भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्ष का वर्णन | bhaaratavarsh, kimpurushavarsh tatha harivarsh ka varnan |

मत्स्य पुराण एक सौ चौदहवाँ अध्याय

भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरि वर्ष का वर्णन

ऋषय ऊचुः

यदिदं भारतं वर्ष यस्मिन् स्वायम्भुवादयः ।
चतुर्दशैव मनवः प्रजासर्ग ससर्जिरे ॥ १

एतद् वेदितुमिच्छामः सकाशात् तव सुव्रत । 
उत्तरश्रवणं भूयः प्रब्रूहि वदतांवर ॥ २ 

ऋषियोंने पूछा- सुव्रत! जो यह भारतवर्ष है, जिसमें स्वायम्भुव आदि चौदह मनु हुए हैं, जिन्होंने प्रजाओंकी सृष्टि की है, उनके विषयमें हमलोग आपके मुखसे सुनना चाहते हैं। साथ ही वक्ताओंमें श्रेष्ठ सूतजी ! पुनः इसके बाद भारत आदि अन्य वर्षोंके विषयमें भी कुछ बतलाइये ॥ १-२॥

एतच्छ्रुत्वा ऋषीणां तु प्राब्रवील्लौमहर्षणिः । 
पौराणिकस्तदा सूत ऋषीणां भावितात्मनाम् ।। ३

बुद्धया विचार्य बहुधा विमृश्य च पुनः पुनः ।
तेभ्यस्तु कथयामास उत्तरश्रवणं तदा ॥ ४

प्रसिद्ध पौराणिक लोमहर्षणके पुत्र सूतजीने उन पवित्रात्मा ऋषियोंका प्रश्न सुनकर अपनी बुद्धिसे बारम्बार बहुधा विचार-विमर्श करके उन ऋषियोंसे 'उत्तर श्रवण' (उत्तरवर्ती वर्षों) के विषयमें कहना आरम्भ किया ॥ ३-४ ॥

सूत उवाच

अथाहं वर्णयिष्यामि वर्षेऽस्मिन् भारते प्रजाः । 
भरणाच्च प्रजानां वै मनुर्भरत उच्यते ॥ ५

निरुक्तवचनाच्चैव वर्ष तद् भारतं स्मृतम्। 
यतः स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यमश्चापि हि स्मृतः ॥ ६

न खल्वन्यत्र मर्त्यांनां भूमौ कर्मविधिः स्मृतः ।
भारतस्यास्य वर्षस्य नव भेदान् निबोधत ॥ ७

इन्द्रद्वीपः कशेरुश्च ताम्रपर्णी गभस्तिमान्।
नागद्वीपस्तथा सौम्यो गन्धर्वस्त्वथ वारुणः ॥ ८

अयं तु नवमस्तेषां द्वीपः सागरसंवृतः ।
योजनानां सहस्त्रं तु द्वीपोऽयं दक्षिणोत्तरः ॥ ९

आयतस्तु कुमारीतो गङ्गायाः प्रवहावधिः ।
तिर्यगूर्वं तु विस्तीर्णः सहस्त्राणि दशैव तु ॥ १०

द्वीपो ह्युपनिविष्टोऽयं म्लेच्छैरन्तेषु सर्वशः ।
यवनाश्च किराताश्च तस्यान्ते पूर्वपश्चिमे ॥ ११

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या मध्ये शूद्राश्च भागशः ।
इज्यायुधवणिज्याभिर्वर्तयन्तो व्यवस्थिताः ॥ १२

तेषां संव्यवहारोऽयं वर्तते तु परस्परम्।
धर्मार्थकामसंयुक्तो वर्णानां तु स्वकर्मसु ॥ १३

सकल्पपञ्चमानां तु आश्रमाणां यथाविधि।
इह स्वर्गापवर्गार्थ प्रवृत्तिरिह मानुषे ॥ १४

