मत्स्य पुराण एक सौ अठारहवाँ अध्याय
हिमालय की अनोखी शोभा तथा अत्रि-आश्रम का वर्णन
सूत उवाच
तस्यैव पर्वतेन्द्रस्य प्रदेशं सुमनोरमम् ।
अगम्यं मानुषैरन्यैर्देवयोगादुपागतः ॥ १
सूतजी कहते हैं- ऋषियो। दैवयोगसे महाराज पुरूरवा उसी पर्वतराजके परम सुरम्य प्रदेशमें पहुँच गये, जो अन्य मनुष्यों के लिये अगम्य था।१
ऐरावती सरिच्छ्रेष्ठा यस्माद् देशाद् विनिर्गता।
मेघश्यामं च तं देशं द्रुमषण्डैरनेकशः ॥ २
शालैस्तालैस्तमालैश्च कर्णिकारः सशामलैः ।
न्यग्रोधैश्च तथाश्वत्थैः शिरीषैः शिंशपाद्रुमैः ॥ ३
श्लेष्मातकैरामलकैर्हरीतकविभीतकैः ।
भूर्जेः समुञ्जकैर्बाणैर्वृक्षैः सप्तच्छदद्रुमैः ॥ ४
महानिम्बैस्तथा निम्बैर्निर्गुण्डीभिर्हरिद्रुमैः ।
देवदारुमहावृक्षैस्तथा कालेयकद्रुमैः ।। ५
पद्मकैश्चन्दनैर्विल्वैः कपित्थै रक्तचन्दनैः ।
आम्रातारिष्टकाक्षोटैरब्दकैश्च तथार्जुनैः ॥ ६
हस्तिकर्णैः सुमनसैः कोविदारैः सुपुष्यितैः ।
प्राचीनामलकैश्चापि धनकैः समराटकैः ॥ ७
खजूरैर्नारिकेलैश्च प्रियालाम्रातकेङ्गुदैः ।
तन्तुमालैर्धवैर्भव्यैः काश्मीरीपणिभिस्तथा ॥ ८
जातीफलैः पूगफलैः कटुफलैर्लावलीफलैः ।
मन्दारैः कोविदारैश्च किंशुकैः कुसुमांशुकैः ॥ ९
यवासैः शमिपर्णासैर्वेतसैरम्बुवेतसैः ।
रक्तातिरङ्गनारङ्गैर्हिड्ङ्गुभिः सप्रियङ्गुभिः ॥ १०
रक्ताशोकैस्तथाशोकैराकल्लैरविचारकैः ।
मुचुकुन्दैस्तथा कुन्दैराटरूषपरूषकैः ॥ ११
किरातैः किंकिरातैश्च केतकैः श्वेतकेतकैः ।
शौभाञ्जनैरञ्जनैश्च सुकलिङ्गनिकोटकैः ॥ १२
सुवर्णचारुवसनैर्दुम श्रेष्ठस्तथासनैः।
मन्मथस्य शराकारैः सहकारैर्मनोरमैः ॥ १३
जहाँ से नदियों में श्रेष्ठ ऐरावती निकली हुई थी, वह देश मेघके समान श्यामल था तथा अनेकों प्रकारके वृक्षसमूहोंसे घिरा हुआ था। वहाँ शाल (साखु), ताल (ताड़), तमाल, कर्णिकार (कनेर), शामल (सेमल), न्यग्रोध (बरगद), अश्वत्थ (पीपल), शिरीष (सिरसा), शिंशपा (सीसम), श्लेष्मातक (लहसोड़ा), आमलक (आमला), हरीतक (हरें), बिभीतक (बहेड़ा), भूर्ज (भोजपत्र), मुञ्जक (मूँज), बाणवृक्ष (साखूका एक भेद), सप्तच्छद (छितवन), महानिम्ब (बकाइन), नीम निर्गुण्डी (सिंदुवार या शेफाली), हरिद्रुम (दारु हल्दी), विशाल वृक्ष देवदारु, कालेयक (अगर), पद्मक (पद्याख), चन्दन, बेल, कैथ, लाल चन्दन, आम्रात (एकलता), अरिष्टक (रीठा), अक्षोट (पीलू या अखरोट), अब्दक (नागरमोथा), अर्जुन, सुन्दर पुष्पोंवाले हस्तिकर्ण (पलाश), खिले हुए फूलोंसे युक्त कोविदार (कचनार), प्राचीनामलक (पुराने आमलकके वृक्ष) धनक (धनेश), मराटक (बाजरा), खजूर, नारियल, प्रियाल (पियार, इसके फलोंकी गिरी चिरौंजी होती है), आम्रातक (आमड़ा), इङ्गुद (हिंगोट), तन्तुमाल (पटुआ), सुन्दर धवके वृक्ष, काश्मीरी, शालपर्णी, जातीफल (जायफल), पूगफल (सुपारी), कटुफल (कायफर), इलायचीकी लताओंके फल, मन्दार, कोविदार (कचनार), किंशुक (पलाश), कुसुमांशुक (एक प्रकारका अशोक), यवास (जवासा), शमी, तुलसी, बेंत, जलमें उगनेवाले बेंत, हलके तथा गाढ़े लाल रंगवाले नारंगीके वृक्ष, हिंगु और प्रियङ्गु (बड़ी पीपर) के वृक्ष भरे पड़े थे ॥ १-१०॥
पीतयूधिकया चैव श्वेतयूथिकया तथा।
जात्या चम्पकजात्या च तुम्बरैश्चाप्यतुम्बरैः ॥ १४
मोचैलोंचैस्तु लकुचैस्तिलपुष्पकुशेशयैः ।
तथा सुपुष्यावरणैश्चव्यकैः कामिवल्लभैः ॥ १५
पुष्पाङ्कुरैश्च बकुलैः पारिभद्रहरिद्रकैः ।
धाराकदम्बैः कुटजैः कदम्बैर्गिरिकूटजैः ॥ १६
आदित्यमुस्तकैः कुम्भैः कुङ्कुमैः कामवल्लभैः ।
कटुफलैर्बदरैर्नपिपैिरिव महोज्वलैः ॥ १७
रक्तैः पालीवनैः श्वेतैर्दाडिमैश्चम्पकद्रुमैः ।
बन्धूकैश्च सुबन्धूकैः कुञ्जकानां तु जातिभिः ॥ १८
कुसुमैः पाटलाभिश्च मल्लिकाकरवीरकैः ।
कुरबकैर्हिमवरैर्जम्बूभिनृपजम्बुभिः ॥१९
बीजपूरैः सकर्पूरैर्गुरुभिश्चागुरुद्रुमैः ।
बिम्बैश्च प्रतिबिम्बैश्च संतानकवितानकैः ॥ २०
साथ ही लाल अशोक, अशोक, आकल्ल (अकरकरा), अविचारक, मुचुकुन्द, कुन्द, आटरूष (अडूसा), परूषक (फालसा), किरात (चिरायता), किंकिरात (बबूल), केतकी, सफेद केतकी, शौभाञ्जन (सहिजन), अञ्जन, कलिंग (सिरसा), निकोटक (अंकोल), सुवर्णके-से चमकीले सुन्दर वल्कलसे युक्त विजयसालके वृक्ष, असना, कामदेवके बाणोंके से आकारवाले सुन्दर आमके वृक्ष,पीली जूही, सफेद जूही, मालती, चम्पाके समूह, तुम्बर (एक प्रकारकी धनिया), अतुम्बर, मोच (केला या सेमल), लोच (गोरखमुण्डी), लकुच (बड़हर), तिल तथा कमलके फूल, कामियोंको प्रिय लगनेवाले पुष्पाकुरों (कुड्मलों) तथा प्रफुल्ल पुष्पोंसे युक्त चव्य (चाब नामक वृक्ष), बकुल (मौलसिरी), पारिभद्र (फरहद), हरिद्रक, धाराकदम्ब (कदम्बका एक भेद), कुटज (कुरैया), पर्वतशिखरोंपर उगनेवाले कदम्ब, आदित्यमुस्तक (मदार), कुम्भ (गुग्गुलका वृक्ष), कामदेवका प्रिय कुङ्कुम (केसर), कटुफल (कायफर), बेर, दीपककी भाँति अत्यन्त चमकीले कदम्ब, लाल रंगके पाली (पालीवत) के वन, श्वेत अनार, चम्पाके वृक्ष, बन्धूक (दुपहरिया), सबन्धूक (तिलका पौधा), कुओंके समूह, लाल गुलाबके कुसुम, मल्लिका, करवीरक (कनेर), कुरबक (लाल कटर्सरैया), हिमवर, जम्बू (छोटी जामुन या कठजामुन), नृपजम्बू (बड़ी जामुन), बिजौरा, कपूर, गुरु, अगुरु, बिम्ब (एक फल), प्रतिबिम्ब और संतानक वृक्ष (कल्पवृक्ष) वितानकी तरह फैले हुए थे ॥ ११-२०॥
