लिंग पुराण : राजाओं को विजय प्राप्ति कराने वाले विजय मण्डल के निर्माण तथा पूजन की विधि | Linga Purana: Method of construction and worship of Vijay Mandal which helps the kings achieve victory

श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग सत्ताईसवाँ अध्याय

राजा ओं को विजय प्राप्ति कराने वाले विजय मण्डल के निर्माण तथा पूजन की विधि एवं जयाभिषेक का वर्णन; स्वायम्भुव मनु और विभिन्न देवताओं के जयाभिषेक का विवरण

ऋषय ऊचुः

प्रभावो नन्दिनश्चैव लिङ्गपूजाफलं श्रुतम्। 
श्रुतिभिः सम्मितं सर्वं रोमहर्षण सुव्रत ॥ १

ऋषिगण बोले- हे रोमहर्षण! हे सुव्रत। हम लोगों ने [भगवान्] नन्दीका प्रभाव तथा वेदप्रतिपादित लिङ्गपूजाका फल- यह सब [आपसे] सुन लिया ॥ १॥

जयाभिषेक ईशेन कथितो मनवे पुरा। 
हिताय मेरुशिखरे क्षत्रियाणां त्रिशूलिना ॥ २

तत्कथं षोडशविधं महादानं च शोभनम्। 
वक्तुमर्हसि चास्माकं सूत बुद्धिमतां वर ॥ ३

त्रिशूलधारी महेश्वर शिवने क्षत्रियोंके कल्याणके लिये पूर्व कालमें मेरुपर्वतके शिखरपर स्वायम्भुव मनुको जयाभिषेक का उपदेश किया था, उसे बतायें; और हे बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ सूतजी। उत्तम षोडशविध महादानका विधान क्या है- यह सब आप कृपापूर्वक हमलोगोंको बतायें ॥ २-३ ॥

सूत उवाच

जीवच्छ्राद्धं पुरा कृत्वा मनुः स्वायम्भुवः प्रभुः । 
मेरुमासाद्य देवेशमस्तवीन्नीललोहितम् ।। ४

तपसा च विनीताय प्रहृष्टः प्रददौ भवः। 
दर्शनमीशानस्तेनापश्यत्तमव्ययम् ॥ ५
 

दिव्यं नत्वा सम्पूज्य विधिना कृताञ्जलिपुटः स्थितः । 
हर्षगद्गदया वाचा प्रोवाच च ननाम च ॥ ६

सूतजी बोले- प्राचीन कालमें प्रभु स्वायम्भुव मनुने जीवच्छ्राद्ध करके मेरुशिखरपर पहुँचकर देवेश्वर नीललोहितका स्तवन किया था तब उनकी तपस्यासे भगवान् शिव प्रसन्न हो गये और उन्होंने उन विनम्र मनुको दिव्य दृष्टि प्रदान की; फलतः उन्होंने अव्यय शिवको देखा और उन्हें प्रणाम करके विधिवत् पूजा करके दोनों हाथ जोड़े हुए वे स्थित हो गये। मनुने शिवजीको पुनः प्रणाम किया और हर्षयुक्त गद्गद वाणीमें उनसे कहा- ॥४-६॥

देवदेव जगन्नाथ नमस्ते भुवनेश्वर।
जीवच्छ्राद्धं महादेव प्रसादेन विनिर्मितम् ॥ ७

पूजितश्च ततो देवो दृष्टश्चैव मयाधुना।
शक्राय कथितं पूर्व धर्मकामार्थमोक्षदम् ॥ ८

जयाभिषेकं देवेश वक्तुमर्हसि मे प्रभो।

सूत उवाच

तस्मै देवो महादेवो भगवान्नीललोहितः ॥ ९
जयाभिषेकमखिलमवदत्परमेश्वरः ।

श्रीभगवानुवाच

जयाभिषेकं वक्ष्यामि नृपाणां हितकाम्यया ॥ १०

अपमृत्युजयार्थं च सर्वशत्रुजयाय च। 
युद्धकाले तु सम्प्राप्ते कृत्वैवमभिषेचनम् ॥ ११

हे देवदेव! हे जगन्नाथ। हे भुवनेश्वर ! आपको नमस्कार है। हे महादेव। आपकी कृपासे मैंने अपना जीवच्छ्राद्ध कर लिया। मैंने आपकी पूजा की, उससे मुझे इस समय आप प्रभुका दर्शन प्राप्त हुआ है। हे देवेश! आपने प्राचीन कालमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करनेवाले जयाभिषेकका उपदेश इन्द्रको किया था; हे प्रभो। उसे मुझे भी बतानेकी कृपा कीजिये सूतजी बोले- तदनन्तर नीललोहित भगवान् परमेश्वर महादेवने उन मनुको सम्पूर्ण जयाभिषेकका उपदेश किया श्रीभगवान् बोले- राजाओंके हितकी कामनासे, अकाल मृत्युसे बचने तथा सभी शत्रुओंको जीतनेके लिये मैं आपसे जयाभिषेकका वर्णन करूँगा। युद्ध- काल उपस्थित होनेपर यथाविधि जयाभिषेक करके तथा अपने स्वामी राजसेनाधिपतिका अभिषेक करके ही युद्ध करनेके लिये रणभूमिमें जाना चाहिये ॥ -११ ॥

स्वपतिं चाभिषिच्यैव गच्छेद्योद्धं रणाजिरे। 
विधिना मण्डपं कृत्वा प्रपां वा कृटमेव वा ॥ १२

नवधा स्थापयेद्वहिं ब्राह्मणो वेदपारगः। 
ततः सर्वाभिषेकार्थ सूत्रपातं च कारयेत् ॥ १३

प्रागाद्यं वर्णसूत्रं च दक्षिणाद्यं तथा पुनः। 
सहस्त्राणां द्वयं तत्र शतानां च चतुष्टयम् ॥ १४

शेषमेव शुभं कोष्ठं तेषु कोष्ठं तु संहरेत् । 
बाहो वीथ्यां पदं चैकं समन्तादुपसंहरेत् ॥ १५

अङ्गसूत्राणि सङ्गृह्य विधिना पृथगेव तु। 
प्रागाद्यं वर्णसूत्रं च दक्षिणाद्यं तथा पुनः ॥ १६

प्रागाद्यं दक्षिणाद्यं च षट्त्रिंशत्संहरेत्क्रमात् ।
प्रागाद्याः पङ्कयः सप्त दक्षिणाद्यास्तथा पुनः ॥ १७

तस्मादेकोनपञ्चाशत्पङ्कयः परिकीर्तिताः ।
नव पक्तीर्हरेन्मध्ये गन्धगोमयवारिणा ॥ १८

कमलं चालिखेत्तत्र हस्तमात्रेण शोभनम् ।
अष्टपत्रं सितं वृत्तं कर्णिकाकेसरान्वितम् ॥ १९

अष्टाङ्गुलप्रमाणेन कर्णिकाहेमसन्निभा।
चतुरङ्गुलमानेन केसरस्थानमुच्यते ॥ २०

विधिपूर्वक मण्डप, पानीयशाला तथा निश्चल स्थान बनाकर वेदके पारगामी विद्वान् ब्राह्मणको नौ प्रकारकी वह्निकी स्थापना करनी चाहिये। तदनन्तर सम्पूर्ण अभिषेकके लिये मण्डपमें रेखाकरण करना चाहिये पूर्व से पश्चिम तथा दक्षिणसे उत्तरकी ओर रैंगे हुए सूतसे रेखाएँ बनायें, जिससे दो हजार चार सौ कोष्ठ होंगे। सभी शुभ कोष्ठोंको बनाकर उनमेंसे शेष शुभ कोष्ठोंको लेकर बाहरवाली पंक्तिमें सब ओरसे एक-एक पदको ले इसके बाद अंगसूत्र लेकर विधिपूर्वक पृथक् प्रागाद्य तथा दक्षिणाद्य रंगा हुआ सूत डालना चाहिये; प्रागाद्य तथा दक्षिणाद्य छत्तीस रेखाएँ बनानी चाहिये। पुनः प्रागाद्य सात पंक्तियाँ और दक्षिणाद्य सात पंक्तियाँ बनाये, इस प्रकार उनचास पंक्तियाँ कही गयी हैं। उसके मध्य भागमें नौ पंक्तियाँ ग्रहण करनी चाहिये। गन्ध तथा गोमययुक्त जलसे लीपकर उसमें एक हाथ प्रमाणके सुन्दर, अष्टदलोंवाले, श्वेत, गोलाकार तथा कर्णिका केसरसे युक्त कमलकी रचना करनी चाहिये। कर्णिका आठ अंगुल प्रमाणको तथा सुवर्णके समान होनी चाहिये; केसरका स्थान चार अंगुल प्रमाणका बताया गया है॥ १२-२० ॥

धर्मों ज्ञानं च वैराग्यमैश्वर्यं च यथाक्रमम्। 
आग्नेयादिषु कोणेषु स्थापयेत्प्रणवेन तु ॥ २१

अव्यक्तादीनि वै दिक्षु गात्राकारेण वै न्यसेत् । 
अव्यक्तं नियतः कालः काली चेति चतुष्टयम् ॥ २२

सितरक्तहिरण्याभकृष्णा धर्मादयः क्रमात्। 
हंसाकारेण वै गात्रं हेमाभासेन सुव्रताः ॥ २३

आधारशक्तिमध्ये तु कमलं सृष्टिकारणम्। 
बिन्दुमात्रं कलामध्ये नादाकारमतः परम् ।। २४

नादोपरि शिवं ध्यायेदोङ्काराख्यं जगद्‌गुरुम् । 
मनोन्मनीं च पद्याभं महादेवं च भावयेत् ॥ २५

वामादयः क्रमेणैव प्रागाद्याः केसरेषु वै। 
वामा ज्येष्ठा तथा रौद्री काली विकरणी तथा ॥ २६

बला प्रमथिनी देवी दमनी च यथाक्रमम्। 
वामदेवादिभिः सार्धं प्रणवेनैव विन्यसेत् ॥ २७

आग्नेय आदि कोणोंमें प्रणव मन्त्रके द्वारा क्रमानुसार धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्यकी स्थापना करनी चाहिये। साथ ही चारों दिशाओंमें अव्यक्त, नियत, काल और कालीको बाह्य पत्राकाररूपमें स्थापित करना चाहिये। हे सुब्रतो । धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य- ये चारों क्रमसे श्वेत, रक्त, स्वर्णकी आभावाले तथा कृष्णवर्णवाले होने चाहिये और गात्र (बाह्यपत्र) हंसाकार तथा सुवर्णसदृश होना चाहिये आधारशक्तिके मध्यमें सृष्टिकारणरूप कमलकी तथा कलामध्यमें बिन्दुमात्र नादाकारकी कल्पना करे; तत्पश्चात् उस नादके ऊपर ओंकारसंज्ञक जगद्‌गुरु शिवका ध्यान करना चाहिये और मनोन्मनी तथा पद्मकी आभावाले महादेवकी भावना करनी चाहिये। तदनन्तर वामा, ज्येष्ठा, रौद्री, काली, विकरणी, बलविकरणी, बलप्रमथनी और सर्वभूतदमनी- इन वामा आदि आठ शक्तियोंका वामदेव आदि अष्ट शिव-मूर्तियोंके साथ प्रणवके उच्चारणपूर्वक पूर्वादिके क्रमसे केसरोंमें न्यास करना चाहिये ॥ २१-२७ ॥

नमोऽस्तु वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय शूलिने ॥ २८

रुद्राय कालरूपाय कलाविकरणाय च। 
बलाय च तथा सर्वभूतस्य दमनाय च ॥ २९

मनोन्मनाय देवाय मनोन्मन्यै नमो नमः। 
मन्त्रैरेतैर्यथान्यायं पूजयेत्परिमण्डलम् ।। ३०

प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु। 
द्वितीयावरणे चैव शक्तयः षोडशैव तु ॥ ३१

तृतीयावरणे चैव चतुर्विशदनुक्रमात् । 
पिशाचवीथिर्वै मध्ये नाभिवीथिः समन्ततः ॥ ३२

'नमोऽस्तु वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय शूलिने ॥ रुद्राय कालरूपाय कलाविकरणाय च। बलाय च तथा सर्वभूतस्य दमनाय च । मनोन्मनाय देवाय मनोन्मन्यै नमो नमः।' - इन मन्त्रोंसे विधानके अनुसार परिमण्डलका पूजन करना चाहिये  प्रथम आवरणका वर्णन कर दिया गया; अब द्वितीय आवरणके विषयमें सुनिये। द्वितीय आवरण में कुल सोलह शक्तियाँ होती हैं और तृतीय आवरणमें क्रमसे चौबीस शक्तियाँ होती हैं। मध्यमें पिशाचवीथि और चारों ओर नाभिवीधि है; यह पिशाचोंकी वीथि कही गयी है, इन वक्ष्यमाण मन्त्रोंसे इनकी सम्यक् पूजा करनी चाहिये ॥ २८-३२ ॥

मन्त्रैरेतैर्यथान्यायं पिशाचानां प्रकीर्तिता।
अष्टोत्तरसहस्त्रं तु पदमष्टारसंयुतम् ॥ ३३

तेषु तेषु पृथक्त्वेन पदेषु कमलं क्रमात्। 
कल्पयेच्छालिनीवारगोधूमैश्च यवादिभिः ॥ ३४