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! अब मैं इस भारतवर्षमें उत्पन्न होनेवाली प्रजाओंका वर्णन कर रहा हूँ। इन प्रजाओंकी सृष्टि करने तथा इनका भरण-पोषण करनेके कारण मनुको भरत कहा जाता है। निरुक्त- वचनोंके आधारपर यह वर्ष (उन्हींके नामपर) भारतवर्षके नामसे प्रसिद्ध है। यहाँ स्वर्ग, मोक्ष तथा इन दोनोंके अन्तर्वर्ती (भोग) पदकी प्राप्ति होती है। इस भूतलपर भारतवर्षके अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी प्राणियंकि लिये कर्मका विधान नहीं सुना जाता। इस भारतवर्षके नौ भेद हैं, उनके नाम सुनिये इन्द्रद्वीप, कशेरुमान्, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान्, नागद्वीप, सौम्यद्वीप, गान्धर्वद्वीप और वारुणद्वीप-ये आठ तथा उनमें नवाँ यह समुद्रसे घिरा हुआ भारतद्वीप (या खण्ड) है। यह द्वीप दक्षिणसे उत्तरतक एक हजार योजनमें फैला हुआ है। इसका विस्तार गङ्गाके उद्गमस्थानसे लेकर कन्याकुमारी अथवा कुमारी अन्तरीपतक है। यह तिरछेरूपमें ऊपर- ही ऊपर दस हजार योजन विस्तृत है। इस द्वीपके चारों ओर सीमावर्ती प्रदेशोंमें म्लेच्छ जातियोंकी बस्तियाँ हैं। इसकी पूर्व एवं पश्चिम दिशामें क्रमशः किरात और यवन निवास करते हैं। इसके मध्यभागमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र विभागपूर्वक यज्ञ, शस्त्र ग्रहण और व्यवसाय आदिके द्वारा जीवन-यापन करते हुए निवास करते हैं। उन चारों वर्णोंका पारस्परिक व्यवहार धर्म, अर्थ और कामसे संयुक्त होता है और वे अपने-अपने कर्मोंमें ही लगे रहते हैं। यहाँ कल्पसहित पाँचों वर्षों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, योगी और संन्यासी) तथा आश्रमोंका विधिपूर्वक पालन होता है। इस द्वीपके मनुष्योंकी कर्म- प्रवृत्ति स्वर्ग और मोक्षके लिये होती है ॥ ५-१४॥

यस्त्वयं मानवो द्वीपस्तिर्यग्यामः प्रकीर्तितः ।
य एनं जयते कृत्स्त्रं स सम्म्राडिति कीर्तितः ॥ १५

अयं लोकस्तु वै सम्राडन्तरिक्षजितां स्मृतः ।
स्वराडसौ स्मृतो लोकः पुनर्वक्ष्यामि विस्तरात् ॥ १६

सप्त चास्मिन् महावर्षे विश्रुताः कुलपर्वताः ।
महेन्द्रो मलयः सह्यः शुक्तिमानृक्षवानपि ।। १७

विन्ध्यश्च पारियात्रश्च इत्येते कुलपर्वताः ।
तेषां सहस्रशश्चान्ये पर्वतास्तु समीपतः ॥ १८

अभिज्ञातास्ततश्चान्ये विपुलाश्चित्रसानवः ।
अन्ये तेभ्यः परिज्ञाता ह्रस्वा ह्रस्वोपजीविनः ॥ १९

तैर्विमिश्रा जानपदा आर्या म्लेच्छाश्च सर्वतः ।
पीयन्ते यैरिमा नद्यो गङ्गा सिन्धुः सरस्वती ॥ २०

शतद्रुश्चन्द्रभागा च यमुना सरयूस्तथा ।
इरावती वितस्ता च विपाशा देविका कुहूः ॥ २९

गोमती धूतपापा च बाहुदा च दृषद्वती।
कौशिकी च तृतीया च निश्चीरा गण्डकी तथा।
चक्षुलौहित इत्येता हिमवत्पादनिः सुताः ॥ २२

वेदस्मृतिर्वेत्रवती वृत्रघ्नी सिन्धुरेव च।
पर्णाशा चन्दना चैव सदानीरा मही तथा ॥ २३

पारा चर्मण्वती यूपा विदिशा वेणुमत्यपि।
शिप्रा ह्यवन्ती कुन्ती च पारियात्राश्रिताः स्मृताः॥ २४

इस मानव द्वीपको जो त्रिकोणाकार फैला हुआ है, जो सम्पूर्ण रूपमें जीत लेता है वह सम्राट् कहलाता है। अन्तरिक्षपर विजय पानेवालेके लिये यह लोक सम्राट् कहा गया है और यही लोक स्वराट्‌के नामसे भी प्रसिद्ध है। अब मैं इसका पुनः विस्तारपूर्वक वर्णन कर रहा हूँ। इस महान् भारतवर्षमें सात विश्वविख्यात कुलपर्वत है। महेन्द्र,मलय, सह्य, शुक्तिमान्, ऋक्षवान्, विन्ध्य और पारियात्रे- ये कुलपर्वत हैं। इनके समीप अन्य हजारों पर्वत हैं इनके अतिरिक्त अन्य भी विशाल एवं चित्र-विचित्र शिखरोंवाले पर्वत हैं तथा दूसरे कुछ उनसे भी छोटे हैं जो निम्न (पर्वतीय) जातियोंके आश्रयभूत हैं। इन्हीं पर्वतोंसे संयुक्त जो प्रदेश हैं उनमें चारों ओर आर्य एवं म्लेच्छ जातियाँ निवास करती हैं, जो इन आगे कही जानेवाली नदियोंका जल पान करती हैं। जैसे गङ्गा, सिन्धु, सरस्वती, शतद्व (सतलज), चन्द्रभागा (चिनाव), यमुना, सरयू, इरावती (रावी), वितस्ता (झेलम), विपाशा (व्यास), देविका, कुहु, गोमती, धूतपापा (धोपाप), बाहुदा, दृषद्वती, कौशिकी (कोसी), तृतीया, निश्चीरा, गण्डकी, चक्षु, लौहित- ये सभी नदियाँ हिमालयकी उपत्यका (तलहटी)- से निकली हुई हैं। वेदस्मृति, वेत्रवती (बेतवा), वृत्रन्नी, सिन्धु, पर्णाशा, चन्दना, सदानीरा, मही, पारा, चर्मण्वती, यूपा, विदिशा, वेणुमती, शिप्रा, अवन्ती तथा कुन्ती-इन नदियोंका उद्मस्थान पारियात्र पर्वत है॥ १५-२४॥

