मत्स्य पुराण बत्तीसवाँ अध्याय
देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होने की बात जानकर देवयानी का रूठना और अपने पिता के पास जाना तथा शुक्राचार्य का ययातिको बूढ़े होने का शाप देना
शौनक उवाच
श्रुत्वा कुमारं जातं सा देवयानी शुचिस्मिता ।
चिन्तयाविष्टदुःखार्ता शर्मिष्ठां प्रति भारत ॥ १
ततोऽभिगम्य शर्मिष्ठां देवयान्यब्रवीदिदम् ।
किमर्थं वृजिनं सुक्षु कृतं ते कामलुब्धया ॥ २
शौनकजी कहते हैं- भारत ! पवित्र मुसकानवाली देवयानीने जब सुना कि शर्मिष्ठाके पुत्र हुआ है, तब वह दुःखसे पीड़ित हो शर्मिष्ठाके व्यवहारको लेकर बड़ी चिन्तामें पड़ गयी। वह शर्मिष्ठाके पास गयी और इस प्रकार बोली- 'सुन्दर भौंहोंवाली शर्मिष्ठे! तुमने काम-लोलुप होकर यह कैसा पाप कर डाला है?' ॥१-२॥
शर्मिष्ठोवाच
ऋषिरभ्यागतः कश्चिद् धर्मात्मा वेदपारगः।
स मया तु वरः कामं याचितो धर्मसंहतम् ॥ ३
नाहमन्यायतः काममाचरामि शुचिस्मिते।
तस्मादृषेर्ममापत्यमिति सत्यं ब्रवीमि ते ॥ ४
शर्मिष्ठा बोली- सखी। कोई धर्मात्मा ऋषि आये थे, जो वेदोंके पारंगत विद्वान् थे। मैंने उन वरदायक ऋषिसे धर्मानुसार कामकी याचना की। शुचिस्मिते। मैं न्यायविरुद्ध कामका आचरण नहीं करती। उन ऋषिसे ही मुझे संतान पैदा हुई है, यह मुझे तुमसे सत्य कहती हूँ ॥३-४॥
देवयान्युवाच
यद्येतदेवं शर्मिष्ठे न मन्युर्विद्यते मम।
अपत्यं यदि ते लब्धं ज्येष्ठाच्छ्रेष्ठाच्च वै द्विजात् ॥ ५
शोभनं भीरु सत्यं चेत् कथं स ज्ञायते द्विजः ।
गोत्रनामाभिजनतः श्रोतुमिच्छामि तं द्विजम् ॥ ६
देवयानीने कहा- शर्मिष्ठे! यदि ऐसी बात है, तुमने यदि ज्येष्ठ और श्रेष्ठ द्विजसे संतान प्राप्त की है तो तुम्हारे ऊपर मेरा क्रोध नहीं रहा। भीरु। यदि ऐसी बात है तो बहुत अच्छा हुआ। क्या उन द्विजके गोत्र, नाम और कुलका कुछ परिचय मिला है? मैं उनको जानना चाहती हूँ ॥ ५-६॥
शर्मिष्ठोवाच
ओजसा तेजसा चैव दीप्यमानं रविं यथा।
तं दृष्ट्वा मम सम्प्रष्टुं शक्तिर्नासीच्छुचिस्मिते ॥ ७
शौनक उवाच
अन्योऽन्यमेवमुक्त्वा च सम्प्रहस्य च ते मिथः
जगाम भार्गवी वेश्म तथ्यमित्यभिजानती ॥ ८
ययातिर्देवयान्यां तु पुत्रावजनयन्नृपः ।
यदुं च तुर्वसुं चैव शक्रविष्णू इवापरौ ॥ ९
तस्मादेव तु राजर्षेः शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
गुह्यं चानुं च पूरुं च त्रीन् कुमारानजीजनत् ॥ १०
ततः काले च कस्मिंश्चिद् देवयानी शुचिस्मिता ।
ययातिसहिता राजञ्जगाम हरितं वनम् ॥ ११
ददर्श च तदा तत्र कुमारान् देवरूपिणः ।
क्रीडमानान् सुविस्त्रब्धान् विस्मिता चेदमब्रवीत् ॥ १२