तथा गुग्गुलवृक्षैश्च हिन्तालधवलेक्षुभिः ।
तृणशून्यैः करवीरैरशोकैश्चक्रमर्दनैः ॥ २१
पीलुभिर्धातकीभिश्च चिरिबिल्वैः समाकुलैः ।
तिन्तिडीकैस्तथा लोधैर्विडङ्गैः क्षीरिकाद्रुमैः ॥ २२
अश्मन्तकैस्तथा कालैर्जम्बीरैः श्वेतकद्रुमैः ।
भल्लातकैरिन्द्रयवैर्वल्गुणैः सिन्दुवारकैः ॥ २३
करमदैः कासमर्दैरविष्टकवरिष्टकैः ।
रुद्राक्षैर्द्राक्षसम्भूतैः सप्ताङ्गैः पुत्रजीवकैः ॥ २४
कङ्गोलकैर्लवङ्गैश्च त्वग्द्रुमैः पारिजातकैः ।
प्रतानैः पिप्पलीनां च नागवल्ल्यश्च भागशः ॥ २५
मरीचस्य तथा गुल्मैर्नवमल्लिकया तथा।
मृद्धीकामण्डपैर्मुख्यैरतिमुक्तकमण्डपैः ॥ २६
त्रपुषैर्नर्तिकानां च प्रतानैः सफलैः शुभैः।
कूष्माण्डानां प्रतापैश्च अलाबूनां तथा क्वचित् ॥ २७
चिभिटस्य प्रतानैश्च पटोलीकारवेल्लकैः।
कर्कोटकीवितानैश्च वर्ताकैर्वृहतीफलैः ॥ २८
कण्टकैर्मूलकैर्मूलशाकैस्तु विविधैस्तथा।
कहारैश्च विदार्या च रुरूटैः स्वादुकण्टकैः ॥ २९
सभाण्डीरविदूसारराजजम्बूकवालुकैः।
सुवर्चलाभिः सर्वाभिः सर्षपाभिस्तथैव च ॥ ३०
काकोलीक्षीरकाकोली छत्रया चातिच्छत्रया।
कासमर्दीसहासद्भिः सकन्दलसकाण्डकैः ॥ ३१
तथा क्षीरकशाकेन कालशाकेन चाप्यथ।
शिम्बीधान्यैस्तथा धान्यैः सर्वैर्निरवशेषतः ॥ ३२
गुग्गुलवृक्ष, हिंताल, श्वेत ईंख, केतकी, कनेर, अशोक, चक्रमर्दन (चकवड़), पीलु, धातकी (धव), घने चिलबिल, तिन्तिडीक (इमली), लोध, विडंग, क्षीरिकाद्रुम (खिरनी), अश्मन्तक (लहसोड़ा), काल (रक्तचित्र नामका एक वृक्ष), जम्बीर, श्वेतक (वरुण या वरना नामक एक वृक्षविशेष), भल्लातक (भिलावा), इन्द्रयव, वल्गुज (सोमराजी नामसे प्रसिद्ध), सिन्दुवार, करमर्द (करौंदा), कासमर्द (कौंदी), अविष्टक (मिर्च), वरिष्टक (हुरहुर), रुद्राक्षके वृक्ष, अंगूरकी लता, सप्तपर्ण, पुत्रजीवक (पतजुग), कंकोलक (शीतलचीनी), लौंग, त्वग्दुम (दालचीनी) और पारिजातके वृक्ष लहलहा रहे थे। कहीं पिप्पली (पीपर) तथा कहीं नागवल्लीकी लताएँ फैली हुई थीं। कहीं काली मिर्च और नवमल्लिकाकी लताओंके कुञ्ज बने हुए थे। कहीं अंगूर और माधवीकी लताओंके मण्डप शोभा पा रहे थे। कहीं फलोंसे लदी हुई नीले रंगके फूलोंवाली लताएँ, कहीं कुम्हड़े तथा कडूकी लताएँ और कहीं घुँघुची, परवल, करैला एवं कर्कोटकी (पीतघोषा) - की लताएँ शोभा दे रही थीं।
