मत्स्य पुराण एक सौ दसवाँ अध्याय
जगत के समस्त पवित्र तीर्थों का प्रयाग में निवास
मार्कण्डेय उवाच
शृणु राजन् प्रयागस्य माहात्म्यं पुनरेव तु।
नैमिषं पुष्करं चैव गोतीर्थ सिन्धुसागरम् ॥ १
गया च धेनुकं चैव गङ्गासागरमेव च।
एते चान्ये च बहवो ये च पुण्याः शिलोच्चयाः ॥ २
मार्कण्डेयजीने कहा- राजन् ! पुनः प्रयागका ही माहात्म्य सुनो। विद्वानोंका ऐसा कथन है कि नैमिषारण्य, पुष्कर, गोतीर्थ, सिन्धुसागर, गयातीर्थ, धेनुक (गयाके पासका एक तीर्थ) और गङ्गासागर- ये तथा इनके अतिरिक्त तीन करोड़ दस हजार जो अन्य तीर्थ हैं॥ २
दश तीर्थसहस्त्राणि तिस्त्रः कोट्यस्तथा पराः।
प्रयागे संस्थिता नित्यमेवमाहुर्मनीषिणः ॥ ३
त्रीणि चाप्यग्निकुण्डानि येषां मध्ये तु जाह्नवी।
प्रयागादभिनिष्क्रान्ता सर्वतीर्थनमस्कृता ॥ ४
तपनस्य सुता देवी त्रिषु लोकेषु विश्रुता।
यमुना गङ्गया सार्धं संगता लोकभाविनी ॥ ५
गङ्गायमुनयोर्मध्ये पृथिव्या जघनं स्मृतम् ।
प्रयागं राजशार्दूल कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ६
तिस्त्रः कोट्योऽर्धकोटी च तीर्थानां वायुरब्रवीत्।
दिवि भुव्यन्तरिक्षे च तत् सर्व तव जाह्नवि ॥ ७
प्रयागं सप्रतिष्ठानं कम्बलाश्वतरावुभौ ।
भोगवत्यथ या चैषा वेदिरेषा प्रजापतेः ॥ ८
तत्र वेदाश्च यज्ञाश्च मूर्तिमन्तो युधिष्ठिर।
प्रजापतिमुपासन्ते ऋषयश्च तपोधनाः ॥ ९
यजन्ते क्रतुभिर्देवास्तथा चक्रधरा नृपाः ।
ततः पुण्यतमो नास्ति त्रिषु लोकेषु भारत । १०
वे सभी एवं पुण्यप्रद पर्वत प्रयागमें नित्य निवास करते हैं। यहाँ तीन अग्निकुण्ड भी हैं, जिनके बीचसे सम्पूर्ण तीर्थोद्वारा नमस्कृत गङ्गा प्रवाहित होती हुई प्रयागसे आगे निकलती हैं। उसी प्रकार तीनों लोकोंमें विख्यात लोकभाविनी सूर्य- पुत्री यमुनादेवी यहीं गङ्गाके साथ सम्मिलित हुई हैं। गङ्गा और यमुनाका यह मध्यभाग पृथ्वीका जघनस्थल कहा जाता है। राजसिंह। भूतल, अन्तरिक्ष और स्वर्गलोक-सभी जगहमें कुल मिलाकर साढ़े तीन करोड़ तीर्थ हैं, परंतु वे सभी प्रयागस्थित गङ्गाकी सोलहवीं कलाकी भी समता नहीं कर सकते ऐसा वायुने कहा है। अतः गङ्गाकी ही प्रधानता मानी गयी है। प्रयागमें झूसी है। यहाँ कम्बल और अश्वतर नामक दोनों नागोंका निवासस्थान है। यहाँ जो भोगवती तीर्थ है, वह प्रजापति ब्रह्माकी वेदी है। युधिष्ठिर! वहाँ शरीरधारी वेद एवं यज्ञ तथा तपोधन महर्षिगण ब्रह्माकी उपासना करते हैं। भारत! वहाँ देवगण तथा चक्रवर्ती सम्राट् यज्ञोंद्वारा यजन करते रहते हैं॥ १-१०॥
प्रयागः सर्वतीर्थेभ्यः प्रभवत्यधिकं विभो।
यत्र गङ्गा महाभागा स देशस्तत्तपोधनम् ॥ ११
सिद्धक्षेत्रं च विज्ञेयं गङ्गातीरसमन्वितम् ।
इदं सत्यं विजानीयात् साधूनामात्मनश्च वै ॥ १२
सुहृदश्च जपेत् कर्णे शिष्यस्यानुगतस्य च।
इदं धन्यमिदं स्वग्र्ग्यमिदं सत्यमिदं सुखम् ॥ १३
