कार्त वीर्य का आदित्य के तेज से सम्पन्न होकर वृक्षों को जलाना | kaart veery ka aadity ke tej se sampann hokar vrkshon ko jalaana |

मत्स्य पुराण चौवालीसवाँ अध्याय

कार्त वीर्य का आदित्य के तेज से सम्पन्न होकर वृक्षों को जलाना, महर्षि आपव द्वारा कार्त वीर्य को शाप और क्रोष्टुके वंश का वर्णन

ऋषय ऊचुः

किमर्थं तद् वनं दग्धमापवस्य महात्मनः । 
कार्तवीर्येण विक्रम्य सूत प्रब्रूहि तत्त्वतः ॥ १

रक्षिता स तु राजर्षिः प्रजानामिति नः श्रुतम्। 
स कथं रक्षिता भूत्वा अदहत् तत् तपोवनम् ॥ २

ऋषियोंने पूछा- सूतजी। कार्तवीर्यने बलपूर्वक महात्मा आपवके उस वनको किस कारण जलाया था? अभी-अभी हम लोगोंने सुना है कि वे राजर्षि कार्तवीर्य प्रजाओंके रक्षक थे तो फिर रक्षक होकर उन्होंने महर्षिके तपोवनको कैसे जला दिया? ॥१-२॥

सूत उवाच

आदित्यो द्विजरूपेण कार्तवीर्यमुपस्थितः । 
तृप्तिमेकां प्रयच्छस्व आदित्योऽहं नरेश्वर ।॥ ३

राजोवाच

भगवन् केन तृप्तिस्ते भवत्येव दिवाकर। 
कीदृशं भोजनं दद्मि श्रुत्वा तु विदधाम्यहम् ॥ ४

आदित्य उवाच

स्थावरं देहि मे सर्वमाहारं ददतां वर। 
तेन तृप्तो भवेयं वै सा मे तृप्तिर्हि पार्थिव ॥ ५

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! एक बार सूर्य ब्राह्मणका रूप धारण करके कार्तवीर्यके निकट पहुँचे और कहने लगे 'नरेश्वर। मैं सूर्य हूँ, आप मुझे एक बार तृप्ति प्रदान कीजिये ' राजाने पूछा- भगवन् ! किस पदार्थसे आपकी तृप्ति होगी? दिवाकर! मैं आपको किस प्रकारका भोजन प्रदान करूँ? आपकी बात सुनकर मैं उसी प्रकारका विधान करूँगा सूर्य बोले- दानिशिरोमणे। मुझे समस्त स्थावर अर्थात् वृक्ष आदिको आहाररूपमें प्रदान कीजिये। मैं उसीसे तृप्त होऊँगा। राजन् ! वहीं मेरे लिये सर्वश्रेष्ठ तृप्ति होगी ॥ ३-५ ॥

कार्तवीर्य उवाच

न शक्याः स्थावराः सर्वे तेजसा च बलेन च। 
निर्दग्धुं तपतां श्रेष्ठ तेन त्वां प्रणमाम्यहम् ॥ ६

कार्तवीर्यने कहा- तेजस्वियोंमें श्रेष्ठ सूर्य। ये समस्त वृक्ष मेरे तेज और बलद्वारा जलाये नहीं जा सकते; अतः मैं आपको प्रणाम करता हूँ ॥६॥

आदित्य उवाच

तुष्टस्तेऽहं शरान् दद्मि अक्षयान् सर्वतोमुखान् । 
ये प्रक्षिप्ता ज्वलिष्यन्ति मम तेजः समन्विताः ॥ ७

आविष्टा मम तेजोभिः शोषयिष्यन्ति स्थावरान् । 
शुष्कान् भस्मीकरिष्यन्ति तेन तृप्तिर्नराधिप ॥ ८

सूर्य बोले- नरेश्वर। मैं आपपर प्रसन्न हूँ, इसलिये मैं आपको ऐसे अक्षय एवं सर्वतोमुखी बाण दे रहा हूँ, जो मेरे तेजसे युक्त होनेके कारण चलाये जानेपर स्वयं जल उठेंगे और मेरे तेजसे परिपूर्ण हुए वे सारे वृक्षोंको सुखा देंगे; फिर सूख जानेपर उन्हें जलाकर भस्म कर देंगे। उससे मेरी तृप्ति हो जायगी ॥ ७-८ ॥

सूत उवाच

ततः शरांस्तदादित्यस्त्वर्जुनाय प्रयच्छत। 
ततो ददाह सम्प्राप्तान् स्थावरान् सर्वमेव च ॥ ९

ग्रामांस्तथाऽऽश्रमांश्चैव घोषाणि नगराणि च। 
तपोवनानि रम्याणि वनान्युपवनानि च ॥ १०

