लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] उन्यासीवाँ अध्याय
शिव पूजा से सभी का कल्याण, शिव पूजा की विधि एवं शिव मन्दिर में दीपदान की महिमा
ऋषय ऊचुः
कथं पूज्यो महादेवो मत्यैर्मन्दैर्महामते।
अल्पायुषैरल्पवीर्येरल्पसत्त्वैः प्रजापतिः ॥ १
संवत्सरसहस्त्रैश्च तपसा पूज्य शङ्करम्।
न पश्यन्ति सुराश्चापि कथं देवं यजन्ति ते ॥ २
ऋषिगण बोले- हे महामते। मन्दबुद्धिवाले, अल्प आयुवाले, अल्प पराक्रमवाले तथा अल्प सामर्थ्यवाले मनुष्योंको प्रजापति महादेवको पूजा किस प्रकार करनी चाहिये ? हजार वर्षोंतक तपस्याके द्वारा शंकरकी पूजा करके देवता भी उनका दर्शन नहीं कर पाते; तो फिर वे [मनुष्य] भगवान् शिवको पूजा कैसे करें ? ॥ १-२ ॥
सूत उवाच
कथितं तथ्यमेवात्र युष्माभिर्मुनिपुङ्गवाः ।
तथापि श्रद्धया दृश्यः पूज्यः सम्भाष्य एव च ॥ ३
प्रसङ्गाच्चैव सम्पूज्य भक्तिहीनैरपि द्विजाः ।
भावानुरूपफलदो भगवानिति कीर्तितः ॥ ४
सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ मुनियो! आपलोगोंने यथार्थ बात कही है, फिर भी श्रद्धापूर्वक [शिवकी] पूजा करनेपर उनका दर्शन हो सकता है और उनसे सम्भाषण किया जा सकता है। हे द्विजो प्रसंगवश भक्तिहीन लोगोंके द्वारा भी पूजित होकर वे भगवान् उनके भावके अनुरूप फल देनेवाले कहे गये हैं॥ ३-४ ॥
उच्छिष्टः पूजयन् याति पैशाचं तु द्विजाधमः ।
सङ्क्रुद्धो राक्षसं स्थानं प्राप्नुयान्मूढधीर्द्विजाः ॥ ५
अभक्ष्यभक्षी सम्पूज्य याक्षं प्राप्नोति दुर्जनः ।
गानशीलश्च गान्धर्व नृत्यशीलस्तथैव च ॥ ६
ख्यातिशीलस्तथा चान्द्रं स्त्रीषु सक्तो नराधमः ।
मदार्तः पूजयन् रुद्रं सोमस्थानमवाप्नुयात् ॥ ७
हे द्विजो! उच्छिष्ट अधम ब्राह्मण शिवकी पूजा करके पिशाचलोकको जाता है और क्रोधमें भरकर पूजन करनेवाला मूढ़बुद्धि राक्षसका स्थान (लोक) प्राप्त करता है। अभक्ष्य (भोजन) का भक्षण करनेवाला दुष्ट मनुष्य [शिवकी] पूजा करके यक्षलोक प्राप्त करता है और नृत्य-गान करनेवाला उनकी पूजा करके गन्धर्वलोक प्राप्त करता है। प्रसिद्धिका इच्छुक और स्त्रियोंमें आसक्त नराधम बुधलोक प्राप्त करता है। मदोन्मत्त व्यक्ति रुद्रकी पूजा करता हुआ सोमलोक प्राप्त करता है॥ ५-७॥
गायत्र्या देवमभ्यर्च्य प्राजापत्यमवाप्नुयात्।
ब्राह्यं हि प्रणवेनैव वैष्णवं चाभिनन्द्य च ॥ ८
श्रद्धया सकृदेवापि समभ्यर्च्य महेश्वरम् ।
रुद्रलोकमनुप्राप्य रुत्रैः सार्धं प्रमोदते ॥ ९
