आदित्यशयन-व्रत की विधि और उसका माहात्म्य | aadityashayan-vrat kee vidhi aur usaka maahaatmy |

मत्स्य पुराण पचपनवाँ अध्याय

आदित्यशयन-व्रत की विधि और उसका माहात्म्य

नारद उवाच

उपवासेष्वशक्तस्य तदेव फलमिच्छतः ।
अनभ्यासेन रोगाद् वा किमिष्टं व्रतमुत्तमम् ॥ १

नारदजीने पूछा- भगवन्! जो अभ्यास न होनेके कारण अथवा रोगवश उपवास करनेमें असमर्थ है, किंतु उसका फल चाहता है, उसके लिये कौन-सा व्रत उत्तम है- यह बताइये ॥ १॥

ईश्वर उवाच

उपवासेष्वशक्तानां नक्तं भोजनमिष्यते ।
यस्मिन् व्रते तदप्यत्र श्रूयतामक्षयं महत् ॥ २

आदित्यशयनं नाम यथावच्छङ्करार्चनम् । 
येषु नक्षत्रयोगेषु पुराणज्ञाः प्रचक्षते॥ ३

यदा हस्तेन सप्तम्यामादित्यस्य दिनं भवेत् । 
सूर्यस्य चाथ संक्रान्तिस्तिथिः सा सार्वकामिकी ॥ ४

उमामहेश्वरस्यार्चामर्चयेत् सूर्यनामभिः ।
सूर्यार्चा शिवलिङ्गं च प्रकुर्वन् पूजयेद् यतः ॥ ५

उमापते रवेर्वापि न भेदो दृश्यते क्वचित्।
यस्मात् तस्मान्मुनिश्रेष्ठ गृहे शम्भुंभु (भानुं) समर्चयेत् ।। ६

हस्ते च सूर्याय नमोऽस्तु पादाव-र्काय चित्रासु च गुल्फदेशम्।
स्वातीषु जसे पुरुषोत्तमाय धात्रे विशाखासु च जानुदेशम् ।। ७

तथानुराधासु नमोऽभिपूज्य- मूरुद्वयं चैव सहस्त्रभानोः ।
ज्येष्ठास्वनङ्गाय नमोऽस्तु गुह्य- मिन्द्राय भीमाय कटिं च मूले ॥ ८

भगवान् शंकरने कहा- नारद! जो लोग उपवास करनेमें असमर्थ हैं, उनके लिये वही व्रत अभीष्ट है, जिसमें दिनभर उपवास करके रात्रिमें भोजनका विधान हो; मैं ऐसे महान् एवं अक्षय फल देनेवाले व्रतका परिचय देता हूँ, सुनो। उस व्रतका नाम है-' आदित्य- शयन'। उसमें विधिपूर्वक भगवान् शङ्करकी पूजा की जाती है। पुराणोंके ज्ञाता महर्षि जिन नक्षत्रोंके योगमें इस व्रतका उपदेश करते हैं, उन्हें बताता हूँ। जब सप्तमी तिथिको हस्तनक्षत्रके साथ रविवार हो अथवा सूर्यकी संक्रान्ति हो, वह तिथि समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली होती है। उस दिन सूर्यके नामोंसे भगवती पार्वती और महादेवजीकी पूजा करनी चाहिये। सूर्यदेवकी प्रतिमा तथा शिवलिङ्गका भी भक्तिपूर्वक पूजन करना उचित है; क्योंकि मुनिश्रेष्ठ। उमापति शङ्कर अथवा सूर्यमें कहीं भेद नहीं देखा जाता; इसलिये अपने घरमें शङ्करजीकी अर्चना करनी चाहिये। हस्तनक्षत्रमें 'सूर्याय नमः' का उच्चारण करके सूर्यदेवके चरणोंकी, चित्रा- नक्षत्रमें 'अर्काय नमः' कहकर उनके गुल्फों (घुट्ठियों)- की, स्वातीनक्षत्रमें 'पुरुषोत्तमाय नमः' से पिंडलियोंकी, विशाखामें 'धात्रे नमः' से घुटनोंकी तथा अनुराधामें 'सहस्त्रभानवे नमः' से दोनों जाँघोंकी पूजा करनी चाहिये। ज्येष्ठानक्षत्रमें 'अनङ्गाय नमः' से गुह्य प्रदेशकी, मूलमें 'इन्द्राय नमः' और 'भीमाय नमः' से कटिभागकी पूजा करे ॥२-८॥

