मत्स्य पुराण एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय
देवता ओं सहित शङ्करजी का त्रिपुर पर आक्रमण, त्रिपुर में देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरों की तैयारी
सूत उवाच
पूज्यमाने रथे तस्मिल्लोकैर्देवे रथे स्थिते ।
प्रमथेषु नदत्सूयं प्रवदत्सु च साध्विति ॥ १
सूतजी कहते हैं-ऋषियो! इस प्रकार उस लोकपूजित रथपर आरूढ़ होकर जब महादेवजी त्रिपुरपर आक्रमण करने के लिये प्रस्थित हुए, उस समय प्रमथगण 'ठीक है, ठीक है' ऐसा कहते हुए उच्च स्वरसे सिंहनाद करने लगे। १
ईश्वरस्वरघोषेण नर्दमाने महावृषे।
जयत्सु विप्रेषु तथा गर्जत्सु तुरगेषु च ॥ २
रणाङ्गणात् समुत्पत्य देवर्षिर्नारदः प्रभुः ।
कान्त्या चन्द्रोपमस्तूर्णं त्रिपुरं पुरमागतः ॥ ३
औत्पातिकं तु दैत्यानां त्रिपुरे वर्तते ध्रुवम्।
नारदश्चात्र भगवान् प्रादुर्भूतस्तपोधनः ॥ ४
आगतं जलदाभासं समेताः सर्वदानवाः ।
उत्तस्थुर्नारदं दृष्टा अभिवादनवादिनः ॥ ५
तमध्येंण च पाहोन मधुपर्केण चेश्वराः।
नारदं पूजयामासुर्ब्रह्माणमिव वासवः ॥ ६
तेषां स पूजां पूजार्हः प्रतिगृह्य तपोधनः ।
नारदः सुखमासीनः काञ्चने परमासने ।॥ ७
मयस्तु सुखमासीने नारदे नारदोद्भवे।
यथार्ह दानवैः सार्थमासीनो दानवाधिपः ॥ ८
आसीनं नारदं प्रेक्ष्य मयस्त्वथ महासुरः।
अन्नवीद् वचनं तुष्टो हृष्टरोमाननेक्षणः ॥ ९
महान् वृषभ नन्दी भी शङ्करजीके सदृश स्वरमें गर्जना करने लगा। यूथ-के- यूथ विप्र जय-जयकार बोलने लगे तथा घोड़े हॉसने लगे। इसी समय चन्द्रतुल्य कान्तिवाले सामर्थ्यशाली देवर्षि नारद युद्धस्थलसे उछलकर तुरंत त्रिपुर नामक नगरमें जा पहुँचे। दैत्योंके उस त्रिपुरमें निश्चितरूपसे उत्पात हो रहे थे। वहाँ तपस्वी भगवान् नारद सहसा प्रकट हो गये। श्वेत मेधकी-सी प्रभावाले नारदजीको आया हुआ देखकर सभी दानव एक साथ अभिवादन करते हुए उठ खड़े हुए। तत्पश्चात् उन ऐश्वर्यशाली दानवोंने पाद्य, अर्घ्य और मधुपर्कद्वारा नारदजीकी उसी प्रकार पूजा की, जैसे इन्द्र ब्रह्माकी अर्चना करते हैं। तब पूजनीय तपस्वी नारदजी उनकी पूजा स्वीकार कर स्वर्णनिर्मित श्रेष्ठ आसनपर सुखपूर्वक विराजमान हुए। इस प्रकार ब्रह्मपुत्र नारदके सुखपूर्वक बैठ जानेपर दानवराज मय भी सभी दानवोंके साथ यथायोग्य आसनपर बैठ गया। इस तरह नारदजीको वहाँ सुखपूर्वक बैठे देखकर महासुर मयको बड़ी प्रसन्नता हुई। वह हर्षसे रोमाञ्चित हो उठा, उसके मुख एवं नेत्र प्रसन्नतासे खिल उठे, उसने नारदजीसे ये बातें कहीं ॥२-९॥
औत्पातिकं पुरेऽस्माकं यथा नान्यत्र कुत्रचित्।
वर्तते वर्तमानज्ञ वद त्वं हि च नारद ॥ १०
दृश्यन्ते भयदाः स्वप्ना भज्यन्ते च ध्वजाः परम्।
विना च वायुना केतुः पतते च तथा भुवि ॥ ११
अट्टालकाश्च नृत्यन्ते सपताकाः सगोपुराः ।
हिंस हिंसेति श्रूयन्ते गिरश्च भयदाः पुरे ॥ १२
नाहं बिभेमि देवानां सेन्द्राणामपि नारद।
मुक्त्वैकं वरदं स्थाणुं भक्ताभयकरं हरम् ॥ १३
भगवन् नास्त्यविदितमुत्पातेषु तवानघ।
अनागतमतीतं च भवाञ्जानाति तत्त्वतः ॥ १४
तदेतन्नो भयस्थानमुत्पाताभिनिवेदितम् ।
कथयस्व मुनिश्रेष्ठ प्रपन्नस्य तु नारद ॥ १५
इत्युक्तो नारदस्तेन मयेनामयवर्जितः ॥ १६
