श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग चौंतीसवाँ अध्याय
गणेशेश दान विधि
सनत्कुमार उवाच
गणेशेशं प्रवक्ष्यामि दानं पूर्वोक्तमण्डपे।
सम्पूज्य देवदेवेशं लोकपालसमावृतम् ॥ १
विश्वेश्वरान् यथाशास्त्रं सर्वाभरणसंयुतान्।
दशनिष्केण वै कृत्वा सम्पूज्य च विधानतः ॥ २
अष्टदिश्वष्टकुण्डेषु पूर्ववद्धोममाचरेत् ।
पञ्चावरणमार्गेण पारम्पर्यक्रमेण च॥३
सनत्कुमार बोले- अब मैं गणेशेशदानका वर्णन करूँगा। पूर्वमें बतायी गयी रीतिसे निर्मित किये गये मण्डप में लोक पालौं सहित देवदेवेश्वर सदाशिवका पूजन करके दस निष्क सुवर्णसे आठों दिक्पालोंकी प्रतिमा बनाकर उन्हें यथाशास्त्र सभी आभरणोंसे विभूषित करके विधिपूर्वक उनका पूजनकर आठों दिशाओंमें आठ कुण्डों में पंचावरण मार्गसे तथा परम्पराक्रमसे पूर्वकी भाँति होम करना चाहिये ॥ १-३॥
सप्तविप्रान् समभ्यर्च्य कन्यामेकां तथोत्तरे।
दापयेत्सर्वमन्त्राणि स्वैः स्वैर्मन्त्रैरनुक्रमात् ॥ ४
दत्त्वैवं सर्वपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥ ५
तत्पश्चात् सात विप्रोंकी तथा उत्तर दिशामें एक कन्याकी विधिपूर्वक पूजा करके अनुक्रमसे अपने- अपने देवतामन्त्रों से सभी देवप्रतिमाओंका दान कर देना चाहिये। इस प्रकार दान करके मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है॥ ४-५ ॥
।। इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे गणेशेशदानविधिनिरूपणं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'गणेशेशदानविधिनिरूपण' नामक चौतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३४ ॥
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