अनन्त तृतीया-व्रत की विधि और उसका माहात्म्य | anant trteeya-vrat kee vidhi aur usaka maahaatmy |

मत्स्य पुराण बासठवाँ अध्याय

अनन्त तृतीया-व्रत की विधि और उसका माहात्म्य

मनुरुवाच

सौभाग्यारोग्यफलदं विपक्षक्षयकारकम्। 
भुक्तिमुक्तिप्रदं देव तन्मे ब्रूहि जनार्दन ॥ १

मनुने पूछा- जनार्दनदेव । जो इस लोकमें सौभाग्य और नीरोगतारूप फल देनेवाला तथा भोग और मोक्षका प्रदाता एवं शत्रुनाशक हो, वह व्रत मुझे बतलाइये ॥ १ ॥

मत्स्य उवाच

यदुमायाः पुरा देव उवाच पुरसूदनः। 
कैलासशिखरासीनो देव्या पृष्टस्तदा किल ।। २

कथासु सम्प्रवृत्तासु धर्म्यासु ललितासु च। 
तदिदानीं प्रवक्ष्यामि भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ॥ ३

मत्स्यभगवान्‌ने कहा- राजन् । पूर्वकाल में कैलास पर्वत के शिखरपर बैठे हुए त्रिपुरविनाशक महादेवजी ने सुन्दर धार्मिक कथाओंके प्रसङ्गमें उमादेवीद्वारा पूछे जानेपर उनसे जिस व्रतका वर्णन किया था, वही इस समय मैं बतला रहा हूँ, यह भोग और मोक्षरूप फल देनेवाला है ॥ २-३ ॥

ईश्वर उवाच

शृणुष्वावहिता देवि तथैवानन्तपुण्यकृत्।
नराणामथ नारीणामाराधनमनुत्तमम् ॥ ४

नभस्ये वाथ वैशाखे पौषे मार्गशिरेऽथवा । 
शुक्लपक्षे तृतीयायां सुस्त्रातो गौरसर्षपैः ॥ ५

गोरोचनं सगोमूत्रं मुस्तां गोशकृतं तथा।
दधिचन्दनसम्मिश्रं ललाटे तिलकं न्यसेत्। 
सौभाग्यारोग्यदं यत् स्यात् सदा च ललिताप्रियम् ।। ६

प्रतिपक्षं तृतीयासु पुमानापीतवाससी। 
धारयेदद्ध रक्तानि नारी चेदथ संयता ॥ ७

विधवा धातुरक्तानि कुमारी शुक्लवाससी।
देवीं तु पञ्चगव्येन ततः क्षीरेण केवलम् । 
स्त्रापयेन्मधुना तद्वत् पुष्पगन्धोदकेन च ॥ ८

पूजयेच्छुक्लपुष्यैश्च फलैर्नानाविधैरपि।
धान्यलाजाजिलवणैर्गुडक्षीरघृतान्वितैः ॥ ९

शुक्लाक्षततिलैरच्याँ ललितां यः सदार्चयेत् । 
आपादाद्यर्चनं कुर्याद् गौर्य्याः सम्यक् समासतः ।। १०

वरदायै नमः पादौ तथा गुल्फौ श्रियै नमः। 
अशोकायै नमो जड्डे पार्वत्यै जानुनी तथा ॥ ११

ऊरू मङ्गलकारिण्यै वामदेव्यै तथा कटिम्।
पद्मोदरायै जठरमुरः कामश्रियै नमः ॥ १२

करौ सौभाग्यदायिन्यै बाहूदरमुखं श्रियै।
दन्तान् दर्पणवासिन्यै स्मरदायै स्मितं नमः ॥ १३

गौर्यै नमस्तथा नासामुत्पलायै च लोचने।
तुष्ट्यै ललाटमलकान् कात्यायन्यै शिरस्तथा ।। १४

नमो गौर्यै नमो धिष्ण्यै नमः कान्त्यै नमः श्रियै।
रम्भायै ललितायै च वासुदेव्यै नमो नमः ॥ १५

