अन्य तीर्थों की अपेक्षा प्रयाग की महत्ता का वर्णन | any teerthon kee apeksha prayaag kee mahatta ka varnan |

मत्स्य पुराण एक सौ नवाँ अध्याय

अन्य तीर्थो की अपेक्षा प्रयाग की महत्ता का वर्णन

मार्कण्डेय उवाच

श्रुतं मे ब्रह्मणा प्रोक्तं पुराणे ब्रह्मसम्भवे। 
तीर्थानां तु सहस्त्राणि शतानि नियुतानि च। 
सर्वे पुण्याः पवित्राश्च गतिश्च परमा स्मृता ॥ १

सोमतीर्थं महापुण्यं महापातकनाशनम्।
स्नानमात्रेण राजेन्द्र पुरुषांस्तारयेच्छतम्। 
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन तत्र स्त्रानं समाचरेत् ॥ २

मार्कण्डेयजीने कहा- राजेन्द्र ! मैंने ब्रह्माके मुखसे प्रादुर्भूत हुए पुराणोंमें ब्रह्माद्वारा कहे जाते हुए सुना है कि तीर्थोकी संख्या कहीं सौ, कहीं हजार और कहीं लाखोंतक बतलायी गयी है। ये सभी पुण्यप्रद एवं परम पवित्र हैं। (इनमें खान करनेसे) परम गतिकी प्राप्ति बतलायी गयी सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है, अतः सभी उपायोंद्वारा वहाँ ज्ञान अवश्य करना चाहिये ॥ १-२॥

युधिष्ठिर उवाच

पृथिव्यां नैमिषं पुण्यमन्तरिक्षे च पुष्करम्। 
त्रयाणामपि लोकानां कुरुक्षेत्रं विशिष्यते ॥ ३

सर्वाणि तानि संत्यज्य कथमेकं प्रशंससि । 
अप्रमाणं तु तत्रोक्तमश्रद्धेयमनुत्तमम् ॥ ४

गतिं च परमां दिव्यां भोगांश्चैव यथेप्सितान् ।
किमर्थमल्पयोगेन बहु धर्म प्रशंससि । 
एतन्मे संशयं ब्रूहि यथादृष्टं यथाश्रुतम् ॥५

युधिष्ठिरने पूछा- महामुने। भूतलपर नैमिषारण्य और अन्तरिक्षमें पुष्कर पुण्यप्रद माने गये हैं तथा तीनों लोकोंमें कुरुक्षेत्रकी विशेषता बतलायी जाती है, परंतु आप इन सबको छोड़कर एक प्रयागकी ही प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? साथ ही वहाँ जानेसे परम दिव्य गति और अभीष्ट मनोरथोंकी प्राप्ति भी बतला रहे हैं, आपका यह कथन मुझे प्रमाणरहित, अश्रद्धेय और अनुचित प्रतीत हो रहा है। आप थोड़े से परिश्रमसे बहुत बड़े धर्मकी प्राप्तिकी प्रशंसा किसलिये कर रहे हैं? अतः इस विषयमें आपने जैसा देखा अथवा सुना हो, उसके अनुसार कहकर मेरे इस संशयको दूर कीजिये ॥ ३-५॥

मार्कण्डेय उवाच

अश्रद्धेयं न वक्तव्यं प्रत्यक्षमपि यद् भवेत्।
नरस्याश्रद्दधानस्य पापोपहतचेतसः ।। ६

अश्रदधानो ह्यशुचिदुर्मतिस्त्यक्तमङ्कलः। 
एते पातकिनः स्वे तेनेदं भाषितं त्वया॥ ७

शृणु प्रयागमाहात्म्यं यथादृष्टं यथाश्रुतम्‌ ।
प्रत्यक्षं च परोक्षं च यथान्यस्तं भविष्यति ॥ ८ 

शास्त्रं प्रमाणं कृत्वा च युज्यते योगमात्मनः । 
क्लिश्यते चापरस्तत्र नैव योगमवाप्नुयात्‌॥ ९

जन्मान्तरसहस््रेभ्यो योगो लभ्येत वा न वा। 
तथा युगसहस्रेण योगो लभ्येत मानवैः ॥ १०

यस्तु सर्वाणि रल्नानि ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति। 
तेन दानेन दत्तेन योगं नाभ्येति मानवः॥ ९९ 

