आर्द्रानन्दकरी तृतीया-व्रत की विधि और उसका माहात्म्य | aardraanandakaree trteeya-vrat kee vidhi aur usaka maahaatmy |

मत्स्य पुराण चौंसठवाँ अध्याय

आर्द्रानन्दकरी तृतीया-व्रत की विधि और उसका माहात्म्य

ईश्वर उवाच

तथैवान्यां प्रवक्ष्यामि तृतीयां पापनाशिनीम्।
नाम्ना च लोके विख्यातामार्द्रानन्दकरीमिमाम् ॥ १

ईश्वरने कहा- नारद ! उसी प्रकार अब मैं एक- दूसरी पापनाशिनी तृतीयाका वर्णन कर रहा हूँ जो लोक में आर्द्रानन्दकरी नाम से विख्यात है॥ १

यदा शुक्लतृतीयायामाषाढक्षं भवेत् क्वचित्।
ब्रह्मक्ष या मृगक्ष वा हस्तो मूलमथापि वा।
दर्भगन्धोदकैः स्त्रानं तदा सम्यक् समाचरेत् ॥ २

शुक्लमाल्याम्बरधरः शुक्लगन्धानुलेपनः ।
भवानीमर्चयेद् भक्त्या शुक्लपुष्पैः सुगन्धिभिः ।
महादेवेन सहितामुपविष्टां महासने ॥ ३

वासुदेव्यै नमः पादौ शङ्कराय नमो हरम्।
जड्डे शोकविनाशिन्यै आनन्दाय नमः प्रभो ॥ ४

रम्भायै पूजयेदूरू शिवाय च पिनाकिनः ।
अदित्यै च कटिं देव्याः शूलिनः शूलपाणये ॥ ५

माधव्यै च तथा नाभिमथ शम्भोर्भवाय च।
स्तनावानन्दकारिण्यै शङ्करस्येन्दुधारिणे ॥ ६

उत्कण्ठिन्यै नमः कण्ठं नीलकण्ठाय वै हरम्।
करावुत्पलधारिण्यै रुद्राय च जगत्पतेः ।
बाहू च परिरम्भिण्यै त्रिशूलाय हरस्य च ॥ ७

देव्या मुखं विलासिन्यै वृषेशाय पुनर्विभोः। 
स्मितं सस्मेरलीलायै विश्ववक्त्राय वै विभोः ॥ ८

नेत्रे मदनवासिन्यै विश्वधाने त्रिशूलिनः । 
ध्रुवौ नृत्यप्रियायै तु ताण्डवेशाय शूलिनः ॥ ९

देव्या ललाटमिन्द्राण्यै हव्यवाहाय वै विभोः ।
स्वाहायै मुकुटं देव्या विभोर्गङ्गाधराय वै ॥ १०

विश्वकायौ विश्वमुखौ विश्वपादकरी शिवौ।
प्रसन्नवदनौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरी ॥ ११

इसकी विधि यह है-जब कभी शुक्लपक्षकी तृतीयाको पूर्वाषाढ़ अथवा उत्तराषाढ़, रोहिणी, मृगशिरा, हस्त अथवा मूल नक्षत्र पड़े तो उस समय कुश और चन्दनमिश्रित जलसे भलीभाँति स्नान करना चाहिये। फिर श्वेत वस्त्र धारण करके श्वेत चन्दनका अनुलेप कर ले। तत्पश्चात् महादेवसहित दिव्य आसनपर विराजमान भवानीकी (स्वर्णमयी मूर्तिकी) श्वेत पुष्पों और सुगन्धित पदार्थोंद्वारा भक्तिपूर्वक अर्चना करे। (पूजनकी विधि इस प्रकार है-) 'वासुदेव्यै नमः, शङ्कराय नमः' से गौरी शंकरके दोनों चरणोंका, 'शोकविनाशिन्यै नमः, आनन्दाय नमः' से दोनों जंघाओंका, 'रम्भायै नमः', 'शिवाय नमः' से दोनों ऊरुओंका, 'अदित्यै नमः, शूलपाणये नमः' से कटिप्रदेशका, 'माधव्यै नमः, भवाय नमः' से नाभिका, 'आनन्दकारिण्यै नमः, इन्दुधारिणे नमः' से दोनों स्तनोंका, 'उत्कण्ठिन्यै नमः, नीलकण्ठाय नमः' से कण्ठका, 'उत्पलधारिण्यै नमः, रुद्राय नमः' से दोनों हाथोंका, 'परिरम्भिण्यै नमः, त्रिशूलाय नमः' से दोनों भुजाओंका, विलासिन्यै नमः, वृषेशाय नमः' से मुखका,सस्मेरलीलायै नमः, विश्ववक्त्राय नमः' से मुसकानका मदनवासिन्यै नमः, विश्वधाम्ने नमः' से दोनों नेत्रोंका, 'नृत्यप्रियायै नमः, ताण्डवेशाय नमः' से दोनों भौंहोंका, 'इन्द्राण्यै नमः, हव्यवाहाय नमः' से ललाटका तथा 'स्वाहायै नमः, गङ्गाधराय नमः' से मुकुटका पूजन करे। तत्पश्चात् विश्व जिनका शरीर है, जो विश्वके मुख, पाद और हस्तस्वरूप तथा मङ्गलकारक हैं, जिनके मुखपर प्रसन्नता झलकती रहती है, उन पार्वती और परमेश्वरकी मैं वन्दना करता हूँ। (ऐसा कहकर उनके चरणोंमें लुढ़क पड़े।) ॥ १-११ ॥