पूर्वोत्तराषाढयुगे च नाभिं त्वष्टे नमः सप्मतुरङ्गमाय ।
तीक्ष्णांशवे च श्रवणे च कुक्षी पृष्ठं धनिष्ठासु विकर्तनाय ॥ ९

वक्षःस्थलं ध्वान्तविनाशनाय जलाधिपक्षैः परिपूजनीयम् ।
पूर्वोत्तराभाद्रपदद्वये च बाहू नमश्चण्डकराय पूज्यौ ॥ १०

साम्नामधीशाय करद्वयं च सम्पूजनीयं द्विज रेवतीषु।
नखानि पूज्यानि तथाश्विनीषु नमोऽस्तु सप्ताश्वधुरंधराय ॥ ११

कठोरधाने भरणीषु कण्ठं दिवाकरायेत्यभिपूजनीया ।
ग्रीवाग्निपर्थे ऽधरमम्बुजेशे सम्पूजयेन्नारद रोहिणीषु ॥ १२

मृगेऽर्चनीया रसना पुरारेः रौद्रे तु दन्ता हरये नमस्ते।
नमः सवित्रे इति शंकरस्य नासाभिपूज्य च पुनर्वसौ च ॥१३

ललाटमम्भोरुहवल्लभाय पुष्येऽलकान् वेदशरीरधारिणे।
सार्पेऽथ मौलिं विबुधप्रियाय मघासु कर्णाविति गोगणेशे ॥ १४

पूर्वासु गोब्राह्मणनन्दनाय नेत्राणि सम्पूज्यतमानि शम्भोः ।
अथोत्तराफल्गुनिभे ध्रुवी च विश्वेश्वरायेति च पूजनीये ॥ १५

नमोऽस्तु पाशाङ्कुशपद्मशूल- कपालसर्पेन्दुधनुर्धराय ।
गजासुरानङ्गपुरान्धकादि- विनाशमूलाय नमः शिवाय ॥ १६

इत्यादि चास्त्राणि च पूजयित्वा विश्वेश्वरायेति शिवोऽभिपूज्यः ।
भोक्तव्यमत्रैवमतैलशाक- ममांसमक्षारमभुक्तशेषम् ॥ १७

पूर्वाषाढ और उत्तराषाढमें 'त्वष्ठे नमः' और 'सप्ततुरङ्गाय नमः' से नाभिकी, श्रवणमें 'तीक्ष्णांशवे नमः' से दोनों कुक्षियोंकी, धनिष्ठामें 'विकर्तनाय नमः' से पृष्ठभागकी और शतभिष नक्षत्रमें 'ध्वान्तविनाशनाय नमः' से सूर्यके वक्षःस्थलकी पूजा करनी चाहिये। द्विजवर! पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपदमें 'चण्डकराय नमः' से दोनों भुजाओंका, रेवतीमें 'सानामधीशाय नमः' से दोनों हाथोंका पूजन करना चाहिये। अश्विनीमें 'सप्ताश्वधुरंधराय नमः' से नखोंका और भरणीमें 'कठोरधाने नमः' से भगवान् सूर्यके कण्ठका पूजन करे। नारदजी! कृत्तिकामें 'दिवाकराय नमः' से ग्रीवाकी, रोहिणीमें 'अम्बुजेशाय नमः' से सूर्यदेवके ओठोंकी, मृगशिरामें 'हरये नमस्ते' से त्रिपुर दाहक शिवकी जिह्वाकी और आर्शनक्षत्रमें 'रुद्राय नमः' से उनके दाँतोंकी पूजा करनी चाहिये। 

पुनर्वसुमें 'सवित्रे नमः' से शङ्करजीकी नासिकाका, पुष्यमें 'अम्भोरुहवल्लभाय नमः' से ललाटका तथा 'वेदशरीरधारिणे नमः' से शिवके बालोंका पूजन करना चाहिये। आश्लेषामें 'विबुधप्रियाय नमः' से उनके मस्तकका, मघामें 'गोगणेशाय नमः' से शङ्करजीके दोनों कानोंका, पूर्वाफाल्गुनीमें 'गोब्राह्मणनन्दनाय नमः' से शम्भुके नेत्रोंका तथा उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रमें 'विश्वेश्वराय नमः' से उनकी दोनों भौंहोंका पूजन करे। 'पाश, अङ्कुश, त्रिशूल, कमल, कपाल, सर्प, चन्द्रमा तथा धनुष धारण करनेवाले श्रीमहादेवजीको नमस्कार है। गजासुर, कामदेव, त्रिपुर और अन्धकासुर आदिके विनाशके मूल कारण भगवान् श्रीशिवको प्रणाम है।' इत्यादि वाक्योंका उच्चारण करके प्रत्येक अङ्गकी पूजा करनेके पश्चात् 'विश्वेश्वराय नमः' से भगवान् शिवका पूजन करना चाहिये। तदनन्तर अन्न- भोजन करना उचित है। भोजनमें तेलसे युक्त शाक और खारे नमकका उपयोग नहीं करना चाहिये। मांस और उच्छिष्ट अन्नका तो कदापि सेवन न करे ॥ ९-१७॥