इदं पुण्यमिदं धर्म पावनं धर्ममुत्तमम्।
महर्षीणामिदं गुह्यं सर्वपापप्रणाशनम् ॥ १४
अधीत्य च द्विजोऽप्येतन्निर्मलः स्वर्गमाप्नुयात् ।
य इदं शृणुयान्त्रित्यं तीर्थं पुण्यं सदा शुचिः ॥ १५
जातिस्मरत्वं लभते नाकपृष्ठे च मोदते।
प्राप्यन्ते तानि तीर्थानि सद्धिः शिष्टानुदर्शिभिः ॥ १६
स्त्राहि तीर्थेषु कौरव्य न च वक्रमतिर्भव।
त्वया च सम्यक् पृष्टेन कथितं वै मया विभो ॥ १७
पितरस्तारिताः सर्वे तथैव च पितामहाः ।
प्रयागस्य तु सर्वे ते कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ १८
एवं ज्ञानं च योगश्च तीर्थ चैव युधिष्ठिर।
बहुक्लेशेन युज्यन्ते तेन यान्ति परां गतिम् ।
त्रिकालं जायते ज्ञानं स्वर्गलोकं गमिष्यति ॥ १९
विभो। तीनों लोकोंमें प्रयागसे बढ़कर अन्य कोई तीर्थ नहीं है, सबसे अधिक प्रभावशालिनी महाभागा गङ्गा जहाँ वर्तमान हैं, वह देश तपोमय (श्रेष्ठ सत्त्वसे युक्त) है। इस गङ्गाके तटवर्ती क्षेत्रको सिद्धक्षेत्र जानना चाहिये। इस माहात्म्यको सत्य मानना चाहिये और साधुओं तथा अपने मित्रों एवं आज्ञाकारी शिष्योंके कानमें ही इसे बतलाना उचित है। यह प्रयाग-माहात्म्य धन्य, स्वर्गप्रद, सत्य, सुखदायक, पुण्यप्रद, धर्मसम्पन्न, परम पावन, श्रेष्ठ धर्मस्वरूप और समस्त पापोंका विनाशक है। यह महर्षियोंके लिये भी अत्यन्त गोपनीय है। इसका पाठकर द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) पापरहित हो स्वर्गको प्राप्त कर लेता है।
जो मनुष्य पवित्रतापूर्वक इस अविनाशी एवं पुण्यप्रद तीर्थमाहात्म्यको सदा सुनता है, उसे जातिस्मरत्व (जन्मान्तर स्मरण) की प्राप्ति हो जाती है और वह स्वर्गलोकमें आनन्दका उपभोग करता है। कौरवकुलश्रेष्ठ युधिष्ठिर। शिष्ट पुरुषोंका अनुकरण करनेवाले सत्पुरुष ही इन तीर्थोंमें पहुँच पाते हैं, अतः तुम इन तीर्थोंमें खान करो, अश्रद्धा मत करो। सामर्थ्यशाली राजन् ! तुम्हारे पूछनेपर ही मैंने सम्यरूपसे इसका वर्णन किया है। ऐसा प्रश्न कर तुमने अपने पितामह आदि सभी पितरोंका उद्धार कर दिया। (अन्य जितने तीर्थ हैं) वे सभी प्रयागकी सोलहवीं कलाकी बराबरी नहीं कर सकते। युधिष्ठिर! इस प्रकारके ज्ञान, योग और तीर्थकी प्राप्तिका संयोग बड़े कष्टसे मिलता है; क्योंकि उसके संयोगसे मनुष्यको परमगतिकी प्राप्ति हो जाती है, उसके हृदयमें तीनों कालोंका ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और वह स्वर्गलोकको चला जाता है॥ ११-१९॥
इति श्रीमात्ये महापुराणे प्रयागमाहात्म्ये दशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११० ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके प्रयाग माहात्म्यमें एक सौ दसवाँ अध्याथ सम्पूर्ण हुआ।॥ ११० ॥
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