कहीं बैगन और भटकटैयाके फल, मूली, जड़वाले शाक तथा अनेकों प्रकारके काँटेदार वृक्ष शोभा पा रहे थे। कहीं श्वेत कमल, कंदबिदारी, रुरूट (एक फलदार वृक्ष), स्वादुकण्टक, (सफेद पिडालू), भाण्डौर (एक प्रकारका वट), बिदूसार (बिदारकन्द), राजजम्बूक (बड़ी जामुन), वालुक (एक प्रकारका आँवला), सुवर्चला (सूर्यमुखी) तथा सभी प्रकारके सरसोंके पौधे भी विद्यमान थे। काकोली (कंकोल), क्षीरकाकोली (कंकोलका एक भेद), छत्रा (छत्ता), अतिच्छत्रा (तालमखाना), कासमदर्दी (अडूसा), कन्दल (केलेका एक भेद), काण्डक (कौला), क्षीरशाक (दूधी), कालशाक (करेमू) नामक शाकों, सेमकी लताओं तथा सभी प्रकारके अन्नोंके पौधोंसे वह सारा प्रदेश सुशोभित हो रहा था॥ २१-३२॥
औषधीभिर्विचित्राभिर्दीप्यमानाभिरेव च।
आयुष्याभिर्यशस्याभिर्बल्याभिश्च नराधिप ॥ ३३
जरामृत्युभयघ्नीभिः क्षुद्धयघ्नीभिरेव च।
सौभाग्यजननीभिश्च कृत्स्त्राभिश्चाप्यनेकशः ॥ ३४
तत्र वेणुलताभिश्च तथा कीचकवेणुभिः ।
काशैः शशाङ्ककाशैश्च शरगुल्मैस्तथैव च ॥ ३५
कुशगुल्मैस्तथा रम्यैर्गुल्मै श्रेक्षोर्मनोरमैः ।
कार्यासजातिवर्गेण दुर्लभेन शुभेन च ॥ ३६
तथा च कदलीखण्डैर्मनोहारिभिरुत्तमैः ।
तथा मरकतप्रख्यैः प्रदेशैः शाद्वलान्वितैः ॥ ३७
इरापुष्पसमायुक्तैः कुङ्कुमस्य च भागशः।
तगरातिविषामांसीग्रन्थिकैस्तु सुरागदैः ॥ ३८
सुवर्णपुष्पैश्च तथा भूमिपुष्यैस्तथापरैः ।
जम्बीरकैर्भूस्तृणकैः सरसैः सशुकैस्तथा ॥ ३९
शृङ्गवेराजमोदाभिः कुबेरकप्रियालकैः।
जलजैश्च तथावर्णैर्नानावर्णैः सुगन्धिभिः ॥ ४०
उदद्यादित्यसङ्काशैः सूर्यचन्द्रनिभैस्तथा।
तपनीयसवर्णैश्च अतसीपुष्पसन्निभैः ॥ ४१
शुकपत्रनिभैश्चान्यैः स्थलपत्रैश्च भागशः।
पञ्चवर्णैः समाकीर्णैर्बहुवर्णैस्तथैव च ॥ ४२
द्रष्टुर्दृष्ट्या हितमुदैः कुमुदैश्चन्द्रसन्निभैः ।
तथा वह्निशिखाकारैर्गजवक्त्रोत्पलैः शुभैः ॥ ४३
नीलोत्पलैः सकद्धारैर्गुञ्जातककसेरुकैः ।
शृङ्गाटकमृणालैश्च करटै राजतोत्पलैः ॥ ४४
जलजैः स्थलजैर्मूलैः फलैः पुष्यैर्विशेषतः ।
विविधैश्चैव नीवारैर्मुनिभोज्यैर्नराधिप ।। ४५
नरेश्वर! वहाँ आयु, यश और बल प्रदान करनेवाली, प्यासके कटकी विनाशिका एवं सौभाग्यप्रदायिनी सारी वृद्धावस्था और मृत्युके भयको दूर करनेवाली, भूख- ओषधियाँ चित्र-विचित्ररूपमें देदीप्यमान हो रही थीं। वहाँ बाँसकी लताएँ फैली थीं तथा पोले बाँस हवाके संघर्षसे शब्द कर रहे थे। चन्द्रमाके समान उज्वल कास-पुष्पों, सरपत, कुश और ईंखके परम मनोहर रमणीय झाड़ियों तथा मनोरम एवं दुर्लभ कपास और मालतीके वृक्षों अथवा लताओंसे वह वन्य प्रदेश सुशोभित हो रहा था। वहाँ मनको चुरा लेनेवाले उत्तम जातिके केलेके वृक्ष भी लहलहा रहे थे। कोई-कोई प्रदेश मरकतमणिके तुल्य हरी-हरी घासोंसे हरे-भरे थे। कहीं कुङ्कुम और इरा (एक प्रकारकी नशीली मीठी लता)- के पुष्प बिखरे हुए थे। कहीं तगर, अतिविषा (अतीस नामकी जहरीली ओषधि), जटामासी और गुग्गुलको भीनी सुगन्ध फैल रही थी। कहीं कनेरके पुष्यों, भूमिपर फैली हुई लताओंके फूलों, जम्बीर-वृक्षों और घासोंसे भूमि सुहावनी लग रही थी, जिसपर तोते विचर रहे थे।