[रुद्र] गायत्री [मन्त्र] द्वारा शिवका पूजन करके मनुष्य प्रजापतिलोकको और प्रणवके द्वारा पूजन करके ब्रह्मलोक तथा विष्णुलोकको प्राप्त करता है। श्रद्धापूर्वक एक बार भी महेश्वरका पूजन करके मनुष्य रुद्रलोकमें पहुँचकर रुद्रोंके साथ आमोद-प्रमोद करता है ॥ ८-९ ॥
संशोध्य च शुभं लिङ्गममरासुरपूजितम् ।
जलैः पूतैस्तथा पीठे देवमावाह्य भक्तितः ॥ १०
दृष्ट्वा देवं यथान्यायं प्रणिपत्य च शङ्करम्।
कल्पिते चासने स्थाप्य धर्मज्ञानमये शुभे ॥ ११
वैराग्यैश्वर्यसम्पन्ने सर्वलोकनमस्कृते।
ओङ्कारपद्ममध्ये तु सोमसूर्याग्निसम्भवे ॥ १२
पाद्यमाचमनं चार्घ्य दत्त्वा रुद्राय शम्भवे।
स्नापयेद्दिव्यतोयैश्च घृतेन पयसा तथा ॥ १३
दघ्ना च स्नापयेद् रुद्रं शोधयेच्च यथाविधि।
ततः शुद्धाम्बुना स्नाप्य चन्दनाद्यैश्च पूजयेत् ॥ १४
रोचनाद्दद्यैश्च सम्पूज्य दिव्यपुष्यैश्च पूजयेत् ।
बिल्वपत्रैरखण्डैश्च पौर्नानाविधैस्तथा ॥ १५
नीलोत्पलैश्च राजीवैर्नन्द्यावर्तेश्च मल्लिकैः ।
चम्पकैर्जातिपुष्पैश्च बकुलैः करवीरकैः ॥ १६
शमीपुष्यैबृहत्पुष्पैरुन्मत्तागस्त्यजैरपि।
अपामार्गकदम्वैश्च भूषणैरपि शोभनैः ॥ १७
दत्त्वा पञ्चविधं धूपं पायसं च निवेदयेत्।
दधिभक्तं च मध्वाज्यपरिप्लुतमतः परम् ॥ १८
शुद्धान्नं चैव मुद्द्यान्नं षड्विधं च निवेदयेत्।
अथ पञ्चविधं वापि सघृतं विनिवेदयेत् ॥ १९
केवलं चापि शुद्धान्नमाढकं तण्डुलं पचेत् ।
कृत्वा प्रदक्षिणं चान्ते नमस्कृत्य मुहुर्मुहुः ।। २०
स्तुत्वा च देवमीशानं पुनः सम्पूज्य शङ्करम्।
ईशानं पुरुषं चैव अघोरं वाममेव च ॥ २१
सद्योजातं जपंश्चापि पञ्चभिः पूजयेच्छिवम् ।
अनेन विधिना देवः प्रसीदति महेश्वरः ॥ २२
देवताओं तथा असुरोंसे पूजित शुभ लिङ्गको पवित्र जलसे स्वच्छ करके पीठमें भक्तिपूर्वक शिवका आवाहन करके उन्हें देखकर विधिपूर्वक प्रणाम करके धर्मज्ञानमय, उत्तम, वैराग्य ऐश्वर्यसे सम्पन्न, सभी लोगोंसे नमस्कृत, ओंकार पद्मसे युक्त मध्यभागवाले तथा चन्द्र-सूर्य-अग्निसे उत्पन्न कल्पित आसनपर स्थापित करके रुद्र शम्भुको पाद्य-आचमन-अर्घ्य प्रदान करके उन्हें दिव्य जलोंसे स्नान कराना चाहिये। पुनः घी, दूध तथा दहीसे रुद्रको स्नान कराना चाहिये एवं विधिपूर्वक स्वच्छ करना चाहिये। तत्पश्चात् शुद्ध जलसे स्नान कराकर चन्दन आदिसे पूजन करना चाहियेः पुनः रोचन आदिसे पूजन करके दिव्य पुष्पों, अखण्ड बिल्वपत्रों, अनेक प्रकारके पद्मों, नीलकमलों, रक्तकमलों, नन्द्यावर्तपुष्पों, मल्लिका, चम्मक, जातिपुष्यों, बकुलों, कनैरके