ईश्वरने कहा- देवि! मैं पुरुषों तथा स्त्रियोंके लिये एक सर्वश्रेष्ठ व्रत बतला रहा हूँ, जो अनन्त पुण्यदायक है। तुम सावधानीपूर्वक उसे सुनो। इस व्रतका व्रती भाद्रपद, वैशाख, पौष अथवा मार्गशीर्ष मासके शुक्लपक्षमें तृतीया तिथिको पीली सरसोंसे युक्त जलसे भलीभाँति स्रान करे। फिर गोरोचन, गोमूत्र, मुश्ता, गोबर, दही और चन्दनको मिलाकर ललाटमें तिलक लगावे; क्योंकि यह तिलक सौभाग्य और आरोग्यका प्रदायक तथा ललितादेवीको परम प्रिय है। प्रत्येक शुक्लपक्षकी तृतीया तिथिको पुरुषको पीला वस्त्र, यदि सधवा स्त्री व्रतनिष्ठ होती है तो उसे लाल वस्त्र, विधवाको गेरू आदि धातुओंसे रँगा हुआ वस्त्र और कुमारी कन्याको श्वेत वस्त्र धारण करना चाहिये। उस समय देवीकी मूर्तिको पञ्चगव्यसे स्रान करानेके पश्चात् केवल दूधसे नहलाना चाहिये। उसी प्रकार मधु और पुष्प-चन्दनमिश्रित जलसे भी ज्ञान करावे। 

फिर श्वेत पुष्प, अनेक प्रकारके फल, धनिया, श्वेत जीरा, नमक, गुड़, दूध और घृतसे देवीकी पूजा करे। वेत अक्षत और तिलसे तो ललितादेवीकी सदा पूजा करनी चाहिये। प्रत्येक शुक्लपक्षमें तृतीया तिथिको देवीकी मूर्तिके चरणसे लेकर मस्तकपर्यन्त संक्षेपसे पूजनका विधान है।'वरदायै नमः' से दोनों चरणोंका, 'श्रियै नमः' से दोनों गुल्फोंका, 'अशोकायै नमः' से दोनों जाँघोंका, 'पार्वत्यै नमः' से दोनों जानुओंका, 'मङ्गलकारिण्यै नमः' से दोनों ऊरुओंका, 'वामदेव्यै नमः' से कटिप्रदेशका, 'पद्मोदरायै नमः' से उदरका तथा 'कामश्रियै नमः' से वक्षःस्थलका अर्चन करे; फिर 'सौभाग्यदायिन्यै नमः' से दोनों हाथोंका, 'श्रियै नमः' से बाहु, उदर और मुखका, 'दर्पणवासिन्यै नमः' से दाँतोंका, 'स्मरदायै नमः' से मुसकानका, 'गौर्य नमः' से नासिकाका, 'उत्पलायै नमः' से नेत्रोंका, 'तुष्टबै नमः' से ललाटका, 'कात्यायन्यै नमः' से सिर और वालोंका पूजन करना चाहिये। तदुपरान्त 'गीयें नमः', 'धिष्ण्यै नमः', 'कान्त्यै नमः', 'श्रियै नमः', 'रम्भायै नमः', 'ललितायै नमः' और 'वासुदेव्यै नमः' कहकर देवीके चरणोंमें प्रणिपात करना चाहिये ॥ ४-१५ ॥

एवं सम्पूज्य विधिवदग्रतः पद्ममालिखेत्। 
पत्रैर्द्वादशभिर्युक्तं कुङ्कुमेन सकणिकम् ॥ १६

पूर्वेण विन्यसेद् गौरीमपर्णां च ततः परम्।
भवानीं दक्षिणे तद्वद् रुद्राणी च ततः परम् ॥ १७

विन्यसेत् पश्चिमे सौम्यां सदा मदनवासिनीम् । 
वायव्ये पाटलावासामुत्तरेण ततोऽप्युमाम् ॥ १८

