मत्स्य पुराण सत्तानबेवाँ अध्याय
आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
नारद उवाच
यदारोग्यकरं पुंसां यदनन्तफलप्रदम्।
यच्छान्त्यै च मर्त्यानां वद नन्दीश तद् व्रतम् ॥ १
नारदजीने पूछा- नन्दीश्वर ! अब जो व्रत मृत्युलोकवासी पुरुषोंके लिये आरोग्यकारी, अनन्त फलका प्रदाता और शान्ति कारक हो, उसका वर्णन कीजिये ॥ १॥

नन्दिकेश्वर उवाच
यत् तद् विश्वात्मनो धाम परं ब्रह्म सनातनम् ।
सूर्याग्निचन्द्ररूपेण तत् त्रिधा जगति स्थितम् ॥ २
तदाराध्य पुमान् विप्र प्राप्नोति कुशलं सदा।
तस्मादादित्यवारेण सदा नक्ताशनो भवेत् ॥ ३
यदा हस्तेन संयुक्तमादित्यस्य च वासरम्।
तदा शनिदिने कुर्यादेकभक्तं विमत्सरः ॥ ४
नक्तमादित्यवारेण भोजयित्वा द्विजोत्तमान्।
पत्रैर्द्वादशसंयुक्तं रक्तचन्दनपङ्कजम् ॥ ५
विलिख्य विन्यसेत् सूर्य नमस्कारेण पूर्वतः ।
दिवाकरं तथाग्रेये विवस्वन्तमतः परम् ॥ ६
भगं तु नैर्ऋते देवं वरुणं पश्चिमे दले।
महेन्द्रमनिले तद्वदादित्यं च तथोत्तरे ॥ ७
शान्तमीशानभागे तु नमस्कारेण विन्यसेत् ।
कर्णिकापूर्वपत्रे तु सूर्यस्य तुरगान् न्यसेत् ॥ ८
दक्षिणेऽयमनामानं मार्तण्डं पश्चिमे दले।
उत्तरे तु रविं देवं कर्णिकायां च भास्करम् ॥ ९
रक्तपुष्पोदकेनार्घ्य सतिलारुणचन्दनम् ।
तस्मिन् पद्ये ततो दद्यादिमं मन्त्रमुदीरयेत् ॥ १०
कालात्मा सर्वभूतात्मा वेदात्मा विश्वतोमुखः ।
यस्माद्नीन्द्ररूपस्त्वमतः पाहि दिवाकर ॥ ११
अग्रिमीले नमस्तुभ्यमिषे त्वोर्जे च भास्कर।
अग्न आयाहि वरद नमस्ते ज्योतिषाम्पते ॥ १२
नन्दिकेश्वर बोले- नारदजी! विश्वात्मा भगवान्का जो परब्रह्मस्वरूप सनातन तेज है, वह जगत्में सूर्य, अग्रि और चन्द्ररूपसे तीन भागोंमें विभक्त होकर स्थित है। विप्रवर! उनकी आराधना करके मनुष्य सदा कुशलताका भागी हो जाता है। इसलिये रविवारको रात्रिमें एक बार भोजन करना चाहिये। जब रविवार हस्त नक्षत्रसे युक्त हो तो शनिवारको मत्सररहित हो एक ही बार भोजन करना चाहिये। रविवारको श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको भोजन कराकर नक्तभोजन (रात्रिमें एक बार भोजन करने) का विधान है। तदनन्तर लाल चन्दनसे द्वादश दलोंसे युक्त कमलकी रचना कर उसके पूर्वदलपर सूर्यकी, अग्निकोणवाले दलपर दिवाकरकी, दक्षिणदलपर विवस्वान्की, नैऋत्यकोणस्थित दलपर भगकी, पश्चिमदलपर वरुणदेवकी, वायव्यकोणवाले दलपर महेन्द्रकी, उत्तरदलपर आदित्यकी और ईशानकोणस्थित दलपर शान्तकी नमस्कारपूर्वक स्थापना करे।
पुनः कर्णिकाके पूर्वदलपर सूर्यके घोड़ोंको, दक्षिणदलपर अर्थमाको, पश्चिमदलपर मार्तण्डको, उत्तरदलपर रविदेवको और कणिकाके मध्यभागमें भास्करको स्थित कर दे। तदनन्तर लाल पुष्प, लाल चन्दन और तिलमिश्रित जलसे उस कमलपर अर्घ्य प्रदान करे। उस समय इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये- 'दिवाकर! काल आपका ही स्वरूप है, आप समस्त प्राणियोंके आत्मा और वेदस्वरूप हैं, आपका मुख चारों दिशाओंमें है अर्थात् आप सर्वद्रष्टा हैं तथा अग्रि और इन्द्रके रूपमें आप ही वर्तमान हैं, अतः मेरी रक्षा कीजिये। भास्कर! ऋग्वेदके प्रथम मन्त्र अग्ग्रिमीले०', यजुर्वेदके 'इषे त्वोर्जे०' तथा सामवेदके प्रथम मन्त्र 'अग्न आबाहि०' के रूपमें आप ही वर्तमान हैं, आपको नमस्कार है। वरदायक! आप ज्योतिःपुञ्जोंके अधीश्वर हैं, आपको प्रणाम है॥ २-१२॥
अर्घ्य दत्त्वा विसृज्याथ निशि तैलविवर्जितम् ।