पुष्पों, शमीपुष्यों, बृहत्पुष्यों, धतूरके पुष्पों, अगस्त्यके उदित होनेपर खिलनेवाले पुषों, अपामार्ग-कदम्बके गुच्छों तथा सुन्दर आभूषणोंसे पूजन करके पाँच प्रकारके धूप प्रदान करके पायस (खीर) निवेदित करना चाहिये। तदनन्तर दधिमिश्रित भात, मधु- घृत मिला हुआ भात, पका हुआ अन्न और मूंगका पका हुआ अन्न- यह छः प्रकारका अन्न निवेदित करे; अथवा पाँच प्रकारका घृतमिश्रित अन्न निवेदित करे; अथवा केवल एक आढ़क (चार प्रस्थ) शुद्ध चावल पकाये और उसे निवेदित करे। अन्तमें प्रदक्षिणा करके बार- बार नमस्कारकर देवता ईशानकी स्तुति करके पुनः शंकरजीकी विधिवत् पूजा करके ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात मन्त्रोंका जप करते हुए इन पाँच मन्त्रोंसे शिवकी पूजा करे। इस विधिसे [पूजा करनेपर] देव महेश्वर प्रसन्न होते हैं॥ १०-२२॥
वृक्षाः पुष्पादिपत्राद्यैरुपयुक्ताः शिवार्चने।
गावश्चैव द्विजश्रेष्ठाः प्रयान्ति परमां गतिम् ॥ २३
पूजयेद्यः शिवं रुद्रं शर्व भवमजं सकृत्।
स याति शिवसायुज्यं पुनरावृत्तिवर्जितम् ॥ २४
अर्चितं परमेशानं भवं शर्वमुमापतिम् ।
सकृत्प्रसङ्गाद्वा दृष्ट्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ २५
पूजितं वा महादेवं पूज्यमानमथापि वा।
दृष्ट्वा प्रयाति वै मयों ब्रह्मलोकं न संशयः ॥ २६
हे श्रेष्ठ द्विजो! शिवपूजनमें उपयोग किये गये पुष्प, पत्र आदिके साथ वृक्ष और गायें- ये सब परम गतिको प्राप्त होते हैं। जो एक बार भी शिव, रुद्र, शर्व, भव, अजकी पूजा करता है; वह पुनर्जन्मरहित शिवसायुज्यको प्राप्त कर लेता है। एक बार अथवा प्रसंगवश भी पूजित परमेश्वर, भव, उमापतिका दर्शन करके मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। पूजित किये गये अथवा पूजित होते हुए महादेवका दर्शनकर मनुष्य ब्रह्मलोकको जाता है; इसमें सन्देह नहीं है।॥ २३-२६ ॥
श्रुत्वानुमोदयेच्चापि स याति परमां गतिम्।
यो दद्याद् घृतदीपं च सकृल्लिङ्गस्य चाग्रतः ॥ २७
स तां गतिमवाप्नोति स्वाश्रमैर्दुर्लभां स्थिराम् ।
दीपवृक्षं पार्थिवं वा दारवं वा शिवालये ॥ २८
दत्त्वा कुलशतं साग्रं शिवलोके महीयते।
आयर्स ताम्रजं वापि रौप्यं सौवर्णिकं तथा ॥ २९
शिवाय दीपं यो दद्याद्विधिना वापि भक्तितः ।
सूर्यायुतसमैः श्लक्ष्णैर्यानैः शिवपुरं व्रजेत् ॥ ३०
कार्तिके मासि यो दद्याद् घृतदीपं शिवाग्रतः ।
सम्पूज्यमानं वा पश्येद्विधिना परमेश्वरम् ॥ ३१