एवं प्राचीमन्वदहं ततः सर्वां सदक्षिणाम्। 
निर्वृक्षा निस्तृणा भूमिर्हता घोरेण तेजसा । ११

एतस्मिन्नेव काले तु आपवो जलमास्थितः । 
दशवर्षसहस्त्राणि तत्रास्ते स महान् ऋषिः ॥ १२

पूर्ण व्रते महातेजा उदतिष्ठंस्तपोधनः । 
सोऽपश्यदाश्रमं दग्धमर्जुनेन महामुनिः ॥ १३

सूतजी कहते हैं- ऋषियो ! तदनन्तर सूर्यने कार्तवीर्य अर्जुनको अपने बाण प्रदान कर दिये। तब अर्जुनने सम्मुख आये हुए समस्त वृक्षों, ग्रामों, आश्रमों, घोषों, नगरों, तपोवनों तथा रमणीय वनों एवं उपवनोंको जलाकर राखका ढेर बना दिया। इस प्रकार पूर्व दिशाको जलाकर फिर समूची दक्षिण दिशाको भी भस्म कर दिया। उस भयंकर तेजसे पृथ्वी वृक्षों एवं तृणोंसे रहित होकर नष्ट- भ्रष्ट हो गयी। उसी समय महर्षि आपव जो महान् तेजस्वी और तपस्याके धनी थे, दस हजार वर्षोंसे जलके भीतर बैठकर तप कर रहे थे, व्रत पूर्ण होनेपर बाहर निकले तो उन महामुनिने अर्जुन द्वारा अपने आश्रमको जलाया हुआ देखा। तब उन्होंने क्क्रुद्ध होकर राजर्षि अर्जुनको उक्त शाप दे दिया, जैसा कि मैंने अभी आप लोगोंको बतलाया है ॥ ९-१३ ॥

क्रोधाच्छशाप राजर्षि कीर्तितं वो यथा मया। 
क्रोष्टोः शृणुत राजर्षेर्वशमुत्तमपौरुषम् ।। १४

यस्यान्ववाये सम्भूतो विष्णुर्वृष्णिकुलोद्वहः । 
क्रोष्टोरेवाभवत् पुत्रो वृजिनीवान् महारथः ॥ १५

वृजिनीवतश्च पुत्रोऽभूत् स्वाहो नाम महाबलः । 
स्वाहपुत्रोऽभवद् राजन् रुषङ्गुर्वदतां वरः ॥ १६

स तु प्रसूतिमिच्छन् वै रुषङ्गुः सौम्यमात्मजम् । 
चित्रश्चित्ररथश्चास्य पुत्रः कर्मभिरन्वितः ॥ १७

अथ चैत्ररथिर्वीरो जज्ञे विपुलदक्षिणः ।
शशबिन्दुरिति ख्यातश्चक्रवर्ती बभूव ह। १८

अत्रानुवंशश्लोकोऽयं गीतस्तस्मिन् पुराभवत् । 
शशबिन्दोस्तु पुत्राणां शतानामभवच्छतम् ॥ १९

धीमतां चाभिरूपाणां भूरिद्रविणतेजसाम् । 
तेषां शतप्रधानानां पृथुसाह्वा महाबलाः ।॥ २०

पृथुश्रवाः पृथुयशाः पृथुधर्मा पृथुञ्जयः। 
पृथुकीर्तिः पृथुमना राजानः शशबिन्दवः ॥ २१

शंसन्ति च पुराणज्ञाः पृथुश्रवसमुत्तमम् । 
अन्तरस्य सुयज्ञस्य सुयज्ञस्तनयोऽभवत् ॥ २२

उशना तु सुयज्ञस्य यो रक्षेत् पृथिवीमिमाम्। 
आजहाराश्वमेधानां शतमुत्तमधार्मिकः ॥ २३

तितिक्षुरभवत् पुत्र औशनः शत्रुतापनः । 
मरुत्तस्तस्य तनयो राजर्षीणामनुत्तमः ॥ २४

आसीन्मरुत्ततनयो वीरः कम्बलबर्हिषः । 
पुत्रस्तु रुक्मकवचो विद्वान् कम्बलबर्हिषः ।। २५

निहत्य रुक्मकवचः परान् कवचधारिणः । 
धन्विनो विविधैर्बाणैरवाप्य पृथिवीमिमाम् ॥ २६

अश्वमेधे ददौ राजा ब्राह्मणेभ्यस्तु दक्षिणाम्।
यज्ञे तु रुक्मकवचः कदाचित् परवीरहा । २७