तण्डुलैश्च तिलैर्वाध गौरसर्षपसंयुतैः । 
अथवा कल्पयेदेतैर्यथाकालं विधानतः ॥ ३५

अष्टपत्रं लिखेत्तेषु कर्णिकाकेसरान्वितम्। 
शालीनामाढकं प्रोक्तं कमलानां पृथक् पृथक्॥ ३६

तण्डुलानां तदर्थं स्यात्तदर्थं च यवादयः। 
द्रोणं प्रधानकुम्भस्य तदर्थं तण्डुलाः स्मृताः ॥ ३७

[अब कलशस्थापनकी विधि बतायी जा रही है-] अष्टकोणीय एक हजार आठ पद वहाँ परिमण्डलमें बनाने चाहिये। तत्पश्चात् उन-उन पदोंमें अलग-अलग क्रमसे कर्णिका तथा केसरले युक्त अष्टदल कमलको शालि (धान), नीवार, गोधूम, यव, तण्डुल, तिल, श्वेत सर्षप (सरसों) के द्वारा निर्मित करना चाहिये; अथवा समयसे इनमें जो उपलब्ध हो जाय, उसीसे विधानपूर्वक कमलकी रचना करनी चाहिये। प्रत्येक कमलके लिये शालि धानका परिमाण एक आढक बताया गया है; तण्डुलका परिमाण उसका आधा और जौ आदिका परिमाण उसका भी आधा होना चाहिये। प्रधान कुम्भका प्रमाण एक द्रोण होना चाहिये। इसके लिये चावल उसका आधा बताया गया है। तिलका परिमाण एक आढक और जौका परिमाण उसका आधा होना चाहिये ॥ ३३-३७ ॥

तिलानामाढकं मध्ये यवानां च तदर्धकम्। 
अथाम्भसा समभ्युक्ष्य कमलं प्रणवेन तु ॥ ३८

तेषु सर्वेषु विधिना प्रणवं विन्यसेत्क्रमात्। 
एवं समाप्य चाभ्युक्ष्य पदसाहस्त्रमुत्तमम् ॥ ३९

कलशानां सहस्त्राणि हैमानि च शुभानि च। 
उक्तलक्षणयुक्तानि कारयेद्राजतानि वा ॥ ४०

इस प्रकार कमलकी रचना करके जलसे प्रणवके द्वारा उसका प्रोक्षणकर उन सबमें विधिपूर्वक क्रमसे प्रणवका न्यास करना चाहिये। ऐसा करनेके अनन्तर पवित्र सभी हजार पदोंका प्रोक्षण करके बताये गये लक्षणोंवाले स्वर्ण, रजत या ताम्रके हजार शुभ कलशोंको व्यवस्थित कराना चाहिये और प्रणवका उच्चारण करके अर्घ्य-जलसे प्रोक्षण करना चाहिये ॥ ३८-४० ॥

ताम्रजानि यथान्यायं प्रणवेनार्घ्यवारिणा। 
द्वादशाङ्गुलविस्तारमुदरे समुदाहृतम् ॥ ४१

वर्तितं तु तदर्धेन नाभिस्तस्य विधीयते। 
कण्ठं तु द्वयङ्गुलोत्सेधं विस्तरं चतुरङ्गुलम् ॥ ४२

ओष्ठं च द्व्यङ्गुलोत्सेधं निर्गमं द्वयङ्गुलं स्मृतम् ।
तत्तद्वै द्विगुणं दिव्यं शिवकुम्भे प्रकीर्तितम् ॥ ४३

यवमात्रान्तरं सम्यक्तन्तुना वेष्टयेद्धि वै। 
अवगुण्ठ्य तथाभ्युक्ष्य कुशोपरि यथाविधि ॥ ४४

पूर्ववत्प्रणवेनैव पूरयेद्गन्धवारिणा। 
स्थापयेच्छिवकुम्भाढ्यं वर्धनीं च विधानतः ॥ ४५

मध्यपद्मस्य मध्ये तु सकूर्च साक्षतं क्रमात्। 
आवेष्ट्य वस्त्रयुग्मेन प्रच्छाद्य कमलेन तु ॥ ४६

हैमेन चित्ररत्नेन सहस्त्रकलशं पृथक्। 
शिवकुम्भे शिवं स्थाप्य गायत्र्या प्रणवेन च।। ४७

विद्महे पुरुषायैव महादेवाय धीमहि। 
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ ४८

मन्त्रेणानेन रुद्रस्य सान्निध्यं सर्वदा स्मृतम्। 
वर्धन्यां देवि गायत्र्या देवीं संस्थाप्य पूजयेत् ॥ ४९

गणाम्बिकायै विद्यहे महातपायै धीमहि।
तन्नो गौरी प्रचोदयात् ॥ ५०

[अब कलशका मान निरूपित किया जाता है-] कलशके उदरका विस्तार बारह अंगुलका वृत्ताकार बताया गया है। उसकी नाभि छः अंगुलकी होनी चाहिये। कलशका कण्ठ दो अंगुल ऊँचा तथा चार अंगुल चौड़ा होना चाहिये। उसका ओष्ठ दो अंगुल ऊँचा तथा निर्गम (जल निकलनेका मार्ग) दो अंगुल प्रमाणका बताया गया है। दिव्य शिवकुम्भ उन-उन प्रमाणोंसे दूने प्रमाणका बताया गया है। कलशको जौके बराबर मोटे सूत्रसे भली-भाँति वेष्टित कर देना चाहिये। इसके बाद अवगुण्ठन तथा अभ्युक्षण करके कुशके ऊपर रखकर विधिपूर्वक पूर्वकी भाँति प्रणवमन्त्रका उच्चारण करके गन्धयुक्त जलसे कलशको पूरित करे और कूर्च तथा अक्षतसहित मध्यपद्मके ऊपर शिव कुम्भ को विधानपूर्वक स्थापित करे तथा खड्‌गाकार एक वर्धनी भी स्थापित करे। इसके बाद दो वस्त्रोंसे उसे वेष्टित करके स्वर्णरचित अथवा विचित्र रत्नादिसे सज्जित कमलद्वारा आच्छादित करे, इसके बाद उन सहस्र कलशोंको भी पृथक्‌से आवेष्टित एवं आच्छादित करे। शिवकुम्भमें शिवगायत्री और प्रणवद्वारा शिवकी स्थापना करे। 'विदाहे पुरुषायैव महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्- इस मन्त्रसे सर्वदा रुद्रका सान्निध्य बताया गया है। देवीगायत्रीके द्वारा वर्धनीमें भगवती गौरीकी स्थापना करके उनका पूजन करना चाहिये। 'गणाम्बिकायै विद्यहे महातपायै धीमहि। तन्नो गौरी प्रचोदयात्।' यह देवीगायत्री है ॥ ४१-५० ॥

प्रथमावरणे चैव वामाद्याः परिकीर्तिताः । 
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ ५१

शक्तयः षोडशैवात्र पूर्वाद्यन्तेषु सुव्रत । 
ऐन्द्रव्यूहस्य मध्ये तु सुभद्रां स्थाप्य पूजयेत् ॥ ५२

भद्रामाग्नेयचक्रे तु याम्ये तु कनकाण्डजाम्। 
अम्बिकां नैर्ऋते व्यूहे मध्यकुम्भे तु पूजयेत् ॥ ५३

श्रीदेवीं वारुणे भागे वागीशां वायुगोचरे। 
गोमुखीं सौम्यभागे तु मध्यकुम्भे तु पूजयेत् ॥ ५४

रुद्रव्यूहस्य मध्ये तु भद्रकर्णां समर्चयेत्। 
ऐन्द्राग्निविदिशोर्मध्ये पूजयेदणिमां शुभाम् ॥ ५५

याम्यपावकयोर्मध्ये लघिमां कमले न्यसेत्।
राक्षसान्तकयोर्मध्ये महिमां मध्यतो यजेत् ॥ ५६

वरुणासुरयोर्मध्ये प्राप्तिं वै मध्यतो यजेत्। 
वरुणानिलयोर्मध्ये प्राकाम्यं कमले न्यसेत् ॥ ५७

वित्तेशानिलयोर्मध्ये ईशित्वं स्थाप्य पूजयेत्। 
वित्तेशेशानयोर्मध्ये वशित्वं स्थाप्य पूजयेत् ॥ ५८

ऐन्द्रेशेशानयोर्मध्ये यजेत्कामावसायकम्। 
द्वितीयावरणं प्रोक्तं तृतीयावरणं शृणु ॥ ५९

प्रथम आवरणर्ने वामा आदि शक्तियाँ पहले ही बतायी गयी हैं। प्रथम आवरण कह दिया गया है, अब द्वितीय आवरण के विषय में सुनिये। हे सुव्रत! पूर्व आदि दिशाओंमें सोलह शक्तियाँ विद्यमान हैं। पूर्व दिशामें सुभद्राकी स्थापना करके उनकी पूजा करनी चाहिये। आग्नेय चक्रमें भद्रा, दक्षिण दिशामें कनकाण्डजा और नैऋत्यकोणमें कुम्भके मध्य अम्बिकाकी पूजा करनी चाहिये। पश्चिम दिशामें श्रीदेवी, वायव्य कोणमें वागीशा तथा उत्तर दिशामें कुम्भके मध्य गोमुखीका पूजन करना चाहिये। ईशानकोणमें भद्रकर्णाकी अर्चना करनी चाहिये। पूर्व दिशा तथा अग्निकोणके मध्यमें मंगलमयी अणिमाको पूजा तथा दक्षिण दिशा और अग्निकोणके मध्य कमलमें लधिमाकी पूजा करनी चाहिये। इसी प्रकार दक्षिण और नैऋत्यकोणके मध्यमें महिमाकी पूजा और नैऋत्य तथा पश्चिम दिशाके मध्यमें प्राप्तिकी पूजा करनी चाहिये। पश्चिम दिशा तथा वायव्यकोणके मध्यमें कमलमें प्राकाम्यका न्यास करना चाहिये और वायव्यकोण तथा उत्तर दिशाके मध्य ईशित्वकी स्थापना करके उसका पूजन करना चाहिये। तत्पश्चात् उत्तर और ईशानकोणके मध्य वशित्वका न्यास करके उसका पूजन करना चाहिये और ईशानकोण तथा पूर्व दिशाके मध्य कामावसायित्वका पूजन करना चाहिये। यह द्वितीय आवरणपूजन मैंने कह दिया, अब तृतीय आवरणपूजनके विषयमें सुनिये ॥ ५१-५९॥

शक्तयस्तु चतुर्विशत्प्रधानकलशेषु च। 
पूजयेद्वयूहमध्ये तु पूर्ववद्विधिपूर्वकम् ॥ ६०

दीक्षां दीक्षायिकां चैव चण्डां चण्डांशुनायिकाम् । 
सुमतिं सुमत्यायीं च गोपां गोपायिकां तथा ॥ ६१

अथ नन्दं च नन्दायीं पितामहमतः परम्। 
पितामहायीं पूर्वाद्यं विधिना स्थाप्य पूजयेत् ॥ ६२

प्रधान कलशों (अष्ट दिक्पाल कलशों) में चौबीस शक्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। व्यूहके मध्य द्वितीय व्यूहकी भाँति सोलह शक्तियोंकी पूजा करनी चाहिये। उनके अतिरिक्त दीक्षा, दौक्षायिका, चण्डा, चण्डांशुनायिका, सुमति, सुमत्यायी, गोपा तथा गोपायिका इन आठ शक्तियोंकी पूजा करनी चाहिये। उक्त चौबीस शक्तियोंकी पूजाके अनन्तर नन्द-नन्दायी, पितामह-पितामहायी- इनकी पूर्व आदि दिशाओंमें विधिपूर्वक स्थापना करके पूजा करनी चाहिये ॥ ६०-६२॥

एवं सम्पूज्य विधिना तृतीयावरणं शुभम्। 
सौभद्रं व्यूहमासाद्य प्रथमावरणे क्रमात् ॥ ६३

प्रागाद्यं विधिना स्थाप्य शक्त्यष्टकमनुक्रमात् ।
द्वितीयावरणे चैव प्रागाद्यं शृणु शक्तयः ॥ ६४

षोडशैव तु अभ्यर्च्य पद्ममुद्रां तु दर्शयेत्। 
बिन्दुका बिन्दुगर्भा च नादिनी नादगर्भजा ॥ ६५

शक्तिका शक्तिगर्भा च परा चैव परापरा। 
प्रथमावरणेऽष्टौ च शक्तयः परिकीर्तिताः ॥ ६६

चण्डा चण्डमुखी चैव चण्डवेगा मनोजवा। 
चण्डाक्षी चण्डनिर्घोषा भृकुटी चण्डनायिका ॥ ६७

मनोत्सेधा मनोध्यक्षा मानसी माननायिका। 
मनोहरी मनोहादी मनः प्रीतिर्महेश्वरी ॥ ६८

द्वितीयावरणे चैव षोडशैव प्रकीर्तिताः । 
सौभद्रः कथितो व्यूहो भद्रं व्यूहे शृणुष्व मे ॥ ६९