लक्ष्मीं स्वाहां स्वधां तुष्टि मङ्गलां कुमुदां सतीम्।
रुद्रं च मध्ये संस्थाप्य ललितां कणिकोपरि। 
कुसुमैरक्षतैर्वाभिर्नमस्कारेण विन्यसेत् ॥ १९

गीतमङ्गलनिर्घोषान् कारयित्वा सुवासिनीः ।
पूजयेद् रक्तवासोभी रक्तमाल्यानुलेपनैः ।
सिन्दूरं गन्धचूर्ण च तासां शिरसि पातयेत् ॥ २०

सिन्दूरकुङ्कुमस्त्रानमिष्टं सत्याः सदा यतः।
तथोपदेष्टारमपि पूजयेद् यन्नतो गुरुम्। 
न पूज्यते गुरुर्यत्र सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ॥ २१

नभस्ये पूजयेद् गौरीमुत्पलैरसितैः सदा। 
बन्धुजीवैराश्वयुजे कार्तिके शतपत्रकैः ॥ २२

जातीपुष्पैर्मार्गशीर्षे पौषे पीतैः कुरण्टकैः।
कुन्दकुङ्कुमपुष्यैस्तु देवीं माघे तु पूजयेत्।
सिन्धुवारेण जात्या वा फाल्गुनेऽप्यर्चयेदुमाम् ॥ २३

चैत्रे तु मल्लिकाशोकैवैशाखे गन्धपाटलैः ।
ज्येष्ठे कमलमन्दारैराषाढे चम्पकाम्बुजैः ।
कदम्बैरथ मालत्या श्रावणे पूजयेदुमाम् ।। २४

गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् ।
बिल्वपत्रार्कपुष्पं च गवां शृङ्गोदकं तथा ॥ २५

पञ्चगव्यं च बिल्वं च प्राशयेत् क्रमशस्तदा।
एतद् भाद्रपदाद्यं तु प्राशनं समुदाहृतम् ॥ २६

इस प्रकार विधिपूर्वक पूजा करके मूर्तिके आगे कुङ्कुमसे बारह पत्तोंसे युक्त कर्णिकासहित कमल बनाये। उसके पूर्वभागमें गौरी, उसके बाद अपर्णा, दक्षिणभागमें भवानी और नैऋत्य कोणमें रुद्राणीको स्थापित करे। पुनः पश्चिममें सदा सौम्य स्वभावसे रहनेवाली मदनवासिनी, वायव्यकोणमें पाटला और उत्तरमें पुष्पमें निवास करनेवाली उमाकी स्थापना करे। मध्यभागमें लक्ष्मी, स्वाहा, स्वधा तुष्टि, मङ्गला, कुमुदा और सतीको स्थित करे। कमलके मध्यमें रुद्रकी स्थापना करके कर्णिकाके ऊपर ललितादेवीको स्थित करे। तत्पश्चात् गीत और माङ्गलिक बाजाका आयोजन कराकर पुष्प, श्वेत अक्षत और जलसे देवीकी अर्चना करके उन्हें नमस्कार करे। फिर लाल वस्त्र, लाल पुष्पोंकी माला और लाल अङ्गरागसे सुहागिनी स्त्रियोंका पूजन करे तथा उनके सिर (माँग) में सिन्दूर और कुङ्कुम लगावे; क्योंकि सिन्दूर और कुङ्कुम सती देवीको सदा अभीष्ट हैं। 