कहीं शृङ्गबेर (अदरख), अजमोदा, कुबेरक (तुनि) और प्रियालक (छोटी पियार) के वृक्ष शोभा पा रहे थे तो कहीं अनेकों रंगोंके सुगन्धित कमलोंके पुष्प खिले हुए थे। उनमें कुछ पुष्प उगते हुए सूर्यके समान लाल, कुछ सूर्य-सरीखे चमकीले एवं चन्द्रमाके- से उज्वल थे, कुछ सुवर्ण-सदृश पीतोज्वल, कुछ अलसीके पुष्पके समान नौले तथा कुछ तोतेके पंखके सदृश हरे थे। इस प्रकार वहाँकी भूमि इन पाँचों रंगोंवाले तथा अन्यान्य रंग-बिरंगे स्थलपुष्पोंसे आच्छादित थी। वह वनस्थली देखनेवालेकी दृष्टिको आनन्ददायक एवं चन्द्रमा सरीखे उज्वल कुमुद-पुष्पों तथा अग्रिकी शिखाके सदृश एवं हाथीके मुखमें संलग्र उज्ज्वल उत्पल, नीले उत्पल, कहार, गुंजातक (घुँघुची), कसेरुक (कसेरा), शृङ्गाटक (सिंघाड़), कमलनाल, करट (कुसुम्भ) तथा चाँदीके समान उज्वल उत्पलोंसे सुशोभित थी। इस प्रकार वह प्रदेश जल-कमल एवं स्थलकमल तथा मूल, फल और पुष्पोंसे विशेष शोभायमान था। नरेश्वर। वहाँ मुनियोंक खानेयोग्य अनेकों प्रकारके नीवार (तिन्त्री) भी उगे हुए थे ॥ ३३-४५ ॥
न तद्धान्यं न तत्सस्यं न तच्छाके न तत् फलम्।
न तन्मूलं न तत् कन्दं न तत् पुष्पं नराधिप ।। ४६
नागलोकोद्भवं दिव्यं नरलोकभवं च यत्।
अनूपोत्थं वनोत्थं च तत्र यन्नास्ति पार्थिवः ।॥ ४७
सदा पुष्पफलं सर्वमजर्यमृतुयोगतः ।
मद्रेश्वरः स ददृशे तपसा ह्यतियोगतः ॥ ४८
ददृशे च तथा तत्र नानारूपान् पतत्त्रिणः ।
मयूरान् शतपत्रांश्च कलविङ्कांश्च कोकिलान् ॥ ४९
तदा कादम्बकान् हंसान् कोयष्टीन् खञ्जरीटकान् ।
कुररान् कालकूटांश्च खट्वाङ्गाल्लुब्धकांस्तथा ।। ५०
गोक्ष्वेडकांस्तथा कुम्भान् धार्तराष्ट्राञ्छुकान्बकान् ।
घातुकांश्चक्रवाकांश्च कटाकूण्टिट्टिभान् भटान् ॥ ५१
पुत्रप्रियाँल्लोहपृष्ठान् गोचर्मगिरिवर्तकान् ।
पारावतांश्च कमलान् सारिकाञ्जीवजी वकान् ॥ ५२
लाववर्तकवार्ताकान् रक्तवत्र्मप्रभद्रकान् ।
ताम्रचूडान् स्वर्णचूडाङ्कुक्कुटान् काष्ठकुक्कुटान् ।। ५३
कपिञ्जलान् कलविङ्कांस्तथा कुङ्कुमचूडकान् ।
भृङ्गराजान् सीरपादान् भूलिङ्गाण्डिण्डिमान्नवान् ।। ५४
मञ्जुलीतकदात्यूहान् भारद्वाजांस्तथा चषान् ।
एतांश्चान्यांश्च सुबहून् पक्षिसङ्घान् मनोहरान् ॥ ५५