ऋषियो। (अब) आपलोग राजर्षि क्रोष्टुके उस उत्तम बल-पौरुषसे सम्पन्न वंशका वर्णन सुनिये, जिस वंशमें वृष्णिवंशावतंस भगवान् विष्णु (श्रीकृष्ण) अवतीर्ण हुए थे। क्रोष्टुके पुत्र महारथी वृजिनीवान् हुए। वृजिनीवान्‌के स्वाह (पद्मपुराणमें स्वाति) नामक महाबली पुत्र उत्पन्न हुआ। राजन् ! वक्ताओंमें श्रेष्ठ रुषङ्गे स्वाहके पुत्ररूपमें पैदा हुए। रुषङ्गुने संतानकी इच्छासे सौम्य स्वभाववाले पुत्रकी कामना की। तब उनके सत्कर्मोंसे समन्वित एवं चित्र-विचित्र रथसे युक्त चित्ररथ नामक पुत्र हुआ। चित्ररथके एक वीर पुत्र उत्पन्न हुआ जो शशबिन्दु नामसे विख्यात था। वह आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट् हुआ। वह यज्ञोंमें प्रचुर दक्षिणा देनेवाला था। पूर्वकालमें इस शशबिन्दुके विषयमें वंशानुक्रमणिकारूप यह श्लोक गाया जाता रहा है कि शशबिन्दुके सौ पुत्र हुए। उनमें भी प्रत्येकके सौ-सौ पुत्र हुए। वे सभी प्रचुर धन- सम्पत्ति एवं तेजसे परिपूर्ण, सौन्दर्यशाली एवं बुद्धिमान् थे। उन पुत्रोंके नामके अग्रभागमें 'पृथु' शब्दसे संयुक्त छः महाबली पुत्र हुए। उनके पूरे नाम इस प्रकार हैं- पृथुश्रवा, पृथुयशा, पृथुधर्मा, पृथुजय, पृथुकीर्ति और पृथुमना। ये शशबिन्दुके वंशमें उत्पन्न हुए राजा थे। 

पुराणोंके ज्ञाता विद्वान्लोग इनमें सबसे ज्येष्ठ पृथुश्रवाकी विशेष प्रशंसा करते हैं। उत्तम यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले पृथुश्रवाका पुत्र सुयज्ञ हुआ। सुयज्ञका पुत्र उशना हुआ, जो सर्वश्रेष्ठ धर्मात्मा था। उसने इस पृथ्वीकी रक्षा करते हुए सौ अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान किया था। उशनाका पुत्र तितिक्षु हुआ जो शत्रुओंको संतप्त कर देनेवाला था। राजर्षियोंमें सर्वश्रेष्ठ मरुत्त तितिक्षुके पुत्र हुए। मरुत्तका पुत्र वीरवर कम्बलबर्हिष था। कम्बलबर्हिषका पुत्र विद्वान् रुक्मकवच हुआ। रुक्मकवचने अपने अनेकों प्रकारके बाणोंके प्रहारसे धनुर्धारी एवं कवचसे सुसज्जित शत्रुओंको मारकर इस पृथ्वीको प्राप्त किया था। शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले राजा रुक्मकवचने एक बार बड़े (भारी) अश्वमेध यज्ञमें ब्राह्मणोंको प्रचुर दक्षिणा प्रदान की थी॥ १४-२७ ॥

जज्ञिरे पञ्च पुत्रास्तु महावीर्या धनुर्भूतः ।
रुक्मेषुः पृथुरुक्मश्च ज्यामघः परिघो हरिः ॥ २८

परिघं च हरिं चैव विदेहेऽस्थापयत् पिता।
रुक्मेषुरभवद् राजा पृथुरुक्मस्तदाश्रयः ॥ २९

तेभ्यः प्रव्राजितो राज्याज्ज्यामधस्तु तदाश्रमे। 
प्रशान्तश्चाश्रमस्थश्च ब्राह्मणेनावबोधितः ॥ ३०

जगाम धनुरादाय देशमन्यं ध्वजी रथी। 
नर्मदां नृप एकाकी केवलं वृत्तिकामतः ॥ ३१

ऋक्षवन्तं गिरिं गत्वा भुक्तमन्यैरुपाविशत् । 
ज्यामघस्याभवद् भार्या शैव्या परिणता सती ॥ ३२

अपुत्रो न्यवसद् राजा भार्यामन्यां न विन्दति।
तस्यासीद् विजयो युद्धे तत्र कन्यामवाप्य सः ॥ ३३

भार्यामुवाच संत्रासात् स्नुषेयं ते शुचिस्मिते। 
एकमुक्ताब्रवीदेनं कस्य चेयं स्नुषेति च ॥ ३४