इस प्रकार शुभ तृतीय आवरणकी विधिपूर्वक पूजा करके प्रथम आवरणमें सौभद्र व्यूहको प्राप्तकर आठ शक्तियों को क्रमसे पूर्व आदि दिशाओंमें स्थापितकर विधिवत् उनकी पूजा करनी चाहिये। अब द्वितीय आवरणमें प्रागाद्य शक्तियों को सुनिये। इन सोलहोंका अर्चन करके पद्ममुद्रा दिखानी चाहिये। बिन्दुका, बिन्दुगर्भा, नादिनी, नादगर्भजा, शक्तिका, शक्तिगर्भा, परा तथा परापरा ये आठ शक्तियाँ प्रथम आवरणमें कही गयी हैं। चण्डा, चण्डमुखी, चण्डवेगा, मनोजवा, चण्डाक्षी, चण्डनिर्घोषा, भृकुटी, चण्डनायिका, मनोत्सेधा, मनोध्यक्षा, मानसी, माननायिका, मनोहरी, मनोह्लादी, मनः प्रीति और महेश्वरी- ये सोलह शक्तियाँ द्वितीय आवरणमें बतायी गयी हैं। मैंने सौभद्रव्यूहका वर्णन कर दिया, अब भद्रव्यूहके विषयमें सुनिये ॥ ६३-६९॥

ऐन्द्री हौताशनी याम्या नैर्ऋती वारुणी तथा। 
वायव्या चैव कौबेरी ऐशानी चाष्टशक्तयः ॥ ७०

प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु। 
हरिणी च सुवर्णा च काञ्चनी हाटकी तथा ।। ७१

रुक्मिणी सत्यभामा च सुभगा जम्बुनायिका। 
वाग्भवा वाक्यथा वाणी भीमा चित्ररथा सुधीः ॥ ७२

वेदमाता हिरण्याक्षी द्वितीयावरणे स्मृता । 
भद्राख्यः कथितो व्यूहः कनकाख्यं शृणुष्व मे ।। ७३

ऐन्द्री, हौताशनी, याम्या, नैर्ऋती, वारुणी, वायव्या, कौबेरी तथा ऐशानी ये आठ शक्तियाँ हैं। प्रथम आवरण बता दिया, अब द्वितीय आवरण सुनिये। हरिणी, सुवर्णा, कांचनी, हाटकी, रुक्मिणी, सत्यभामा, सुभगा, जम्बुनायिका, वाग्भवा, वाक्यथा, वाणी, भीमा, चित्ररथा, सुधी, वेदमाता तथा हिरण्याक्षी ये द्वितीय आवरणकी शक्तियाँ कही गयी हैं। भद्राख्य व्यूहका वर्णन कर दिया गया, अब कनक नामक व्यूहके विषयमें सुनिये ॥ ७०-७३ ॥ 

वज्रं शक्तिं च दण्डं च खड्गं पाशं ध्वजं तथा।
गर्दा त्रिशूलं क्रमशः प्रथमावरणे स्मृताः ॥ ७४

युद्धा प्रबुद्धा चण्डा च मुण्डा चैव कपालिनी।
मृत्युहन्त्री विरूपाक्षी कपर्दा कमलासना ॥ ७५ 

दंष्ट्रिणी रङ्गिणी चैव लम्बाक्षी कङ्कभूषणी।
सम्भावा भाविनी चैव षोडशैव प्रकीर्तिताः ।। ७६

कथितः कनकव्यूहो हाम्बिकाख्यं शृणुष्व मे।
खेचरी चात्मनासा च भवानी वह्निरूपिणी ॥ ७७

वह्निनी वह्निनाभा च महिमामृतलालसा।
प्रथमावरणे चाष्टौ शक्तयः सर्वसम्मताः ॥ ७८

क्षमा च शिखरा देवी ऋतुरत्ना शिला तथा।
छाया भूतपनी धन्या इन्द्रमाता च वैष्णवी ॥ ७९

तृष्णा रागवती मोहा कामकोपा महोत्कटा।
इन्द्रा च बधिरा देवी षोडशैताः प्रकीर्तिताः ॥ ८० 

वज्र, शक्ति, दण्ड, खड्ग, पाश, ध्वज, गदा और त्रिशूल-ये क्रमानुसार प्रथम आवरणकी [आयुधरूप] शक्तियाँ कही गयी हैं। युद्धा, प्रबुद्धा, चण्डा, मुण्डा, कपालिनी, मृत्युहन्त्री, विरूपाक्षी, कपर्दा, कमला, आसना, दंष्ट्रिणी, रंगिणी, लम्बाक्षी, कंकभूषणी, सम्भावा तथा भाविनी- ये [द्वितीय आवरणकी] सोलह शक्तियाँ बतायी गयी हैं। कनकव्यूहका वर्णन कर दिया गया, अब अम्बिका नामक व्यूहके विषयमें सुनिये। खेचरी, आत्मनासा, भवानी, वह्रिरूपिणी, वहिनी, वह्निनाभा, महिमा और अमृतलालसा ये प्रथम आवरणकी आठ सर्वसम्मत शक्तियाँ कही गयी हैं। उसी प्रकार क्षमा, शिखरादेवी, ऋतुरत्ना, शिला, छाया, भूतपनी, धन्या, इन्द्रमाता, वैष्णवी, तृष्णा, रागवती, मोहा, कामकोपा, महोत्कटा, इन्द्रा और बधिरादेवी- ये सोलह शक्तियाँ [द्वितीय आवरणकी] कही गयी हैं ॥ ७४-८० ॥

कथितश्चाम्बिकाव्यूहः श्रीव्यूहं शृणु सुव्रत ।
स्पर्शा स्पर्शवती गन्धा प्राणापाना समानिका ॥ ८१

उदाना व्याननामा च प्रथमावरणे स्मृताः ।
तमोहता प्रभामोघा तेजिनी दहिनी तथा ॥ ८२

भीमास्या जालिनी चोषा शोषिणी रुद्रनायिका।
वीरभद्रा गणाध्यक्षा चन्द्रहासा च गह्वरा ॥ ८३

गणमाताम्बिका चैव शक्तयः सर्वसम्मताः ।
द्वितीयावरणे प्रोक्ताः षोडशैव यथाक्रमात् ॥ ८४

हे सुव्रत! अम्बिकाव्यूहका वर्णन कर दिया गया, अब श्रीव्यूहका श्रवण कीजिये। स्पर्शा, स्पर्शवती, गन्धा, प्राणा, अपाना, समाना, उदाना और व्याना- प्रथम आवरणको ये आठ शक्तियाँ कही गयी हैं। उसी तरह तमोहता, प्रभा, अमोधा, तेजिनी, दहिनी, भीमास्या, जालिनी, उषा, शोषिणी, रुद्रनायिका, वीरभद्रा, गणाध्यक्षा, चन्द्रहासा, गह्वरा, गणमाता और अम्बिका यथाक्रम ये सोलह सर्वसम्मत शक्तियाँ द्वितीय आवरणकी बतायी गयी हैं॥ ८१-८४ ॥ 

श्रीव्यूहः कथितो भद्रं वागीशं शृणु सुव्रत।
धारा वारिधरा चैव वह्निकी नाशकी तथा ॥ ८५

मर्यातीता महामाया वज्रिणी कामधेनुका।
प्रथमावरणेऽप्येवं शक्तयोऽष्टौ प्रकीर्तिताः ॥ ८६

पयोष्णी वारुणी शान्ता जयन्ती च वरप्रदा।
प्लाविनी जलमाता च पयोमाता महाम्बिका ॥ ८७

रक्ता कराली चण्डाक्षी महोच्छुष्मा पयस्विनी।
माया विद्येश्वरी काली कालिका च यथाक्रमम् ॥ ८८

षोडशैव समाख्याताः शक्तयः सर्वसम्मताः ।
व्यूहो वागीश्वरः प्रोक्तो गोमुखो व्यूह उच्यते ॥ ८९

शङ्किनी हालिनी चैव लङ्कावर्णा च कल्किनी।
यक्षिणी मालिनी चैव वमनी च रसात्मनी ॥ ९०

प्रथमावरणे चैव शक्तयोऽष्टौ प्रकीर्तिताः ।
चण्डा घण्टा महानादा सुमुखी दुर्मुखी बला ॥ ९१

रेवती प्रथमा घोरा सैन्या लीना महाबला।
जया च विजया चैव अपरा चापराजिता ॥ ९२

द्वितीयावरणे चैव शक्तयः षोडशैव तु। 
कथितो गोमुखीव्यूहो भद्रकर्णी शृणुष्व मे ॥ ९३

हे सुव्रत ! कल्याणकारी श्रीव्यूहका वर्णन कर दिया, अब वागीशव्यूहके विषयमें सुनिये। धारा, वारिधरा, वह्निकी, नाशकी, मांतीता, महामाया, वज्रिणी तथा कामधेनुका-ये आठ शक्तियाँ प्रथम आवरणको बतायी गयी हैं। पयोष्णी वारुणी, शान्ता, वरप्रदायिनी जयन्ती, प्लाविनी, जलमाता, पयोमाता, महाम्बिका, रक्ता, कराली, चण्डाक्षी, महोच्छुष्मा, पयस्विनी, माया, विद्येश्वरी, काली, कालिका क्रमसे ये सोलह सर्वसम्मत शक्तियाँ द्वितीय आवरणकी कही गयी हैं। वागीश नामक व्यूहका वर्णन कर दिया गया, अब गोमुखव्यूह बता रहा हूँ। शंकिनी, हालिनी, लंकावर्णा, कल्किनी, यक्षिणी, मालिनी, वमनी, रसात्मनी-ये आठ शक्तियाँ प्रथम आवरणमें कही गयी हैं। चण्डा, घण्टा, महानादा, सुमुखी, दुर्मुखी, बला, रेवती, प्रथमा, घोरा, सैन्या, लीना, महाबला, जया, विजया, अजिता और अपराजिता- ये सोलह शक्तियाँ द्वितीय आवरणमें कही गयी हैं। गोमुखव्यूहका वर्णन कर दिया गया, अब भद्रकर्णीव्यूहके विषयमें सुनिये ॥ ८५-९३॥

महाजया विरूपाक्षी शुक्लाभाकाशमातृका ।
संहारी जातहारी च दंष्ट्राली शुष्करेवती ॥ ९४

प्रथमावरणे चाष्टौ शक्तयः परिकीर्तिताः ।
पिपीलिका पुण्यहारी अशनी सर्वहारिणी ॥ ९५

भद्रहा विश्वहारी च हिमा योगेश्वरी तथा।
छिद्रा भानुमती छिद्रा सैंहिकी सुरभी समा ॥ ९६

सर्वभव्या च वेगाख्या शक्तयः षोडशैव तु।
महाव्यूहाष्टकं प्रोक्तमुपव्यूहाष्टकं शृणु ॥  ९७

महाजया, विरूपाक्षी, शुक्लाभा, आकाशमातृका, संहारी, जातहारी, दंष्ट्राली और शुष्करेवती-ये प्रथम आवरणकी आठ शक्तियाँ बतायी गयी हैं। पिपीलिका, पुण्यहारी, अशनी, सर्वहारिणी, भद्रहा, विश्वहारी, हिमा, योगेश्वरी, छिद्रा, भानुमती, छिद्रा, सैहिकी, सुरभी, समा, सर्वभव्या तथा वेगा-द्वितीय आवरणकी ये सोलह शक्तियाँ हैं। यह आठ महाव्यूहोंका वर्णन किया गया, अब आठ उपव्यूहोंको सुनिये ॥ ९४-९७ ॥

अणिमाव्यूहमावेष्ट्य प्रथमावरणे क्रमात्।
ऐन्द्रा तु चित्रभानुश्च वारुणी दण्डिरेव च ॥ ९८

प्राणरूपी तथा हंसः स्वात्मशक्तिः पितामहः ।
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ ९९

केशवो भगवान् रुद्रश्चन्द्रमा भास्करस्तथा।
महात्मा च तथा ह्यात्मा ह्यन्तरात्मा महेश्वरः ॥ १००

परमात्मा ह्यणुर्जीवः पिङ्गलः पुरुषः पशुः ।
भोक्ता भूतपतिर्भीमो द्वितीयावरणे स्मृताः ॥ १०१

कथितश्चाणिमाव्यूहो लघिमाख्यं वदामि ते।
श्रीकण्ठोऽन्तश्च सूक्ष्मश्च त्रिमूर्तिः शशकस्तथा ॥ १०२

अमरेशः स्थितीशश्च दारतश्च तथाष्टमः ।
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ १०३

स्थाणुर्हरश्च दण्डेशो भौक्तीशः सुरपुङ्गवः ।
सद्योजातोऽनुग्रहेशः क्रूरसेनः सुरेश्वरः ॥ १०४

क्रोधीशश्च तथा चण्डः प्रचण्डः शिव एव च।
एकरुद्रस्तथा कूर्मश्चैकनेत्रश्चतुर्मुखः ॥ १०५

द्वितीयावरणे रुद्राः षोडशैव प्रकीर्तिताः ।
कथितो लघिमाव्यूहो महिमां शृणु सुव्रत ॥ १०६ 