नरेन्द्र। (यहाँतक कि) नागलोक, स्वर्गलोक, मृत्युलोक, जलप्रा स्थान तथा वनमें उत्पन्न होनेवाला ऐसा कोई भी अनाज, धान्य, शाक, फल, मूल, कन्द और फूल नहीं था, जो वहाँ विद्यमान न हो अर्थात् सभी प्राप्य थे। वहाँक वृक्ष ऋतुओंके अनुकूल सदा फूलों और फलोंसे लदे रहते थे। मद्रेश्वर पुरूरवाने अपनी तपस्याके प्रभावसे उस वनप्रान्तको देखा। राजाको वहाँ अनेकों प्रकारके रूप-रंगवाले पक्षी भी दीख पड़े। जैसे मोर, शतपत्र (कठफोरवा), कलविंक (गौरैया), कोयल, कादम्बक (कलहंस), हंस, कोयष्टि (जलकुक्कुट), खंजरीट (खिड़रिच), कुरर (कराँकुल), कालकूट (जलकौआ), लोभी खट्वाङ्ग (पक्षिविशेष), गोश्वेडक (हारिल), कुम्भ (डोम कौआ), धार्तराष्ट्र (काली चोंच और काले पैरोंवाले हंस), तोते, बगुले, निष्वर चक्रवाक, कटाकू (कर्कश ध्वनि करनेवाले विशेष पक्षी), टिटिहिरी, भट (तीतर), पुत्रप्रिय (शरभ), लोहपृष्ठ (श्वेत चील्ह), गोचर्म (चरसा), गिरिवर्तक (बतख), कबूतर, कमल (सारस), मैना, जीवजीवक (चकोर), लवा, वर्तक (बटेर), वार्ताक (बटेरोंकी एक जाति), रक्तवर्त्म (मुर्गा), प्रभद्रक (हंसका एक भेद), ताम्रचूड (लाल शिखावाले मुर्गे), स्वर्णचूड (स्वर्ण-सदृश शिखावाले मुर्गे), सामान्य मुर्गे, काष्ठकुक्कुट (मुर्गेका एक भेद), कपिञ्जल (पपीहा), कलविंक (गौरैया), कुङ्कुमचूड (केसर-सरीखी शिखावाले पक्षी), भृङ्गराज (पक्षिविशेष), सीरपाद (बड़ा सारस), भूलिंग (भूमिमें रहनेवाले पक्षी), डिण्डिम (हारिल पक्षीकी एक जाति), नव (काक), मञ्जुलीतक (चील्हकी जातिविशेष), दात्यूह (जलकाक), भारद्वाज (भरदूल) तथा चाष (नीलकण्ठ) - इन्हें तथा इनके अतिरिक्त अन्यान्य बहुत-से मनोहर पक्षिसमूहोंको राजाने देखा ॥४६-५५ ॥
श्वापदान् विविधाकारान् मृगांश्चैव महामृगान्।
व्याघ्रान् केसरिणः सिंहान् द्वीपिनः शरभान्वृकान् ।। ५६
ऋक्षांस्तरंश्च बहून् गोलाङ्गलान् सवानरान् ।
शशलोमान् सकादम्बान् मार्जारान् वायुवेगिनः ।। ५७
तथा मत्तांश्च मातङ्गान् महिषान् गवयान् वृषान् ।
चमरान् सृमरांश्चैव तथा गौरखरानपि ॥ ५८
उरभ्रांश्च तथा मेषान् सारङ्गानथ कूकुरान्।
नीलांश्चैव महानीलान् करालान् मृगमातृकान् ॥ ५९
सदंष्ट्रालोमशरभान् क्रौञ्चाकारकशम्बरान् ।
करालान् कृतमालांश्च कालपुच्छांश्च तोरणान् ॥ ६०
उष्टान् खङ्गान् वराहांश्च तुरङ्गान् खरगर्दभान्।
एतानद्विष्टान् मद्रेशो विरुद्धांश्च परस्परम् ॥ ६१
अविरुद्धान् वने दृष्ट्वा विस्मयं परमं ययौ ।
तच्चाश्रमपदं पुण्यं बभूवात्रेः पुरा नृप ॥ ६२
तत्प्रसादात् प्रभायुक्तं स्थावरैर्जङ्गमैस्तथा।