प्रयागे तु मृतस्येदं सर्व भवति नान्यथा। 
प्रधानहेतुं वक्ष्यामि श्रदधत्स्व च भारत॥ ९२

मार्कण्डेयजीने कहा- राजन् । जो श्रद्धाहीन है तथा जिसके चित्तपर पापने अपना स्वत्व जमा लिया है, ऐसे मनुष्यकी आँखोंके सामने जो बात घटित हो रही हे, उसे "अश्रद्धेय ' तो नहीं कहना चाहिये । अश्रद्धालु, अपवित्र, दुर्बुद्धि ओर माङ्गलिक कार्योसि विमुख- ये सभी पापी कहलाते है । (एसा प्रतीत होता है कि मानो तुम्हारे सिरपर भी कोई पाप सवार है) जिसके कारण तुमने एसी बात कही है । अब प्रयागका माहात्म्य जैसा मैने देखा अथवा सुना है, उसे बतला रहा हूँ सुनो । जगते जो बात प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूपमे देखी अथवा सुनी गयी हो, उसे शास्त्रोदारा प्रमाणित कर अपने कल्याण-कार्यमें लगाना चाहिये । जो एसा नहीं करता, वह कष्टभागी होता है ओर उसे योगकी प्रापि नहीं होती । यह योग हजारों युगो या जन्मोमें किन्हीं मनुष्योको सुलभ होता या नहीं भी होता है। जो मनुष्य सभी प्रकारके रत्र ब्राह्मणको दान करता है, परंतु उस दानके प्रभावसे भी उसे उस योगको प्राति नहीं होती । किंतु प्रयागमें मरनेवालेको वह सब कुछ सुलभ हो जाता है, उसमे कुछ भी विपरीतता नहीं होती। भारत! म इसका प्रधान कारण बतला रहा हूं उसे श्रद्धापूर्वक सुनो ॥६--१२॥

यथा सर्वेषु भूतेषु ब्रह्य सर्वत्र दृश्यते। 
ब्राह्मणे चास्ति यत्किछ्धित्तद्‌ ब्राह्यमिति चोच्यते ॥ ९३

एवं सर्वेषु भूतेषु ब्रह्म सर्वत्र पूज्यते। 
तथा सर्वेषु लोकेषु प्रयागं पूजयेद्‌ बुधः ॥ ९४

पूज्यते तीर्थराजस्तु सत्यमेव युधिष्ठिर । 
ब्रह्मापि स्मरते नित्यं प्रयागं तीर्थमुत्तमम्‌॥ ९५

तीर्थराजमनुप्राप्य न चान्यत्‌ किञ्दार्हति। 
को हि देवत्वमासाद्य मनुष्यत्वं चिकीर्षति ॥ ९६ 

अनेनैवोपमानेन त्वं ज्ञास्यसि युधिष्ठिर। 
यथा पुण्यतमं चास्ति तथेव कथितं मया॥ ९७

जेसे ब्रह्म सभी प्राणियोमें सर्वत्र विद्यमान रहता है, ओर ब्राह्मणमें उसका कुछ विशेष अंश रहता है, जिसके कारण वह सब ब्राह्म कहे जाते हें । जिस प्रकार सभी प्राणियोमें सर्वत्र ब्रह्मको सत्ता मानकर उनकी पूजा होती हे (परत ब्राह्मण विशेषरूपसे पूजित होता है), उसी प्रकार विद्वान्‌ लोग सभी तीथेमिं प्रयागको विशेष मान्यता देते हैं । युधिष्ठिर ! सचमुच तीर्थराज पूजनीय है । ब्रह्मा भी इस उत्तम प्रयागतीर्थका नित्य स्मरण करते हें । एसे तीर्थराजको पाकर मनुष्यको किसी अन्य वस्तुको प्राप्त करनेकी इच्छा नहीं रह जाती । भला कोन एसा मनुष्य होगा जो देवत्वको पाकर मनुष्य बननेकी इच्छा करेगा। युधिष्ठिर! इसी उपमानसे तुम समञ्ञ जाओगे (कि प्रयागका इतना महत्त्व क्यों हे ) । जिस प्रकार प्रयाग सभी तीर्थ में विशेष पुण्यप्रद है, वैसा मैने तुम्हें बतला दिया ॥ १२-१७॥