इत्येवं द्विज नक्तानि कृत्वा दद्यात् पुनर्वसौ।
शालेयतण्डुलप्रस्थमौदुम्बरमये घृतम् ॥ १८

संस्थाप्य पात्रे विप्राय सहिरण्यं निवेदयेत्। 
सप्तमे वस्त्रयुग्मं च पारणे त्वधिकं भवेत् ॥ १९

चतुर्दशे तु सम्प्राप्ते पारणे नारदाब्दिके। 
ब्राह्मणान् भोजयेद् भक्त्या गुडक्षीरघृतादिभिः ॥ २०

कृत्वा तु काञ्चनं पद्ममष्टपत्रं सकर्णिकम्। 
शुद्धमष्टाङ्गुलं तच्च प‌द्मरागदलान्वितम् ॥ २१

शय्यां सुलक्षणां कृत्वा विरुद्धग्रन्थिवर्जितम् । 
सोपधानकविश्रामस्वास्तरव्यजनाश्रिताम् ॥ २२

भाजनोपानहच्छत्रचामरासनदर्पणैः 
भूषणैरपि संयुक्तां फलवस्त्रानुलेपनैः ॥ २३

तस्यां विधाय तत्प‌द्ममलङ्कृत्य गुणान्विताम्। 
कपिलां वस्त्रसंयुक्तां सुशीलां च पयस्विनीम् ॥ २४

रौप्यखुरीं हेमशृङ्गीं सवत्सां कांस्यदोहनाम् । 
दद्यान्मन्त्रेण पूर्वाह्न न चैनामभिलङ्घयेत् ॥ २५

यथैवादित्य शयनमशून्यं तव सर्वदा। 
कान्त्या धृत्या श्रिया रस्त्या तथा मे सन्तु सिद्धयः ॥ २६

यथा न देवाः श्रेयांसं त्वदन्यमनघं विदुः । 
तथा मामुद्धराशेषदुःखसंसारसागरात् ॥ २७

ततः प्रदक्षिणीकृत्य प्रणिपत्य विसर्जयेत् । 
शब्यागवादि तत् सर्वं द्विजस्य भवनं नयेत् ॥ २८

द्विजवर नारद! इस प्रकार रात्रिमें शुद्ध भोजन करके पुनर्वसुनक्षत्रमें गूलरकी लकड़ीके पात्रमें एक सेर अगहनीका चावल तथा घृत रखकर सुवर्णके साथ उसे ब्राह्मणको दान करना चाहिये। सातवें दिनके पारणमें और दिनोंकी अपेक्षा एक जोड़ा वस्त्र अधिक दान करना चाहिये। नारद। चौदहवें दिनमें पारणमें गुड़, खीर और घृत आदिके द्वारा ब्राह्मणोंको भक्तिपूर्वक भोजन कराये। तदनन्तर कर्णिकासहित सोनेका अष्टदल कमल बनवाये, जो आठ अङ्गुलका हो तथा जिसमें प‌द्मरागमणि (माणिक्य अथवा लाल) की पत्तियाँ अङ्कित की गयी हों। फिर सुन्दर शय्या तैयार करावे, जिसपर सुन्दर विछौने बिछाकर तकिया रखा गया हो, शय्याके ऊपर पंखा रखा गया हो। उसके आस-पास बर्तन, खड़ाऊँ, जूता, छत्र, चंवर, आसन और दर्पण रखे गये हों। 