शोणो महानदी चैव नर्मदा सुरसा क्रिया।
मन्दाकिनी दशार्णा च चित्रकूटा तथैव च।
तमसा पिप्पली श्येनी करतोया पिशाचिका ॥ २५

विमला चञ्चला चैव वझुला वालुवाहिनी।
शुक्तिमन्ती शुनी लज्जा मुकुटा हृदिकापि च।
ऋक्षवन्तप्रसूतास्ता नद्योऽमलजलाः शुभाः ॥ २६

तापी पयोष्णी निर्विन्च्या क्षिप्रा च निषधा नदी।
वेण्वा वैतरणी चैव विश्वमाला कुमुद्वती ॥ २७

तोया चैव महागौरी दुर्गा चान्तःशिला तथा।
विन्ध्यपादप्रसूतास्ता नद्यः पुण्यजलाः शुभाः ॥ २८

गोदावरी भीमरथी कृष्णवेणी च वञ्जुला।
तुङ्गभद्रा सुप्रयोगा वाह्या कावेर्यथापि च।
दक्षिणापथनास्ताः सह्यपादाद् विनिःसृताः ॥ २९

कृतमाला ताम्रपर्णी पुष्पजा चोत्पलावती।
मलयान्निःसृता नद्यः सर्वाः शीतजलाः शुभाः ॥ ३०

त्रिषामा ऋषिकुल्या च इक्षुला त्रिदिवाचला।
लाङ्गुलिनी वंशधरा महेन्द्रतनयाः स्मृताः ॥ ३१

ऋषीका सुकुमारी च मन्दगा मन्दवाहिनी।
कृपा पलाशिनी चैव शुक्तिमत्प्रभवाः स्मृताः ॥ ३२

सर्वाः पुण्यजलाः पुण्याः सर्वाश्चैव समुद्रगाः । 
विश्वस्य मातरः सर्वाः सर्वपापहराः शुभाः ॥ ३३

शोण, महानदी, नर्मदा, सुरसा, क्रिया, मन्दाकिनी, दशार्णा, चित्रकूटा, तमसा, पिप्पली, श्येनी, करतोया पिशाचिका, विमला, चञ्चला, वजुला, वालुवाहिनी, शुक्तिमन्ती, शुनी, लज्जा, मुकुटा और हृदिका-ये स्वच्छसलिला कल्याणमयी नदियाँ ऋक्षवन्त (ऋक्षवान्) पर्वतसे उन्द्भुत हुई हैं। तापी, पयोच्णी (पूर्णानदी या पैनगङ्गा), निर्विन्ध्या, क्षिप्रा, निषधा, वेण्या, वैतरणी, विश्वमाला, कुमुद्धती, तोया, महागौरी, दुर्गा तथा अन्तः शिला- ये सभी पुण्यतोया मङ्गलमयी नदियाँ विन्ध्याचलकी उपत्यकाओंसे निकली हुई हैं। गोदावरी, भीमरथी, कृष्णवेणी, वञ्जुला (मंजीरा), कर्णाटककी तुङ्गभद्रा, सुप्रयोगा, वाह्या (वर्धानदी) और कावेरी- ये सभी दक्षिणापथमें प्रवाहित होनेवाली नदियाँ हैं, जो सापर्वतकी शाखाओंसे प्रकट हुई हैं। कृतमाला (वैगईन नदी), ताम्रपर्णी, पुष्पजा (कुसुमाङ्गा, पेम्बै या पेनार नदी) और उत्पलावती- ये कल्याणमयी नदियाँ मलयाचलसे निकली हुई हैं। इनका जल बहुत शीतल होता है। त्रिषामा, ऋषि कुल्या, इक्षुला, त्रिदिवा, अचला, लाङ्गलिनी और वंशधरा- ये सभी नदियाँ महेन्द्रपर्वतसे निकली हुई मानी जाती हैं। ऋषीका, सुकुमारी, मन्दगा, मन्दवाहिनी, कृपा और पलाशिनी- इन नदियोंका उद्गम शुक्तिमान् पर्वत से हुआ है। ये सभी पुण्यतोया नदियाँ पुण्यप्रद, सर्वत्र बहनेवाली तथा साक्षात् या परम्परासे समुद्रगामिनी हैं। ये सब-की-सब विश्वके लिये माता-सदृश है तथा इन सबको कल्याणकारिणी एवं पापहारिणी माना गया है ॥ २५-३३॥ 