इन (राजा रुक्मकवच) के रुक्मेषु, पृथुरुक्म, ज्यामघ, परिघ और हरिनामक पाँच पुत्र हुए, जो महान् पराक्रमी एवं श्रेष्ठ धनुर्धर थे। पिता रुक्मकवचने इनमेंसे परिध और हरि-इन दोनोंको विदेह देशके राज-पदपर नियुक्त कर दिया। रुक्मेषु प्रधान राजा हुआ और पृथुरुक्म उसका आश्रित बन गया। उन लोगोंने ज्यामधको राज्यसे निकाल दिया। वहाँ एकत्र ब्राह्मणद्वारा समझाये बुझाये जानेपर वह प्रशान्त-चित्त होकर वानप्रस्थीरूपसे आश्रमोंमें स्थिररूपसे रहने लगा। कुछ दिनोंके पश्चात् वह (एक ब्राह्मणकी शिक्षासे) ध्वजायुक्त रथपर सवार हो हाथमें धनुष धारणकर दूसरे देशकी ओर चल पड़ा। वह केवल जीविकोपार्जनकी कामनासे अकेले ही नर्मदातटपर जा पहुँचा। वहाँ दूसरोंद्वारा उपभुक्त ऋक्षवान् गिरि (शतपुरा पर्वत श्रेणी) पर जाकर निश्चितरूपसे निवास करने लगा। ज्यामघकी सती-साध्वी पत्नी शैव्या प्रौढ़ा हो गयी थी। (उसके गर्भसे) कोई पुत्र न उत्पन्न हुआ। इस प्रकार यद्यपि राजा ज्यामध पुत्रहीन अवस्थामें ही जीवन यापन कर रहे थे, तथापि उन्होंने दूसरी पत्नी नहीं स्वीकार की। एक बार किसी युद्धमें राजा ज्यामघकी विजय हुई। वहाँ उन्हें (विवाहार्थ) एक कन्या प्राप्त हुई। (पर) उसे लाकर पत्नीको देते हुए राजाने उससे भयपूर्वक कहा- 'शुचिस्मिते। यह (मेरी स्त्री नहीं,) तुम्हारी स्नुषा (पुत्रवधू) है।' इस प्रकार कहे जानेपर उसने राजासे पूछा- 'यह किसकी स्नुषा है?' ॥ २८-३४॥

राजोवाच

यस्ते जनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति।
तस्मात् सा तपसोग्रेण कन्यायाः सम्प्रसूयत ॥ ३५

पुत्रं विदर्भ सुभगा चैत्रा परिणता सती।
राजपुत्र्यां च विद्वान् स स्नुषायां क्रथकैशिकौ।
लोमपादं तृतीयं तु पुत्रं परमधार्मिकम् ॥ ३६

तस्यां विदर्थोऽजनयच्छूरान् रणविशारदान्।
लोमपादान्मनुः पुत्रो ज्ञातिस्तस्य तु चात्मजः ।। ३७

कैशिकस्य चिदिः पुत्रो तस्माच्चैद्या नृपाः स्मृताः ।
क्रथो विदर्भपुत्रस्तु कुन्तिस्तस्यात्मजोऽभवत् ॥ ३८

कुन्तेधृष्टः सुतो जज्ञे रणधृष्टः प्रतापवान्।
धृष्टस्य पुत्रो धर्मात्मा निर्वृतिः परवीरहा ॥ ३९

तदेको निर्वृतेः पुत्रो नाम्ना स तु विदूरथः ।
दशार्हस्तस्य वै पुत्रो व्योमस्तस्य च वै स्मृतः । 
दाशार्हाच्चैव व्योमात्तु पुत्रो जीमूत उच्यते ॥ ४०

तब राजाने कहा- (प्रिये) तुम्हारे गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न होगा, उसीकी यह पत्नी होगी। (यह आश्चर्य देख- सुनकर वह कन्या तप करने लगी।) तत्पश्चात् उस कन्याकी उग्र तपस्याके परिणामस्वरूप वृद्धा प्रायः बूढ़ी होनेपर भी शैव्याने (गर्भ धारण किया और) विदर्भ नामक एक पुत्रको जन्म दिया। उस विद्वान् विदर्भने खुषाभूता उस राजकुमारीके गर्भसे क्रथ, कैशिक तथा तीसरे परम धर्मात्मा लोमपाद नामक पुत्रोंको उत्पन्न किया। ये सभी पुत्र शूरवीर एवं युद्धकुशल थे। इनमें लोमपादसे मनु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ तथा मनुका पुत्र ज्ञाति हुआ। कैशिकका पुत्र चिदि हुआ, उससे उत्पन्न हुए नरेश चैद्य नामसे प्रख्यात हुए। विदर्भ- पुत्र क्रथके कुन्ति नामक पुत्र पैदा हुआ। कुन्तिसे धृष्ट नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो परम प्रतापी एवं रणविशारद था। धृष्टका पुत्र निवृति हुआ जो धर्मात्मा एवं शत्रु-वीरोंका संहारक था। निर्वृतिके एक ही पुत्र था जो विदूरथ नामसे प्रसिद्ध था। विदूरथका पुत्र दशार्ह" और दशार्हका पुत्र व्योम बतलाया जाता है। दशार्हवंशी व्योमसे पैदा हुए पुत्रको जीमूत नामसे कहा जाता है ॥ ३५-४० ॥

