (प्रायश्चित्त) करनी चाहियेः जिस-किसी तरह वहाँ देहत्याग कर देना चाहिये, इससे वह मनुष्य मुक्त हो जाता है। हे विप्रेन्द्रो। जो मनुष्य श्रीपर्वतपर अपने शरीरको छोड़ता है, वह शिवसायुज्य प्राप्त करता है; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये। बुद्धिमान् [व्यक्ति] को प्राणियोंको सदा मुक्ति देनेवाले उत्तम अविमुक्तक्षेत्र (काशी) में विशेषरूपसे मरणकालमें वास करना चाहिये ॥ ७२-७६ ॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे अरिष्टकथनं नामैकनवतितमोऽध्यायः ॥ ९१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें ' अरिष्टकथन' नामक इक्यानबेयाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९१ ॥

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