अणिमाव्यूहको आवेष्टित करके प्रथम आवरणमें क्रमसे ऐन्द्रा, चित्रभानु, वारुणी, दण्डि, प्राणरूपी, हंस, स्वात्मशक्ति और पितामह ये शक्तियाँ हैं। प्रथम आवरण बता दिया गया, अब द्वितीय आवरण सुनिये। केशव, भगवान् रुद्र, चन्द्रमा, भास्कर, महात्मा, आत्मा, अन्तरात्मा, महेश्वर, परमात्मा, सूक्ष्म जीव, पिंगल, पुरुष, पशु, भोक्ता, भूतपति तथा भीम-ये शक्तियाँ द्वितीय आवरणमें कहीं गयी हैं। अणिमाव्यूह कह दिया गया, अब लधिमा नामक व्यूहका वर्णन आपसे करता हूँ। श्रीकण्ठ, अन्त, सूक्ष्म, त्रिमूर्ति, शशक, अमरेश, स्थितीश और आठवाँ दारत- [ये आठ शक्तियाँ हैं।] प्रथम आवरण कह दिया गया, अब द्वितीय आवरण सुनिये। स्थाणु, हर, दण्डेश, सुरश्रेष्ठ भौक्तीश, सद्योजात, अनुग्रहेश, क्रूरसेन, सुरेश्वर, क्रोधीश, चण्ड, प्रचण्ड, शिव, एकरुद्र, कूर्म, एकनेत्र तथा चतुर्मुख- द्वितीय आवरणमें ये ही सोलह रुद्र बताये गये हैं। हे सुव्रत ! लघिमाव्यूहका वर्णन कर दिया गया, अब महिमाव्यूहका श्रवण कीजिये ॥ ९८-१०६ ॥

अजेशः क्षेमरुद्रश्च सोमोंऽशो लाङ्गली तथा।
दण्डारुश्चार्धनारी च एकान्तश्चान्त एव च ।। १०७

पाली भुजङ्गनामा च पिनाकी ख‌ड्गिरेव च।
काम ईशस्तथा श्वेतो भृगुः षोडश वै स्मृताः ॥ १०८

कथितो महिमाव्यूहः प्राप्तिव्यूहं शृणुष्व मे। 
संवर्ती लकुलीशश्च वाडवो हस्तिरेव च ॥ १०९

चण्डयक्षो गणपतिर्महात्मा भृगुजोऽष्टमः । 
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ ११०

त्रिविक्रमो महाजिह्वो ऋक्षः श्रीभद्र एव च।
महादेवो दधीचश्च कुमारश्च परावरः ॥ १११

महादंष्ट्रः करालश्च सूचकश्च सुवर्धनः ।
महाध्वांक्षो महानन्दो दण्डी गोपालकस्तथा ।। ११२

अजेश, क्षेमरुद्र, सोम, अंश, लांगली, दण्डारु, अर्धनारी, एकान्त, अन्त, भुजंग नामक पाली, पिनाकी  खङ्गि, काम, ईश, श्वेत तथा भूगु-ये सोलह कहे गये हैं। यह महिमाव्यूह कह दिया गया, अब मुझसे प्राप्तिव्यूहका श्रवण कीजिये। संवर्त, लकुलीश, वाडव, हस्ति, चण्डयक्ष, गणपति, महात्मा और आठवाँ भृगुज- [ये आठ प्रथम आवरणके देवता हैं।] प्रथम आवरण कह दिया गया, अब द्वितीय आवरणको सुनिये। त्रिविक्रम, महाजिह्न, ऋक्ष, श्रीभद्र, महादेव, दधीच, कुमार, परावर, महादंष्ट्र, कराल, सूचक, सुवर्धन, महाध्वांक्ष, महानन्द, दण्डी तथा गोपाल- [ये सोलह द्वितीय आवरणके देवता हैं] ॥ १०७-११२॥

प्राप्तिव्यूहः समाख्यातः प्राकाम्यं शृणु सुव्रत ।
पुष्पदन्तो महानागो विपुलानन्दकारकः ॥ ११३

शुक्लो विशालः कमलो बिल्वश्चारुण एव च।
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ ११४

रतिप्रियः सुरेशानश्चित्राङ्गश्च सुदुर्जयः ।
विनायकः क्षेत्रपालो महामोहश्च जङ्गलः ॥ ११५

वत्सपुत्रो महापुत्रो ग्रामदेशाधिपस्तथा।
सर्वावस्थाधिपो देवो मेघनादः प्रचण्डकः ॥ ११६

कालदूतश्च कथितो द्वितीयावरणं स्मृतम् ।
प्राकाम्यः कथितो व्यूह ऐश्वर्यं कथयामि ते ॥ ११७

हे सुव्रत! प्राप्तिव्यूह बता दिया गया, प्राकाम्यव्यूहका श्रवण कीजिये। पुष्पदन्त, महानाग, विपुलानन्दकारक, शुक्ल, विशाल, कमल, बिल्व तथा अरुण- [ये आठ प्रथम आवरणके देवता हैं।] प्रथम आवरणका वर्णन कर दिया गया, अब द्वितीय आवरण सुनिये। रतिप्रिय, सुरेशान, चित्रांग, सुदुर्जय, विनायक, क्षेत्रपाल, महामोह, जंगल, वत्सपुत्र, महापुत्र, ग्रामदेशाधिप, सर्वावस्थाधिप, देव, मेघनाद, प्रचण्डक तथा कालदूत ये सोलह देवता कहे गये हैं। इसे द्वितीय आवरण कहा गया है। प्राकाम्यव्यूहका वर्णन कर दिया गया, अब आपको ऐश्वर्यव्यूह बता रहा हूँ ॥ ११३-११७॥

मङ्गला चर्चिका चैव योगेशा हरदायिका।
भासुरा सुरमाता च सुन्दरी मातृकाष्टमी ॥ ११८

प्रथमावरणे प्रोक्ता द्वितीयावरणे शृणु।
गणाधिपश्च मन्त्रज्ञो वरदेवः षडाननः ॥ ११९

विदग्धश्च विचित्रश्च अमोघो मोघ एव च।
अश्वीरुद्रश्च सोमेशश्चोत्तमोदुम्बरस्तथा ॥ १२०

नारसिंहश्च विजयस्तथा इन्द्रगुहः प्रभुः ।
अपाम्पतिश्च विधिना द्वितीयावरणं स्मृतम् ॥ १२१

ऐश्वर्यः कथितो व्यूहो वशित्वं पुनरुच्यते।
गगनो भवनश्चैव विजयो ह्यजयस्तथा ॥ १२२

महाजयस्तथाङ्गारो व्यङ्गारश्च महायशाः ।
प्रथमावरणे प्रोक्ता द्वितीयावरणे शृणु ॥ १२३

सुन्दरश्च प्रचण्डेशो महावर्णो महासुरः।
महारोमा महागर्भः प्रथमः कनकस्तथा ॥ १२४

मंगला, चर्चिका, योगेशा, हरदायिका, भासुरा, सुरमाता, सुन्दरी तथा आठवीं मातृका-ये [आठ शक्तियाँ] प्रथम आवरण में कही गयी हैं। अब द्वितीय आवरण सुनिये। गणाधिप, मंत्रज्ञ, वरदेव, षडानन, विदग्ध, विचित्र, अमोघ, मोघ, अश्वीरुद्र, सोमेश, उत्तमोदुम्बर, नारसिंह, विजय, इन्द्रगुह, प्रभु तथा अपाम्पति-इस प्रकार इसे द्वितीय आवरण कहा गया है। ऐश्वर्यव्यूह कह दिया गया, अब वशित्वव्यूह बताया जा रहा है। गगन, भवन, विजय, अजय, महाजय, अंगार, व्यंगार तथा महायश- ये प्रथम आवरणके देवता बताये गये हैं, अब द्वितीय आवरण सुनिये। सुन्दर, प्रचण्डेश, महावर्ण, महासुर, महारोमा, महागर्भ, प्रथम, कनक, खरज, गरुड़, मेघनाद, गर्जक, गज, छेदकबाहु, त्रिशिख तथा मारि। [ये सोलह देवता द्वितीय आवरणके हैं] ॥ ११८-१२५ ॥

खरजो गरुडश्चैव मेघनादोऽथ गर्जकः ।
गजश्च च्छेदको बाहुस्त्रिशिखो मारिरव च ।। १२५

वशित्वं कथितो व्यूहः शृणु कामावसायिकम्।
विनादो विकटश्चैव वसन्तोऽभय एव च ॥ १२६

विद्युन्महाबलश्चैव कमलो दमनस्तथा।
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ १२७

धर्मश्चातिबलः सर्पों महाकायो महाहनुः।
सबलश्चैव भस्माङ्गी दुर्जयो दुरतिक्रमः ॥ १२८

वेतालो रौरवश्चैव दुर्धरो भोग एव च।
वज्रः कालाग्निरुद्रश्च सद्योनादो महागुहः ॥ १२९

द्वितीयावरणं प्रोक्तं व्यूहश्चैवावसायिकः । 
कथितः षोडशो व्यूहो द्वितीयावरणं शृणु ॥ १३०

वशित्वव्यूहका वर्णन कर दिया गया, अब कामावसायित्वव्यूहका श्रवण कीजिये। विनाद, विकट, वसन्त, अभय, विद्युत्, महाबल, कमल तथा दमन- [ये आठ देवता प्रथम आवरणके हैं।] प्रथम आवरण बता दिया, अब द्वितीय आवरण सुनिये। धर्म, अतिबल, सर्प, महाकाय, महाहनु, सबल, भस्मांगी, दुर्जय, दुरतिक्रम, वेताल, रौरव, दुर्धर, भोग, वज्र, कालाग्निरुद्र सद्योनाद तथा महागुह- [ये द्वितीय आवरणके देवता हैं।] द्वितीय आवरण कह दिया गया। आवसायिक व्यूहका भी वर्णन कर दिया गया। इस प्रकार सोलह व्यूहवाले आवरणके विषयमें बता दिया गया, अब दूसरे आवरणका श्रवण कीजिये ॥ १२६-१३० ॥

द्वितीयावरणे चैव दक्षव्यूहे च शक्तयः। 
प्रथमावरणे चाष्टौ बाहो षोडश एव च ॥ १३१

मनोहरा महानादा चित्रा चित्ररथा तथा। 
रोहिणी चैव चित्राङ्गी चित्ररेखा विचित्रिका ॥ १३२

प्रथमावरणे प्रोक्ता द्वितीयावरणं शृणु। 
चित्रा विचित्ररूपा च शुभदा कामदा शुभा ॥ १३३

क्रूरा च पिङ्गला देवी खङ्गिका लम्बिका सती।
दंष्ट्राली राक्षसी ध्वंसी लोलुपा लोहितामुखी ॥ १३४

द्वितीयावरणे प्रोक्ताः षोडशैव समासतः ।
दक्षव्यूहः समाख्यातो दाक्षव्यूहं शृणुष्व मे ॥ १३५

दूसरे आवरणमें दक्षव्यूह प्रथम है, जिसके पहले आवरणमें आठ शक्तियाँ हैं और बाह्य आवरणमें सोलह शक्तियाँ हैं। मनोहरा, महानादा, चित्रा, चित्ररथा, रोहिणी, चित्रांगी, चित्ररेखा तथा विचित्रिका- ये [आठ] शक्तियाँ प्रथम आवरणमें कही गयी हैं; अब दूसरा आवरण सुनिये। चित्रा, विचित्ररूपा, शुभदा, कामदा, शुभा, क्रूरा, पिंगला, देवी, खङ्गिका, लम्बिका, सती, दंष्ट्राली, राक्षसी, ध्वंसी, लोलुपा और लोहितामुखी-द्वितीय आवरणमें ये सोलह शक्तियाँ बतायी गयी हैं। दक्षव्यूह संक्षेपमें बता दिया गया, अब मुझसे दाक्षव्यूहका श्रवण कीजिये ॥ १३१-१३५ ॥

सर्वांसती विश्वरूपा लम्पटा चामिषप्रिया।
दीर्घदंष्ट्रा च वज्रा च लम्बोष्ठी प्राणहारिणी ॥ १३६

प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु।
गजकर्णाश्वकर्णा च महाकाली सुभीषणा ।॥ १३७

वातवेगरवा घोरा घना घनरवा तथा।
वरघोषा महावर्णा सुघण्टा घण्टिका तथा ॥ १३८

घण्टेश्वरी महाघोरा घोरा चैवातिघोरिका।
द्वितीयावरणे चैव षोडशैव प्रकीर्तिताः ॥ १३९

दाक्षव्यूहः समाख्यातश्चण्डव्यूहं शृणुष्व मे।
अतिघण्टा चातिघोरा कराला करभा तथा ॥ १४०

विभूतिर्थोगदा कान्तिः शङ्खिनी चाष्टमी स्मृता ।
प्रथमावरणे प्रोक्ता द्वितीया वरणे शृणु ॥ १४१

पत्रिणी चैव गान्धारी योगमाता सुपीवरा। 
रक्ता मालांशुका बीरा संहारी मांसहारिणी ॥ १४२

फलहारी जीवहारी स्वेच्छाहारी च तुण्डिका।
रेवती रङ्गिणी सङ्गा द्वितीये षोडशैव तु ॥ १४३