एवं सम्पूज्य विधिवद्ग्रतः शिवयोः नमः । 
पद्मोत्पलानि रजसा नानावर्णेन कारयेत् ॥ १२

शङ्खचक्रे सकटके स्वस्तिकाङ्कुशचामरान् ।
यावन्तः पांसवस्तत्र रजसः पतिता भुवि। 
तावद् वर्षसहस्राणि शिवलोके महीयते ॥ १३

चत्वारि घृतपात्राणि सहिरण्यानि शक्तितः ।
दत्त्वा द्विजाय करकमुदकान्नसमन्वितम् । 
प्रतिपक्षं चतुर्मासं यावदेतन्निवेदयेत् ॥ १४

ततस्तु चतुरो मासान् पूर्ववत् करकोपरि। 
चत्वारि सक्नुपात्राणि तिलपात्राण्यतः परम् ।। १५

गन्धोदकं पुष्पवारि चन्दनं कुङ्कुमोदकम् । 
अपक्वं दधि दुग्धं च गोशृङ्गोदकमेव च ॥ १६

पिष्टोदकं तथा वारि कुष्ठचूर्णान्वितं पुनः । 
उशीरसलिलं तद्वद् यवचूर्णोदकं पुनः ॥ १७

तिलोदकं च सम्प्राश्य स्वपेन्मार्गशिरादिषु। 
मासेषु पक्षद्वितयं प्राशनं समुदाहृतम् ॥ १८

सर्वत्र शुक्लपुष्पाणि प्रशस्तानि सदार्चने। 
दानकाले च सर्वत्र मन्त्रमेतमुदीरयेत् ॥ १९

गौरी मे प्रीयतां नित्यमघनाशाय मङ्गला। 
सौभाग्यायास्तु ललिता भवानी सर्वसिद्धये ॥ २०

संवत्सरान्ते लवणं गुडकुम्भं च सर्जिकाम्। 
चन्दनं नेत्रपङ्गं च सहिरण्याम्बुजेन तु ॥ २१

उमामहेश्वरं हैमं तद्वदिक्षुफलैर्युतम् ।
सतूलावरणां शय्यां सविश्वामां निवेदयेत् । 
सपत्नीकाय विप्राय गौरी में प्रीयतामिति ॥ २२

