गुड-धेनुका दान की विधि और उसकी महिमा | gud-dhenuka daan kee vidhi aur usakee mahima

मत्स्य पुराण बयासीवाँ अध्याय

गुड-धेनुके दानकी विधि और उसकी महिमा

मनुरुवाच

गुडधेनुविधानं मे समाचक्ष्व जगत्पते । 
किं रूपं केन मन्त्रेण दातव्यं तदिहोच्यताम् ॥ १

मनुने पूछा- जगत्पते। अब आप मुझे (अभी विशोकद्वादशीके प्रसङ्गमें निर्दिष्ट) गुड धेनुका विधान बतलाइये। साथ ही उस गुड-धेनुका कैसा रूप होता है और उसे किस मन्त्रका पाठ करके दान करना चाहिये-यह भी बतलानेकी कृपा कीजिये ॥ १ ॥

मलय उवाच

गुडधेनुविधानस्य यद् रूपमिह यत् फलम्। 
तदिदानीं प्रवक्ष्यामि सर्वपापविनाशनम् ॥ २

कृष्णाजिनं चतुर्हस्तं प्राग्ग्रीवं विन्यसेद् भुवि।
गोमयेनानुलिप्तायां दर्भानास्तीर्य सर्वतः ॥ ३

लघ्वेणकाजिनं तद्वद् वत्सं च परिकल्पयेत्। 
प्राङ्‌मुखीं कल्पयेद् धेनुमुदक्पादां सवत्सकाम् ॥ ४

उत्तमा गुडधेनुः स्यात् सदा भारचतुष्टयम् । 
वत्सं भारेण कुर्वीत द्वाभ्यां वै मध्यमा स्मृता ॥ ५

अर्धभारेण वत्सः स्यात् कनिष्ठा भारकेण तु।
चतुर्थांशेन वत्सः स्याद् गृहवित्तानुसारतः ॥ ६

धेनुवत्सौ घृतास्यौ तौ सितसूक्ष्माम्बरावृतो।
शुक्तिकर्णाविक्षुपादौ शुचिमुक्ताफलेक्षणौ ॥ ७

सितसूत्रशिरालौ तौ सितकम्बलकम्बलौ।
ताम्रगण्डकपृष्ठौ तौ सितचामररोमकौ ॥ ८

विद्रुमभूयुगोपेतौ नवनीतस्तनावुभौ ।
श्रौमपुच्छौ कांस्यदोहाविन्द्रनीलकतारकौ ॥ ९

सुवर्णशृङ्गाभरणौ राजतैः खुरसंयुतौ।
नानाफलसमायुक्तौ घ्राणगन्धकरण्डकौ। 
इत्येवं रचयित्वा ती धूपदीपैरथार्चयेत् ॥ १०

मत्स्यभगवान्ने कहा- राजर्षे। इस लोकमें गुड- धेनुके विधानका जो रूप है और उसका दान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, उसका मैं अब वर्णन कर रहा हूँ। वह समस्त पापोंका विनाशक है। गोबरसे लिपी- पुती भूमिपर सब ओरसे कुश बिछाकर उसपर चार हाथ लम्बा काला मृगचर्म स्थापित कर दे, जिसका अग्रभाग पूर्व दिशाकी ओर हो। उसी प्रकार एक छोटे मृगचर्ममें बछड़ेकी कल्पना करके उसीके निकट रख दे। फिर उसमें पूर्व मुख और उत्तर पैरवाली सवत्सा गौकी कल्पना करनी चाहिये। चार भार गुडसे बनी हुई गुड- धेनु सदा उत्तम मानी गयी है। उसका बछड़ा एक भार गुडका बनाना चाहिये। दो भार गुडकी बनी हुई धेनु मध्यम कही गयी है। उसका बछड़ा आधा भार गुडका होना चाहिये। एक भार गुडकी बनी धेनु कनिष्ठा होती है, उसका बछड़ा चौथाई भार गुडका बनता है। तात्पर्य यह है कि अपने गृहकी सम्पत्तिके अनुसार इस (गौ)- का निर्माण कराना चाहिये। इस प्रकार गौ और बछड़ेको कल्पना करके उन्हें श्वेत एवं महीन वस्त्रसे आच्छादित कर दे। फिर घीसे उनके मुखकी, सीपसे कानोंकी, गन्नेसे पैरोंकी, श्वेत मोतीसे नेत्रोंकी, श्वेत सूतसे नाड़ियोंकी, श्वेत कम्बलसे गलकम्बलकी, लाल रंगके चिह्नसे पीठकी, श्वेत रंगके मृगपुच्छके बालोंसे रोएँकी, मूँगेसे दोनों भौंहोंकी, मक्खनसे दोनोंके स्तनोंकी, रेशमके धागेसे पूँछकी, काँसासे दोहनीकी, इन्द्रनीलमणिसे आँखोंकी तारिकाओंकी, सुवर्णसे सींगके आभूषणोंकी, चाँदीसे खुरोंकी और नाना प्रकारके फलोंसे नासापुटोंकी रचना कर धूप, दीप आदिद्वारा उनकी अर्चना करनेके पश्चात् यों प्रार्थना करे ॥२-१०॥