सर्वासती, विश्वरूपा, लंपटा, आमिषप्रिया, दीर्घदंष्ट्रा, वग्रा, लम्बोष्ठी तथा प्राणहारिणी- [ये दक्षव्यूहके प्रथम आवरणकी शक्तियाँ हैं। प्रथम आवरण कह दिया गया, अब द्वितीय आवरण सुनिये। गजकर्णा, अश्वकर्णा, महाकाली, सुभीषणा, वातवेगरवा, घोरा, घना, घनरवा, वरघोषा, महावर्णा, सुघण्टा, घण्टिका, घण्टेश्वरी, महाघोरा, [शक्तियाँ] बतायी गयी हैं। दाक्षव्यूहका वर्णन कर दिया घोरा तथा अतिघोरिका-द्वितीय आवरणमें ये सोलह गया, अब मुझसे चण्डव्यूह सुनिये। अतिघण्टा, अतिघोरा, कराला, करभा, विभूति, भोगदा, कान्ति तथा आठवीं शंखिनी- ये प्रथम आवरणकी शक्तियाँ कहीं गयी हैं, अब द्वितीय आवरण सुनिये। पत्रिणी, गान्धारी, योगमाता, सुपीवररा, रक्ता, मालांशुका, बोरा, संहारी, मांसहारिणी, फलहारी, जीवहारी, स्वेच्छाहारी, तुण्डिका, रेवती, रंगिणी तथा संगा- ये सोलह [शक्तियाँ] द्वितीय आवरणमें कही गयी हैं॥ १३६-१४३ ॥

चण्डव्यूहः समाख्यातश्चण्डाव्यूहस्तथोच्यते। 
चण्डी चण्डमुखी चण्डा चण्डवेगा महारवा ॥ १४४

भुकुटी चण्डभूश्चैव चण्डरूपाष्टमी स्मृता। 
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ १४५

चन्द्रघ्घ्राणा बला चैव बलजिह्वा बलेश्वरी।
बलवेगा महाकाया महाकोपा च विद्युता ॥ १४६

कङ्काली कलशी चैव विद्युता चण्डघोषिका।
महाघोषा महारावा चण्डभानङ्गचण्डिका ॥ १४७

चण्डायाः कथितो व्यूहो हरव्यूहं शृणुष्व मे।
चण्डाक्षी कामदा देवी सूकरी कुक्कुटानना ॥ १४८

गान्धारी दुन्दुभी दुर्गा सौमित्रा चाष्टमी स्मृता ।
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ १४९

मृतोद्भवा महालक्ष्मीर्वर्णदा जीवरक्षिणी।
हरिणी क्षीणजीवा च दण्डवक्त्रा चतुर्भुजा ।। १५०

व्योमचारी व्योमरूपा व्योमव्यापी शुभोदया।
गृहचारी सुचारी च विषाहारी विषार्तिहा ॥ १५१

चण्डव्यूह कह दिया गया, अब चण्डाव्यूह बताया जाता है। चण्डी, चण्डमुखी, चण्डा, चण्डवेगा, महारवा, भुकुटी, चण्डभू तथा आठर्वी शक्ति चण्डरूपा बतायी गयी है। प्रथम आवरण कह दिया गया, अब द्वितीय आवरण सुनिये। चन्द्रघ्राणा, बला, बलजिह्वा, बलेश्वरी, बलवेगा, महाकाया, महाकोपा, विद्युता, कंकाली, कलशी, विद्युता, चण्डघोषिका, महाघोषा, महारावा, चण्डभा, अनंग- चण्डिका- [ये सोलह शक्तियाँ द्वितीय आवरणमें कही गयी हैं।] चण्डाव्यूहका वर्णन मैंने कर दिया, अब हरव्यूहके विषयमें मुझसे सुनिये। चण्डाक्षी, कामदादेवी, सूकरी, कुक्कुटानना, गान्धारी, दुन्दुभी, दुर्गा और आठवीं शक्ति सौमित्रा कही गयी है। प्रथम आवरण बता दिया गया, अब द्वितीय आवरण सुनिये। मृतोद्भवा, महालक्ष्मी, वर्णदा, जीवरक्षिणी, हरिणी, क्षीणजीवा, दण्डवक्त्रा, चतुर्भुजा, व्योमचारी, व्योमरूपा, व्योमव्यापी, शुभोदया, गृहचारी, सुचारी, विषाहारी और विषार्तिहा- [ये सोलह शक्तियाँ द्वितीय आवरणमें बतायी गयी हैं। ॥ १४४-१५१ ॥

हरव्यूहः समाख्यातो हराया व्यूह उच्यते।
जम्भाच्युता च कङ्कारी देविका दुर्धरा वहा ॥ १५२

चण्डिका चपला चेति प्रथमावरणे स्मृताः ।
चण्डिका चामरी चैव भण्डिका च शुभानना ।। १५३

पिण्डिका मुण्डिनी मुण्डा शाकिनी शाङ्करी तथा ।
कर्तरी भर्तरी चैव भागिनी यज्ञदायिनी ॥ १५४

यमदंष्ट्रा महादंष्ट्रा कराला चेति शक्तयः ।
हरायाः कथितो व्यूहः शौण्डव्यूहं शृणुष्व मे ॥ १५५ 

विकराली कराली च कालजङ्घा यशस्विनी।
वेगा वेगवती यज्ञा वेदाङ्गा चाष्टमी स्मृता ।। १५६

प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु।
वज्रा शङ्खातिशङ्खा वा बला चैवाबला तथा ॥ १५७

अञ्जनी मोहिनी माया विकटाङ्गी नली तथा।
गण्डकी दण्डकी घोणा शोणा सत्यवती तथा ।। १५८

कल्लोला चेति क्रमशः षोडशैव यथाविधि।
शौण्डव्यूहः समाख्यातः शौण्डाया व्यूह उच्यते ॥ १५९

हरव्यूहका वर्णन कर दिया गया, अब हराव्यूह बताया जा रहा है। जंभा, अच्युता, कंकारी, देविका, दुर्धरा, वहा, चण्डिका तथा चपला- [ये आठ शक्तियाँ] प्रथम आवरणमें कही गयी हैं। चण्डिका, चामरी, भण्डिका, शुभानना, पिण्डिका, मुण्डिनी, मुण्डा, शाकिनी, शांकरी, कर्तरी, भर्तरी, भागिनी, यज्ञदायिनी, यमदंष्ट्रा, महादंष्ट्रा तथा कराला [ये द्वितीय आवरणकी सोलह] शक्तियाँ हैं। हराव्यूह कह दिया गया, अब शौण्डव्यूह मुझसे सुनिये। विकराली, कराली, कालजंघा, यशस्विनी, वेगा, वेगवती, यज्ञा तथा आठवीं शक्ति वेदांगा बतायी गयी है। प्रथम आवरण बता दिया गया, अब द्वितीय आवरण सुनिये। वज्रा, शंखा, अतिशंखा, बला, अबला, अंजनी, मोहिनी, माया, विकटांगी, नली, गण्डकी, दण्डकी, घोणा, शोणा, सत्यवती तथा कल्लोला-ये क्रमशः सोलह शक्तियों हैं। शौण्डव्यूह कह दिया गया, अब शौण्डाव्यूह कहा जाता है॥ १५२-१५९॥

दन्तुरा रौद्रभागा च अमृता सकुला शुभा।
चलजिह्वार्यनेत्रा च रूपिणी दारिका तथा ॥ १६०

प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु।
खादिका रूपनामा च संहारी च क्षमान्तका ॥ १६१

कण्डिनी पेषिणी चैव महात्रासा कृतान्तिका।
दण्डिनी किङ्करी बिम्बा वर्णिनी चामलाङ्गिनी ॥ १६२

द्रविणी द्राविणी चैव शक्तयः षोडशैव तु।
कथितो हि मनोरम्यः शौण्डाया व्यूह उत्तमः ॥ १६३

दन्तुरा, रौद्रभागा, अमृता, शुभ सकुला, चलजिह्वा, आर्यनेत्रा, रूपिणी तथा दारिका [प्रथम आवरणमें ये आठ शक्तियाँ हैं।] प्रथम आवरण बता दिया गया, अब द्वितीय आवरण सुनिये। खादिका, रूपनामा, संहारी, क्षमा, अन्तका, कण्डिनी, पेषिणी, महात्रासा, कृतान्तिका, दण्डिनी, किंकरी, बिम्बा, वर्णिनी, अमलांगिनी, द्रविणी तथा द्राविणी- ये सोलह शक्तियाँ कहीं गयी हैं। मैंने इस मनौरम उत्तम शौण्डाव्यूहका वर्णन कर दिया॥ १६०-१६३॥

प्रथमाख्यं प्रवक्ष्यामि व्यूहं परमशोभनम् ।
प्लविनी प्लावनी शोभा मन्दा चैव मदोत्कटा ॥ १६४

मन्दाक्षेपा महादेवी प्रथमावरणे स्मृताः।
कामसन्दीपिनी देवी अतिरूपा मनोहरा ॥ १६५

महावशा मदग्राहा विह्वला मदविह्वला।
अरुणा शोषणा दिव्या रेवती भाण्डनायिका ॥ १६६

स्तम्भिनी घोररक्ताक्षी स्मररूपा सुघोषणा।
व्यूहः प्रथम आख्यातः स्वायम्भुव यथा तथा ॥ १६७

कथितं प्रथमाव्यूहं प्रवक्ष्यामि शृणुष्व मे।
घोरा घोरतराघोरा अतिघोराधनायिका ॥ १६८

धावनी क्रोष्टुका मुण्डा चाष्टमी परिकीर्तिता।
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ १६९ 

भीमा भीमतराभीमा शस्ता चैव सुवर्तुला।
स्तम्भिनी रोदनी रौद्रा रुद्रवत्यचलाचला ॥ १७०

महाबला महाशान्तिः शाला शान्ता शिवाशिवा।
बृहत्कक्षा महानासा घोडशैव प्रकीर्तिता ॥ १७१ 

इसके बाद मैं प्रथम नामक परम सुन्दर व्यूहका वर्णन करूँगा। प्लविनी, प्लावनी, शोभा, मन्दा, मदोत्कटा, मन्दा, आक्षेपा तथा महादेवी- ये पहले आवरणकी शक्तियाँ] कही गयी हैं। देवी कामसंदीपनी, अतिरूपा, मनोहरा, महावशा, मदग्राहा, विह्वला, मदविह्वला, अरुणा, शोषणा, दिव्या, रेवती, भाण्डनायिका, स्तम्भिनी, घोररक्ताक्षी, स्मररूपा तथा सुघोषणा [ये दूसरे आवरणकी शक्तियाँ कही गयी हैं।] हे स्वायम्भुव! प्रथम व्यूहका वर्णन कर दिया गया, अब मैं प्रथमा व्यूहका वर्णन करूँगा, उसे मुझसे सुनिये। घोरा, घोरतरा, अघोरा, अतिघोरा, अघनायिका, धावनी, क्रोष्टुका और आठवीं मुण्डा [ये पहले आवरणकी शक्तियाँ] कही गयी हैं। पहला आवरण कह दिया गया, अब दूसरा आवरण सुनिये। भीमा, भीमतरा, अभीमा, उत्तम सुवर्तुला, स्तम्भिनी, रोदनी, रौद्रा, रुद्रवती, अचलाचला, महाबला, महाशान्ति, शाला, शान्ता, शिवाशिवा, बृहत्कक्षा, महानासा [दूसरे आवरणकी] ये सोलह शक्तियाँ कही गयी हैं ॥ १६४-१७१ ॥ 

प्रथमायाः समाख्यातो मन्मथव्यूह उच्यते।
तालकर्णी च बाला च कल्याणी कपिला शिवा ॥ १७२

इष्टिस्तुष्टिः प्रतिज्ञा च प्रथमावरणे स्मृताः ।
ख्यातिः पुष्टिकरी तुष्टिर्जला चैव श्रुतिधृतिः ॥ १७३

कामदा शुभदा सौम्या तेजिनी कामतन्त्रिका।
धर्मा धर्मवशा शीला पापहा धर्मवर्धिनी ॥ १७४

मन्मथः कथितो व्यूहो मन्मथायाः शृणुष्व मे।
धर्मरक्षा विधाना च धर्मा धर्मवती तथा ॥ १७५

सुमतिदुर्मतिर्मेधा विमला चाष्टमी स्मृता।
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ १७६

शुद्धिर्बुद्धिद्युतिः कान्तिर्वर्तुला मोहवर्धिनी ।
बला चातिबला भीमा प्राणवृद्धिकरी तथा ।। १७७

निर्लज्जा निघृणा मन्दा सर्वपापक्षयङ्करी।
कपिला चातिविधुरा षोडशैताः प्रकीर्तिताः ।। १७८ 

प्रथमा व्यूहका वर्णन कर दिया गया, अब मन्मधव्यूह कहा जाता है। तालकर्णी, बाला, कल्याणी, कपिला, शिवा, इष्टि, तुष्टि तथा प्रतिज्ञा-ये पहले आवरणकी शक्तियाँ कही गयी हैं। ख्याति, पुष्टिकरी, तुष्टि, जला, श्रुति, धृति, कामदा, शुभदा, सौम्या, तेजिनी, कामतन्त्रिका, धर्मा, धर्मवशा, शीला, पापहा तथा धर्मवर्धिनी [ये सोलह शक्तियाँ दूसरे आवरणकी हैं।] मन्मथव्यूह कह दिया गया, अब मन्मथाव्यूहको मुझसे सुनिये। धर्मरक्षा, विधाना, धर्मा, धर्मवती, सुमति, दुर्मति, मेधा तथा आठवीं शक्ति विमला कही गयी है। पहला आवरण बता दिया गया, अब दूसरा आवरण सुनिये। शुद्धि, बुद्धि, द्युति, कान्ति, वर्तुला, मोहवधिनी, बला, अतिबला, भीमा, प्राणवृद्धिकरी, निर्लज्जा, निर्धूणा, मन्दा, सर्वपापक्षयंकरी, कपिला तथा अतिविधुरा-ये सोलह [शक्तियाँ] बतायी गयी हैं॥ १७२-१७८ ॥