जीमूतपुत्रो विमलस्तस्य भीमरथः सुतः ।
सुतो भीमरथस्यासीत् स्मृतो नवरथः किल ॥ ४१

तस्य चासीद् दृढरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः ।
तस्मात् करम्भः कारम्भिर्देवरातो बभूव ह । ४२

देवक्षत्रोऽभवद् राजा देवरातिर्महायशाः । 
देवगर्भसमो जज्ञे देवनक्षत्रनन्दनः ।॥ ४३

मधुर्नाम महातेजा मधोः पुरवसस्तथा। 
आसीद् पुरवसः पुत्रः पुरद्वान् पुरुषोत्तमः ॥ ४४

जन्तुर्जज्ञेऽथ वैदर्थ्यां भद्रसेन्यां पुरुद्वतः । 
ऐश्वाकी चाभवद् भार्या जन्तोस्तस्यामजायत ।। ४५

सात्त्वतः सत्त्वसंयुक्तः सात्त्वतां कीर्तिवर्धनः ।
इमां विसृष्टि विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः । 
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः ॥ ४६

सात्त्वतात्सत्त्वसम्पन्नान् कौसल्या सुषुवे सुतान्। 
भजिनं भजमानं तु दिव्यं देवावृधं नृपम् ॥ ४७

अन्धकं च महाभोजं वृष्णि च यदुनन्दनम्। 
तेषां हि सर्गाश्चत्वारो विस्तरेणैव तच्छृणु ॥ ४८

भजमानस्य सृञ्जय्यां वाह्यकार्या च वाह्यकाः । 
संजयस्य सुते द्वे तु वाह्यकास्तु तदाभवन् ॥ ४९

तस्य भार्ये भगिन्यौ द्वे सुषुवाते बहून् सुतान्।
निमिं च कृमिलं चैव वृष्णि परपुरंजयम्। 
ते वाह्यकायां सुंजय्यां भजमानाद् विजज्ञिरे ॥ ५

जीमूत का पुत्र विमल और विमलका पुत्र भीमरथ हुआ। भीमरथका पुत्र नवरथ नामसे प्रसिद्ध था। नवरथका पुत्र दृढरथ और उसका पुत्र शकुनि था। शकुनिसे करम्भ और करम्भसे देवरात उत्पन्न हुआ। देवरातका पुत्र महायशस्वी राजा देवक्षत्र हुआ। देवक्षत्रका पुत्र देव-पुत्रकी-सी कान्तिसे युक्त महातेजस्वी मधु नामसे उत्पन्न हुआ। मधुका पुत्र पुरवस् तथा पुरवस्का पुत्र पुरुषश्रेष्ठ पुरुद्वान् था। पुरुद्वान्‌के संयोगसे विदर्भ- राजकुमारी भद्रसेनीके गर्भसे जन्तु नामक पुत्रने जन्म लिया। उस जन्तुकी पत्नी ऐक्ष्वाकी हुई, उसके गर्भसे उत्कृष्ट बल-पराक्रमसे सम्पन्न एवंसात्त्वतवंशि यों (या आप) की कीर्तिका विस्तारक सात्त्वत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। इस प्रकार महात्मा ज्यामघकी इस संतान- परम्पराको जानकर मनुष्य पुत्रवान् हो जाता है 

और अन्तमें बुद्धिमान् राजा सोमका सायुज्य प्राप्त कर लेता है। राजन्। कौसल्या (सात्त्वतकी पत्नी थी। उसने) सात्त्वतके संयोगसे जिन बल-पराक्रमसम्पन्न पुत्रोंको जन्म दिया, उनके नाम हैं- भजि, भजमान, दिव्य राजा देवावृध, अन्धक, महाभोज और यदुकुलको आनन्द प्रदान करनेवाले वृष्णि। इनमें चार वंशका विस्तार हुआ। अब उसका विस्तारपूर्वक वर्णन श्रवण कीजिये। संजयकी दो कन्याएँ सृजयी और वाह्यका भजमानकी पलियाँ थीं। इनसे वाह्यक नामक पुत्र उत्पन्न हुए। इनके अतिरिक्त उन दोनों बहनोंने और भी बहुत-से पुत्रोंको जन्म दिया था। उनके नाम हैं-निमि, कृमिल और शत्रु-नगरीको जीतनेवाला वृष्णि। ये सभी भजमानके संयोगसे सुंजयी और वाह्यकाके गर्भसे उत्पन्न हुए थे ॥ ४१-५० ॥

जज्ञे देवावृधो राजा बन्धूनां मित्रवर्धनः ।
अपुत्रस्त्वभवद् राजा चचार परमं तपः । 
पुत्रः सर्वगुणोपेतो मम भूयादिति स्पृहन् ॥ ५१