हिंसन्ति हि न चान्योन्यं हिंसकास्तु परस्परम् ॥ ६३
इसी प्रकार राजाको वहाँ विभिन्न रूप-रंगवाले जंगली जीव भी देखनेको मिले। जैसे-हिरन, बारहसिंघे, बाघ, सिंह, शेर, चीता, शरभ (अष्टपदी), भेड़िया, रीछ, तरक्षु (लकड़ा), बहुत-से लाङ्गली वानर, सामान्य वानर, वायु-सरीखे वेगशाली खरगोश, लोमड़ी, वनबिलाव, बिलाव, मतवाले हाथी, भैंसे, नीलगाय, बैल, चमर (सुरा गाय), सूमर (बालमृग), श्वेत रंगके गधे, भेड़, मेढ़, मृग, कुत्ते, नीले एवं गाढ़े नीले रंगवाले भयानक मृगमातृक (कस्तूरी मृग), बड़ी-बड़ी दाढ़ों एवं रोमोंसे युक्त शरभ (अष्टपदी), क्रौंच पक्षीके आकारवाले शम्बर (साबर मृग), भयानक कृतमाल (एक प्रकारका हिरन), काली पूँछोंवाले तोरण (सियार), ऊँट, गैंड़े, सूअर घोड़े, खच्चर, गधे आदि जीवोंको उस वनमें परस्पर विरुद्धस्वभाववाले होनेपर भी द्वेषरहित होकर निवास करते देखकर मद्रेश्वर पुरूरवा विस्मयविमुग्ध हो गये। राजन् ! पूर्वकालमें उसी स्थानपर महर्षि अत्रिका पुण्यमय आश्रम था। उन ऋषिकी कृपासे वह प्रदेश स्थावर- जङ्गम प्राणियोंसे भरा हुआ अत्यन्त सुहावना था और वहाँ हिंसक जीव भी परस्पर एक-दूसरेकी हिंसा नहीं करते थे॥५६-६३ ॥
क्रव्यादाः प्राणिनस्तत्र सर्वे क्षीरफलाशनाः ।
निर्मितास्तत्र चात्यर्थमत्रिणा सुमहात्मना ॥ ६४
शैलानितम्बदेशेषु न्यवसच्च स्वयं नृपः।
पयः क्षरन्ति ते दिव्यममृतस्वादुकण्टकम् ॥ ६५
क्वचिद् राजन् महिष्यश्च क्वचिदाजाश्च सर्वशः ।
शिलाः क्षीरेण सम्पूर्णा दध्ना चान्यत्र वा बहिः ।। ६६
सम्पश्यन् परमां प्रीतिमवाप वसुधाधिपः ।
सरांसि तत्र दिव्यानि नहाश्च विमलोदकाः ॥ ६७
प्रणालिकानि चोष्णानि शीतलानि च भागशः ।
कन्दराणि च शैलस्य सुसेव्यानि पदे पदे ॥ ६८
हिमपातो न तत्रास्ति समन्तात् पञ्चयोजनम्।
उपत्यका सुशैलस्य शिखरस्य न विद्यते ॥ ६९
तत्रास्ति राजञ्छिखरं पर्वतेन्द्रस्य पाण्डुरम्।
हिमपातं घना यत्र कुर्वन्ति सहिताः सदा ॥ ७०
तत्रास्ति चापरं शृङ्गं यत्र तोयधना घनाः।
नित्यमेवाभिवर्षन्ति शिलाभिः शिखरं वरम् ॥ ७१
तदाश्रमं मनोहारि यत्र कामधरा धरा।
सुरमुख्योपयोगित्वाच्छाखिनां सफलाः फलाः ॥ ७२
सदोपगीतभ्रमरसुरस्त्रीसेवितं परम्।
सर्वपापक्षयकरं शैलस्येव प्रहारकम् ॥ ७३
वानरैः क्रीडमानैश्च देशाद् देशान् नराधिप।
हिमपुञ्जः कृतास्तत्र चन्द्रबिम्बसमप्रभाः ॥ ७४
तदाश्रमं समंताच्च हिमसंरुद्धकन्दरैः ।
शैलवाटैः परिवृतमगम्यं मनुजैः सदा ॥ ७५
पूर्वाराधितभावोऽसौ महाराजः पुरूरवाः।
तदाश्रमपदं प्राप्तो देवदेवप्रसादतः ॥ ७६
तदाश्रमं श्रमशमनं मनोहरं मनोहरैः कुसुमशतैरलङ्कृतम् ।