शर्मिष्ठा बोली- शुचिस्मिते। वे अपने तप और तेजसे सूर्यकी भाँति प्रकाशित हो रहे थे। उन्हें देखकर मुझे कुछ पूछनेका साहस ही न हुआ शौनकजी कहते हैं शतानीक। वे दोनों आपसमें इस प्रकार बातें करके हँस पड़ीं। देवयानीको प्रतीत हुआ कि शर्मिष्ठा ठीक कहती है, अतः वह चुपचाप महलमें चली गयी। राजा ययातिने देवयानीके गर्भसे दो पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम थे-यदु और तुर्वसु। वे दोनों दूसरे इन्द्र और विष्णुकी भाँति प्रतीत होते थे। उन्हों राजर्षिसे वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने तीन पुत्रोंको जन्म दिया, जिनके नाम थे- द्वह्य, अनु और पूरु। राजन् । तदनन्तर किसी समय पवित्र मुसकानवाली देवयानी ययातिके साथ एकान्त वनमें गयी। वहाँ उसने देवताओंके समान सुन्दर रूपवाले कुछ बालकोंको निर्भय होकर क्रीडा करते देखा। उन्हें देखकर वह आश्चर्यचकित हो इस प्रकार बोली ॥७-१२॥
देवयान्युवाच
कस्यैते दारका राजन् देवपुत्रोपमाः शुभाः ।
वर्चसा रूपतश्चैव दृश्यन्ते सदृशास्तव ॥ १३
एवं पृष्ट्वा तु राजानं कुमारान् पर्यपृच्छत।
किं नामधेयगोत्रे वः पुत्रका ब्राह्मणः पिता ॥ १४
विबूत मे यथातथ्यं श्रोतुकामास्म्यतो ह्यहम्।
तेऽदर्शयन् प्रदेशिन्या तमेव नृपसत्तमम् ॥ १५
शर्मिष्ठां मातरं चैव तस्या ऊचुः कुमारकाः।
देवयानीने पूछा- राजन्। ये देवबालकोंके तुल्य शुभ लक्षणसम्पन्न कुमार किसके हैं? तेज और रूपमें तो ये मुझे आपके ही समान जान पड़ते हैं। राजासे इस प्रकार पूछकर उसने फिर उन कुमारोंसे प्रश्न किया- 'बच्चो। तुमलोग किस गोत्रमें उत्पन्न हुए हो ? तुम्हारे ब्राह्मण पिताका क्या नाम है? यह मुझे ठीक-ठीक बताओ। मैं तुम्हारे पिताका नाम सुनना चाहती हूँ।' (देवयानीके इस प्रकार पूछनेपर) उन बालकोंने पिताका परिचय देते हुए तर्जनी अँगुलीसे उन्हीं नृपश्रेष्ठ ययातिको दिखा दिया और शर्मिष्ठाको अपनी माता बताया ॥ १३-१५ ॥
शौनक उवाच
इत्युक्त्वा सहितास्तेन राजानमुपचक्रमुः ॥ १६
नाभ्यनन्दत तान् राजा देवयान्यास्तदान्तिके ।
रुदन्तस्तेऽथ शर्मिष्ठामभ्ययुर्बालकास्तदा ॥ १७
दृष्ट्वा तेषां तु बालानां प्रणयं पार्थिवं प्रति।
बुद्धवा च तत्त्वतो देवी शर्मिष्ठामिदमब्रवीत् ॥ १८
शौनकजी कहते हैं- ऐसा कहकर वे सब बालक एक साथ राजाके समीप आ गये, परंतु उस समय देवयानीके निकट राजाने उनका अभिनन्दन नहीं किया- इन्हें गोदमें नहीं उठाया। तब बालक रोते हुए शर्मिष्ठाके पास चले गये। (उनकी बातें सुनकर राजा ययाति लज्जित से हो गये।) उन बालकोंका राजाके प्रति विशेष प्रेम देखकर देवयानी सारा रहस्य समझ गयी और शर्मिष्ठासे इस प्रकार बोली- ॥१६-१८ ॥