तासां नद्युपनद्यश्च शतशोऽथ सहस्त्रशः । 
तास्विमे कुरुपाञ्चालाः शाल्वाश्चैव सजाङ्गलाः ॥ ३४

शूरसेना भद्रकारा बाह्याः सहपटच्चराः । 
मत्स्याः किराताः कुन्त्याश्च कुन्तलाः काशिकोसलाः ।। ३५

आवन्ताश्च कलिङ्गाश्च मूकाश्चैवान्धकैः सह।
मध्यदेशा जनपदाः प्रायशः परिकीर्तिताः ॥ ३६

सह्यस्यानन्तरे चैते यत्र गोदावरी नदी।
पृथिव्यामपि कृत्स्त्रायां स प्रदेशो मनोरमः ॥ ३७

यत्र गोवर्धनो नाम मन्दरो गन्धमादनः । 
रामप्रियार्थं स्वर्गीया वृक्षा दिव्यास्तथौषधीः ।। ३८

भरद्वाजेन मुनिना तत्प्रियार्थेऽवतारिताः । 
ततः पुष्पवरो देशस्तेन जज्ञे मनोरमः ॥ ३९

बाह्रीका वाटधानाश्च आभीराः कालतोयकाः । 
पुरंधाश्चैव शूद्राश्च पल्लवाश्चात्तखण्डिकाः ॥ ४०

गान्धारा यवनाश्चैव सिन्धुसौवीरभद्रकाः ।
शका गुह्याः पुलिन्दाश्च पारदाहारमूर्तिकाः ।। ४१

रामठाः कण्टकाराश्च कैकेय्या दशनामकाः ।
क्षत्रियोपनिवेशाश्च वैश्याः शूद्रकुलानि च ॥ ४२

काम्बोजा दरदाश्चैव वर्वरा पहुवा तथा।
अत्रेयाश्च भरद्वाजाः प्रस्थलाश्च कसेरकाः ॥ ४३

लम्पकास्तलगानाश्च सैनिकाः सह जाङ्गलैः।
एते देशा उदीच्यास्तु प्राच्यान् देशान् निबोधत ।। ४४

अङ्गा वङ्गा मदुरका अन्तर्गिरिबहिर्गिरी।
ततः प्लवङ्गमातङ्गा यमका मालवर्णकाः ।
सुह्योत्तराः प्रविजया मार्गवागेयमालवाः ।। ४५

प्राग्ज्योतिषाश्च पुण्ड्राश्च विदेहास्ताम्रलिप्तकाः ।
शाल्वमागधगोनर्दाः प्राच्या जनपदाः स्मृताः ॥ ४६

अथवा इनकी सैकड़ों-हजारों छोटी-बड़ी सहायक नदियाँ भी हैं जिनके कछारोंमें कुरु, पाञ्चाल, शाल्बु, सजाङ्गल, शूरसेन, भद्रकार, बाह्य, सहपटच्चर, मत्स्य, किरात, कुन्ती, कुन्तल, काशी, कोसल, आवन्त, कलिङ्ग, मूक और अन्धक- ये देश अवस्थित हैं, जो प्रायः मध्यदेशके जनपद कहलाते हैं। ये सहापर्वतके निकट बसे हुए हैं, यहाँ गोदावरी नदी प्रवाहित होती है। अखिल भूमण्डलमें यह प्रदेश अत्यन्त मनोरम है। तत्पश्चात् गोवर्धन, मन्दराचल और श्रीरामचन्द्रजीका प्रियकारक गन्धमादन पर्वत है, जिसपर मुनिवर भरद्वाजजीने श्रीरामके मनोरंजनके लिये स्वर्गीय वृक्षों और दिव्य औषधियोंको अवतरित किया था। उन्हीं मुनिवरके प्रभावसे वह प्रदेश पुष्पोंसे परिपूर्ण होनेके कारण मनोमुग्धकारी हो गया था। बाहीक (बलख), वाटधान, आभीर, कालतोयक, पुरन्ध्र, शूद्र, पल्लव, आत्तखण्डिक, गान्धार, यवन, सिन्धु (सिंध), सौवीर (सिन्धका उत्तरी भाग), मद्रक (पंजाबका उत्तरी भाग), शक, गुह्य (ययाति-पुत्र गुह्युका उत्तरी भाग-पश्चिमी पंजाब), पुलिन्द, पारद, आहारमूर्तिक, रामठ, कण्टकार, कैकेय और दशनामक ये क्षत्रियोंके उपनिवेश हैं तथा इनमें वैश्य और शूद्र-कुलके लोग भी निवास करते हैं। इनके अतिरिक्त कम्बोज (अफगानिस्तान), दरद, बर्बर, पहव (ईरान), अत्रि, भरद्वाज, प्रस्थल, कसेरक, लम्पक, तलगान और जाङ्गलसहित सैनिक प्रदेश- ये सभी उत्तरापथके देश हैं। अब पूर्व दिशाके देशोंको सुनिये। अङ्ग (भागलपुर), वङ्ग (बंगाल), मद्‌गुरक, अन्तर्गिरि, बहिर्गिरि, प्लवङ्ग, मातङ्ग, यमक, मालवर्णक, सुह्य (उत्तरी असम), प्रविजय, मार्ग, वागेय, मालव, प्राग्ज्योतिष (आसामका पूर्वीभाग), पुण्ड्र (बंगलादेश), विदेह (मिथिला), ताम्रलिप्तक (उड़ीसाका उत्तरी भाग), शाल्व, मागध और गोनर्द ये पूर्व दिशाके जनपद हैं॥ ३४-४६ ॥