कृतं स्वयं रुचिरमथात्रिणा शुभं शुभावहं तद् ददृशे स मद्रराट् ॥ ७७
महर्षि अत्रिने उस आश्रममें ऐसा उत्तम वातावरण बना दिया था कि वहाँके सभी मांसभोजी जीव दूध और फलका ही आहार करते थे। राजन्। मद्रेश्वरने पर्वतके उसी नितम्बप्रदेश (निचले भाग) में अपना निवास- स्थान बनाया। वहाँ सब ओर कहीं भैंसों तो कहीं बकरियोंके स्तनोंसे अमृतके समान स्वादिष्ट दिव्य दूध झरता रहता था, जिससे वहाँकी शिलाएँ भीतर-बाहर- सब ओर दूध एवं दहीसे सराबोर रहती थीं। यह देखकर भूपाल पुरूरवाको परम हर्ष प्राप्त हुआ। वहाँ दिव्य सरोवर थे तथा निर्मल जलसे भरी हुई नदियाँ बह रही थीं। नालियोंमें कहीं गरम तो कहीं शीतल जल बह रहा था। उस पर्वतकी कन्दराएँ पग-पगपर सेवन करने योग्य थीं। उस आश्रमके चारों ओर पाँच योजनके घेरेमें हिम-पात नहीं होता था। उस सुन्दर पर्वतके शिखरके नीचे उपत्यका (मैदानी भूमि) नहीं थी (जिसके कारण वह प्रदेश जनशून्य था)। राजन् ! वहाँ उस पर्वतराजका एक पीले रंगका शिखर है,
जिसपर बादल संगठित होकर सदा हिमकी वर्षा किया करते हैं। वहीं एक दूसरा शिखर भी है, उस सुन्दर शिखरपर जलसे बोझिल हुए बादल बड़ी-बड़ी शिलाअंकि साथ नित्य बरसते रहते हैं। जहाँ वह मनको लुभानेवाला आश्रम स्थित है, वहाँकी पृथ्वी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली है। प्रधान देवताओंके उपयोगमें आनेके कारण वहाँके वृक्षोंके फल भी सफलताको प्राप्त करते रहते हैं। वह श्रेष्ठ आश्रम सदा भ्रमरोंकी गुंजारसे गुंजायमान एवं देवाङ्गनाओंसे सुसेवित तथा उस पर्वतके प्रहरीकी तरह सम्पूर्ण पापोंका विनाशक था। नरेश्वर। एक स्थानसे दूसरे स्थानपर क्रीडा करते हुए बन्दरोंने वहाँकी बर्फराशिको चाँदनीके समान उज्वल बना दिया था। वह आश्रम चारों ओरसे हिमाच्छादित कन्दराओं और कैकरीले-पथरीले मार्गोसे घिरा हुआ था, इसलिये वह मनुष्योंके लिये सदा अगम्य था। पूर्वजन्मकी आराधनाके प्रभावसे युक्त महाराज पुरूरवा देवाधिदेव भगवान्की कृपासे उस आश्रमपर पहुँचे थे। वह आश्रम थकावटको दूर करनेवाला, मनोहर, मनोमोहक पुष्पोंसे अलंकृत, स्वयं महर्षिद्वारा सुन्दररूपमें निर्मित, मङ्गलमय एवं शुभकारक था, उसे मद्रराज पुरूरवाने देखा ॥ ६४-७७॥
इति श्रीमालये महापुराणे भुवनकोशेऽत्र्याश्रमवर्णनं नामाष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११८ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके भुवनकोश-वर्णन-प्रसङ्गमें अत्रि-आश्रमवर्णन नामक एक सौ अठारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ११८ ॥
टिप्पणियाँ