मत्स्य पुराण बावनवाँ अध्याय
कर्म योग की महत्ता
ऋषय ऊचुः
इदानीं प्राह यद् विष्णुः पृष्टः परममुत्तमम् ।
तमिदानीं समाचक्ष्व धर्माधर्मस्य विस्तरम् ॥ १
ऋषियोंने पूछा- सूतजी! सूर्यपुत्र मनुद्वारा पूछे जानेपर भगवान् विष्णुने उनसे धर्म और अधर्मके जिस परम उत्तम प्रसङ्गको विस्तारपूर्वक कहा था, वह इस समय आप हमलोगोंको बतलाइये ॥ १॥
सूत उवाच
एवमेकार्णवे तस्मिन् मत्स्यरूपी जनार्दनः ।
विस्तारमादिसर्गस्य प्रतिसर्गस्य चाखिलम् ॥ २
कथयामास विश्वात्मा मनवे सूर्यसूनवे।
कर्मयोगं च सांख्यं च यथावद् विस्तरान्वितम् ॥ ३
सूतजी कहते हैं-ऋषियो! प्रलयकालके उस एकार्णवके जलमें मत्स्यरूपधारी विश्वात्मा भगवान् विष्णुने सूर्यपुत्र मनुके प्रति सर्गक विस्तारका पूर्णरूपसे वर्णन किया था। साथ ही कर्मयोग और सांख्ययोगको भी उन्हें विस्तारपूर्वक यथार्थरूपसे बतलाया था (उसे ही में आपलोगोंको सुनाना चाहता हूँ) ॥ २-३॥
ऋषय ऊचुः
श्रोतुमिच्छामहे सूत कर्मयोगस्य लक्षणम्।
यस्मादविदितं लोके न किंचित् तव सुव्रत ॥ ४
ऋषियोंने पूछा- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले सूतजी! आपके लिये लोकमें कोई वस्तु अज्ञात तो है नहीं, अतः हमलोग आपसे कर्मयोगका लक्षण सुनना चाहते हैं॥ ४॥
सूत उवाच
कर्मयोगं च वक्ष्यामि यथा विष्णुविभाषितम् ।
ज्ञानयोगसहस्त्राब्द्धि कर्मयोगः प्रशस्यते ॥ ५
कर्मयोगोद्भवं ज्ञानं तस्मात् तत्परमं पदम् ।
कर्मज्ञानोद्धवं ब्रह्म न च ज्ञानमकर्मणः ॥ ६
तस्मात् कर्मणि युक्तात्मा तत्त्वमाप्नोति शाश्वतम्।
वेदोऽखिलो धर्ममूलमाचारश्चैव तद्विदाम् ॥ ७
अष्टावात्मगुणास्तस्मिन् प्रधानत्वेन संस्थिताः ।
दया सर्वेषु भूतेषु क्षान्ती रक्षाऽऽतुरस्य तु ॥ ८
अनसूया तथा लोके शौचमन्तर्बहिर्द्विजाः ।
अनायासेषु कार्येषु माङ्गल्याचारसेवनम् ॥ ९
न च द्रव्येषु कार्पण्यमार्तेषूपार्जितेषु च।
तथास्पृहा परद्रव्ये परस्त्रीषु च सर्वदा ॥ १०
अष्टावात्मगुणाः प्रोक्ताः पुराणस्य तु कोविदैः ।
अयमेव क्रियायोगो ज्ञानयोगस्य साधकः ॥ ११
कर्मयोगं विना ज्ञानं कस्यचिन्नेह दृश्यते।
श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममुपतिष्ठेत् प्रयत्नतः ॥ १२
देवतानां पितॄणां च मनुष्याणां च सर्वदा।
कुर्यादहरहर्यज्ञैर्भूतर्षिगणतर्पणम् ॥ १३
स्वाध्यायैरर्चयेच्चर्षीन् होमैर्विद्वान् यथाविधि।
पितृञ्श्रार्द्धरन्नदानैर्भूतानि बलिकर्मभिः ॥ १४
पञ्चैते विहिता यज्ञाः पञ्चसूनापनुत्तये।
कण्डनी पेषणी चुल्ली जलकुम्भी प्रमार्जनी ॥ १५
पञ्च सूना गृहस्थस्य तेन स्वर्ग न गच्छति।
तत्पापनाशनायामी पञ्च यज्ञाः प्रकीर्तिताः ॥ १६