मन्मथायिक उक्तस्ते भीमव्यूहं वदामि च।
रक्ता चैव विरक्ता च उद्वेगा शोकवर्धिनी ।। १७९

कामा तृष्णा क्षुधा मोहा चाष्टमी परिकीर्तिता।
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ १८०

जया निद्रा भयालस्या जलतृष्णोदरी दरा।
कृष्णा कृष्णाङ्गिनी वृद्धा शुद्धोच्छिष्टाशनी वृषा ॥ १८१

कामना शोभिनी दग्धा दुःखदा सुखदावली।
भीमव्यूहः समाख्यातो भीमायीव्यूह उच्यते ॥ १८२

आनन्दा च सुनन्दा च महानन्दा शुभङ्करी।
वीतरागा महोत्साहा जितरागा मनोरथा ॥ १८३

प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु।
मनोन्मनी मनःक्षोभा मदोन्मत्ता मदाकुला ॥ १८४

मन्दगर्भा महाभासा कामानन्दा सुविह्वला।
महावेगा सुवेगा च महाभोगा क्षयावहा ॥ १८५ 

क्रमिणी क्रामणी वक्रा द्वितीयावरणे स्मृताः ।
कथितं तव भीमायीव्यूहं परमशोभनम् ॥ १८६ 

मैंने आपसे मन्मथाव्यूहका वर्णन कर दिया, अब भीमव्यूह बता रहा हूँ। रक्ता, विरक्ता, उद्वेगा, शोकवर्धिनी, कामा, तृष्णा, क्षुधा तथा आठवीं शक्ति मोहा कही गयी है। यह पहला आवरण कह दिया, अब दूसरा आवरण सुनिये। जया, निद्रा, भया, आलस्या, जलतृष्णोदरी, दरा, कृष्णा, कृष्णांगिनी, वृद्धा, शुद्धोच्छिष्टाशनी, वृषा, कामना, शोभिनी, दग्धा, दुःखदा तथा सुखदावली [ये सोलह शक्तियाँ कही गयी हैं।] भीमव्यूहका वर्णन कर दिया गया, अब भीमायीव्यूह बताया जाता है। आनन्दा, सुनन्दा, महानन्दा, शुभंकरी, वीतरागा, महोत्साहा, जितरागा तथा मनोरथा- [ये आठ शक्तियाँ प्रथम आवरण की हैं।] प्रथम आवरण बता दिया गया, अब द्वितीय आवरण सुनिये। मनोन्मनी, मनःशोभा, मदोन्मत्ता, मदाकुला, मन्दगर्भा, महाभासा, कामा, आनन्दा, सुविह्नला, महावेगा, सुवेगा, महाभोगा, क्षयावहा, क्रमिणी, क्रामिणी तथा वक्रा- ये दूसरे आवरणमें बतायो गयी हैं; मैंने आपसे अत्यन्त सुन्दर भीमायीव्यूहके विषयमें कह दिया ॥ १७९-१८६॥

शाकुनं कथयाम्यद्य स्वायम्भुव मनोत्सुकम् ।
योगा वेगा सुवेगा च अतिवेगा सुवासिनी ॥ १८७

देवी मनोरयावेगा जलावर्ता च धीमती ।
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ १८८

रोधिनी क्षोभिणी बाला विप्राशेषासुशोषिणी।
विद्युता भासिनी देवी मनोवेगा च चापला ॥ १८९

विद्युज्जिह्वा महाजिह्वा भृकुटी कुटिलानना।
फुल्लज्वाला महाज्वाला सुज्वाला च क्षयान्तिका ॥ १९०

शाकुनः कथितो व्यूहः शाकुनायाः शृणुष्व मे।
ज्वालिनी चैव भस्माङ्गी तथा भस्मान्तगा तता ॥ १९१

भाविनी च प्रजा विद्या ख्यातिश्चैवाष्टमी स्मृता ।
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ १९२ 

उल्लेखा च पताका च भोगा भोगवती खगा।
भोगभोगव्रता योगा भोगाख्या योगपारगा ॥ १९३

ऋद्धिर्बुद्धिधृतिः कान्तिः स्मृतिः साक्षाच्छ्रुतिर्धरा।
शाकुनाया महाव्यूहः कथितः कामदायकः ॥ १९४

हे स्वायम्भुव! अब मैं मनोहर शाकुनव्यूह बताता हूँ। योगा, वेगा, सुवेगा, अतिवेगा, देवी सुवासिनी, मनोरयावेगा, जलावर्ता और धीमती [ये प्रथम आवरणकी आठ शक्तियाँ बतायी गयी हैं।] प्रथम आवरण बता दिया गया, अब द्वितीय आवरण सुनिये। रोधिनी, क्षोभिणी, बाला, विप्रा-शेषासुशोषिणी, विद्युता, देवी भासिनी, मनोवेगा, चापला, विद्युज्जिह्वा, महाजिह्वा, भृकुटी, कुटिलानना, फुल्लज्वाला, महाज्वाला, सुज्वाला और क्षयान्तिका; यह शाकुनव्यूह कह दिया गया, अब मुझसे शाकुनाव्यूह सुनिये। ज्वालिनी, भस्मांगी, भस्मांतगा, तता, भाविनी, प्रजा, विद्या तथा आठवीं शक्ति ख्याति बतायी गयी है। पहला आवरण बता दिया गया, अब दूसरा आवरण सुनिये। उल्लेखा, पताका, भोगा, भोगवती, खगा, भोगभोगव्रता, योगा, भोगाख्या, योगपारगा, ऋद्धि, बुद्धि, धृति, कान्ति, स्मृति, श्रुति और धरा [ये सोलह शक्तियाँ कही गयी हैं।] कामनाओंको पूर्ण करनेवाला यह महान् शाकुनाव्यूह कह दिया गया ॥ १८७-१९४ ॥

स्वायम्भुव शृणु व्यूहं सुमत्याख्यं सुशोभनम् ।
परेष्टा च परादृष्टा ह्यमृता फलनाशिनी ॥ १९५

हिरण्याक्षी सुवर्णांक्षी देवी साक्षात्कपिञ्जला।
कामरेखा च कथितं प्रथमावरणं शृणु ॥ १९६

रत्नद्वीपा च सुद्वीपा रत्नदा रत्नमालिनी।
रत्नशोभा सुशोभा च महाशोभा महाद्युतिः ।। १९७

शाम्बरी बन्धुरा ग्रन्थिः पादकर्णा करानना।
हयग्रीवा च जिह्वा च सर्वभासेति शक्तयः ॥ १९८

कथितः सुमतिव्यूहः सुमत्या व्यूह उच्यते।
सर्वांशी च महाभक्षा महादंष्ट्रातिरौरवा ॥ १९९ 

विस्फुलिङ्गा विलिङ्गा च कृतान्ता भास्करानना।
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ २०० 

रागा रङ्गवती श्रेष्ठा महाक्रोधा च रौरवा।
क्रोधनी वसनी चैव कलहा च महाबला ॥ २०१ 

कलन्तिका चतुर्भेदा दुर्गा वै दुर्गमानिनी।
नाली सुनाली सौम्या च इत्येवं कथितं मया ॥ २०२ 

हे स्वायम्भुव। अब सुमति नामक अति सुन्दर व्यूहको सुनिये। [इसके प्रथम आवरणमें ये आठ शक्तियाँ हैं] परेष्टा, परादृष्टा, अमृता, फलनाशिनी, हिरण्याक्षी, सुवर्णाक्षी, देवी कपिंजला तथा कामरेखा। पहला आवरण बता दिया गया, अब दूसरा आवरण सुनिये। रत्नद्वीपा, सुद्वीपा, रत्नदा, रत्नमालिनी, रत्नशोभा, सुशोभा, महाशोभा, महाद्युति, शाम्बरी, बन्धुरा, ग्रन्थि, पादकर्णा, करानना, हयग्रीवा, जिह्वा और सर्वभासा- ये [सोलह] शक्तियाँ हैं। सुमतिव्यूह कह दिया गया, अब सुमत्याव्यूह बताया जाता है। सर्वाशी, महाभक्षा, महादंष्ट्रा, अतिरौरवा, विस्फुलिङ्गा, विलिङ्गा, कृतान्ता तथा भास्करानना [ये पहले आवरणकी आठ शक्तियाँ हैं। प्रथम आवरण बता दिया गया, अब दूसरा आवरण सुनिये। रागा, रंगवती, श्रेष्ठा, महाक्रोधा, रौरवा, क्रोधनी, वसनी, कलहा, महाबला, कलन्तिका, चतुर्भेदा, दुर्गा, दुर्गमानिनी, नाली, सुनाली तथा सौम्या- इस प्रकार मैंने यह [दूसरा आवरण] कह दिया ॥ १९५-२०२ ॥ 

गोपव्यूहं वदाम्यत्र शृणु स्वायम्भुवाखिलम्।
पाटली पाटवी चैव पाटी विटिपिटा तथा ॥ २०३

कङ्कटा सुपटा चैव प्रघटा च घटोद्भवा।
प्रथमावरणं चात्र भाषया कथितं मया ॥ २०४

नादाक्षी नादरूपा च सर्वकारी गमागमा।
अनुचारी सुचारी च चण्डनाडी सुवाहिनी ॥ २०५

सुयोगा च वियोगा च हंसाख्या च विलासिनी।
सर्वगा सुविचारा च वञ्चनी चेति शक्तयः ॥ २०६

गोपव्यूहः समाख्यातो गोपायीव्यूह उच्यते।
भेदिनी च्छेदिनी चैव सर्वकारी क्षुधाशनी ॥ २०७

उच्छुष्मा चैव गान्धारी भस्माशी वडवानला।
प्रथमावरणं चैव द्वितीयावरणं शृणु ॥ २०८

अन्धा बाह्वासिनी बाला दीपाक्षमा तथैव च। 
अक्षा त्र्यक्षा च हृल्लेखा हृद्‌गतामायिकापरा ॥ २०९

आमयासादिनी भिल्ली सह्यासह्या सरस्वती।
रुद्रशक्तिर्महाशक्तिर्महामोहा च गोनदी ॥ २१०

हे स्वायम्भुव । अब मैं गोपव्यूह बता रहा हूँ; आप वह सब सुनिये। पाटली, पाटवी, पाटी, विटिपिटा, कंकटा, सुपटा, प्रघटा तथा घटोद्भवा [प्रथम आवरणमें ये आठ शक्तियाँ हैं]। मैंने पहला आवरण बता दिया। नादाक्षी, नादरूपा, सर्वकारी, गमा, अगमा, अनुचारी, सुचारी, चण्डनाड़ी, सुवाहिनी, सुयोगा, वियोगा, हंसा, विलासिनी, सर्वगा, सुविचारा तथा वंचनी- ये शक्तियाँ [दूसरे आवरणकी] हैं; गोपव्यूह बता दिया गया, अब गोपायीव्यूहका वर्णन किया जाता है। भेदिनी, छेदिनी, सर्वकारी, क्षुधाशनी, उच्छुष्मा, गान्धारी, भस्माशी तथा वड़वानल [ये पहले आवरणकी आठ शक्तियाँ हैं। प्रथम आवरण बता दिया गया, अब द्वितीय आवरण सुनिये। अन्धा, बाह्वासिनी, बाला, दीपाक्षमा, अक्षा, त्र्यक्षा, हुल्लेखा, हृद्‌गतामायिकापरा, आमयासादिनी, भिल्ली, सह्यासह्या, सरस्वती, रुद्रशक्ति, महाशक्ति, महामोहा और गौनदी ॥ २०३-२१० ॥

गोपायी कथितो व्यूहो नन्दव्यूहं वदामि ते। 
नन्दिनी च निवृत्तिश्च प्रतिष्ठा च यथाक्रमम् ॥ २११

विद्या नासा खग्रसिनी चामुण्डा प्रियदर्शिनी।
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ २१२

गृह्या नारायणी मोहा प्रजा देवी च चक्रिणी।
कङ्कटा च तथा काली शिवाद्योषा ततः परम् ॥ २१३

विरामा या च वागीशी वाहिनी भीषणी तथा।
सुगमा चैव निर्दिष्टा द्वितीयावरणे स्मृता ॥ २१४ 

नन्दव्यूहो मया ख्यातो नन्दाया व्यूह उच्यते।
विनायकी पूर्णिमा च रङ्कारी कुण्डली तथा ॥ २१५ 

इच्छा कपालिनी चैव द्वीपिनी च जयन्तिका। 
प्रथमावरणे चाष्टौ शक्तयः परिकीर्तिताः ॥ २१६

प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु। 
पावनी चाम्बिका चैव सर्वात्मा पूतना तथा ।। २१७ 

छगली मोदिनी साक्षादेवी लम्बोदरी तथा।
संहारी कालिनी चैव कुसुमा च यथाक्रमम् ।। २१८ 

शुक्रा तारा तथा ज्ञाना क्रिया गायत्रिका तथा।
सावित्री चेति विधिना द्वितीयावरणं स्मृतम् ॥ २१९