जो [शिवके सम्बन्धमें] कुछ भी सुनकर उसका अनुमोदन करता है, वह परमगति प्राप्त करता है। जो शिवके समक्ष एक बार भी घृतका दीपक अर्पित करता है, वह वर्णाश्रमी लोगोंके लिये दुर्लभ स्थिर गति प्राप्त करता है। शिवालयमें मिट्टी अथवा लकड़ीका बना हुआ दीपवृक्ष (दीवट) प्रदान करके मनुष्य आगेके सौ कुलोंसहित शिवलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। जो विधानके अनुसार भक्तिपूर्वक लोहे, ताँबे, चाँदी अथवा सोनेका बना हुआ दीपक शिवको समर्पित करता है, वह दस हजार सूर्योके समान देदीप्यमान विमानोंसे शिवलोकको जाता है। हे श्रेष्ठ मुनियो! जो कार्तिक महीनेमें शिवके सामने घृतका दीपक समर्पित करता है अथवा विधानके साथ पूजित होते हुए परमेश्वरका दर्शन श्रद्धापूर्वक करता है, वह ब्रह्मलोकको जाता है॥ २७-३१ ॥
स याति ब्रह्मणो लोकं श्रद्धया मुनिसत्तमाः।
आवाहनं सुसान्निध्यं स्थापनं पूजनं तथा ॥ ३२
सम्प्रोक्तं रुद्रगायत्र्या आसनं प्रणवेन वै।
पञ्चभिः स्नपनं प्रोक्तं रुद्राद्यैश्च विशेषतः ॥ ३३
एवं सम्पूजयेन्नित्यं देवदेवमुमापतिम् ।
ब्रह्माणं दक्षिणे तस्य प्रणवेन समर्चयेत् ॥ ३४
उत्तरे देवदेवेशं विष्णुं गायत्रिया यजेत्।
वहाँ हुत्वा यथान्यायं पञ्चभिः प्रणवेन च ॥ ३५
स याति शिवसायुज्यमेवं सम्पूज्य शङ्करम्।
इति सङ्क्षेपतः प्रोक्तो लिङ्गार्चनविधिक्रमः ॥ ३६
व्यासेन कथितः पूर्वं श्रुत्वा रुद्रमुखात्स्वयम् ॥ ३७
[शिवका] आवाहन, उत्तम सान्निध्य, स्थापन तथा पूजन रुद्रगायत्री [भन्त्र] द्वारा और आसन प्रणव- द्वारा बताया गया है। [सद्योजात आदि] पाँच मन्त्रोंसे तथा विशेषरूपसे रुद्रमन्त्रोंसे उनका स्नान बताया गया है। इस प्रकार देवदेव उमापतिकी पूजा नित्य करे। उनके दक्षिणमें ब्रह्माकी पूजा प्रणवसे करे और उत्तरमें देवदेवेश विष्णुकी पूजा गायत्री [मन्त्र] से करे। विधिके अनुसार [सद्योजात आदि] पाँच मन्त्रोंसे तथा प्रणवसे अग्निमें होम करे। इस प्रकार शंकरकी भलीभाँति पूजा करके वह [मनुष्य] शिवसायुज्य प्राप्त करता है। [हे ऋषियो!] मैंने संक्षेपमें लिङ्गार्चनविधिका क्रम बता दिया; पहले स्वयं रुद्रके मुखसे इसे सुनकर व्यासजीने मुझको बताया था ॥ ३२-३७॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे शिवार्चनविधिर्नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः ॥ ७९ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'शिवार्चनविधि' नामक उन्यासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७९ ॥
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