श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग बत्तीसवाँ अध्याय
सुवर्ण पृथ्वी महा दान विधि
सनत्कुमार उवाच
जपहोमार्चनादानाभिषेकाद्यं च पूर्ववत् ।
सुवर्णमेदिनीदानं प्रवक्ष्यामि समासतः ॥ १
पूर्वोक्तदेशकाले तु कारयेन्मुनिभिः सह।
लक्षणेन यथापूर्व कुण्डे वा मण्डलेऽथ वा ॥ २
सनत्कुमार बोले- अब मैं सुवर्णमेदिनीदानका संक्षेपमें वर्णन करूँगा। जप, होम, पूजा, दान, अभिषेक आदि कृत्य पूर्वोक्त देशकालमें पूर्वकी भाँति मुनियोंके द्वारा सम्पन्न कराये जाने चाहिये। यह कार्य पूर्वकथित लक्षणकी भाँति कुण्डमें या मण्डलमें किया जाना चाहिये ॥ १-२ ॥
मेदिनीं कारयेद्दिव्यां सहस्त्रेणापि वा पुनः।
एकहस्ता प्रकर्तव्या चतुरस्त्रा सुशोभना ।। ३
सप्तद्वीपसमुद्राडौः पर्वतैरभिसंवृता।
सर्वतीर्थसमोपेता मध्ये मेरुसमन्विता ॥ ४
अथवा मध्यतो द्वीपं नवखण्डं प्रकल्पयेत्।
पूर्ववन्निखिलं कृत्वा मण्डले वेदिमध्यतः ॥ ५
सप्तभागैकभागेन सहस्त्राद्विधिपूर्वकम्।
शिवभक्ते प्रदातव्या दक्षिणा पूर्वचोदिता ॥ ६
सहस्त्रकलशाहद्यैश्च शङ्करं पूजयेच्छिवम्।
सुवर्णमेदिनीप्रोक्तं लिङ्गेऽस्मिन् दानमुत्तमम् ॥ ७
एक हजार सुवर्णमुद्राओंसे अथवा उसके आधे अथवा उसके आधेसे दिव्य पृथ्वीका आकार बनाना लम्बी-चौड़ी बनाये। वह सात द्वीपों, समुद्रों तथा चाहिये। उसे चौकोर, अत्यन्त सुन्दर तथा एक हाथ पर्वतोंसे घिरी हुई हो; सभी तीर्थोसे युक्त हो तथा मध्यमें मेरुसे सुशोभित हो। मध्य भागमें नौखण्डोंके साथ जम्बूद्वीपका निर्माण करे। मण्डलमें वेदीके मध्य पूर्वकी भाँति सम्पूर्ण कृत्य करके सहस्र स्वर्णमुद्राओंके सातवें भागको शिवभक्तको विधिपूर्वक देना चाहिये; इसमें दक्षिणा पूर्वकी भाँति बतायी गयी है। हजार कलश आदिके द्वारा कल्याणकारी भगवान् शिवकी पूजा करनी चाहिये। इस लिङ्गपुराणमें कहा गया सुवर्णमेदिनीदान अत्यन्त श्रेष्ठ है॥३-७॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे सुवर्णमेदिनीदानं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'सुवर्णमेदिनीदान' नामक बत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३२ ॥
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