लिंग पुराण : विष्णु द्वारा महेश्वर के माहात्म्य का कथन तथा नारायण द्वारा सृष्टि का वर्णन | Vishnu's description of the greatness of Maheshwar and Narayan's description of creation

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] अड़तीसवाँ अध्याय 

विष्णु द्वारा महेश्वर के माहात्म्य का कथन तथा नारायण द्वारा सृष्टि का वर्णन

शेलादिस्वाच

गते महेश्वरे देवे तमुद्दिश्य जनार्दनः।
प्रणम्य भगवान्‌ प्राह पद्मयोनिमजोद्धव:॥ ९

श्रीविष्णुरुवाच

परमेशो जगन्नाथ: शहड्डरस्त्वेष सर्वग:।
आवयोरखिलस्येश: शरणं च महेश्वर:॥ २

अहं वामाड्जो ब्रह्मन्‌ शट्भरस्थ महात्मन:।
भवान्‌ भवस्य देवस्य दक्षिणाड्रभव: स्वयम्‌॥ ३

मामाहुऋषय: प्रेक्ष्य प्रधानं प्रकृतिं तथा।
अव्यक्तमजमित्येव॑ भवन्त॑ पुरुषस्त्विति॥ ४॥

नन्दीश्वर बोले - तदनन्तर महेश्वर महादेवके चले जानेपर ब्रह्माजीसे उत्पन्न भगवान्‌ विष्णु पद्मयोनि पितामहको उद्देश्य करके प्रणमकर उनसे कहने लगे श्रीविष्णु बोले--सर्वत्र गमनका सामर्थ्य रखनेवाले ये परमेश्वर ईश्वर जगन्नाथ महेश्वर शिव सम्पूर्ण जगतूके तथा हमदोनोंके शरण हैं हे ब्रह्मन्‌! मैं महात्मा शिवके वाम अंगसे जायमारने हूँ तथा स्वयं आप महादेव रुद्रके दाहिने अंगसे उत्पल हुए हैं। अतएव इस विषयमें सम्यक्‌ विचारकर ऋषियोंने मुझे प्रधान तथा प्रकृति एवं आपको अव्यक्त, अज तथा पुरुष कहा है॥ ९-४॥

एवमाहुर्महादेवमावयोरपि कारणम्‌। 
ईशं सर्वस्थ जगत: प्रभुमव्ययमीशएवरम्‌॥ ५

सोपि तस्यामरेशस्य वचनाद्वारिजोद्धव:। 
वरेण्यं बरदं॑ रुद्रमस्तुवत्प्रणाम च॥ ६

अधाम्भसा प्लुतां भूमिं समादाय जनार्दन:। 
पूर्ववत्स्थापयामास॒ वाराहं॑ रूपमास्थित:॥ ७

नदीनदसमुद्रांश्च पूर्ववच्चाकरो त्रभु: । 
कृत्वा चोर्वी प्रयत्नेन निम्नोन्‍नतविवर्जिताम्‌॥ ८

धरायां सो5चिनोत्सर्वान्‌ भूधरान्‌ भूधराकृति: । 
भूराद्याश्चतुरो लोकान्‌ कल्पयामास पूर्ववत्‌॥ ९

र्रष्टु च भगवान्‌ चक्रे मतिं मतिमतां बरः। 
मुख्यं च तैर्यग्योन्यं च दैविक॑ मानुषं तथा॥ १०