अथापरे जनपदा दक्षिणापथवासिनः ।
पाण्ड्याश्च केरलाश्चैव चोलाः कुल्यास्तथैव च ।। ४७

सेतुका मूषिकाश्चैव कुपथा वाजिवासिकाः । 
महाराष्ट्रा माहिषकाः कलिङ्गाश्चैव सर्वशः ॥ ४८

आभीराश्च सहैषीका आटव्याः शबरास्तथा।
पुलिन्दा विन्य्यमुलिका वैदर्भा दण्डकैः सह ॥ ४९

कुलीयाश्च सिरालाश्च अश्मका भोगवर्धनाः ।
तथा तैत्तिरिकाश्चैव दक्षिणापथवासिनः ॥ ५०

नासिक्याश्चैव ये चान्ये ये चैवान्तरनर्मदाः ।
भारुकच्छाः समाहेयाः सह सारस्वतैस्तथा ।। ५१

काच्छीकाश्चैव सौराष्ट्रा आनर्ता अर्बुदैः सह।
इत्येते अपरान्तास्तु शृणु ये विन्ध्यवासिनः ॥ ५२

मालवाश्च करूषाश्च मेकलाश्चोत्कलैः सह।
औण्ड्रा माषा दशार्णाश्च भोजाः किष्किन्धकैः सह । ५३

तोशलाः कोसलाश्चैव त्रैपुरा वैदिशास्तथा।
तुमुरास्तुम्बराश्चैव पद्मा नैषधैः सह । ५४ 

अरूपाः शौण्डिकेराश्च वीतिहोत्रा अवन्तयः ।
एते जनपदाः ख्याता विन्ध्यपृष्ठनिवासिनः ।। ५५

अतो देशान् प्रवक्ष्यामि पर्वताश्रयिणश्च ये।
निराहाराः सर्वगाश्च कुपथा अपथास्तथा ।। ५६ 

कुथप्रावरणाश्चैव ऊर्णादर्वाः समुद्रकाः।
त्रिगर्ता मण्डलाश्चैव किराताश्चामरैः सह ॥ ५७

चत्वारि भारते वर्षे युगानि मुनयोऽब्रुवन् ।
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम् ।
तेषां निसर्ग वक्ष्यामि उपरिष्टाच्च कृत्स्त्रशः ।। ५८

इनके बाद अब दक्षिणापथके देश बतलाये जा रहे हैं। पाण्ड्य, केरल, चोल, कुल्य, सेतुक, मूषिक, कुपथ, वाजिवासिक, महाराष्ट्र, माहिषक, कलिंग (उड़ीसाका दक्षिणी भाग), आभीर, सहैषीक, आटव्य, शबर, पुलिन्द, विन्ध्यमुलिक, वैदर्भ (विदर्भ), दण्डक, कुलीय, सिराल, अश्मक (महाराष्ट्रका दक्षिण भाग), भोगवर्धन (उड़ीसाका दक्षिणभाग), तैत्तिरिक, नासिक्य तथा नर्मदाके अन्तः प्रान्तमें स्थित अन्य प्रदेश- ये दक्षिणापथके अन्तर्गतके देश हैं। भारुकच्छ, माहेय, सारस्वत, काच्छीक, सौराष्ट्र, आनर्त और अर्बुद ये सभी अपरान्त प्रदेश हैं। अब जो विन्ध्यवासियोंके प्रदेश हैं, उन्हें सुनिये। मालव, करूष, मेकल, उत्कल, औण्डू (उड़ीसा), माष, दशार्ण, भोज, किष्किन्धक, तोशल, कोसल (दक्षिणकोसल), त्रैपुर, वैदिश (भेलसाराज्य), तुमुर, तुम्बर, पद्म, नैषध, अरूप, शौण्डिकेर, वीतिहोत्र तथा अवन्ति ये सभी प्रदेश विन्ध्यपर्वतकी घाटियोंमें स्थित बतलाये जाते हैं। इसके बाद अब मैं उन देशोंका वर्णन कर रहा हूँ जो पर्वतपर स्थित हैं। उनके नाम हैं- निराहार, सर्वग, कुपथ, अपथ, कुथप्रावरण, ऊर्णादर्व, समुद्रक, त्रिगर्त, मण्डल, किरात और चामर। मुनियोंका कथन है कि इस भारतवर्षमें सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग-इन चार युगोंकी व्यवस्था है। अब मैं उनके वृत्तान्तका पूर्णतया वर्णन कर रहा हूँ ॥ ४७-५८ ॥