संयोज्य मन्त्रमेवाथ पर्णाशाजलमस्पृशत् । 
तदोपस्पर्शनात् तस्य चकार प्रियमापगा ॥ ५२

कल्याणत्वान्नरपतेस्तस्मै सा निम्नगोत्तमा। 
चिन्तयाथ परीतात्मा जगामाथ विनिश्चयम् ॥ ५३

नाधिगच्छाम्यहं नारीं यस्यामेवंविधः सुतः । 
जायेत तस्मादद्याहं भवाम्यथ सहस्रशः ॥ ५४

अथ भूत्वा कुमारी सा बिभ्रती परमं वपुः ।
ज्ञापयामास राजानं तामियेष महाव्रतः ॥ ५५

अथ सा नवमे मासि सुषुवे सरितां वरा। 
पुत्रं सर्वगुणोपेतं बभुं देवावृधान्नृपात् ॥ ५६

अनुवंशे पुराणज्ञा गायन्तीति परिश्रुतम्। 
गुणान् देवावृधंस्यापि कीर्तयन्तो महात्मनः ॥ ५७

यथैव शृणुमो दूरादपश्यामस्तथान्तिकात्। 
बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः ॥ ५८

षष्टिशतं च पूर्वपुरुषाः सहस्राणि च सप्ततिः ।
एतेऽमृतत्वं सम्प्राप्ता बनोर्देवावृधान्नृप ॥ ५९

यज्वा दानपतिर्वीरो ब्रह्मण्यश्च दृढव्रतः ।
रूपवान् सुमहातेजाः श्रुतवीर्यधरस्तथा ॥ ६०

अथ कङ्कस्य दुहिता सुषुवे चतुरः सुतान्।
कुकुरं भजमानं च शशि कम्बलबर्हिषम् ॥ ६१

कुकुरस्य सुतो वृष्णिर्वृष्णोस्तु तनयो धृतिः ।
कपोतरोमा तस्याथ तैत्तिरिस्तस्य चात्मजः ॥ ६२

तस्यासीत् तनुजः सर्पों विद्वान् पुत्रो नलः किल। 
ख्यायते तस्य नाम्ना स नन्दनो दरदुन्दुभिः ॥ ६३

तत्पश्चात् राजा देवावृधका जन्म हुआ, जो बन्धुओंके साथ सुदृढ़ मैत्रीके प्रवर्धक थे। परंतु राजा (देवावृध) को कोई पुत्र न था। उन्होंने 'मुझे सम्पूर्ण सदुणोंसे सम्पन्न पुत्र पैदा हो' ऐसी अभिलाषासे युक्त हो अत्यन्त घोर तप किया। अन्तमें उन्होंने मन्त्रको संयुक्त कर पर्णाशा नदीके जलका स्पर्श किया। इस प्रकार स्पर्श करनेके कारण पर्णाशा नदी राजाका प्रिय करनेका विचार करने लगी। वह श्रेष्ठ नदी उस राजाके कल्याणको चिन्तासे व्याकुल हो उठी। अन्तमें वह इस निश्वयपर पहुंची कि मैं ऐसी किसी दूसरी स्त्रीको नहीं देख पा रही हूँ, जिसके गर्भसे इस प्रकारका (राजाको अभिलाषाके अनुसार) पुत्र पैदा हो सके, इसलिये आज मैं स्वयं ही हजारों प्रकारका रूप धारण करूँगी। तत्पश्चात् पर्णाशाने परम सुन्दर शरीर धारण करके कुमारीरूपमें प्रकट होकर राजाको सूचित किया। तब महान् व्रतशाली राजाने उसे (पत्नीरूपसे) स्वीकार कर लिया। तदुपरान्त नदियोंमें श्रेष्ठ पर्णाशाने राजा देवावृधके संयोगसे नवें महीनेमें सम्पूर्ण सद्गुणोंसे सम्पन्न बभ्रु नामक पुत्रको जन्म दिया। 

पुराणोंके ज्ञाता विद्वान्‌लोग वंशानुकीर्तनप्रसङ्गमें महात्मा देवावृधके गुणोंका कीर्तन करते हुए ऐसी गाथा गाते हैं- उदार प्रकट करते हैं- 'इन (बभ्रु) के विषयमें हमलोग जैसा (दूरसे) सुन रहे थे, उसी प्रकार (इन्हें) निकट आकर भी देख रहे हैं। बच्नु तो सभी मनुष्योंमें श्रेष्ठ हैं और देवावृध (साक्षात्) देवताओंके समान हैं। राजन् । बच्नु और देवावृधके प्रभावसे इनके छिहत्तर हजार पूर्वज अमरत्वको प्राप्त हो गये। राजा बनु यज्ञानुष्ठानी, दानशील, शूरवीर, ब्राह्मणभक्त, सुदृढ़वती, सौन्दर्यशाली, महान् तेजस्वी तथा विख्यात बल-पराक्रमसे सम्पन्न थे। तदनन्तर (बभ्रुके संयोगसे) कङ्ककी कन्याने कुकुर, भजमान, शशि और कम्बलबर्हिष नामक चार पुत्रोंको जन्म दिया। कुकुरका पुत्र वृष्णि वृष्णिका पुत्र धृति, उसका पुत्र कपोतरोमा, उसका पुत्र तैत्तिरि, उसका पुत्र सर्प, उसका पुत्र विद्वान् नल था। नलका पुत्र दरदुन्दुभि नामसे कहा जाता था ॥ ५१-६३ ॥