देवयान्युवाच
मदधीना सती कस्मादकार्षीर्विप्रियं मम।
तमेवासुरधर्मं त्वमास्थिता न बिभेषि किम् ॥ १९
देवयानी बोली- शर्मिष्ठे। तुमने मेरे अधीन होकर भी मुझे अप्रिय लगनेवाला बर्ताव क्यों किया ? तुम फिर उसी असुर-धर्मपर उतर आयी। क्या मुझसे नहीं डरती ? ॥ १९ ॥
शर्मिष्ठोवाच
यदुक्तमृषिरित्येव तत् सत्यं चारुहासिनि ।
न्यायतो धर्मतश्चैव चरन्ती न बिभेमि ते ॥ २०
यदा त्वया वृतो राजा वृत एव तदा मया।
सखीभर्ता हि धर्मेण भर्ता भवति शोभने ॥ २१
पूज्यासि मम मान्या च श्रेष्ठा ज्येष्ठा च ब्राह्मणी।
त्वत्तो हि मे पूज्यतरो राजर्षिः किं न वेत्सि तत् ॥ २२
शर्मिष्ठा बोली- मनोहर मुसकानवाली सखी! मैंने जो ऋषि कहकर अपने स्वामीका परिचय दिया था, सो सत्य ही है। मैं न्याय और धर्मके अनुकूल आचरण करती हूँ, अतः तुमसे नहीं डरती। जब तुमने राजाका पतिरूपमें वरण किया था, उसी समय मैंने भी कर लिया। शोभने! तुम ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ हो, ब्राह्मणपुत्री हो, अतः मेरे लिये माननीय एवं पूजनीय हो; परंतु ये राजर्षि मेरे लिये तुमसे भी अधिक पूजनीय हैं। क्या यह बात तुम नहीं जानती ? (शुभे। तुम्हारे पिता और मेरे गुरु (शुक्राचार्यजी) ने हम दोनोंको एक ही साथ महाराजकी सेवामें समर्पित किया है। तुम्हारे पति और पूजनीय महाराज ययाति भी मुझे पालन करने योग्य मानकर मेरा पोषण करते हैं।) ॥ २०-२२ ॥
शौनक उवाच
श्रुत्वा तस्यास्ततो वाक्यं देवयान्यन्नवीदिदम् ।
राजन् नाद्येह वत्स्यामि विप्रियं मे त्वया कृतम् ॥ २३
सहसोत्पतितां श्यामां दृष्ट्वा तां सानुलोचनाम् ।
तूर्ण सकाशं काव्यस्य प्रस्थितां व्यथितस्तदा ॥ २४
अनुवव्राज सम्भ्रान्तः पृष्ठतः सान्त्वयन् नृपः ।
न्यवर्तत न सा चैव क्रोधसंरक्तलोचना । २५
अविब्रुवन्ती किंचिच्च राजानं साश्रुलोचना।
अचिरादेव सम्प्राप्ता काव्यस्योशनसोऽन्तिकम् ॥ २६
सा तु दृष्ट्वैव पितरमभिवाद्याग्रतः स्थिता।
अनन्तरं ययातिस्तु पूजयामास भार्गवम् ॥ २७
शौनकजी कहते हैं- शर्मिष्ठाका यह वचन सुनकर देवयानीने कहा- 'राजन् ! अब मैं यहाँ नहीं रहूँगी। आपने मेरा अत्यन्त अप्रिय किया है।' ऐसा कहकर तरुणी देवयानी आँखोंमें आँसू भरकर सहसा उठी और तुरन्त ही शुक्राचार्य जी के पास जानेके लिये वहाँसे चल दी। यह देख उस समय राजा ययाति व्यथित हो गये। वे व्याकुल हो देवयानीको समझाते हुए उसके पीछे- पीछे गये, किंतु वह नहीं लौटी। उसकी आँखें क्रोधसे लाल हो रही थीं। वह राजासे कुछ न बोलकर केवल नेत्रोंसे आँसू बहाये जाती थी। कुछ ही देरमें वह कवि- पुत्र शुक्राचार्यके पास पहुंची। पिताको देखते ही वह प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हो गयी। तदनन्तर राजा ययातिने भी शुक्राचार्यकी वन्दना की ॥ २३-२७॥