मत्स्य उवाच

एतच्छ्रुत्वा तु ऋषय उत्तरं पुनरेव ते।
शुश्रूषवस्तमूचुस्ते प्रकामं लौमहर्षणिम् ॥ ५९

मत्स्यभगवान्ने कहा- राजर्षे ! सूतजीद्वारा कहे हुए इस प्रकरणको सुनकर मुनियोंको और भी आगे सुननेकी उत्कट इच्छा उत्पन्न हो गयी, तब वे पुनः लोमहर्षण-पुत्र सूतजीसे बोले ॥ ५९ ॥

ऋषय ऊचुः

यच्च किम्पुरुषं वर्ष हरिवर्ष तथैव च।
आचक्ष्व नो यथातत्त्वं कीर्तितं भारतं त्वया ॥ ६०

जम्बूखण्डस्य विस्तारं तथान्येषां विदांवर।
द्वीपानां वासिनां तेषां वृक्षाणां प्रब्रवीहि नः ॥ ६१

पृष्टस्त्वेवं तदा विप्रैर्यथाप्रश्नं विशेषतः । 
उवाच ऋषिभिर्दृष्टं पुराणाभिमतं तथा ॥ ६२

ऋषियोंने पूछा- वेत्ताओंमें श्रेष्ठ सूतजी! आपने भारतवर्षका तो वर्णन कर दिया। अब हमें किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षके विषयमें बतलाइये। साथ ही जम्बूखण्डके विस्तारका तथा अन्य द्वीपोंके निवासियोंका एवं वहाँ उढ़त होने वाले वृक्षों का भी वर्णन हमें सुनाइये। उन ब्रह्मर्षियोंद्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर सूतजीने उनके प्रश्नके अनुकूल जैसा देखा था तथा जो पुराण-सम्मत था, वैसा उत्तर देना प्रारम्भ किया ॥ ६०-६२॥

सूत उवाच

शुश्रूषवस्तु यद् विप्राः शुश्रूषध्वमतन्द्रिताः । 
जम्बूवर्षः किम्पुरुषः सुमहान् नन्दनोपमः ॥ ६३

दश वर्षसहस्त्राणि स्थितिः किम्पुरुषे स्मृता ।
जायन्ते मानवास्तत्र निष्ठप्तकनकप्रभाः ॥ ६४

वर्षे किम्पुरुषे पुण्ये प्लक्षो मधुवहः स्मृतः ।
तस्य किम्पुरुषाः सर्वे पिबन्ति रसमुत्तमम् ॥ ६५

अनामया हाशोकाश्च नित्यं मुदितमानसाः ।
सुवर्णवर्णाश्च नराः स्त्रियश्चाप्सरसः स्मृताः ॥ ६६

ततः परं किम्पुरुषाद्धरिवर्षं प्रचक्षते ।
महारजतसंकाशा जायन्ते यत्र मानवाः ॥ ६७

देवलोकच्युताः सर्वे बहुरूपाश्च सर्वशः ।
हरिवर्षे नराः सर्वे पिबन्तीक्षुरसं शुभम् ॥ ६८

न जरा बाधते तत्र तेन जीवन्ति ते चिरम्।
एकादश सहस्त्राणि तेषामायुः प्रकीर्तितम् ॥ ६९

मध्यमं यन्मया प्रोक्तं नाम्ना वर्षमिलावृतम्।
न तत्र सूर्यस्तपति न च जीर्यन्ति मानवाः ॥ ७०

चन्द्रसूर्यो सनक्षत्रावप्रकाशाविलावृते ।
पद्मप्रभाः पद्मवर्णाः पद्मपत्रनिभेक्षणाः ॥ ७१

पद्यगन्धाश्च जायन्ते तत्र सर्वे च मानवाः ।
जम्बूफलरसाहारा अनिष्पन्दाः सुगन्धिनः ॥ ७२