तस्मिन् प्रवितते यज्ञे अभिजातः पुनर्वसुः । 
अश्वमेधं च पुत्रार्थमाजहार नरोत्तमः ॥ ६४

तस्य मध्येऽतिरात्रस्य सभामध्यात् समुत्थितः । 
अतस्तु विद्वान् कर्मज्ञो यज्वा दाता पुनर्वसुः ॥ ६५

तस्यासीत् पुत्रमिथुनं बभूवाविजितं किल । 
आहुकश्चाहुकी चैव ख्यातं मतिमतां वर ॥ ६६

इमांश्चोदाहरन्त्यत्र श्लोकान् प्रति तमाहुकम् । 
सोपासङ्गानुकर्षाणां सध्वजानां वरूथिनाम् ॥ ६७

रथानां मेघघोषाणां सहस्त्राणि दशैव तु। 
नासत्यवादी नातेजा नायज्वा नासहस्त्रदः ॥ ६८

नाशुचिर्नाप्यविद्वान् हि यो भोजेष्वभ्यजायत। 
आहुकस्य भृतिं प्राप्ता इत्येतद् वै तदुच्यते ॥ ६९

आहुकश्चाप्यवन्तीषु स्वसारं चाहुर्की ददौ।
आहुकात् काश्यदुहिता द्वौ पुत्रौ समसूयत ॥ ७०

देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ ।
देवकस्य सुता वीरा जज्ञिरे त्रिदशोपमाः ॥ ७१

देववानुपदेवश्च सुदेवो देवरक्षितः । 
तेषां स्वसारः सप्तासन् वसुदेवाय ता ददौ ॥ ७२

देवकी श्रुतदेवी च मित्रदेवी यशोधरा। 
श्रीदेवी सत्यदेवी च सुतापी चेति सप्तमी ॥ ७३

नरश्रेष्ठ दरदुन्दुभि पुत्रप्राप्तिके लिये अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान कर रहे थे। उस विशाल यज्ञमें पुनर्वसु नामक पुत्र प्रादुर्भूत हुआ। पुनर्वसु अतिरात्रके मध्यमें सभाके बीच प्रकट हुआ था, इसलिये वह विद्वान्, शुभाशुभ कर्मोंका ज्ञाता, यज्ञपरायण और दानी था। बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ राजन् । पुनर्वसुके आहुक नामका पुत्र और आहुकी नामकी कन्या-ये जुड़वों संतान पैदा हुईं। इनमें आहुक अजेय और लोकप्रसिद्ध था। उन आहुकके प्रति विद्वान् लोग इन श्लोकोंको गाया करते हैं- 'राजा आहुकके पास दस हजार ऐसे रथ रहते थे, जिनमें सुदृढ़ उपासङ्ग (कूबर) एवं अनुकर्ष (धूरे) लगे रहते थे, जिनपर ध्वजाएँ फहराती रहती थीं, जो कवचसे सुसज्जित रहते थे तथा जिनसे मेघकी घरघराहटके सदृश शब्द निकलते थे। उस भोजवंशमें ऐसा कोई राजा नहीं पैदा हुआ जो असत्यवादी, निस्तेज, यज्ञविमुख, सहस्रोंकी दक्षिणा देनेमें असमर्थ, अपवित्र और मूर्ख हो।' राजा आहुकसे भरण-पोषणकी वृत्ति पानेवाले लोग ऐसा कहा करते थे। आहुकने अपनी बहन आहुकीको अवन्ती-नरेशको प्रदान किया था। आहुकके संयोगसे काश्यकी कन्याने देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्रोंको जन्म दिया। वे दोनों देव-पुत्रोंके सदृश कान्तिमान् थे। देवकके देवताओंके समान कान्तिमान् एवं पराक्रमी चार शूरवीर पुत्र उत्पन्न हुए। उनके नाम हैं- देववान्, उपदेव, सुदेव और देवरक्षित। इनके सात बहनें भी थीं, जिन्हें देवकने वसुदेवको समर्पित किया था। उनके नाम हैं-देवकी, श्रुतदेवी, मित्रदेवी, यशोधरा, श्रीदेवी, सत्यदेवी और सातवीं सुतापी ॥ ६४-७३ ॥