देवयान्युवाच
अधर्मेण जितो धर्मः प्रवृत्तमधरोत्तरम्।
शर्मिष्ठा यातिवृत्तास्ति दुहिता वृषपर्वणः ॥ २८
त्रयोऽस्यां जनिताः पुत्रा राज्ञानेन ययातिना।
दुर्भगाया मम द्वौ तु पुत्रौ तात ब्रवीमि ते ॥ २९
धर्मज्ञ इति विख्यात एष राजा भृगूद्वह।
अतिक्रान्तश्च मर्यादां काव्यैतत् कथयामि ते ॥ ३०
देवयानीने कहा- पिताजी! अधर्मने धर्मको जीत लिया। नीचकी उन्नति हुई और उच्चकी अवनति। वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठा मुझे लाँधकर आगे बढ़ गयी। इन महाराज ययातिसे ही उसके तीन पुत्र हुए हैं, किंतु तात ! मुझ भाग्यहीनाके दो ही पुत्र हुए है। यह मैं आपसे ठीक बता रही हूँ। भृगुश्रेष्ठ। ये महाराज धर्मज्ञके रूपमें प्रसिद्ध हैं, किंतु इन्होंने मर्यादाका उल्लङ्घन किया है। कवि- नन्दन। यह मैं आपसे यथार्थ कह रही हूँ ॥ २८-३०॥
शुक्र उवाच
धर्मज्ञस्त्वं महाराज योऽधर्ममकृथाः प्रियम् ।
तस्माज्जरा त्वामचिराद् धर्षयिष्यति दुर्जया ॥ ३१
शुक्राचार्यने (ययातिसे) कहा- महाराज ! तुमने धर्मज्ञ होकर भी अधर्मको प्रिय मानकर उसका आचरण किया है। इसलिये जिसको जीतना कठिन है, वह वृद्धावस्था तुम्हें शीघ्र ही धर दबायेगी ॥ ३१॥
ययातिरुवाच
ऋतुं यो याच्यमानाया न ददाति पुमान् वृतः ।
भ्रूणहेत्युच्यते ब्रह्मन् स चेह ब्रह्मवादिभिः ॥ ३२
ऋतुकामां स्त्रियं यस्तु गम्यां रहसि याचितः ।
नोपैति यो हि धर्मेण ब्रह्महेत्युच्यते बुधैः ॥ ३३
इत्येतानि समीक्ष्याहं कारणानि भृगूद्वह।
अधर्मभयसंविग्ग्रःशर्मिष्ठामुपजग्मिवान् ॥ ३४
ययाति बोले- भगवन् ! दानवराजकी पुत्री मुझसे ऋतुदान माँग रही थी, अतः मैंने धर्मसम्मत मानकर यह कार्य किया, किसी दूसरे विचारसे नहीं। ब्रह्मन् । जो पुरुष न्याययुक्त ऋतुकी याचना करनेवाली स्त्रीको ऋतुदान नहीं देता, वह ब्रह्मवादी विद्वानोंद्वारा भ्रूण (गर्भ) की हत्या करनेवाला कहा जाता है। जो न्यायसम्मत कामनासे युक्त गम्या स्त्रीके द्वारा एकान्तमें प्रार्थना करनेपर उसके साथ समागम नहीं करता, वह धर्मशास्त्रके विद्वानोंद्वारा गर्भ या ब्राह्मणकी हत्या करनेवाला बताया जाता है। (ब्रह्मन् ! मेरा यह व्रत है कि मुझसे कोई जो भी वस्तु माँगे, उसे वह अवश्य दे दूँगा। आपके ही द्वारा मुझे सौंपी हुई शर्मिष्ठा इस जगत्में दूसरे किसी पुरुषको अपना पति बनाना नहीं चाहती थी; अतः उसकी इच्छा पूर्ण करना धर्म समझकर मैंने वैसा किया है। आप इसके लिये मुझे क्षमा करें।) भृगुश्रेष्ठ। इन्हीं सब कारणोंका विचार करके अधर्मके भयसे उद्विग्र हो मैं शर्मिष्ठाके पास गया था ॥ ३२-३४॥