इस प्रकार अविनाशी ईश्वर महादेवको हम दोनोंका भी कारण तथा सम्पूर्ण जगत्‌का स्वामी कहा गया है उन देवेश विष्णु का वचन सुनकर उन पद्मयोनि ब्रह्माने भी वर प्रदान करनेवाले पूज्य महादेवको बारबार प्रणाम किया तथा उनकी स्तुति की इसके अनन्तर वाराहरूप धारणकर जनार्दन विष्णुने जलसे व्याप्त भूमिको लाकर पुनः पूर्वकी भाँति स्थापित किया तत्पश्चातू भगवान्‌ विष्णुने नदियों, नदों तथा समुद्रोंकी पहलेकी भाँति कर दिया। पुनः पृथ्वीको ऊँचाई एवं निचाईसे रहितकर भूधरकी आकृतिवाले उन भगवान्‌ने उस समतल धरापर समस्त पर्वत स्थापित किये, भूलोक आदि चार लोक पूर्वकी भाँति रचे पुन: बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ, प्रखर प्रतिभावाले तथा ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान्‌ विष्णुने मुख्य सर्ग, तिर्यक्‌ सर्ग (पशुसर्ग), देवसर्ग, मनुष्यसर्ग, अनुग्रहसर्ग एवं कौमारसर्ग रचनेका विचार किया॥ ५ -१० ॥

विभुष्टचानुग्रह॑ तत्र कौमारकमदीनधी: । 
पुरस्तादसृजद्देवः सनन्दं सनरक॑ तथा॥ ११

सनातन सतां श्रेष्ठ नेष्कम्येण गता: परम्‌। 
मरीचिभूग्वड्धिरसं पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्‌॥ १२

दक्षमत्रिं वसिष्ठ॑ च सो5सृजद्योगविद्यया। 
सड्डल्पं चैव धर्म च हाधर्म भगवान्‌ प्रभु:॥ १३

द्वादशैव प्रजास्त्वेता ब्रह्मणोव्यक्तजन्मन:। 
ऋभुं सनत्कुमारं च ससर्जादा सनातनः॥ १४

तौ चोर्ध्वरेतसौ दिव्यौ चाग्रजौ ब्रह्मवादिनो। 
कुमारौ ब्रह्मणस्तुल्यौ सर्वज्ञौ सर्वभाविनो॥ १५

एवं मुख्यादिकान्‌ सुष्ट्वा पद्ययोनि: शिलाशन। 
युगधर्मानशेषांश्च कल्पयामास विश्वसृक्‌॥१६

उन विष्णुने आरम्भ में सनन्‍द, सनक तथा महात्माओं में श्रेष्ठ सनातन का सृजन किया, जो निष्काम ज्ञान योग में प्रवृत्त होकर ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त हुए्‌ इसके बाद सबके स्वामी भगवान्‌ विष्णुने मरीचि, भृगु, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, दक्ष, अत्रि, वसिष्ठ, संकल्प, धर्म तथा अधर्मको योगविद्यासे रचा। अव्यक्तजन्मा ब्रह्माकी ये ही बारह संतानें हैं शाश्वत विष्णु ने आरम्भ में ऋभु तथा सनत्कुमारका सृजन किया। पूर्वमें उत्पन्न वे दोनों कुमार ऊर्ध्वरिता, दिव्य, ब्रह्मवादी, सर्वज्ञ, सभी प्रकारके भावोंसे सम्पन्न तथा ब्रह्माजीके ही सदृश थे हे शिलाद! इस प्रकार मुख्य आदि सर्गो की सृष्टि करके विश्वकौ रचना करने वाले पद्मयोनि (विष्णु)-ने समस्त युगधर्मों को प्रतिष्ठित किया॥ ११ - १६॥

॥ श्रीलिंग पूर्वभागे वैष्णवकथनं नायराष्टब्रिंशोडध्याय: ॥ ३

॥ इस प्रकार श्रीलिंगमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'वैष्णवकथन ' नामक अड़तीसवा अध्याय पूर्ण हुआ॥ ३८ ॥

FAQs:- लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] अड़तीसवाँ अध्याय 

यहां दिए गए श्लोकों पर आधारित 10 प्रश्न और उत्तर दिए गए हैं, जिनमें महेश्वर (भगवान शिव) की महिमा और भगवान विष्णु द्वारा वर्णित सृष्टि पर चर्चा की गई है:

  1. प्रश्न: भगवान विष्णु के अनुसार पूजा का प्राथमिक विषय कौन है?