गोपायीव्यूहकै विषयमें बता दिया, अब आपको नन्दव्यूह बता रहा हूँ। नन्दिनी, निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या, नासा, खग्रसिनी, चामुण्डा तथा प्रियदर्शिनी [ये पहले आवरणकी शक्तियाँ हैं। पहला आवरण कह दिया गया, अब दूसरा आवरण सुनिये। गृह्या, नारायणी, मोहा, प्रजादेवी, चक्रिणी, कंकटा, काली, शिवा, आद्या, उषा, विरामा, वागीशी, वाहिनी, भीषणी, सुगमा तथा निर्दिष्टा- ये [सोलह शक्तियाँ] दूसरे आवरणमें कही गयी हैं। मैंने नन्दव्यूह बता दिया, अब नन्दाव्यूह बताता हूँ। विनायकी, पूर्णिमा, रंकारी, कुण्डली, इच्छा, कपालिनी, द्वीपिनी तथा जयन्तिका- ये आठ शक्तियाँ प्रथम आवरणर्ने बतायी गयी हैं। पहला आवरण बता दिया गया, अब दूसरा आवरण सुनिये। पावनी, अम्बिका, सर्वात्मा, पूतना, छगली, मोदिनी, देवी लम्बोदरी, संहारी, कालिनों, कुसुमा, शुक्रा, तारा, ज्ञाना, क्रिया, गायत्री तथा सावित्री- ये क्रमसे [सोलह देवियाँ] हैं। इसे [नन्दाव्यूहका] द्वितीय आवरण कहा गया है॥ २११-२१९॥

नन्दायाः कथितो व्यूहः पैतामहमतः परम्।
नन्दिनी चैव फेत्कारी क्रोधा हंसा षडङ्गुला ॥ २२०

आनन्दा वसुदुर्गा च संहारा ह्यमृताष्टमी।
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शृणु ॥ २२१

कुलान्तिकानला चैव प्रचण्डा मर्दिनी तथा। 
सर्वभूताभया चैव दया च वडवामुखी ॥ २२२

लम्पटा पन्नगा देवी कुसुमा विपुलान्तका।
केदारा च तथा कूर्मा दुरिता मन्दरोदरी ॥ २२३

खड्ङ्गचक्रेति विधिना द्वितीयावरणं स्मृतम् ।
व्यूहः पैतामहः प्रोक्तो धर्मकामार्थमुक्तिदः ॥ २२४

पितामहाया व्यूहं च कथयामि शृणुष्व मे। 
वज्रा च नन्दना शावा राविका रिपुभेदिनी ॥ २२५ 

रूपा चतुर्था योगा च प्रथमावरणे स्मृताः ।
भूतानादा महाबाला खर्परा च तथापरा ॥ २२६

भस्मा कान्ता तथा वृष्टिर्द्विभुजा ब्रह्मरूपिणी। 
सैह्या वैकारिका जाता कर्ममोटी तथापरा ॥ २२७

महामोहा महामाया गान्धारी पुष्पमालिनी। 
शब्दापी च महाघोषा षोडशैव तथान्तिये ॥ २२८

नन्दाव्यूह कह दिया, अब इसके बाद पैतामहव्यूह बताता हूँ। नन्दिनी, फेत्कारी, क्रोधा, हंसा, षडंगुला, आनन्दा, वसुदुर्गा तथा संहारामृता आठवीं शक्ति बतायी गयी है। यह प्रथम आवरण कह दिया गया, अब दूसरा आवरण सुनिये। कुलान्तिका, अनला, प्रचण्डा, मर्दिनी, सर्वभूताभया, दया, वड़वामुखी, लम्पटा, पन्नगा देवी, कुसुमा, विपुलान्तका, केदारा, कूर्मा, दुरिता, मन्दरोदरी, खड्गचक्रा-यह द्वितीय आवरण सम्यक् रूपसे कहा गया है। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले पैतामहव्यूहका वर्णन कर दिया, अब मैं पितामहाव्यूह बता रहा हूँ। इसे मुझसे सुनिये। वज्रा, नन्दना, शावा, राविका, रिपुभेदिनी, रूपा, चतुर्था तथा योगा ये शक्तियाँ प्रथम आवरणमें बतायी गयी हैं। भूतानादा,महाबाला, खर्पय, भस्मा, कान्ता, वृष्टि, द्विभुजा ब्रह्मरूपिणी, सैह्या, वैकारिका, जाता, कर्ममोटी, महामोहा, महामाया, पुष्पमाला धारण करनेवाली गान्धारी, शब्दापी, महाघोषा- ये सोलह शक्तियाँ दूसरे आवरणमें बतायी गयी हैं॥ २२०-२२८॥

सर्वाश्च द्विभुजा देव्यो बालभास्करसन्निभाः। 
पद्मशङ्खधराः शान्ता रक्तस्त्रग्वस्त्रभूषणाः ॥ २२९

सर्वाभरणसम्पूर्णा मुकुटाद्यैरलङ्कृताः ।
मुक्ताफलमयैर्दिव्यै रत्नचित्रैर्मनोरमैः ।। २३०

विभूषिता गौरवर्णा ध्येया देव्यः पृथक्पृथक् ।
एवं सहस्त्रकलशं ताम्रजं मृन्मयं तु वा ॥ २३१

पूर्वोक्तलक्षणैर्युक्तं रुद्रक्षेत्रे प्रतिष्ठितम्।
भवाद्यैर्विष्णुना प्रोक्तैर्नाम्नां चैव सहस्त्रकैः ॥ २३२

सम्पूज्य विन्यसेदग्रे सेचयेद्वाणविग्रहम् ।
अभिषिच्य च विज्ञाप्य सेचयेत्पृथिवीपतिम् ॥ २३३

एवं सहस्त्रकलशं सर्वसिद्धिफलप्रदम् ।
चत्वारिंशन्महाव्यूहं सर्वलक्षणलक्षितम् ॥ २३४

ये सभी देवियाँ दो भुजाओंसे युक्त, बालसूर्यक समान प्रभावाली, [हाथोंमें] कमल तथा शंख धारण करनेवाली, शान्तस्वभाव, रक्तवर्णकी माला तथा वस्त्रसे विभूषित, समस्त आभूषणोंसे परिपूर्ण, मोतियोंसे जटित दिव्य मुकुट आदिसे अलंकृत, भाँति-भौतिके अद्भुत तथा मनोरम रत्नोंसे विभूषित और गौरवर्णवाली हैं। इन देवियोंका पृथक् पृथक् ध्यान करना चाहिये इस प्रकार ताँबे अथवा मिट्टीके बने तथा पूर्वकथित लक्षणोंसे युक्त हजार कलशोंको रुद्रक्षेत्रमें प्रतिष्ठित करे। विष्णुके द्वारा कहे हुए 'भव' आदि हजार नामोंसे [प्रत्येक कलशमें] पूजन करके सम्मुख बाणविग्रह (बाणलिङ्ग) स्थापित करके अभिषेक करना चाहिये। अभिषेक-प्रार्थना करके पृथ्वीपतिका अभिषेचन करना चाहिये। इस प्रकार चालीस महाव्यूहोंवाला तथा सभी लक्षणोंसे सम्पन्न यह हजार कलशोंसे अभिषेचन सभी सिद्धियोंको देनेवाला है॥ २२९-२३४॥ 

सर्वेषां कलशं प्रोक्तं पूर्ववद्धेमनिर्मितम् । 
सर्वे गन्धाम्बुसम्पूर्णपञ्चरत्नसमन्विताः ॥ २३५

तथा कनकसंयुक्ता देवस्य घृतपूरिताः । 
क्षीरेण वाथ दघ्ना वा पञ्चगव्येन वा पुनः ।। २३६

ब्रह्मकूर्चेन वा मध्यमभिषेको विधीयते। 
रुद्राध्यायेन रुद्रस्य नृपतेः शृणु सत्तम ॥ २३७

अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः । 
सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ।। २३८

मन्त्रेणानेन राजानं सेचयेदभिषेचितम् । 
होमं च मन्त्रेणानेन अघोरेणाघहारिणा ॥ २३९

प्रागाद्यं देवकुण्डे वा स्थण्डिले वा घृतादिभिः ।
समिदाज्यचरुं लाजशालिनीवारतण्डुलैः ॥ २४०

अष्टोत्तरशतं हुत्वा राजानमधिवासयेत्।
पुण्याहं स्वस्ति रुद्राय कौतुकं हेमनिर्मितम् ॥ २४१

भसितं च मृणालेन बन्धयेद्दक्षिणे करे।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ॥ २४२

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।
मन्त्रेणानेन राजानं सेचयेद्वाथ होमयेत् ॥ २४३

सभी कलशोंके मध्यमें पूर्वोक्त प्रमाणका स्वर्णनिर्मित कलश बताया गया है। सभी कलश सुगन्धित जलसे परिपूर्ण तथा पंचरत्नोंसे समन्वित होने चाहिये। रुद्रदेवके कलश स्वर्णयुक्त तथा घृतपूरित होने चाहिये। गायके दूध, दही, पंचगव्य अथवा ब्रह्मकूर्चसे रुद्रका मध्य- अभिषेक किया जाता है। हे सत्तम। रुद्रका अभिषेक रुद्राध्यायसे किया जाता है; अब राजाके अभिषेकके विषयमें सुनिये। 'अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः । सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥'- इस मन्त्रके द्वारा मूर्धाभिषिक्त राजाका अभिसेचन करना चाहिये और इसी पापनाशक अघोर मन्त्रसे होम भी करना चाहिये देवकुण्डमें अथवा स्थण्डिलमें घृतसे सिक्त लाजा, शालि, नीवार तथा तण्डुलसहित समिधा और चरुकी एक सौ आठ आहुति देकर पूर्वाभिमुख राजाका अधिवासन करना चाहिये। तदनन्तर रुद्रके लिये पुण्याहवाचन तथा स्वस्तिवाचन करके भस्म तथा मृणालसहित स्वर्णनिर्मित कंकण राजाके दाहिने हाथमें बाँधना चाहिये। इसके बाद 'त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुक- मिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।'- इस मन्त्रसे राजाका अभिषेक करना चाहिये और इसके बाद हवन करना चाहिये ॥ २३५-२४३ ॥

सर्वद्रव्याभिषेकं च होमद्रव्यैर्यथाक्रमम् ।
प्रागाद्यं ब्रह्मभिः प्रोक्तं सर्वद्रव्यैर्यथाक्रमम् ॥ २४४

तत्पुरुषाय विद्यहे महादेवाय धीमहि।
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ।। २४५

स्वाहान्तं पुरुषेणैवं प्राक्कुण्डं होमयेद्विजः । 
अघोरेण च याम्ये च होमयेत्कृष्णवाससा ॥ २४६

वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः।
इत्याद्युक्तक्रमेणैव जुहुयात्पश्चिमे नरः ॥ २४७

सद्येन पश्चिमे होमः सर्वद्रव्यैर्यथाक्रमम् । 
सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमः ॥ २४८

भवे भवेनाति भवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः । 
स्वाहान्तं जुहुयादग्नौ मन्त्रेणानेन बुद्धिमान् ॥ २४९

 क्रमानुसार लाजा आदि होमद्रव्योंसे सर्वद्रव्याभिषेक करना चाहिये। प्राक् आदिके क्रमसे पंचब्रह्म मन्त्रोंके द्वारा सभी द्रव्योंसे हवन करना बताया गया है। 'तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्'- इस तत्पुरुषमन्त्रके अन्तमें स्वाहा जोड़कर द्विजको पूर्व दिशाके कुण्डमें हवन करना चाहिये। कृष्णवस्त्रधारी आचार्यको अघोरमन्त्रसे दक्षिण दिशामें हवन करना चाहिये। इसी प्रकार मनुष्यको चाहिये कि 'वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः' इस मन्त्रसे उक्त क्रमके अनुसार पश्चिम कुण्डमें हवन करे। यथाक्रम सद्योजात मन्त्रसे समस्त द्रव्योंसे उसके पार्श्ववर्ती उत्तर दिशामें होम किया जाना चाहिये; 'सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमः। भवे भवेनाति भवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः स्वाहा'- इस मन्त्रके द्वारा बुद्धिमान्‌को अग्निमें आहुति डालनी चाहिये ॥ २४४- २४९ ॥

आग्नेय्यां च विधानेन ऋचा रौद्रेण होमयेत्। 
जातवेदसे सुनवाम सोममित्यादिना ततः ।
नैर्ऋते पूर्ववद्रव्यैः सर्वैर्होमो विधीयते ॥ २५०

मन्त्रेणानेन दिव्येन सर्वसिद्धिकरेण च।
निमि निशि दिश स्वाहा खड्ग राक्षसभेदन ॥ २५१

रुधिराज्यार्द्र नैऋत्यै स्वाहा नमः स्वधा नमः । 
यथेष्टं विधिना द्रव्यैर्मन्त्रेणानेन होमयेत् ॥ २५२

यम्यां हि विविधैर्द्रव्यैरीशानेन द्विजोत्तमाः ।
ईशान्यामथ पूर्वोक्तैर्द्रव्यैहाँ ममथाचरेत् ।। २५३

ईशानाय कद्रुद्राय प्रचेतसे त्र्यम्बकाय।
शर्वाय तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ २५४

प्रधानं पूर्ववद्रव्यैरीशानेन द्विजोत्तमाः। 
प्रतिद्रव्यं सहस्त्रेण जुहुयान्नृपसन्निधौ ।। २५५