शुक्र उवाच
न त्वहं प्रत्यवेक्ष्यस्ते मदधीनोऽसि पार्थिव।
मिथ्याचरणधर्मेषु चौर्यं भवति नाहुष ॥ ३५
शुक्राचार्यने कहा- राजन् ! तुम्हें इस विषयमें मेरे आदेशका भी ध्यान रखना चाहता था; क्योंकि तुम मेरे अधीन हो। नहुषनन्दन। धर्ममें मिथ्या आचरण करनेवाले पुरुषको चोरीका पाप लगता है॥ ३५ ॥
शौनक उवाच
क्रोधेनोशनसा शप्तो ययातिर्नाहुषस्तदा।
पूर्व वयः परित्यज्य जरां सद्योऽन्वपद्यत ॥ ३६
ययातिरुवाच
अतृप्तो यौवनस्याहं देवयान्यां भृगूद्वह।
प्रसादं कुरु मे ब्रह्मञ्जरेयं मा विशेत माम् ॥ ३७
शुक्र उवाच
नाहं मृषा वदाम्येतज्जरां प्राप्तोऽसि भूमिप।
जरां त्वेतां त्वमन्यस्मिन् संक्रामय यदीच्छति ॥ ३८
चयातिरुवाच
राज्यभाक् स भवेद् ब्रह्मन् पुण्यभाक् कीर्तिभाक् तथा।
यो दद्यान्मे वयः शुक्र तद् भवाननुमन्यताम् ॥ ३९
शौनकजी कहते हैं- क्रोधमें भरे हुए शुक्राचार्यके शाप देनेपर नहुष-पुत्र राजा ययाति उसी समय पूर्वावस्था यौवन) का परित्याग करके तत्काल बूढ़े हो गये ययाति बोले- भृगुश्रेष्ठ! मैं देवयानीके साथ युवावस्थामें रहकर तृप्त नहीं हो सका हूँ, अतः ब्रह्मन् ! मुझपर ऐसी कृपा कीजिये, जिससे यह बुढ़ापा मेरे शरीरमें प्रवेश न करे शुक्राचार्यने कहा- भूमिपाल ! मैं झूठ नहीं बोलता। बूढ़े तो तुम हो हो गये, किंतु तुम्हें इतनी सुविधा देता हूँ कि यदि चाहो तो किसी दूसरेसे जवानी लेकर इस बुढ़ापाको उसके शरीरमें डाल सकते हो ययाति बोले- ब्रह्मन् । मेरा जो पुत्र अपनी युवावस्था मुझे दे, वहीं पुण्य और कीर्तिका भागी होनेके साथ ही मेरे राज्यका भी भागी हो। शुक्राचार्यजी! आप इसका अनुमोदन करें ॥ ३६-३९ ॥
शुक्र उवाच
संक्रामयिष्यसि जरां यथेष्टं नहुषात्मज।
मामनुध्याय तत्त्वेन न च पापमवाप्स्यसि ॥ ४०
वयो दास्यति ते पुत्रो यः स राजा भविष्यति।
आयुष्मान् कीर्तिमांश्चैव बह्नपत्यस्तथैव च ॥ ४१
शुक्राचार्यने कहा- नहुषनन्दन । तुम भक्तिभावसे मेरा चिन्तन करके अपनी वृद्धावस्थाका इच्छानुसार दूसरेके शरीरमें संचार कर सकोगे। उस दशामें तुम्हें पाप भी नहीं लगेगा। जो पुत्र तुम्हें (प्रसन्नतापूर्वक) अपनी युवावस्था देगा, वही राजा होगा। साथ ही दीर्घायु, यशस्वी तथा अनेक संतानोंसे युक्त होगा ॥ ४०-४१ ॥
इति ओमात्ये महापुराणे सोमवंशे ययातिचरिते द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके सोम-वंश-वर्णन प्रसङ्गमें ययातिचरित नामक बत्तीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ३२॥
टिप्पणियाँ