भुञ्जीत वत्सरान्ते तु काञ्चनं कमलोत्तमम् ।
पुरुषं च यथाशक्त्या कारयेद् द्विभुजं तथा ॥ १३
सुवर्णशृङ्गीं कपिलां महार्थ्यां रौप्यैः खुरैः कांस्यदोहां सवत्साम् ।
पूर्ण गुडस्योपरि ताम्रपात्रे निधाय पद्म पुरुषं च दद्यात् ॥ १४
सम्पूज्य रक्ताम्बरमाल्यधूपै- द्विजं च रक्तैरथ हेमशृङ्गः।
संकल्पयित्वा पुरुषं सपां दद्यादनेकव्रतदानकाय ।
अव्यङ्गरूपाय जितेन्द्रियाय कुटुम्बिने देयमनुद्धताय ।। १५
नमो नमः पापविनाशनाय विश्वात्मने सप्ततुरंगमाय ।
सामर्ग्यजुर्धामनिधे विधात्रे भवाब्धिपोताय जगत्सवित्रे ।। ९६
इत्यनेन विधिना समाचरे- दब्दमेकमिह यस्तु मानवः ।
सोऽधिरोहति विनष्टकल्मषः सूर्यधाम धुतचामरावलिः ॥ १७
धर्मसंक्षयमवाप्य भूपतिः शोकदुःखभयरोगवर्जितः।
द्वीपसप्तकपतिः पुनः पुन- र्धर्ममूर्तिरमितौजसा युतः ॥ १८
या च भर्तृगुरुदेवतत्परा वेदमूर्तिदिननक्तमाचरेत् ।
सापि लोकममरेशवन्दिता याति नारद रवेर्न संशयः ॥ १९
यः पठेदपि शृणोति मानवः पठ्यमानमथ वानुमोदते।
सोऽपि शक्रभुवनस्थितोऽमरैः पूज्यते वसति चाक्षयं दिवि ॥ २०
इस प्रकार अर्घ्य देकर विसर्जन कर रातमें तैलरहित भोजन करना चाहिये। एक वर्ष पूरा होनेपर अपनी शक्तिके अनुसार सुवर्णसे एक उत्तम कमल और एक दो भुजाधारी पुरुषकी मूर्ति बनवाये। फिर गुड़के ऊपर स्थित ताँबेके पूर्णपात्रपर उस कमल और पुरुषको रख दे। उस समय एक सवत्सा कपिला गौ भी प्रस्तुत करे, जो अधिक मूल्यवाली हो, जिसके सींग सुवर्णसे और खुर चाँदीसे मढ़े गये हों तथा जिसके निकट कांसदोहनी भी रखी हो। तत्पश्चात् लाल रंगके स्वर्णनिर्मित सिंघा बाजाके साथ लाल वस्त्र, पुष्पमाला और धूपसे ब्राह्मणकी पूजा करके संकल्पपूर्वक गौ एवं कमलसहित उस पुरुष-मूर्तिको ऐसे ब्राह्मणको दान कर दे, जो अनेकों श्रेष्ठ व्रतोंमें दान लेनेका अधिकारी, सुडौल रूपसे सम्पन्न, जितेन्द्रिय, शान्त स्वभाव और विशाल कुटुम्बवाला हो।
(उस समय ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये) 'जी पापके विनाशक, विश्वके आत्मस्वरूप, सात घोड़ोंसे जुते रथपर आरूढ़ होनेवाले, ऋक्, यजुः, साम तीनों वेदोंके तेजकी निधि, विधाता, भवसागरके लिये नौकास्वरूप और जगल्लष्टा हैं, उन सूर्यदेवको बारंबार नमस्कार है।' जो मानव इस लोकमें उपर्युक्त विधिके अनुसार एक वर्षतक इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह पापरहित होकर सूर्यलोकको चला जाता है। उस समय उसके ऊपर चैवर डुलाये जाते हैं। पुण्य क्षीण होनेपर वह इस लोकमें शोक, दुःख, भय और रोगसे रहित होकर बारंबार अमित ओजस्वी एवं धर्मात्मा भूपाल होता है, उस समय सातों द्वीप उसके अधिकारमें रहते हैं। नारदजी। पति, गुरुजन और देवताओंकी शुश्रूषामें तत्पर रहनेवाली जो नारी रविवारको इस नक्तव्रतका अनुष्ठान करती है, वह भी इन्द्रद्वारा पूजित होकर निस्संदेह सूर्यलोकको चली जाती है। जो मानव इस व्रतको पढ़ता या सुनता है अथवा पढ़नेवालेका अनुमोदन करता है, वह भी इन्द्रलोकमें स्थित होकर देवताओंद्वारा पूजित होता है और अक्षय कालतक स्वर्गलोकमें निवास करता है॥ १३-२०॥
इति श्रीमाल्ये महापुराणे आदित्यवारकल्यो नाम सप्तनवतितमोऽध्यायः ॥ ९७ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें आदित्यवार-कल्प नामक सत्तानबेवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ९७ ॥
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