या लक्ष्मीः सर्वभूतानां या च देवेष्ववस्थिता । 
धेनुरूपेण सा देवी मम शान्तिं प्रयच्छतु ॥ ११

देहस्था या च रुद्राणी शंकरस्य सदा प्रिया। 
धेनुरूपेण सा देवी मम पापं व्यपोहतु ॥ १२

विष्णोर्वक्षसि या लक्ष्मीः स्वाहा या च विभावसोः । 
चन्द्रार्कशक्रशक्तिर्या धेनुरूपास्तु सा श्रिये ॥ १३

चतुर्मुखस्य या लक्ष्मीर्या लक्ष्मीर्धनदस्य च। 
लक्ष्मीर्या लोकपालानां सा धेनुर्वरदास्तु मे ॥ १४

स्वधा या पितृमुख्यानां स्वाहा यज्ञभुजां च या। 
सर्वपापहरा धेनुस्तस्माच्छान्तिं प्रयच्छ मे ॥ १५

एवमामन्त्र्य तां धेनुं ब्राह्मणाय निवेदयेत् । 
विधानमेतद् धेनूनां सर्वासामभिपठ्यते ॥ १६

यास्ताः पापविनाशिन्यः पठ्यन्ते दश धेनवः । 
तासां स्वरूपं वक्ष्यामि नामानि च नराधिप । १७

प्रथमा गुडधेनुः स्याद् घृतधेनुस्तथापरा। 
तिलधेनुस्तृतीया तु चतुर्थी जलसंज्ञिता ॥ १८

क्षीरधेनुश्च विख्याता मधुधेनुस्तथापरा। 
सप्तमी शर्कराधेनुर्दधिधेनुस्तथाष्टमी। 
रसधेनुश्च नवमी दशमी स्यात् स्वरूपतः ॥ १९

कुम्भाः स्युर्द्रवधेनूनामितरासां तु राशयः। 
सुवर्णधेनुमप्यत्र केचिदिच्छन्ति मानवाः ॥ २०

नवनीतेन रत्नैश्च तथान्ये तु महर्षयः। 
एतदेवं विधानं स्यात्त एवोपस्कराः स्मृताः ॥ २१

मन्त्रावाहनसंयुक्ताः सदा पर्वणि पर्वणि। 
यथाश्रद्धं प्रदातव्या भुक्तिमुक्तिफलप्रदाः ॥ २२

'जो समस्त प्राणियों तथा देवताओंमें निवास करनेवाली लक्ष्मी हैं, धेनुरूपसे वही देवी मुझे शान्ति प्रदान करें। जो सदा शङ्करजीके वामाङ्गमें विराजमान रहती हैं तथा उनकी प्रिय पत्नी हैं, वे रुद्राणीदेवी धेनुरूपसे मेरे पापोंका विनाश करें। जो लक्ष्मी विष्णुके वक्षःस्थलपर विराजमान हैं, जो स्वाहारूपसे अग्रिको पत्नी हैं तथा जो चन्द्र, सूर्य और इन्द्रको शक्तिरूपा हैं, वे ही धेनुरूपसे मेरे लिये सम्पत्तिदायिनी हों। जो ब्रह्माकी लक्ष्मी हैं, जो कुबेरकी लक्ष्मी हैं तथा जो लोकपालोंकी लक्ष्मी हैं, वे धेनुरूपसे मेरे लिये वरदायिनी हों। जो लक्ष्मी प्रधान पितरोंके लिये स्वधारूपा हैं, जो यज्ञभोजी अग्रियोंके लिये स्वाहारूपा हैं, समस्त पापोंको हरनेवाली वे ही धेनुरूपा है, अतः मुझे शान्ति प्रदान करें।' इस प्रकार उस गुड- धेनुको आमन्त्रित कर उसे ब्राह्मणको निवेदित कर दे। 

यही विधान घृत तिल आदि सम्पूर्ण धेनुओंके दानके लिये कहा जाता है। नरेश्वर। अब जो दस पापविनाशिनी गौएँ बतलायी जाती हैं, उनका नाम और स्वरूप बतला रहा हूँ। पहली गुड-धेनु, दूसरी घृत-धेनु, तीसरी तिल- धेनु, चौथी जल-धेनु, पाँचवीं सुप्रसिद्ध क्षीर-धेनु, छठी मधु धेनु, सातवीं शर्करा धेनु, आठवीं दधि-धेनु, नीं रस धेनु और दसवीं स्वरूपतः प्रत्यक्ष धेनु है। द्रव (बहनेवाले) पदार्थोंसे बननेवाली गौओंका स्वरूप घट है और अद्रव पदाथोंसे बननेवाली गौओंका उन-उन पदार्थोंकी राशि है। इस लोकमें कुछ मानव सुवर्ण-धेनुकी तथा अन्य महर्षिगण नवनीत (मक्खन) और रनोंसे भी गौकी रचनाकी इच्छा करते हैं। परंतु सभीके लिये यही विधान है और ये ही सामग्रियाँ भी हैं। सदा पर्व-पर्वपर अपनी श्रद्धाके अनुसार मन्त्रोच्चारणपूर्वक आवाहनसहित इन गौओंका दान करना चाहिये; क्योंकि ये सभी भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाली हैं॥ ११-२२॥