    • उत्तर: भगवान विष्णु के अनुसार, पूजा का प्राथमिक विषय महेश्वर (भगवान शिव) हैं, जो सर्वोच्च प्राणी हैं और समस्त सृष्टि के स्रोत हैं।
  2. प्रश्न: भगवान विष्णु अपनी और महेश्वर की उत्पत्ति क्या बताते हैं?

    • उत्तर: भगवान विष्णु बताते हैं कि वे भगवान शिव के बाएं भाग (वाम अंग) से उत्पन्न होते हैं, जबकि भगवान शिव स्वयं ब्रह्मा के दाहिने भाग (दक्षिण अंग) से उत्पन्न होते हैं।
  3. प्रश्न: भगवान विष्णु और ब्रह्मा को उनके स्वरूप के आधार पर ऋषिगण क्या कहते हैं?

    • उत्तर: ऋषिगण भगवान विष्णु को "प्रधान" (आदि कारण) और "पुरुष" कहते हैं, जबकि ब्रह्मा को "अव्यक्त" (अव्यक्त) और "अज" (अजन्मा) कहा जाता है।
  4. प्रश्न: संसार की रचना में भगवान विष्णु की क्या भूमिका है?

    • उत्तर: भगवान महेश्वर के चले जाने के बाद भगवान विष्णु पृथ्वी के पुनर्निर्माण की भूमिका निभाते हैं। वे पृथ्वी, नदियों, पहाड़ों और सभी तत्वों को एक बार फिर से स्थापित करते हैं।
  5. प्रश्न: भगवान विष्णु अपने और भगवान शिव के बीच के संबंध का वर्णन कैसे करते हैं?

    • उत्तर: भगवान विष्णु बताते हैं कि वे और ब्रह्मा दोनों ही भगवान शिव की रचनाएँ हैं, और महेश्वर उन दोनों सहित समस्त सृष्टि के कारण हैं।
  6. प्रश्न: श्लोकों में वराह अवतार का क्या महत्व है?

    • उत्तर: वराह अवतार में भगवान विष्णु जलमग्न पृथ्वी को जल से बाहर निकालते हैं और उसे उसकी मूल स्थिति में पुनर्स्थापित करते हैं, जैसा कि उन्होंने पहले किया था।
  7. प्रश्न: पृथ्वी को पुनर्स्थापित करने के बाद भगवान विष्णु क्या करते हैं?

    • उत्तर: पृथ्वी को पुनर्स्थापित करने के बाद, भगवान विष्णु पर्वतों और चारों लोकों (भूर्लोक आदि) को पुनः स्थापित करते हैं, जैसा कि वे पहले थे, और विभिन्न प्रकार के प्राणियों की रचना करते हैं।
  8. प्रश्न: भगवान विष्णु द्वारा वर्णित सृष्टि के चार मुख्य प्रकार क्या हैं?

    • उत्तर: सृष्टि के चार मुख्य प्रकार हैं: देव, मनुष्य, तिर्यक और दैविक।
  9. प्रश्न: श्लोकों में भगवान विष्णु द्वारा बनाए गए बारह पुत्र कौन हैं?

    • उत्तर: भगवान विष्णु द्वारा बनाए गए बारह पुत्रों में मरीचि, भृगु, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, दक्ष, अत्रि, वसिष्ठ जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति शामिल हैं, तथा अन्य जो सृजन प्रक्रिया में योगदान देते हैं।
  10. प्रश्न: भगवान विष्णु ने इन श्लोकों में सृष्टि का अंतिम उद्देश्य क्या बताया है?

    • उत्तर: भगवान विष्णु द्वारा वर्णित सृष्टि का अंतिम उद्देश्य ब्रह्मांडीय व्यवस्था (युगधर्म) की स्थापना करना तथा विभिन्न लोकों, प्राणियों और जीवन के सिद्धांतों की रचना के माध्यम से ब्रह्मांड का संतुलन सुनिश्चित करना है।

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