इस प्रकार विधिके अनुसार पूजन कर पुनः शिव- पार्वतीकी मूर्तिके अग्रभागमें विभिन्न प्रकारके रङ्गोंवाले रजसे कमलका आकार बनवाये। साथ ही कटकसहित शङ्ख, चक्र, स्वस्तिक, अङ्कुश और चंवरको भी चित्रित करे। ऐसा करते समय वहाँ भूतलपर जितने रजःकण गिरते हैं, उतने सहस्त्र वर्षोंतक व्रती शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है। पुनः अपनी शक्तिके अनुसार सुवर्णसहित घीसे भरे हुए चार पात्र और अन्न एवं जलसे युक्त करवा ब्राह्मणको दान करे। ऐसा चार मासतक प्रत्येक शुक्लपक्षकी तृतीयाको करना चाहिये। इसके बाद चार मासतक पहलेकी तरह करवापर सत्तूसे पूर्ण चार पात्र रखकर तथा उसके बाद चार मासतक करवापर तिलपूर्ण चार पात्र रखकर दान करे। व्रतीको मार्गशीर्ष आदि मासोंमें क्रमशः गन्धोदक (सुगन्धमिश्रित जल), पुष्पवारि (फूलयुक्त जल), चन्दनमिश्रित जल, कुङ्कुमयुक्त जल, बिना पका हुआ दही, दूध, गोशृङ्गोदक (गौर्क सींगसे स्पर्श कराया हुआ जल), पिष्टोदक (पीठीयुक्त जल), कुष्ठ (गन्धक) के चूर्णसे युक्त जल, उशीर (खस) मिश्रित जल, यवके चूर्णसे युक्त जल तथा तिलमिश्रित जलका भक्षण करके रात्रिमें शयन करना चाहिये। यह प्राशन (भक्षण) प्रत्येक मासमें दोनों पक्षोंमें करनेका विधान है। सभी महीनोंके पूजनमें श्वेत पुष्प सदा प्रशस्त माने गये हैं। सभी मासोंमें दानके समय इस प्रकारका मन्त्र उच्चारण करना चाहिये- 'गौरी नित्य मुझपर प्रसन्न रहें, मङ्गला मेरे पापोंका विनाश करें, ललिता मुझे सौभाग्य प्रदान करें और भवानी मेरे लिये सम्पूर्ण सिद्धियोंकी प्रदात्री हों।' इस प्रकार वर्षके अन्तमें स्वर्णनिर्मित कमलसहित नमक, गुड़से भरा हुआ घट, सज्जी, चन्दन, आँखोंको बँकनेके लिये वस्त्र, गना और नाना प्रकारके फलोंके साथ स्वर्णनिर्मित उमा और महेश्वरकी मूर्ति सपत्नीक ब्राह्मणको दान कर दे। उस समय रूईसे भरा हुआ गद्दा, चादर और तकियासे युक्त सुन्दर शय्या भी दान करनेका विधान है। (दान करनेके पश्चात् उनसे यों प्रार्थना करे) 'गौरीदेवी मुझपर प्रसन हों ॥ १२-२२॥

आर्द्रानन्दकरी नाम्ना तृतीयैषा सनातनी। 
यामुपोष्य नरो याति शम्भोर्यत् परमं पदम् ॥ २३

इह लोके सदानन्दमाप्नोति धनसम्पदः । 
आयुरारोग्यसम्पत्त्या न कश्चिच्छोकमाप्नुयात् ॥ २४

नारी वा कुरुते या तु कुमारी विधवा च या। 
सापि तत्फलमाप्नोति देव्यनुग्रहलालिता ॥ २५

प्रतिपक्षमुपोष्यैवं मन्त्रार्चनविधानवित् । 
रुद्राणीलोकमभ्येति पुनरावृत्तिदुर्लभम् ॥ २६

य इदं शृणुयान्त्रित्यं श्रावयेद् वापि मानवः । 
शक्रलोके स गन्धर्वैः पूज्यतेऽपि युगत्रयम् ॥ २७

आनन्ददां सकलदुःखहरां तृतीयां या स्वी करोत्यविधवा विधवाथवापि। 
सा स्वे गृहे सुखशतान्यनुभूय भूयो गौरीपदं सदयिता दयिता प्रयाति ॥ २८

यह आर्द्रानन्दकरी नामकी सनातनी तृतीया है, जिसका व्रतोपवास करके मनुष्य उस स्थानको प्राप्त होता है जो शिवजीका परमपद कहलाता है। वह इस लोकमें धन-सम्पत्ति, दीर्घायु और नीरोगतारूप सम्पत्तिसे युक्त होकर सुखका उपभोग करता है। उसे कोई शोक नहीं प्राप्त होता। यदि सधवा नारी, कुमारी अथवा विधवा इस व्रतका अनुष्ठान करती है तो वह भी देवीकी कृपासे लालित होकर उसी फलको प्राप्त होती है। इसी प्रकार मन्त्र और अर्चा-विधिका ज्ञाता मनुष्य प्रत्येक पक्षमें इस व्रतका अनुष्ठान कर रुद्राणीके उस लोकमें जाता है जहाँसे पुनरागमन नहीं होता। जो मानव नित्य इस व्रतको सुनता अथवा सुनाता है वह तीन युगोंतक इन्द्रलोकमें गन्धवर्वोद्वारा पूजित होता है। जो स्त्री, चाहे वह सधवा हो अथवा विधवा, इस सम्पूर्ण दुःखोंको हरण करनेवाली एवं आनन्ददायिनी तृतीयाका अनुष्ठान करती है वह नारी पतिसहित अपने घरमें सैकड़ों प्रकारके सुखोंका अनुभव करके पुनः गौरी-लोकमें चली जाती है॥ २३-२८॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे आर्द्रानन्दकरीतृतीयाव्रतं नाम चतुःषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६४ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें आर्द्रानन्दकरी तृतीया-व्रत नामक चौसठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ६४॥

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