तदनन्तर उपदेश करनेवाले गुरु अर्थात् आचार्यकी यत्नपूर्वक पूजा करनी चाहिये; क्योंकि जहाँ आचार्यकी पूजा नहीं होती, वहाँ सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। गौरीदेवीकी पूजा सदा भाद्रपदमासमें नीले कमलसे, आश्विनमें बन्धुजीव (गुलदुपहरिया) के फूलोंसे, कार्तिकमें शतपत्रक (कमल) के पुष्पोंसे, मार्गशीर्षमें जाती (मालती) के पुष्पोंसे, पौषमें पीले कुरण्टक (कटसरैया) के पुष्पोंसे, माघमें कुन्द और कुङ्कुमके पुष्पोंसे करनी चाहिये। इसी प्रकार फाल्गुनमें सिन्दुवार अथवा मालतीके पुष्पोंसे उमाकी अर्चना करे। चैत्रमें मल्लिका और अशोकके पुष्पोंसे, वैशाखमें गन्धपाटलके फूलोंसे, ज्येष्ठमें कमल और मन्दारके कुसुमोंसे, आषाढ़में चम्पा एवं कमल पुष्पोंसे और श्रावणमें कदम्ब तथा मालतीके फूलोंसे पार्वतीकी पूजा करनी चाहिये। इसी तरह भाद्रपदसे आरम्भ कर आश्विन आदि बारह महीनोंमें क्रमशः गोमूत्र, गोबर, दूध, दही, घी, कुशोदक, बिल्व पत्र, मदारका पुष्प, गोशृङ्गोदक, पञ्चगव्य और बेलका नैवेद्य अर्पण करनेका विधान है। क्रमशः भाद्रपदसे लेकर श्रावणतक प्रत्येक मासके लिये ये नैवेद्य बतलाये गये हैं॥ १६-२६ ॥

प्रतिपक्षं च मिथुनं तृतीयायां वरानने।
ब्राह्मणं ब्राह्मणीं चैव शिवं गौरी प्रकल्प्य च ।। २७

भोजयित्वार्चयेद् भक्त्या वस्त्रमाल्यानुलेपनैः ।
पुंसः पीताम्बरे दद्यात् स्त्रियै कौसुम्भवाससी ॥ २८

निष्यावाजाजिलवणमिक्षुदण्डगुडान्वितम् ।
स्त्रियै दद्यात् फलं पुंसे सुवर्णोत्पलसंयुतम् ॥ २९

यथा न देवि देवेशस्त्वां परित्यज्य गच्छति।
तथा मां सम्परित्यज्य पतिर्नान्यत्र गच्छतु ॥ ३०

कुमुदा विमलानन्ता भवानी च सुधा शिवा।
ललिता कमला गौरी सती रम्भाथ पार्वती ॥ ३१

नभस्यादिषु मासेषु प्रीयतामित्युदीरयेत्। 
व्रतान्ते शयनं दद्यात् सुवर्णकमलान्वितम् ॥ ३२

मिथुनानि चतुर्विशद् दश द्वौ च समर्चयेत्। 
अष्टी षड् वाप्यथ पुनश्चानुमासं समर्चयेत् ॥ ३३

पूर्व दत्त्वा तु गुरवे शेषानप्यर्चयेद् बुधः ।
उक्तानन्ततृतीयैषा सदानन्तफलप्रदा ॥ ३४

वरानने । प्रत्येक शुक्लपक्षको तृतीया तिथिको एक ब्राह्मण दम्पतिको उनमें शिव-पार्वतीकी कल्पना कर भोजन कराकर उनकी वस्त्र, पुष्पमाला और चन्दनसे भक्तिपूर्वक अर्चना करे तथा पुरुषको दो पीताम्बर और स्त्रीको दो पीली साड़ि‌याँ प्रदान करे। फिर ब्राह्मणी-स्त्रीको निष्पाव (बड़ी मटर या सेम), जीरा, नमक, ईंख, गुड़, फल और फूल आदि सौभाग्याष्टक देकर और पुरुषको सुवर्णनिर्मित कमल देकर यों प्रार्थना करे- 'देवि! जिस प्रकार देवाधिदेव भगवान् महादेव आपको छोड़कर नहीं जाते, उसी प्रकार मेरे भी पतिदेव मुझे छोड़कर अन्यत्र न जायें।' पुनः कुमुदा, विमला, अनन्ता, भवानी, सुधा, शिवा, ललिता, कमला, गौरी, सती, रम्भा और पार्वतीदेवीके इन नामोंका उच्चारण करके प्रार्थना करे कि आप क्रमशः भाद्रपद आदि मासोंमें प्रसत्र हों। व्रतकी समाप्तिमें सुवर्ण- निर्मित कमलसहित शय्या दान करे और चौबीस अथवा बारह द्विज-दम्पतियोंकी पूजा करे। पुनः प्रतिमास आठ या छः दम्पतियोंका पूजन करते रहनेका विधान है। विद्वान् व्रती सर्वप्रथम गुरुको दान देकर तत्पश्चात् दूसरे ब्राह्मणोंकी अर्चना करे। देवि! इस प्रकार मैंने इस अनन्त-तृतीयाका वर्णन कर दिया, जो सदा अनन्त फलकी प्रदायिका है॥ २७-३४॥