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! विष्णुभगवान्ने जिस प्रकार कर्मयोगकी व्याख्या की थी, उसे मैं बतला रहा हूँ। कर्मयोग ज्ञानयोगसे हजारोंगुना अधिक प्रशस्त है; क्योंकि ज्ञान कर्मयोगसे ही प्रादुर्भूत होता है; अतः वह परमपद है। ब्रह्म भी कर्मज्ञानसे उद्भूत होता है। कर्मके बिना तो ज्ञानकी सत्ता ही नहीं है। इसीलिये कर्मयोगके अभ्यासमें संलग्न मनुष्य अविनाशी तत्त्वको प्राप्त कर लेता है। सम्पूर्ण वेद और वेदज्ञोंके आचार-विचार धर्मके मूल हैं। उनमें आठ प्रकारके आत्मगुण प्रधानरूपसे विद्यमान रहते हैं; जैसे समस्त प्राणियोंपर दया, क्षमा, दुःखसे पीडित प्राणीको आश्वासन प्रदान करना और उसकी रक्षा करना, जगत्में किसीसे ईर्ष्या- द्वेष न करना, बाह्य एवं आन्तरिक पवित्रता, परिश्रमरहित अथवा अनायास प्राप्त हुए कार्यकि अवसरपर उन्हें माङ्गलिक आचार- व्यवहारके द्वारा सम्पन्न करना, अपने द्वारा उपार्जित द्रव्योंसे दीन-दुखियोंकी सहायता करते समय कृपणता न करना तथा पराये धन और परायी स्त्रीके प्रति सदा निःस्पृह रहना-पुराणोंके ज्ञाता विद्वानोंद्वारा ये आठ आत्मगुण बतलाये गये हैं।
यही कर्मयोग ज्ञानयोगका साधक है। जगत्में कर्मयोगके बिना किसीको ज्ञानकी प्राप्ति हुई हो, ऐसा नहीं देखा गया है; इसलिये श्रुतियों एवं स्मृतियोंद्वारा कहे गये धर्मका प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। प्रतिदिन सर्वदा देवताओं, पितरों और मनुष्योंको यज्ञोंद्वारा तृप्त करना चाहिये। साथ ही पितरों और ऋषियोंके तर्पणका कार्य भी कर्तव्य है। विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह स्वाध्यायद्वारा देवताओंकी, हवनद्वारा ऋषियोंकी, श्राद्धद्वारा पितरोंकी, अनद्वारा अतिथियोंकी तथा बलिकर्मद्वारा मृत प्राणियोंकी विधिपूर्वक अर्चना करे। गृहस्थोंके घरमें जीवहिंसाके पाँच प्रकारके स्थानोंपर घटित हुए पापकी निवृत्तिके लिये इन पाँच प्रकारके यज्ञोंका विधान बतलाया गया है। गृहस्थके घरमें जीवहिंसाके पाँच स्थान ये हैं-कण्डनी (वस्तुओंके कूटनेका पात्र ओखली, खरल आदि), पेषणी (पीसनेका उपकरण चक्की, सिलवट आदि), चुल्ली (चूल्हा), जलकुम्भी (पानी रखे जानेवाले घड़े) और प्रमार्जनी (झाड़ आदि)। इन स्थानोंपर उत्पन्न हुए पापके कारण गृहस्थ पुरुष स्वर्ग नहीं जा सकता, अतः उन पापोंके विनाशके लिये ये पाँचों यज्ञ बतलाये गये हैं ॥५- १६ ॥
द्वात्रिंशच्च तथाष्टी च ये संस्काराः प्रकीर्तिताः ।
तद्युक्तोऽपि न मोक्षाय यस्त्वात्मगुणवर्जितः ॥ १७
तस्मादात्मगुणोपेतः श्रुतिकर्म समाचरेत्।
गोब्राह्मणानां वित्तेन सर्वदा भद्रमाचरेत् ॥ १८
गोधूहिरण्यवासोभिर्गन्धमाल्योदकेन च।
पूजयेद् ब्रह्मविष्णवर्करुद्रवस्वात्मकं शिवम् ॥ १९
व्रतोपवासैर्विधिवच्छूद्धया च विमत्सरः ।
योऽसावतीन्द्रियः शान्तः सूक्ष्मोऽव्यक्तः सनातनः ।
वासुदेवो जगन्मूर्तिस्तस्य सम्भूतयो हामी ॥ २०
ब्रह्मा विष्णुश्च भगवान् मार्तण्डो वृषवाहनः ।
अष्टौ च वसवस्तद्वदेकादश गणाधिपाः ।
लोकपालाधिपाश्चैव पितरो मातरस्तथा ॥ २१
इमा विभूतयः प्रोक्ताश्चराचरसमन्विताः ।