मयने नारदजीसे कहा- 'नारदजी। आप तो (भूत-भव्य और) वर्तमानकी सारी बातोंके ज्ञाता है, अतः आप यह बतलाइये कि हमारे पुरमें जैसा उत्पात हो रहा है, वैसा सम्भवतः अन्यत्र कहीं भी नहीं होता होगा। (ऐसा क्यों हो रहा है?) यहाँ भयदायक स्वप्न दीख पड़ते हैं। ध्वजाएँ अकस्मात् टूटकर गिर रही हैं। वायुका स्पर्श न होनेपर भी पताकाएँ पृथ्वीपर गिर रही हैं। पताकाओं और फाटकोंसहित अट्टालिकाएँ नाचती- सी (काँपती-सी) दीखती हैं। नगरमें 'मार डालो, मार डालो' ऐसे भयावने शब्द सुननेमें आ रहे हैं। (इतना होनेपर भी) नारदजी। भक्तोंको अभय प्रदान करनेवाले स्थाणुस्वरूप वरदायक एकमात्र शङ्करजीको छोड़कर मुझे इन्द्रसहित समस्त देवताओंसे भी कुछ भय नहीं है। निष्पाप भगवन्! इन उपद्रवोंके विषयमें आपसे कुछ छिपा तो है नहीं; क्योंकि आप तो (पूर्वोक्त वर्तमानके अतिरिक्त) भूत और भविष्यके भी यथार्थ ज्ञाता हैं। मुनिश्रेष्ठ! ये उत्पात हमलोगोंके लिये भयके स्थान बन गये हैं. जिन्हें मैंने आपसे निवेदित कर दिया है। नारदजी! मैं आपके शरणागत हूँ, कृपया इसका कारण बतलाइये।' इस प्रकार मयदानवने अविनाशी नारदजीसे प्रार्थना की ॥ १०-१६ ॥
नारद उवाच
शृणु दानव तत्त्वेन भवन्त्यौत्पातिका यथा।
धर्मेति धारणे धातुर्माहात्म्ये चैव पठ्यते।
धारणाच्च महत्त्वेन धर्म एष निरुच्यते ॥ १७
स इष्टप्रापको धर्म आचार्यैरुपदिश्यते।
इतरश्चानिष्टफलं आचार्यैर्नोपदिश्यते ॥ १८
उत्पथान्मार्गमागच्छेन्मार्गाच्चैव विमार्गताम् ।
विनाशस्तस्य निर्देश्य इति वेदविदो विदुः ॥ १९
स स्वधर्म रथारूढः सहैभिर्मत्तदानवैः ।
अपकारिषु देवानां कुरुषे त्वं सहायताम् ॥ २०
तदेतान्येवमादीनि उत्पातावेदितानि च।
वैनाशिकानि दृश्यन्ते दानवानां तथैव च ॥ २१
एष रुद्रः समास्थाय महालोकमयं रथम्।
आयाति त्रिपुरं हन्तुं मय त्वामसुरानपि ॥ २२
स त्वं महौजसं नित्यं प्रपद्यस्व महेश्वरम् ।
यास्यसे सह पुत्रेण दानवैः सह मानद ॥ २३
इत्येवमावेद्य भयं दानवोपस्थितं महत्।
दानवानां पुनर्देवो देवेशपदमागतः ।। २४
(तब) नारदजी बोले- दानवराज। जिस कारण ये उत्पात हो रहे हैं, उन्हें यथार्थरूपसे बतला रहा हूँ, सुनो! 'धृ' धातु धारण-पोषण और महत्त्वके अर्थमें प्रयुक्त होती है। इसी धातुसे धर्म शब्द निष्पन्न हुआ है, अतः महत्त्वपूर्वक धारण करनेसे यह शब्द धर्म कहलाता है। आचार्यगण इष्टकी प्राप्ति करानेवाले इसी धर्मका उपदेश करते हैं। इसके विपरीत अधर्म अनिष्ट फल देनेवाला है, अतः आचार्यगण उसे ग्रहण करनेका आदेश नहीं देते। वेदज्ञोंका कथन है कि मनुष्यको उन्मार्गसे सुमार्गपर आना चाहिये; क्योंकि जो सुमार्गसे उन्मार्गपर चलते हैं, उनका विनाश तो निश्चित ही है। तुम इन उन्मत्त दानवोंके साथ महान् अधर्मके रथपर आरूढ़ होकर देवताओंका अपकार करनेवालोंकी सहायता करते हो। इसलिये इन सभी उत्पातोंद्वारा सूचित अपशकुन दानवोंके विनाशके सूचक हैं। मय! भगवान् रुद्र महालोकमय रथपर सवार होकर त्रिपुरका, तुम्हारा और समस्त असुरोंका भी विनाश करनेके लिये आ रहे हैं। इसलिये मानद ! (तुम्हारे लिये यही अच्छा होगा कि) तुम महान् ओजस्वी एवं अविनाशी महेश्वरकी शरण ग्रहण कर लो, अन्यथा तुम पुत्रों और दानवोंके साथ यमलोकके पथिक बन जाओगे। इस प्रकार देवर्षि नारद दानवोंको उनके ऊपर आये हुए महान् भयकी सूचना देकर पुनः देवेश्वर शङ्करजीके पास लौट आये ॥ १७-२४॥