स्वयं वा जुहुयादग्नौ भूपतिः शिववत्सलः । 
ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां 
ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम् ॥ २५६

तदनन्तर 'यो रुद्रो यो अग्नी०' इस मन्त्रके साथ 'जातवेदसे सुनवाम सोमम्०' इत्यादि मन्त्रके द्वारा विधानपूर्वक अग्निकोणके कुण्डमें हवन करे। इसके बाद 'निमि निशि दिश स्वाहा खड्ग राक्षस- भेदन रुधिराज्यार्द्र नैर्ऋत्यै स्वाहा नमः स्वधा नमः'- इस सर्वसिद्धिकारक दिव्य मन्त्रके द्वारा नैऋत्यकोणमें पूर्वकी भाँति सभी द्रव्योंसे होम किया जाता है। हैहे द्विजश्रेष्ठो । वायव्यकोणके कुण्डमें ईशानमन्त्रद्वारा विविध द्रव्योंसे हवन करे, हवनका मन्त्र है- 'ईशानाय कडुद्राय प्रचेतसे त्र्यम्बकाय शर्वाय तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्।' इसी प्रकार ईशानकोणके कुण्डमें भी ईशानमन्त्रके ही द्वारा पूर्वकथित द्रव्योंसे हवन करना चाहिये। हे द्विजश्रेष्ठो। प्रधान कुण्डमें भी ईशानमन्त्रके द्वारा पूर्ववत् सभी द्रव्योंसे हवन करना चाहिये। [आचार्यको] प्रत्येक कुण्डमें एक-एक हजार आहुति राजाकी सन्निधिमें प्रदान करनी चाहिये; अथवा 'ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः शिवो मे सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा अस्तु सदा शिवोम्'- इस मन्त्रसे शिवभक्तिपरायण राजा अग्निमें स्वयं आहुति प्रदान करे ॥ २५०-२५६ ॥

प्रायश्चित्तमघोरेण शेषं सामान्यमाचरेत्। 
कृताधिवासं राजानं शङ्खभेर्यादिनिस्वनैः ॥ २५७

जयशब्दरवैर्दिव्यैर्वेदघोषैः सुशोभनैः । 
सेचयेत्कूर्चतोयेन प्रोक्षयेद्वा नृपोत्तमम् ॥ २५८

रुद्राध्यायेन विधिना रुद्रभस्माङ्गधारिणम्। 
शङ्खचामरभेर्याद्यं छत्रं चन्द्रसमप्रभम् ॥ २५९

शिबिकां वैजयन्तीं च साधयेन्नृपतेः शुभाम् । 
राज्याभिषेकयुक्ताय क्षत्रियायेश्वराय वा ॥ २६०

नृपचिह्नानि नान्येषां क्षत्रियाणां विधीयते। 
प्रमाणं चैव सर्वेषां द्वादशाङ्गुलमुच्यते ।। २६१

पलाशोदुम्बराश्वत्थवटाः पूर्वादितः क्रमात् । 
तोरणाद्यानि वै तत्र पट्टमात्रेण पट्टिकाः ॥ २६२

अष्टमाङ्गुलसंयुक्तदर्भमालासमावृतम्। 
दिग्ध्वजाष्टकसंयुक्तं द्वारकुम्भैः सुशोभनम् ॥ २६३

हेमतोरणकुम्भैश्च भूषितं स्नापयेन्नृपम्। 
सर्वोपरि समासीनं शिवकुम्भेन सेचयेत् ॥ २६४

तन्महेशाय विद्महे वाग्विशुद्धाय धीमहि। 
तन्नः प्रचोदयात् ॥ २६५

शिवः मन्त्रेणानेन विधिना वर्धन्या गौरिगीतया। 
रुद्राध्यायेन वा सर्वमघोरायाथ वा पुनः ॥ २६६

प्रायश्चित्त अघोरमन्त्रसे करना चाहिये तथा अवशिष्ट कर्म अन्य यागके समान करना चाहिये। शंख-भेरी आदिकी ध्वनि, जयकारकी ध्वनि तथा मंगलमय दिव्य वेद-ध्वनिके बीच रुद्राध्यायका पाठ करके अधिवासित राजाका कूर्च-जलसे अभिषेक करना चाहिये अथवा रुद्राक्ष एवं भस्म धारण किये हुए नृपश्रेष्ठका प्रोक्षण करना चाहिये। तत्पश्चात् आचार्यको चाहिये कि राजाके लिये शंख, चामर, भेरी, चन्द्रमाके समान कान्तिमान् छत्र, पालको, शुभ ध्वजा आदि साधन प्रस्तुत करे। राज्याभिषेकके योग्य क्षत्रियके लिये अथवा देवताके लिये ही ये सब राजचिह्न हैं; अन्य क्षत्रियोंके लिये अभिषेकका विधान नहीं है। पूर्वादि क्रमसे [चारों दिशाओंमें] पलाश, गूलर, पीपल और बरगदकी शाखाएँ बाँधनी चाहिये और [अभिषेक-मण्डपमें] तोरण आदि तथा रेशमके वस्त्रकी पट्टिका लगा देनी चाहिये। इसमें पलाश आदि सभीकी शाखाओंका प्रमाण बारह अंगुल बताया गया है। अभिषेक-मण्डपको आठ-आठ अंगुल प्रमाणवाले दाँकी मालासे समावृत, आठों दिशाओंमें ध्वजासे अलंकृत, द्वारकुम्भोंसे सुशोभित तथा सुवर्णके तोरणमय कलशोंसे विभूषित करके राजाको स्नान कराना चाहिये। 'तन्महेशाय विद्यहे वाग्विशुद्धाय धीमहि। तन्नः शिवः प्रचोदयात् ॥'- इस मन्त्रके द्वारा शिवकुम्भके जलसे, गौरीगायत्री मन्त्रके द्वारा वर्धनीके जलसे और रुद्राध्याय अथवा अघोरमन्त्रके द्वारा सभी कुम्भोंके जलसे सर्वोच्च आसनपर विराजमान राजाका अभिषेक करना चाहिये ॥ २५७-२६६ ॥ 

दिव्यैराभरणैः शुक्लैर्मुकुटाद्यैः सुकल्पितैः । 
क्षौमवस्त्रैश्च राजानं तोषयेन्नियतं शनैः ॥ २६७

अष्टषष्टिपलेनैव हेम्ना कृत्वा सुदर्शनम् । 
नवरलैरलङ्कृत्य दद्याद्वै दक्षिणां गुरोः ॥ २६८

दशधेनु सवस्त्रं च दद्यात्क्षेत्रं सुशोभनम् । 
शतद्रोणतिलं चैव शतद्रोणांश्च तण्डुलान् ॥ २६९

शयनं वाहनं शय्यां सोपधानां प्रदापयेत्। 
योगिनां चैव सर्वेषां त्रिंशत्पलमुदाहृतम् ॥ २७०

अशेषांश्च तदर्धेन शिवभक्तांस्तदर्धतः । 
महापूजां ततः कुर्यान्महादेवस्य वै नृपः ॥ २७१

तदनन्तर उत्तम प्रकारसे निर्मित किये गये उज्ज्वल मुकुट आदि दिव्य आभूषणों तथा रेशमी वस्त्रोंसे राजाको विभूषित करना चाहिये। राजाको चाहिये कि [इस अवसरपर] अड़सठ पल प्रमाणका एक सुदर्शन चक्र बनवाकर उसे नौ रत्नोंसे जटित कराकर गुरुको दक्षिणा प्रदान करे, साथ ही वस्त्रसहित दस गायें तथा उत्तम भूमि प्रदान करे। सौ द्रोण तिल, सौ द्रोण चावल, वाहन, विस्तर तथा तकियासहित शय्या भी [गुरुको] प्रदान करना चाहिये। योगियोंके लिये सुवर्णके तीस पलका दान बताया गया है और अन्य सामग्रियाँ आधी देनी चाहिये तथा शिवभक्तोंको उससे भी आधी प्रदान करनी चाहिये। तदनन्तर राजाको महादेवकी महापूजा करनी चाहिये ॥ २६७-२७१ ॥

एवं समासतः प्रोक्तं जयसेचनमुत्तमम्। 
एवं पुराभिषिक्तस्तु शक्रः शक्रत्वमागतः ॥ २७२

ब्रह्मा ब्रह्मत्वमापन्नो विष्णुर्विष्णुत्वमागतः । 
अम्बिका चाम्बिकात्वं च सौभाग्यमतुलं तथा ।। २७३

सावित्री च तथा लक्ष्मीर्देवी कात्यायनी तथा। 
नन्दिनाथ पुरा मृत्यू रुद्राध्यायेन वै जितः ॥ २७४

अभिषिक्तोऽसुरः पूर्व तारकाख्यो महाबलः । 
विद्युन्माली हिरण्याक्षो विष्णुना वै विनिर्जितः ।। २७५

नृसिंहेन पुरा दैत्यो हिरण्यकशिपुर्हतः । 
स्कन्देन तारकाद्याश्च कौशिक्या च पुराम्बया ॥ २७६

सुन्दोपसुन्दतनयौ जितौ दैत्येन्द्रपूजितौ। 
वसुदेवसुदेवौ तु निहतौ कृतकृत्यया ॥ २७७

स्नानयोगेन विधिना ब्रह्मणा निर्मितेन तु। 
दैवासुरे दितिसुता जिता देवैरनिन्दिताः ॥ २७८

स्नाप्यैव सर्वभूपैश्च तथान्यैरपि भूसुरैः। 
प्राप्ताश्च सिद्धयो दिव्या नात्र कार्या विचारणा ॥ २७९

इस प्रकार मैंने उत्तम जयाभिषेकका वर्णन संक्षेपमें कर दिया। पूर्वकालमें इसी प्रकारसे अभिषिक्त होकर इन्द्रने इन्द्रत्व प्राप्त किया था। इसी प्रकार ब्रह्माको ब्रह्मत्व, विष्णुको विष्णुत्व तथा अम्बिकाको अम्बिकात्व प्राप्त हुआ था। सावित्री, भगवती लक्ष्मी तथा कात्यायनीने भी [इसी अभिषेकके प्रभावसे] अतुल सौभाग्य प्राप्त किया था। पूर्व कालमें रुद्राध्यायसे अभिषिक्त होकर नन्दीने मृत्युको भी जीत लिया था। इसी अभिषेकके प्रभावसे महाबली असुर तारक तथा विद्युन्माली देवताओंसे अजेय हो गये थे और भगवान् विष्णुने हिरण्याक्षको पराजित किया था। इसी प्रकार इसी स्नानयोगसे प्राचीनकालमें नृसिंहने दैत्य हिरण्यकशिपुका वध किया था, कार्तिकेयने तारक आदिका संहार किया था, अम्बा कौशिकीने बड़े-बड़े दैत्योंके द्वारा पूजित सुन्द-उपसुन्दके पुत्रोंको जीत लिया था और कृतकृत्याने वसुदेव तथा सुदेवका वध किया था। विधिपूर्वक ब्रह्माके द्वारा निर्मित इसी स्नानयोग (जयाभिषेक) से देवासुर- संग्राममें देवताओंने प्रतापी दितिपुत्रोंको जीता था। सभी राजा तथा अन्य ब्राह्मणोंने भी अभिषिक्त होकर अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त कर ली थीं; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ २७२-२७९ ॥

अहोऽभिषेकमाहात्म्यमहो शुद्धसुभाषितम्।
येनैवमभिषिक्तेन सिद्धैर्मृत्युर्जितस्त्विति ॥ २८०

कल्पकोटिशतेनापि यत्पापं समुपार्जितम्।
स्नात्यैवं मुच्यते राजा सर्वपापैर्न संशयः ॥ २८१

व्याधितो मुच्यते राजा क्षयकुष्ठादिभिः पुनः ।
स नित्यं विजयी भूत्वा पुत्रपौत्रादिभिर्युतः ॥ २८२

जनानुरागसम्पन्नो देवराज इवापरः ।
मोदते पापहीनश्च प्रियया धर्मनिष्ठया ॥ २८३

उद्देशमात्रं कथितं फलं परमशोभनम् ।
नृपाणामुपकाराय स्वायम्भुव मनो मया ॥ २८४

इस अभिषेकका ऐसा माहात्म्य ! यह कैसा पवित्र सुभाषित है कि जिसके द्वारा अभिषिक्त होनेके कारण सिद्धिको प्राप्त हुए लोगोंने मृत्युतकको जीत लिया। इस विधिसे स्नान करके कोई राजा करोड़ों कल्पोंमें भी जो पाप संचित किया गया हो, उन सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है। क्षय कुष्ठ आदि व्याधियोंसे राजा छुटकारा पा जाता है, वह विजयी होकर सदा पुत्र-पौत्र आदिसे सम्पन्न रहता है, प्रजाजनोंके अनुरागसे युक्त रहता है, दूसरे इन्द्रकी भाँति सुशोभित होता है तथा पापहीन रहते हुए अपनी धर्मनिष्ठ पत्नीके साथ आनन्द प्राप्त करता है। हे स्वायम्भुव मनु ! राजाओंके उपकारके लिये ही मैंने संक्षेपमें [जयाभिषेकका] वर्णन किया है, इसका फल अत्यन्त कल्याणकारक है॥ २८०-२८४॥ 

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे अभिषेकविधिनांम सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'अभिषेकविधि' नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २७ ॥

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