लिंग पुराण : कल्प पादप दान विधि | Linga Purana: Kalpa Plant Donation Method

श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग तैंतीसवाँ अध्याय

कल्पपादप दान विधि

सनत्कुमार उवाच

अथान्यत्सम्प्रवक्ष्यामि कल्पपादपमुत्तमम् । 
शतनिष्केण कृत्वैवं सर्वशाखासमन्वितम् ।। १

शाखानां विविधं कृत्वा मुक्तादामाद्यलम्बनम्। 
दिव्यैर्मारकतैश्चैव चाङ्कराग्रं प्रविन्यसेत् ॥ २

प्रवालं कारयेद्विद्वान् प्रवालेन द्रुमस्य तु। 
फलानि पद्मरागैश्च परितोऽस्य सुशोभयेत् ॥ ३

मूलं च नीलरत्नेन वज्रेण स्कन्धमुत्तमम् । 
वैडूर्येण द्रुमाग्रं च पुष्परागेण मस्तकम् ॥ ४

गोमेदकेन वै कन्दं सूर्यकान्तेन सुव्रत। 
चन्द्रकान्तेन वा वेदिं द्रुमस्य स्फटिकेन वा ॥५

सनत्कुमार बोले- अब मैं उत्तम कल्पवृक्षदानका वर्णन करूँगा। सौ निष्क सुवर्णसे सभी शाखाओंसे युक्त एक कल्पवृक्ष बनाकर उसको समस्त शाखाओंमें मोतियोंकी माला लटकाकर दिव्य मरकत मणिसे अंकुरका अग्रभाग बनाये। विद्वान्‌को चाहिये कि प्रवाल (मूँगे) से वृक्षका किसलय बनाये और उसमें चारों और पद्मराग मणियोंसे फल बनाये। नीलमणिसे उस वृक्षका मूल, हीरेसे सुन्दर स्कन्ध (तना), वैदूर्य मणिसे वृक्षका अग्रभाग और पुष्पराग (पुखराज) से मस्तक बनाये। हे सुव्रत । गोमेदसे वृक्षका कन्द और सूर्यकान्त, चन्द्रकान्त अथवा स्फटिक मणिसे वृक्षके चारों ओर वेदी बनाये ॥ १-५॥ 

वितस्तिमात्रमायामं वृक्षस्य परिकीर्तितम् । 
शाखाष्टकस्य मानं च विस्तारं चोर्ध्वतस्तथा ।। ६

तन्मूले स्थापयेल्लिङ्ग लोकपालैः समावृतम् । 
पूर्वोक्तवेदिमध्ये तु मण्डले स्थाप्य पादपम् ॥ ७

पूजयेद्देवमीशानं लोकपालांश्च यत्नतः ।
पूर्ववज्जपहोमाद्यं तुलाभारवदाचरेत् ॥ ८

निवेदयेद्रुमं शम्भोयोंगिनां वाथ वा नृप।
भस्माङ्गिभ्योऽथ वा राजा सार्वभौमो भविष्यति ॥ ९ ।

कल्पवृक्षकी ऊँचाई एक वितस्ति (बारह अंगुल) कही गयी है। उसकी आठ शाखाओंका विस्तार इतने ही प्रमाण वाला होना चाहिये। उस वृक्षके मूलमें लोकपालॉसहित शिवलिङ्गकी स्थापना करनी चाहिये। मण्डलमें पूर्वोक्त वेदीके मध्यमें कल्पवृक्षको स्थापित करके प्रयत्नपूर्वक भगवान् शिव तथा लोकपालोंकी पूजा करनी चाहिये। जप, होम आदि पूर्वकी भाँति तुलादानके समान ही करना चाहिये। हे राजन्। अन्तमें इस वृक्षको शिवजीको अर्पण कर देना चाहिये अथवा भस्मधारी योगियोंको दान कर देना चाहिये। इसे करनेवाला मनुष्य अगले जन्ममें सार्वभौम (चक्रवर्ती) राजा होगा ॥ ६-९ ॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे कल्पपादपदानविधिर्नाम प्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तर भागमें 'कल्पपादपदानविधि' नामक तैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३३ ॥ 

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