नारदे तु मुनौ याते मयो दानवनायकः ।
शूरसम्मतमित्येवं दानवानाह दानवः ।। २५
शूराः स्थ जातपुत्राः स्थ कृतकृत्याः स्थ दानवाः ।
युध्यध्वं दैवतैः सार्धं कर्त्तव्यं चापि नो भयम् ॥ २६
जित्वा वयं भविष्यामः सर्वेऽमरसभासदः ।
देवांश्च सेन्द्रकान् हत्वा लोकान् भोक्ष्यामहेऽसुराः ।। २७
अड्डालकेषु च तथा तिष्ठध्वं शस्त्रपाणयः ।
दंशिता युद्धसज्जाश्च तिष्ठध्वं प्रोद्यतायुधाः ॥ २८
पुराणि त्रीणि चैतानि यथास्थानेषु दानवाः ।
तिष्ठध्वं लङ्घनीयानि भविष्यन्ति पुराणि च ॥ २९
नभोगतास्तथा शूरा देवता विदिता हि वः ।
ताः प्रयत्नेन वार्याश्च विदार्याश्चैव सायकैः ॥ ३०
इति दनुतनयान्मयस्तथोक्त्वा सुरगणवारणवारणे वचांसि ।
युवतिजनविषण्णमानसं तत्-त्रिपुरपुरं सहसा विवेश राजा ॥ ३१
अथ रजतविशुद्धभावभावो भवमभिपूज्य दिगम्बरं सुगीभिः।
शरणमुपजगाम देवदेवं मदनार्यन्धकयज्ञदेहघातम् ॥ ३२
मयमभयपदैषिणं प्रपन्नं न किल बुबोध तृतीयदीप्तनेत्रः ।
तदभिमतमदात् ततः शशाङ्की स च किल निर्भय एव दानवोऽभूत् ॥ ३३
इधर नारद मुनिके चले जानेपर दानवराज मयदानवने (वहाँ उपस्थित) सभी दानवोंसे इस प्रकार शूरसम्मत वचन कहना आरम्भ किया-'दानवो! तुमलोग शूर-वीर हो, पुत्रवान् हो और (जीवनमें सुखका उपभोग करके) कृतकृत्य हो चुके हो, अतः देवताओंके साथ डटकर युद्ध करो। इसमें तुमलोगोंको किसी प्रकारका भय नहीं मानना चाहिये। असुरी। देवताओंको जीतकर हमलोग देवसभाके सभासद हो जायेंगे, अर्थात् देवसभा अपने अधिकारमें आ जायगी। तब इन्द्रसहित देवताओंका वध करके हमलोग लोकोंका उपभोग करेंगे। तुमलोग युद्धकी साज-सज्जासे विभूषित हो कवच धारण कर लो और हथियार लेकर तैयार हो जाओ तथा हाथमें शस्त्र धारण कर अट्टालिकाओंपर चढ़ जाओ। दानवो!
तुम लोग इन तीनों पुरोंपर यथास्थान (सजग होकर) बैठ जाओ: क्योंकि देवगण इन तीनों पुरोंपर आक्रमण करेंगे। शूरवीरो! यदि देवता आकाशमार्गसे धावा करें तो तुमलोग तो उन्हें पहचानते ही हो, तुरंत उन्हें प्रयत्नपूर्वक रोक दो और बाणोंके प्रहारसे विदीर्ण कर दो।' इस प्रकार दानवराज मय दनु-पुत्रोंसे सुरगणरूपी हाथियोंको रोकनेके लिये बातें बताकर सहसा उस त्रिपुर-पुरमें प्रविष्ट हुआ, जहाँकी स्त्रियोंका मन भयके कारण उद्विग्न हो उठा था। तदनन्तर वह चाँदीके समान निर्मल भावसे भावित होकर सुन्दर वाणीद्वारा दिगम्बर भगवान् शङ्करकी पूजा कर उन कामदेवके शत्रु तथा अन्धक और दक्ष-यज्ञके विनाशक देवदेवेश्वरकी शरणमें गया। यद्यपि शङ्करजीके तृतीय नेत्रमें उद्दीप्त अग्निका वास है, तथापि उन चन्द्रशेखरके ध्यानमें यह बात न आयी कि यह मयदानव शरणागत होकर अभयपद प्राप्त करना चाहता है, अतः उन्होंने उसे अभीष्ट वरदान दे दिया, जिससे वह दानव निर्भय हो गया और आगसे भी सुरक्षित रहकर जीवित बच गया ॥२५-३३॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे त्रिपुरदाहे नारदागमर्न नाम चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३४॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके त्रिपुरदाह-प्रसङ्गमें नारदागमन नामक एक सौ चींतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १३४॥
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