देवलोकच्युताः सर्वे महारजतवाससः ।
त्रयोदश सहस्त्राणि वर्षाणां ते नरोत्तमाः ॥ ७३

सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो! आपलोग जिस विषयको सुनना चाहते हैं, उसे बतला रहा हूँ, आलस्यरहित होकर श्रवण कीजिये। जम्बूवर्ष और किम्पुरुषवर्ष- ये दोनों अत्यन्त विशाल एवं नन्दन-वनकी भाँति शोभासम्पन्न हैं। इनमें किम्पुरुषवर्षमें मनुष्योंकी आयु दस हजार वर्षकी बतलायी जाती है। वहाँ जन्म लेनेवाले मनुष्य भलीभाँति तपाये हुए सुवर्णकी-सी कान्तिवाले होते हैं। उस पुण्यमय किम्पुरुषवर्षमें एक पाकड़‌का वृक्ष बतलाया जाता है जिससे सदा मधु टपकता रहता है। उसके उस उत्तम रसको सभी किम्पुरुषनिवासी पान करते हैं, जिसके कारण वे नौरोग, शोकरहित और सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। वहाँ पुरुषोंके शरीरका रंग सुवर्ण-जैसा होता है और स्त्रियाँ अप्सराओं-जैसी सुन्दरी कही गयी हैं। उस किम्पुरुषवर्षके बाद हरिवर्ष बतलाया जाता है। वहाँ सुवर्णकी-सी कान्तिसे युक्त शरीरबाले मानव उत्पन्न होते हैं। वे सभी देवलोकसे च्युत हुए जीव होते हैं 

और उनके विभिन्न प्रकारके रूप होते हैं। हरिवर्षमें सभी मनुष्य मङ्गलमय इक्षु रसका पान करते हैं, जिससे उन्हें वृद्धावस्था बाधा नहीं पहुँचाती और वे चिरकालतक जीवित रहते हैं। उनकी आयुका प्रमाग ग्यारह हजार वर्ष बतलाया जाता है। इनके बीचमें इलावृत नामक वर्ष है, जिसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ। वहाँ सूर्यका ताप नहीं होता। वहाँके मानव भी वृद्ध नहीं होते। इलावृतवर्षमें नक्षत्रोंसहित चन्द्रमा और सूर्यका प्रकाश नहीं होता। यहाँ पैदा होनेवाले सभी मानवोंके शरीर कमलके से कान्तिमान् और उनका रंग कमल-जैसा लाल होता है। उनके नेत्र कमल-दलके समान विशाल होते हैं और उनके शरीरसे कमलकी-सी गन्ध निकलती है। जामुनके फलका रस उनका आहार है। वे निस्पन्दरहित एवं सुगन्धयुक्त होते हैं। उनके वस्त्र सुवर्णके तारोंसे खचित होते हैं। देवलोकसे च्युत हुए जीव ही यहाँ जन्म धारण करते हैं। जो श्रेष्ठ पुरुष इलावृतवर्षमें पैदा होते हैं वे तेरह हजार वर्षोंकी आयुतक जीवित रहते हैं ॥ ६३-७३॥

आयुष्प्रमाणं जीवन्ति ये तु वर्ष इलावृते।
मेरोस्तु दक्षिणे पार्श्वे निषधस्योत्तरेण वा ॥ ७४

सुदर्शनो नाम महाजम्बूवृक्षः सनातनः । 
नित्यपुष्यफलोपेतः सिद्धचारणसेवितः ।। ७५

तस्य नाम्ना समाख्यातो जम्बूद्वीपो वनस्पतेः ।
योजनानां सहस्त्रं च शतधा च महान् पुनः ।। ७६

सुदर्शनो नाम महाजम्बूवृक्षः सनातनः । 
नित्यपुष्यफलोपेतः सिद्धचारणसेवितः ।। ७५

तस्य नाम्ना समाख्यातो जम्बूद्वीपो वनस्पतेः ।
योजनानां सहस्त्रं च शतधा च महान् पुनः ।। ७६

उत्सेधो वृक्षराजस्य दिवमावृत्त्य तिष्ठति।
तस्य जम्बूफलरसो नदी भूत्वा प्रसर्पति ॥ ७७

मेरुं प्रदक्षिणं कृत्वा जम्बूमूलगता पुनः ।
तं पिबन्ति सदा हृष्टा जम्बूरसमिलावृते ।। ७८

जम्बूफलरसं पीत्वा न जरा बाधतेऽपि तान्।
न क्षुधा न क्लमो वापि न दुःखं च तथाविधम् ॥ ७९

तत्र जाम्बूनदं नाम कनकं देवभूषणम् । 
इन्द्रगोपकसंकाशं जायते भासुरं च यत् ॥ ८०

सर्वेषां वर्षवृक्षाणां शुभः फलरसस्तु सः। 
स्कन्त्रं तु काञ्चनं शुभ्रं जायते देवभूषणम् ॥ ८१