फल, वस्त्र, चन्दन तथा आभूषणोंसे वह शय्या सुशोभित होनी चाहिये। ऊपर बताये हुए सर्वगुणसम्पन्न सोनेके कमलको अलङ्कृत करके उस शव्यापर रख दे। इसके बाद मन्त्रोच्चारणपूर्वक दूध देनेवाली अत्यन्त सीधी कपिला गौका दान करे। वह गौ उत्तम गुणोंसे सम्पन्न, वस्त्राभूषणोंसे सुशोभित और बछड़ेसहित होनी चाहिये। उसके खुर चाँदीसे और सोंग सोनेसे मढ़े होने चाहिये तथा उसके साथ काँसेकी दोहनी होनी चाहिये। दिनके पूर्व भागमें ही दान करना उचित है। समयका उल्लङ्घन कदापि नहीं करना चाहिये। शय्यादानके पश्चात् इस प्रकार प्रार्थना करे- 'सूर्यदेव। जिस प्रकार आपकी शय्या कान्ति, धृति, श्री और रतिसे कभी सूनी नहीं होती, वैसे ही मुझे भी सिद्धियाँ प्राप्त हों। देवगण आपके सिवा और किसीको निष्पाप एवं श्रेयस्कर नहीं जानते, इसलिये आप सम्पूर्ण दुःखोंसे भरे हुए इस संसार-सागरसे मेरा उद्धार कीजिये।' इसके पश्चात् भगवान्‌की प्रदक्षिणा कर उन्हें प्रणाम करनेके अनन्तर विसर्जन करे। शय्या और गौ आदि समस्त पदार्थोंको ब्राह्मणके घर पहुँचा दे ॥ १८-२८ ॥

नैतद् विशीलाय न दाम्भिकाय कुतर्कदुष्टाय विनिन्दकाय।
प्रकाशनीयं व्रतमिन्दुमौले-र्यश्चापि निन्दामधिकां विधत्ते ॥ २९

भक्ताय दान्ताय च गुह्यमेत- दाख्येयमानन्दकरं शिवस्य।
इदं महापातकभिन्नराणा- मप्यक्षरं वेदविदो वदन्ति ॥ ३०

न बन्धुपुत्रेण धनैर्वियुक्तः पत्नीभिरानन्दकरः सुराणाम्।
नाभ्येति रोगं न च शोकदुःखं या वाथ नारी कुरुतेऽतिभक्त्या ।। ३१

इदं वसिष्ठेन पुरार्जुनेन कृतं कुबेरेण पुरन्दरेण।
यत्कीर्तनेनाप्यखिलानि नाश-मायान्ति पापानि न संशयोऽस्ति ॥ ३२

इति पठति शृणोति वा य इत्थं रविशयनं पुरुहूतवल्लभः स्यात् ।
अपि नरकगतान् पितॄनशेषा- नपि दिवमानयतीह यः करोति ॥ ३३

दुराचारी और दम्भी पुरुषके सामने भगवान् शंकरके इस व्रतकी चर्चा नहीं करनी चाहिये। जो गौ, ब्राह्मण, देवता, अतिथि और धार्मिक पुरुषोंकी विशेषरूपसे निन्दा करता है, उसके सामने भी इसको प्रकट न करे। भगवान्‌के भक्त और जितेन्द्रिय पुरुषके समक्ष ही शिवजीका यह आनन्ददायी एवं गूढ़ रहस्य प्रकाशित करनेके योग्य है। वेदवेत्ता पुरुषोंका कहना है कि यह व्रत महापातको मनुष्योंके भी पापोंका नाश कर देता है। जो पुरुष इस व्रतका अनुष्ठान करता है, उसका बन्धु, पुत्र, धन और स्त्रीसे कभी वियोग नहीं होता तथा वह देवताओंका आनन्द बढ़ानेवाला माना जाता है। इसी प्रकार जो नारी भक्तिपूर्वक इस व्रतका पालन करती है उसे कभी रोग, दुःख और शोकका शिकार नहीं होना पड़ता। प्राचीनकालमें महर्षि वसिष्ठ, अर्जुन, कुबेर तथा इन्द्रने इस व्रतका आचरण किया था। इस व्रतके कीर्तनमात्रसे सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। जो पुरुष इस आदित्यशयन नामक व्रतके माहात्म्य एवं विधिका पाठ या श्रवण करता है, वह इन्द्रका प्रियतम होता है तथा जो इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह नरकमें भी पड़े हुए समस्त पितरोंको स्वर्गलोकमें पहुंचा देता है॥ २९-३३॥

इति श्रीमाल्ये महापुराणे आदित्यशयनव्रतं नाम पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः ॥ ५५॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें आदित्यशयनव्रत नामक पचपनयाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ५५ ॥

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