युधिष्ठिर उवाच

श्रुतं चेदं त्वया प्रोक्तं विस्मितोऽहं पुनः पुनः।
कथं योगेन तत्पराः स्वर्गवासस्तु कर्मणा ॥ ९८

दाता वै लभते भोगान् गां च यत्कर्मणः फलम्। 
तानि कर्माणि पृच्छामि पुनस्तैः प्राप्यते मही ॥ १९

युधिष्ठिरने पूछा- महर्षे! मैने आपके द्वारा कहा गया प्रयाग-माहात्म्य तो सुना, किंतु इस योगरूप कर्मसे वैसे महान्‌ फलकी प्राति कैसे होती है तथा स्वर्गमिं निवास कैसे मिलता है, इस विषयको सोचकर में बारंबार विस्मयविमुग्ध हो रहा हूँ; अतः जिन कर्मोंके फलस्वरूप दाताको ऐहलौकिक भोग और पृथ्वीकी प्राप्ति होती है तथा जन्मान्तरमें जिन कर्मोंके प्रभावसे पुनः पृथ्वीपर अधिकार प्राप्त होता है, उन्हीं कर्मोंको मैं जानना चाहता हूँ, अतः उन्हें बतलानेकी कृपा करें॥ १८-१९ ॥

मार्कण्डेय उवाच

शृणु राजन् महाबाहो यथोक्तकरणं महीम्। 
गामग्निं ब्राह्मणं शास्त्रं काञ्चनं सलिलं स्त्रियः ॥ २०

मातरं पितरं चैव ये निन्दन्ति नराधमाः ।
न तेषामूर्ध्वगमनमिदमाह प्रजापतिः ॥ २१

एवं योगस्य सम्प्राप्तिस्थानं परमदुर्लभम्। 
गच्छन्ति नरकं घोरं ये नराः पापकर्मिणः ॥ २२

हस्त्यश्वं गामनड्वार्ह मणिमुक्तादिकाञ्चनम्। 
परोक्ष हरते यस्तु पश्चाद् दानं प्रयच्छति ॥ २३

न ते गच्छन्ति वै स्वर्ग दातारो यत्र भोगिनः ।
अनेककर्मणा युक्ताः पच्यन्ते नरके पुनः ॥ २४

एवं योगं च धर्म च दातारं च युधिष्ठिर।
यथा सत्यमसत्यं वा अस्ति नास्तीति यत्फलम्। 
निरुक्तं तु प्रवक्ष्यामि यथाह स्वयमंशुमान् ॥ २५

मार्कण्डेयजीने कहा- महाबाहु राजन्। मैंने जैसा करनेके लिये कहा है, उस विषयमें पुनः सुनो। जो नीच मनुष्य पृथ्वी, गौ, अग्रि, ब्राह्मण, शास्त्र, काञ्चन, जल, स्त्री, माता और पिताकी निन्दा करते हैं, उनकी ऊर्ध्वगति नहीं होती-ऐसा प्रजापति ब्रह्माने कहा है। अतः इस प्रकारके कर्मोद्वारा योगकी प्राप्तिका स्थान परम दुर्लभ है; क्योंकि जो मनुष्य पापकर्ममें निरत रहते हैं, वे घोर नरकमें जाते हैं। जो मनुष्य परोक्षमें दूसरेकी हाथी, घोड़ा, गौ, बैल, मणि, मुक्ता और सुवर्ण आदि वस्तुओंको चुरा लेता है और पीछे उसे दान कर देता है, ऐसे लोग उस स्वर्गलोकमें नहीं जाते, जहाँ (अपनी वस्तु दान करनेवाले) दाता सुख भोगते हैं, अपितु वे अनेकों पाप- कर्मोंसे युक्त होकर पुनः नरकमें कष्ट भोगते हैं। युधिष्ठिर! इस प्रकार योग, धर्म, दाता, सत्य, असत्य, अस्ति, नास्तिका जो फल कहा गया है तथा स्वयं सूर्यने जैसा बतलाया है, वही मैं तुमसे वर्णन कर रहा हूँ ॥ २०-२५॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे प्रयागमाहात्म्ये नवाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०९ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके प्रयाग-माहात्म्यमें एक सौ नाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।॥ १०९ ॥

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