ब्रह्माद्याश्चतुरो मूलमव्यक्ताधिपतिः स्मृतः ॥ २२
ब्रह्मणा चाथ सूर्येण विष्णुनाथ शिवेन वा।
अभेदात् पूजितेन स्यात् पूजितं सचराचरम् ॥ २३
ब्रह्मादीनां परं धाम त्रयाणामपि संस्थितिः ।
वेदमूर्तावतः पूषा पूजनीयः प्रयत्नतः ॥ २४
तस्मादग्निद्विजमुखान् कृत्वा सम्पूजयेदिमान् ।
दानैव्रतोपवासैश्च जपहोमादिना नरः ।। २५
इति क्रियायोगपरायणस्य वेदान्तशास्त्रस्मृतिवत्सलस्य ।
विकर्मभीतस्य सदा न किंचित् प्राप्तव्यमस्तीह परे च लोके ॥ २६
द्विजातियोंके लिये जो चालीस प्रकारके संस्कार बतलाये गये हैं, उनसे संस्कृत होनेपर भी जो मनुष्य (उपर्युक्त आठ) आत्मगुणोंसे रहित है, वह मोक्षका भागी नहीं हो सकता। इसलिये आत्मगुणोंसे सम्पन्न होकर ही वैदिक कर्मका अनुष्ठान करना चाहिये। गृहस्थको सदा उपार्जित धनद्वारा गौओं और ब्राह्मणोंका कल्याण करना चाहिये। उसका कर्तव्य है कि वह व्रत एवं उपवास आदि करके गौ, पृथ्वी, सुवर्ण, वस्त्र, गन्ध, माला और जल आदिसे ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य, रुद्र और वसुस्वरूप शिवकी श्रद्धापूर्वक विधिसहित पूजा करे; इसमें कृपणता न करे। जो ये इन्द्रियोंके अगोचर, परम शान्त, सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, अव्यक्त, अविनाशी एवं विश्वस्वरूप भगवान् वासुदेव हैं,उन्होंकी ये विभूतियाँ हैं। उन विभूतियोंके नाम ये हैं- ब्रह्मा, भगवान् विष्णु, सूर्य, शिव, आठ वसु, ग्यारह गणाधिप, लोकपालाधीश्वर, पितर और मातृकाएँ।
चराचर जगत्सहित ये सभी विभूतियाँ बतलायी गयी हैं। ब्रह्मा आदि चार (ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य, शिव) देवता मूलरूपसे इस जगत्के अव्यक्त अधिपति कहे जाते हैं। इसलिये ब्रह्मा, सूर्य, विष्णु अथवा शिवकी अभेदभावसे पूजा करनेपर चराचर जगत्की पूजा सम्पन्न हो जाती है। सूर्य ब्रह्मा आदि तीनों देवताओंके परम धाम हैं, जिनमें वे निवास करते हैं। सूर्यदेव वेदोंके मूर्तस्वरूप हैं, अतः इनकी प्रयत्नपूर्वक पूजा करनी चाहिये। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह अग्नि अथवा ब्राह्मणोंके मुखोंमें इनका आवाहन करके दान, व्रत, उपवास, जप, हवन आदि- द्वारा इनकी पूजा करे। इस प्रकार जो मनुष्य कर्मयोगनिष्ठ, वेदान्तशास्त्र और स्मृतियोंका प्रेमी तथा अधर्मसे सदा भयभीत रहता है, उसके लिये इस लोक अथवा परलोकमें कुछ भी प्राप्तव्य नहीं रह जाता, अर्थात् सभी पदार्थ उसके हस्तगत हो जाते हैं ॥ १७-२६ ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे कर्मयोगमाहात्म्यं नाम द्विपञ्चाशोऽध्यायः ॥ ५२ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें कर्मयोगमाहात्म्यनामक बावनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ५२ ॥
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