सर्वपापहरां देवि सौभाग्यारोग्यवर्धिनीम्।
न चैनां वित्तशाठ्येन कदाचिदपि लङ्घयेत्।
नरो वा यदि वा नारी वित्तशाठ्यात् पतत्यधः ।। ३५

गर्भिणी सूतिका नक्तं कुमारी वाथ रोगिणी।
यद्यशुद्धा तदान्येन कारयेत् प्रयता स्वयम् ॥ ३६

इमामनन्तफलदां यस्तृतीयां समाचरेत् ।
कल्पकोटिशतं साग्रं शिवलोके महीयते ॥ ३७

वित्तहीनोऽपि कुरुते वर्षत्रयमुपोषणैः ।
पुष्पमन्त्रविधानेन सोऽपि तत्फलमाप्नुयात् ॥ ३८

नारी वा कुरुते या तु कुमारी विधवाथवा।
सापि तत्फलमाप्नोति गौर्यनुग्रहलालिता ।। ३९

इति पठति शृणोति वा य इत्थं गिरितनयाव्रतमिन्द्रलोकसंस्थः ।
मतिमपि च ददाति सोऽपि देवै- रमरवधूजनकिंनरैश्च पूज्यः ॥ ४०

देवि! यह अनन्ततृतीया समस्त पापोंकी विनाशिका तथा सौभाग्य और नीरोगताकी वृद्धि करनेवाली है, इसका कृपणता वश कभी भी उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये; क्योंकि चाहे पुरुष हो या स्त्री-कोई भी कृपणताके वशीभूत होकर यदि इसका उल्लङ्घन करता है तो उसका अधःपतन हो जाता है। गर्भिणी एवं सूतिका (सौरीमें पड़ी हुई) स्त्री नक्तव्रत (रातमें भोजन) करे। कुमारी और रोगिणी अथवाअशुद्ध स्त्री स्वयं नियमपूर्वक रहकर दूसरेके द्वारा व्रतका अनुष्ठान कराये। जो मानव अनन्त फल प्रदान करनेवाली इस तृतीयाके व्रतका अनुष्ठान करता है, वह सौ करोड़ कल्पोंसे भी अधिक समयतक शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है। निर्धन पुरुष भी यदि तीन वर्षोंतक उपवास करके पुष्प और मन्त्र आदिके द्वारा इस व्रतका अनुष्ठान करता है तो उसे भी उस फलकी प्राप्ति होती है। सधवा स्त्री, कुमारी अथवा विधवा जो कोई भी इस व्रतका पालन करती है, वह भी गौरीको कृपासे लालित होकर उस फलको प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार जो मनुष्य गिरीश नन्दिनी पार्वतीके इस व्रतको पढ़ता अथवा सुनता है, वह इन्द्रलोकमें वास करता है तथा जो इसका अनुष्ठान करनेके लिये सम्मति देता है, वह भी देवताओं, देवाङ्गनाओं और किन्नरोंद्वारा पूजनीय हो जाता है ॥ ३५-४० ॥

इति श्रीमालये महापुराणेऽनन्ततृतीयाव्रतं नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६२॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें अनन्ततृतीया-व्रत नामक बासठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ६२ ॥

टिप्पणियाँ