तेषां मूत्रं पुरीषं वा दिश्वष्टासु च सर्वशः । 
ईश्वरानुग्रहाद् भूमिमृतांश्च ग्रसते तु तान् ॥ ८२

रक्षः पिशाचा यक्षाश्च सर्वे हैमवतास्तु ते। 
हेमकूटे तु विज्ञेया गन्धर्वाः साप्सरोगणाः ॥ ८३

सर्वे नागा निषेवन्ते शेषवासुकितक्षकाः । 
महामेरी त्रयस्त्रिंशत् क्रीडन्ते यज्ञियाः शुभाः ॥ ८४

नीलवैदूर्ययुक्तेऽस्मिन् सिद्धा ब्रह्मर्षयोऽवसन् । 
दैत्यानां दानवानां च श्वेतः पर्वत उच्यते ।। ८५

शृङ्गवान् पर्वतश्रेष्ठः पितृणां प्रतिसंचरः । 
इत्येतानि मयोक्तानि नव वर्षाणि भारते ॥ ८६


भूतैरपि निविष्टानि गतिमन्ति ध्रुवाणि च।
तेषां वृद्धिर्बहुविधा दृश्यते देवमानुषैः। 
अशक्या परिसंख्यातुं श्रद्धेया च बुभूषता ॥ ८७

मेरुगिरिके दक्षिण तथा निषधपर्वतके उत्तर भाग में सुदर्शन नामका एक विशाल प्राचीन जामुनका वृक्ष है। वह सदा पुष्प और फलोंसे लदा रहता है। सिद्ध और चारण सदा उसका सेवन करते हैं। उसी वृक्षके नामपर यह द्वीप जम्बुद्वीपके नामसे विख्यात हुआ है। उस वृक्षराजको ऊँचाई ग्यारह सौ योजन है। वह महान् वृक्ष स्वर्गलोक तक व्याप्त है। उसके फलोंका रस नदीरूपमें प्रवाहित होता है। वह नदी मेरुकी प्रदक्षिणा करके पुनः उसी जम्बूवृक्षके मूलपर पहुँचती है। इलावृतवर्षमें वहाँके निवासी सदा हर्षपूर्वक उस जम्बूरसका पान करते हैं। उस जम्बूवृक्षके फलोंका रस पान करनेके कारण वहाँके निवासियोंको वृद्धावस्था बाधा नहीं पहुँच्णती। न उन्हें भूख लगती है और न थकावट ही प्रतीत होती है तथा न किसी प्रकारका दुःख ही होता है। वहाँ जाम्बूनद नामक सुवर्ण पाया जाता है जो देवताओंके लिये आभूषणके काममें आता है। वह इन्द्रगोप (बीरबहूटी) के समान लाल और अत्यन्त चमकीला होता है। उस वर्षके सभी वृक्षोंमें इस जामुन- वृक्षके फलोंका रस परम शुभकारक है। वह वृक्षसे टपकनेपर निर्मल सुवर्ण बन जाता है जिससे देवताओंके आभूषण बनते हैं। ईश्वरकी कृपासे वहाँकी भूमि आठों दिशाओंमें सब ओर इलावृत-निवासियोंके मूत्र, विष्ठा और मृत शरीरोंको आत्मसात् कर लेती है। राक्षस, पिशाच और यक्ष-ये सभी हिमालय पर्वतपर निवास करते हैं।

हेमकूट पर्वतपर अप्सराओंसहित गन्धर्वोका निवास जानना चाहिये तथा शेष, वासुकि और तक्षक आदि सभी प्रधान नाग भी उसपर स्थित रहते हैं। महामेरुपर यज्ञसम्बन्धी मङ्गलमय तैंतीस देवता क्रीडा करते रहते हैं। नीलम एवं वैदूर्य मणियोंसे सम्पन्न नौलपर्वतपर सिद्धों और ब्रह्मर्षियोंका निवास है। श्वेतपर्वत दैत्यों और दानवोंका निवासस्थान बतलाया जाता है। पर्वतश्रेष्ठ शृङ्गवान् पितरोंका विहारस्थल है। इस प्रकार मैंने भारतवर्षके अन्तर्गत इन नौ वर्षोंका वर्णन कर दिया। इनमें प्राणी निवास करते हैं। ये परस्पर गतिमान् और स्थिर हैं। देवताओं और मनुष्योंने अनेकों प्रकारसे इनकी वृद्धि देखी है। उनकी गणना करना असम्भव है, अतः मङ्गलार्थी मनुष्यको इनपर श्रद्धा रखनी चाहिये ॥ ७४-८७ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे भुवनकोशे चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११४॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके भुवनकोष-वर्णनमें एक सौ चौदहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ११४ ॥

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