गुडधेनुप्रसङ्गेन सर्वास्तावन्मयोदिताः । 
अशेषयज्ञफलदाः सर्वाः पापहराः शुभाः ॥ २३

व्रतानामुत्तमं यस्माद् विशोकद्वादशीव्रतम्। 
तदङ्गत्वेन चैवात्र गुडधेनुः प्रशस्यते ॥ २४

अयने विषुवे पुण्ये व्यतीपातेऽथवा पुनः ।
गुडधेन्वादयो देयास्तूपरागादिपर्वसु ।। २५

विशोकद्वादशी चैषा पुण्या पापहरा शुभा। 
यामुपोष्य नरो याति तद् विष्णोः परमं पदम् ॥ २६

इह लोके च सौभाग्यमायुरारोग्यमेव च। 
वैष्णवं पुरमाप्नोति मरणे च स्मरन् हरिम् ॥ २७

नवार्बुदसहस्त्राणि दश चाष्टौ च धर्मवित्। 
न शोकदुःखदौर्गत्यं तस्य संजायते नृप ॥ २८

नारी वा कुरुते या तु विशोकद्वादशीव्रतम् । 
नृत्यगीतपरा नित्यं सापि तत्फलमाप्नुयात् ॥ २९

तस्माङ्ग्रे हरेर्नित्यमनन्तं गीतवादनम्।
कर्तव्यं भूतिकामेन भक्त्या तु परया नृप ॥ ३०

इति पठति य इत्थं यः शृणोतीह सम्यङ् मधुमुरनरकारेरर्चनं यश्च पश्येत् ।
मतिमपि च जनानां यो ददातीन्द्रलोके वसति स बिबुधौघैः पूज्यते कल्पमेकम् ॥ ३१

इस प्रकार गुड-धेनुके वर्णन प्रसङ्गसे मैंने सभी घेनुओंका वर्णन कर दिया। ये सभी सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्रदान करने वाली, कल्याण कारिणी और पापहारिणी हैं। चूँकि इस लोकमें विशोकद्वादशी- व्रत सभी व्रतोंमें श्रेष्ठ माना गया है, इसलिये उसका अङ्ग होनेके कारण गुड-धेनु भी प्रशस्त मानी गयी है। उत्तरायण और दक्षिणायनके दिन, पुण्यप्रद विषुवयोग, व्यतीपातयोग अथवा सूर्य-चन्द्रके ग्रहण आदि पर्वोपर इन गुड-धेनु आदि गौओंका दान करना चाहिये। यह विशोकद्वादशी पुण्यदायिनी, पापहारिणी और मङ्गलकारिणी है। इसका व्रत करके मनुष्य विष्णुके परमपदको प्राप्त हो जाता है तथा इस लोकमें सौभाग्य, नीरोगता और दीर्घायुका उपभोग करके मरनेपर श्रीहरिका स्मरण करता हुआ विष्णुलोकको चला जाता है। धर्मज्ञ नरेश! उसे नौ अरब अठारह हजार वर्षांतक शोक, दुःख और दुर्गतिकी प्राप्ति नहीं होती। अथवा जो स्त्री नित्य नाच-गानमें तत्पर रहकर इस विशोकद्वादशीव्रतका अनुष्ठान करती है, उसे भी वही पूर्वोक्त फल प्राप्त होता है। राजन् ! इसलिये वैभवकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषको उत्कृष्ट भक्तिके साथ श्रीहरिके समक्ष नित्य-निरन्तर गायन- वादनका आयोजन करना चाहिये। इस प्रकार जो मनुष्य इस व्रत-विधानको पढ़ता अथवा श्रवण करता है एवं मधु, मुर और नरक नामक राक्षसोंके शत्रु श्रीहरिके पूजनको भलीभाँति देखता है तथा वैसा करनेके लिये लोगोंको सम्मति देता है, वह इन्द्रलोकमें वास करता है और एक कल्पतक देवगणोंद्वारा पूजित होता है॥ २३-३१॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे विशोकद्वादशीव्रतं नाम द्वयशीतितमोऽध्यायः ॥ ८२ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें विशोकद्वादशीव्रत नामक बयासीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ८२ ॥

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