नवोग्रसेनस्य सुताः कंसस्तेषां तु पूर्वजः ।
न्यग्रोधश्च सुनामा च कङ्कः शङ्कुश्च भूयशः ॥ ७४

अजभू राष्ट्रपालश्च युद्धमुष्टिः सुमुष्टिदः ।
तेषां स्वसारः पञ्चासन् कंसा कंसवती तथा ।। ७५

सुतन्तू राष्ट्रपाली च कङ्का चेति वराङ्गनाः।
उग्रसेनः सहापत्यो व्याख्यातः कुकुरोद्भवः॥ ७६

भजमानस्य पुत्रोऽथ रथिमुख्यो विदूरथः । 
राजाधिदेवः शूरश्च विदूरथसुतोऽभवत् ।। ७७

राजाधिदेवस्य सुतो जज्ञाते देवसम्मितौ। 
नियमन्नतप्रधानौ शोणाश्वः श्वेतवाहनः ॥ ७८

शोणाश्वस्य सुताः पञ्च शूरा रणविशारदाः । 
शमी च देवशर्मा च निकुन्तः शक्रशत्रुजित् ॥ ७९

शमिपुत्रः प्रतिक्षत्रः प्रतिक्षत्रस्य चात्मजः । 
प्रतिक्षेत्रः सुतो भोजो हृदीकस्तस्य चात्मजः ॥ ८०

हृदीकस्याभवन् पुत्रा दश भीमपराक्रमाः ।
कृतवर्माग्रजस्तेषां शतधन्वा च मध्यमः ॥ ८१

देवार्हश्चैव नाभश्च धिषणश्च महाबलः । 
अजातो वनजातश्च कनीयककरम्भकौ ॥ ८२

देवार्हस्य सुतो विद्वाञ्जज्ञे कम्बलबर्हिषः । 
असोमजाः सुतस्तस्य तमोजास्तस्य चात्मजः ।। ८३

अजातपुत्रा विक्रान्तास्त्रयः परमकीर्तयः । 
सुदंष्ट्वश्च सुनाभश्च कृष्ण इत्यन्धका मताः ॥ ८४

अन्धकानामिमं वंशं यः कीर्तयति नित्यशः । 
आत्मनो विपुलं वंशं प्रजावानाप्नुते नरः ॥ ८५

उग्रसेनके नौ पुत्र थे, उनमें कंस ज्येष्ठ था। उनके नाम हैं- न्यग्रोध, सुनामा, कङ्क, शङ्कु अजभू, राष्ट्रपाल, युद्धमुष्टि और सुमुष्टिद। उनके कंसा, कंसवती, सतन्तु, राष्ट्रपाली और कङ्का नामकी पाँच बहनें भी थीं, जो परम सुन्दरी थीं। अपनी संतानोंसहित उग्रसेन कुकुर-वंशमें उत्पन्न हुए कहे जाते हैं। भजमानका पुत्र महारथी विदूरथ और शूरवीर राजाधिदेव विदूरथका पुत्र हुआ। राजाधिदेवके शोणाश्च और श्वेतवाहन नामक दो पुत्र हुए, जो देवोंके सदृश कान्तिमान् और नियम एवं व्रतके पालनमें तत्पर रहनेवाले थे। शोणाश्वके शमी, देवशर्मा, निकुन्त, शक्र और शत्रुजित् नामक पाँच शूरवीर एवं युद्धनिपुण पुत्र हुए। शमीका पुत्र प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्रका पुत्र प्रतिक्षेत्र, उसका पुत्र भोज और उसका पुत्र हृदीक हुआ। हृदीकके दस अनुपम पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए, उनमें कृतवर्मा ज्येष्ठ और शतधन्वा मैझला था। शेषके नाम (इस प्रकार) हैं- देवार्ह, नाभ, धिषण, महाबल, अजात, बनजात, कनीयक और करम्भक । देवार्हके कम्बलबर्हिष नामक विद्वान् पुत्र हुआ। उसका पुत्र असोमजा और असोमजाका पुत्र तमोजा हुआ। इसके बाद सुदंष्ट्र,सुनाभ और कृष्ण नामके तीन राजा और हुए जो परम पराक्रमी और उत्तम कीर्तिवाले थे। इनके कोई संतान नहीं हुई। ये सभी अन्धकवंशी माने गये हैं। जो मनुष्य अन्धकोंके इस वंशका नित्य कीर्तन करता है वह स्वयं पुत्रवान् होकर अपने वंशकी वृद्धि करता है ॥ ७४-८५ ॥

इति श्रीमालये महापुराणे सोमवंशे चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४॥ 

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके सोमवंश-वर्णनमें चौवालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ४४ ॥

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